Sunday, February 28, 2010
राजनीति करें कर्मयोगी बनकर, संत बनकर नहीं !
क्या श्रीकृष्ण के इन शब्दों पर किसी शोध की आवश्यकता है? द्वापर युग में श्रीकृष्ण द्वारा कही गईं ये बातें आज कलियुग में भी सटीक बैठती है। यह तो बिल्कुल सच है कि राजनीति करना संतों का काम नहीं है। संत अथवा संत प्रवृति के जिन लोगों ने भी राजनीति में प्रवेश किया, वे विफल रहे। चूंकि राजनीति का वर्तमान दौर युवा नेतृत्व का आग्रही है, अतीत पर से पर्दा उठाना जरूरी है। संत और कर्मयोग के बीच के फर्क को समझना होगा। स्वतंत्रता - प्राप्ति के समय के चार व्यक्तियों को यहां उधृत कर इस फर्क को समझाने की कोशिश की जाए। पं. जवाहरलाल नेहरू, डा. राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्मरण करें। डा. राजेंद्र प्रसाद संत प्रवृति के थे। उन्हें सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर बिठा सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण कर्मयोगी तो थे, किंतु उन्होंने स्वेच्छा से सत्ता की राजनीति से स्वयं को अलग कर लिया। नेहरू और पटेल सत्ताशीर्ष पर आसीन हुए। पटेल में संत के गुण थे, दु:खों का बोझ ले, दुनियां से विदा हो गए। नेहरू जमे रहे। उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में स्थापित किया गया। जब - जब उन्होंने संत - आचरण अपनाने की कोशिश की, धोखा खाया। शांति दूत के रूप में संत बन आकाश में सफेद कबूतर उड़ाने वाले नेहरू विश्वसघात का शिकार बने, लेकिन देश ने उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में ही मान्यता दे दी। फिर ऐसा क्यों कि देश की वर्तमान लगभग सभी जटिल समस्याओं के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है। चाहे मामला कश्मीर हो, भारतीय भूमि पर चीनी कब्जे का हो, उत्तर - पूर्वी क्षेत्रों में अशांति का हो, या फिर मामला अतिसंवेदशील सांप्रदायिकता का हो, नेहरू को दोषी ठहराया जाता है। क्यों? इसकी गूढ़ता में जाएंगे, तब अनेक अरूचिकर जवाब सतह के उपर आ जाएंगे। और चूंकि सत्ता पर काबिज राजनीतिकों की पंक्ति में बहुमत अकर्मण्यता का है वे ऐसे जवाबों को उभरने नहीं देंगे। इन्होंने तो प्रचार तंत्र पर कब्जा कर स्वयं को कर्मयोगी घोषित करवा डाला है। बहुरूपिए हैं ये। शाब्दिक अर्थ में नहीं व्यवहार और कर्म की कसौटी पर अज्ञानी हैं ये। ज्ञान का वास्तविक संवर्धन इनके लिए अपाच्य है। युवा पीढ़ी सावधान हो जाए। अगर सचमुच यह वर्ग देश हित में सत्ता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है तब वह सच्चा कर्मयोगी बने। स्थिर चित्त और प्रज्ञा हासिल कर अनुकरणीय उदाहरण पेश करे। विरोध तो होगा किंतु अंतत: अनुसरण कर्ताओं की लंबी पंक्ति उन्हें लक्ष्य पर पहुंचा देंगे। बिक चुके प्रचार - तंत्र की चिल्ल- पों की परवाह वह न करें। उन पर तो स्वार्थ - लालच हावी हो चुका है। वे देशहित की नहीं बल्कि स्वहित की सोचने लगे हैं। भारत जैसे विशाल देश में पक्ष और विपक्ष की राजनीति करना आसान नहीं है। नेहरू का अनुसरण एक सीमा तक ही हो। देश हित में उनकी स्वच्छ नीयत तो अपनाना ठीक होगा, किंतु संसदीय लोकतंत्र में निर्णायक मतदाता को जातीय, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय आधार पर बांटना कतई हितकर नहीं होगा। अनजाने में ही सही नेहरू ऐसे बीज के रोपक बन गए थे। फिर उनका अनुसरण कैसे हो सकता है? लोकतंत्र की सफलता और उसकी मजबूती की पहली शर्त है राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद। इसे कर्म मानकर आगे बढऩे वाले पग ही लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। फिर अगर वरण करना ही है तो राष्ट्रीयता का करें, राष्ट्रवाद का करें न कि सांप्रदायिकता या छद्म धर्मनिरपेक्षता का।
समाजवाद पर हावी पूंजीवाद
निष्पक्ष विश्लेषक चकित हैं कि आखिर केंद्र सरकार संविधान के घोष वाक्य में शामिल समाजवाद की तिलांजलि पर क्यों उतारु है? भारत निर्माताओं ने देश के विकास के लिए समाजवाद का पद चुना था, न कि पूंजीवाद का !
Friday, February 26, 2010
यह कैसी पाकिस्तानी घुड़की!
दोनों देशों के बीच सचिव स्तर पर बातचीत के तत्काल बाद आई पाकिस्तान की ऐसी प्रतिक्रिया गंभीर है। भारत पर आतंकवादी हमलों का मास्टर माइंड हाफिज सईद को सौंपने की मांग भारत करता आया है। भारत ने उसके खिलाफ और दो डॉजियर भी सौंपे, लेकिन पाकिस्तान के विदेश सचिव ने इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कह डाला कि हाफिज सईद पर हमें जो कुछ दिया गया है, वह डॉजियर नहीं बल्कि साहित्य का नमूना मात्र है। क्या यह पाकिस्तान की असली नीयत को रेखांकित नहीं करता? साफ है कि पाकिस्तान किन्हीं गुप्त कारणों से भारत से बातचीत का नाटक रचते हुए समय खरीद रहा है-अमेरिका की मिली भगत से। भारतीय विदेश सचिव अनुपमा राव के साथ बातचीत के दौरान एजेंडा को कश्मीर केंद्रित कर पाकिस्तान ने अपनी कुटिल मंशा का इजहार कर दिया है। बातचीत के पूर्व बशीर ने कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी नेताओं से बातचीत भी की थी। बशीर की यह टिप्पणी भी पाकिस्तानी कुटिलता को चिन्हित करती है कि 'कश्मीर में हो रहे मानवधिकार उल्लंघन से पाकिस्तान चिंतित है।' यही कहीं पाकिस्तानी विदेश सचिव यह ऐलान करने से भी नहीं चूके कि पाकिस्तान कश्मीर में चल रहे संघर्ष को राजनीतिक, कूटनीतिक और नैतिक समर्थन देता रहेगा। क्या इन्हीं सब बातों का ऐलान करवाने के लिए भारत ने पाकिस्तान को बातचीत के लिए आमंत्रित किया था? कश्मीर मुद्दे पर कोई भी समझौता न करने की बार-बार घोषणा करने वाली भारत सरकार को अपने देशवासियों को यह बताना पड़ेगा कि सचिव स्तर की बातचीत में ऐसी क्या चर्चा हुई कि पाक सचिव उत्साहित व आक्रमक नजर आए? शिष्टाचार की मर्यादा तोड़ते हुए पाक सचिव ने भारत को उसकी औकात बताने की कोशिश कैसे की? लेक्चर न देने की चेतावनी और मुंबई हमले का अवमूल्यन कर पाकिस्तान ने भारत को उकसाने की कोशिश की है। क्या हमारे प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार तटस्थ बने रहेंगे? मुझे भय है कि शायद ऐसा ही हो। देशवासियों को भ्रमित करने के लिए कुछ भाषण होंगे, इससे अधिक कुछ नहीं। भारत सरकार और सत्तापक्ष का इतिहास भी इसी बात की चुगली कर रहा है। मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमले के बाद भारतीय संसद ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया था कि 'जब तक आतंकी हमले की योजना बनाने और उसमें मदद करने वाले तत्वों को सजा नहीं मिल जाती तब तक भारत सरकार खामोश नहीं बैठेगी।' पाकिस्तान ने तो अपनी ओर से ऐसी किसी भी संभावना से इंकार कर दिया है। संदिग्धों के खिलाफ भारत द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों का वह मजाक उड़ा रहा है। आतंकी हमले की योजना बनाने वाले और उसके सहयोगी पाकिस्तान में बेखौफ विचरण कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि भारत अपनी ओर से क्या करेगा? मुंबई हमले के बाद पुणे पर भी हमला हो चुका है। पाकिस्तान की अंतर्लिप्तता अंधी आँखें भी देख सकती हैं। फिर किस बात की प्रतीक्षा है भारत सरकार को? सत्तापक्ष के नीतिनिर्णायक और बकौल प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, भारत के भविष्य राहुल गांधी ने 26/11 के हमले के बाद कहा था कि 'हर भारतीय जान की कीमत आतंकियों को चुकानी होगी।' क्या राहुल के शब्द भी लफाजी मात्र थे? आज यह सवाल हर भारतीय की जुबान पर है। पाक विदेश सचिव की हेठी के बाद तो हर भारतीय मन उद्वेलित है। वे जानना चाहते हैं कि आतंकवाद का पोषक, भारत पर आतंकवादी हमलों का जिम्मेदार पाकिस्तान को भारत स्थाई सबक कब सिखाएगा?
Thursday, February 25, 2010
रेल: भारत, भारतीय, भारतीयता!
रेल बजट को टेलीविजन पर देख रहा था। अनेक महान विशेषज्ञ अपनी विषय विद्वत्ता प्रदर्शित कर रहे थे। किसी ने कहा, यह तो आम बजट है। किसी ने कहा रेल मंत्री को आम बजट के आर्थिक पक्ष की जानकारी नहीं। कोई कह रहा था, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर बजट तैयार किया गया है। कोई टिप्पणी कर रहा था कि ममता द्वारा प्रस्तुत बजट अलग रेल बजट की मूल कल्पना के विपरीत है। अत: रेल मंत्रालय को भी आम बजट में शामिल कर लिया जाना चाहिए। टिप्पणी ऐसी भी आई कि, ममता बजट को लेकर गंभीर नहीं हैं, क्योंकि उनकी निगाहें रेल मंत्रालय से दूर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी हैं। इन कथित विशेषज्ञों की राय कोई नई नहीं है। सच तो यह है कुछ अपवाद छोड़ दें तो ऐसे विशेषज्ञ ही देश के विकास के प्रति अगंभीर है। किसी भी विशेषज्ञ ने यह याद दिलाने की कोशिश नहीं की कि वस्तुत: रेल सेवा एक लोकोपयोगी सेवा है- व्यावसायिक नहीं। रेल सेवाएं यातायात की धुरी हैं। भारत की 9& प्र.श. जनता इस सेवा का उपयोग करती है। रेल सेवा का सुखद पहलू यह कि यह भारत, भारतीय और भारतीयता को जोड़ती है। इनका दर्शन कराती है। विशेषज्ञ बेचैन थे कि मालभाड़ा और यात्री किराये में वृद्धि नहीं होने से घोषित परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए धन कहां से आएगा? आम जनता पर भाड़े का बोझ लादकर धन अर्जित करने की कल्पना ही जनविरोधी है। भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में रेल जैसी लोकोपयोगी सेवा के महत्व को पहचाना जाना चाहिए। कोष के लिए अन्य संभावनाएं खंगाली जाएं। रेलवे के पास अनेक ऐसी संपत्ति हैं जिनसे अधिकतम प्रतिफल हासिल किया जा सकता है। सार्वजनिक निजी साझेदारी (पीपीपी) का प्रस्ताव कर ममता ने संकेत दे भी दिए हैं। और अगर जरूरत पड़े ही तो उद्योगों और व्यवसाय का वर्गीकरण कर इस रूप में मालभाड़ा और यात्री किराये में वृद्धि की जाए जिससे आम जन प्रभावित न हो। खाद एवं अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतें इस कारण बढऩे न पाएं। विशेषज्ञों का उपयोग इस हेतु किया जाए।
जहां तक राजनीतिक लाभ की बात है, लोकतंत्र में यह एक सामान्य प्रक्रिया है। सत्तारूढ़ दल हमेशा ऐसा करता आया है। इसके लिए रेलमंत्री की आलोचना करना उचित नहीं। हां, इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी अन्य राज्य का वाजिब हक छीनकर किसी राज्य विशेष को लाभ न पहुंचाया जाए। रेल सेवा को संपूर्णता में भारतीय रेल सेवा की पहचान मिले। यह भी जरूरी है।
Wednesday, February 24, 2010
अमेरिका, पाकिस्तान और आतंकवाद
न केवल 26/11 बल्कि उसके आगे-पीछे और अब पुणे विस्फोट का मास्टर माइंड डेविड हेडली अमेरिकी शासन की गिरफ्त में है। हमारी जांच एजेंसियां उससे पूछताछ करना चाहती हैं। मांग यह भी उठी कि अमेरिका हेडली को हमें सौंप दे। सौंपने की बात तो दूर, अमेरिका ने हेडली से पूछताछ की इजाजत भी हमारी जांच एजेंसियों को नहीं दी। आश्चर्यजनक रूप से इस बिंदु पर अमेरिका का रुख बिल्कुल पाकिस्तान की तरह रहा है। 1992-93 के मुंबई शृंृखला बम विस्फोट के मास्टर माइंड दाऊद इब्राहिम व उसके सहयोगी पाकिस्तान में खुलेआम विचरते रहे, सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। 26/11 की घटना को अंजाम देने वालों के संरक्षक पाकिस्तान में बेखौफ घूम रहे हैं। कुछेक गिरफ्तार तो किए गए किन्तु उनके खिलाफ गंभीर अदालती कार्रवाई नहीं हो रही है। एक खूंखार आतंकी को तत्काल जमानत भी मिल गई! हेडली से पूछताछ संबंधी भारतीय अनुरोध को ठुकराकर कहीं अमेरिका आतंक के अपराधियों को किन्हीं अज्ञात कारणों से संरक्षण तो नहीं दे रहा? क्या कारण हो सकते हैं? यह शोध का एक स्वतंत्र विषय है। बिना साक्ष्य के किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं। किन्तु संदेहों के निवारण की अनिवार्यता को चुनौती भी तो नहीं दी जा सकती! भारत के खिलाफ आतंकियों को दूध पिलाकर पाकिस्तान ने वस्तुत: अपने लिए भस्मासुर पैदा कर लिए। हालत यह है कि पाकिस्तानी शासन को आज आतंकवादियों व कट्टरपंथियों के समक्ष नतमस्तक होना पड़ रहा है। खतरनाक रूप से बिल्कुल पाकिस्तान की तरह हमारी अपनी जमीन पर भी आतंकवाद का उद्भव हो चुका है। पुणे बम विस्फोट कांड को अंजाम देने वाले हाथ 26/11 के उलट आयातित नहीं थे। कट्टरतावाद के नारे से दिग्भ्रमित कुछ स्थानीय मस्तिष्क ने उन्हें अंजाम दिया। यह शुरुआत है। इन्हें बगैर विलंब के कुचल दिया जाए। और, साथ ही अमेरिका संबंधी उत्पन्न शंका का निवारण भी तत्काल हो। विश्व के सबसे बड़े आतंकी हमले 9/11 की घटना के बाद का शांत अमेरिका और अशांत भारत-पाकिस्तान की गुत्थी तो सुलझानी ही पड़ेगी।
Tuesday, February 23, 2010
महंगाई का यह कैसा महिमामंडन!
सरकार का यह दावा कि महंगाई बढऩे से किसानों का फायदा हुआ है, महंगाई से पीडि़त आम जनता का ही नहीं, स्वयं किसानों का भी अपमान है। अगर किसानों को फायदा पहुंच रहा होता तो फिर देश में किसान आत्महत्या क्यों करते? जिन किसानों ने अपने प्राण गंवाए, उनके परिवार की हालत को देखें। सरकार व कुछ निजी संस्थाओं से मिली सहायता को अगर सरकार 'फायदाÓ समझती है तब ऐसी संवेदनाशून्य सरकार को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि महंगाई से फायदा किसानों को नहीं बल्कि कृषि माफियाओं को हुआ है। उन बड़े, सुखी- संपन्न किसानों को हुआ है जो जमाखोरी व कालाबाजारी के माध्यम से मालामाल होते हैं। कर्ज के बोझ से दबा हुआ आम किसान महंगाई के अतिरिक्त बोझ को सहने में असमर्थ है। किसान आत्महत्या की दर में वृद्धि इसका प्रमाण है। सरकार अगर आम जनता के जले की मरहम पट्टी नहीं कर सकती तो उस पर नमक तो न छिड़के!
Monday, February 22, 2010
मीडिया पर जेठमलानी की अनुचित खीज!
Sunday, February 21, 2010
क्यों नहीं रह सकते हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ !
संविधान और राष्ट्रीयता को ठेंगे पर रखने वाले बाल ठाकरे को छोडि़ए। उनके लिए न कोई राष्ट्र है, न संविधान है और न कायदा-कानून है। सिर्फ एक धर्म, एक भाषा विशेष और राज्य के सिर्फ एक वर्ग के हित की बातें करने वाला सर्वधर्म समभाव आधारित भारतीय संस्कृति को क्या समझेगा? साम्प्रदायिक सौहाद्र्र का अर्थ वे समझ ही नहीं सकते। राष्ट्रीय एकता, भाईचारा, सभी धर्म, वर्ग, भाषा के बीच परस्पर प्रेमभाव उनके गले के नीचे उतर ही नहीं सकता। उनका धर्म तो जातीयता, क्षेत्रीयता और भाषा के पलीते लगाना है। वे अगर भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के मंदिर-मस्जिद समाधान की पहल को ठुकरा देते हैं तो कोई आश्चर्य क्यों करे? अपनी स्वार्थजनित राजनीति चमकाने के लिए ठाकरे ऐसे करतब दिखाते रहते हैं।
सवाल हिन्दू-मुसलमान के बीच परस्पर प्रेम का है, विश्वास का है। जिस भारत की विशाल आबादी में हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ी आबादी (लगभग 15 करोड़) मुस्लिमों की है, वहां यह दोनों समुदाय अलग-अलग कैसे रह सकते हैं? पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासकों की दिमागी उपज द्विराष्ट्र सिद्धांत को आधार बना भारत को खंडित कर पाकिस्तान का उदय एशिया के इस भाग में साम्प्रदायिक अशांति बनाए रखने की चाल थी। सत्तालोलुप कतिपय हिन्दू-मुस्लिम नेताओं को छोड़ दें तो दोनों समुदाय के लोग बंटवारे के खिलाफ थे, मिलजुलकर रहना चाहते थे। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व का इतिहास हिन्दू-मुस्लिम एकता को रेखांकित करता मिलेगा। अंग्रेजों ने चाल चली, हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने के षडय़ंत्र रचे, दंगे करवाए और देश का विभाजन करवा दिया। लेकिन अब इस पर और चर्चा नहीं। उन दुखद घटनाओं को इतिहास में कैद रहने दिया जाए। परिवर्तित नवयुग सर्वधर्म समभाव का आग्रही है। कट्टर धार्मिक वर्जनाओं को वह इन्कार करता है। नई पीढ़ी अब बातें करती है तो विश्व समुदाय की- किसी संकुचित एक या दो समुदाय की नहीं। वैसे संदर्भवश विभाजन के बाद की किसी घटना को याद करना ही है तो उस घटना को याद करें जिसमें जवाहरलाल नेहरू नई दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में स्वयं जाकर उन हिन्दुओं को खदेड़ते देखे गए थे जो मुस्लिमों की दुकानों को लूट रहे थे। हां, बावजूद इसके यह सच अवश्य मौजूद रहेगा कि दोनों पक्षों के शरणार्थी कड़वाहट और बदले की भावनाओं को अपने साथ ले गए। सदियों से शांतिपूर्वक एक साथ रहने वाली दोनों कौमों के दिलों में नफरत और बदले की भावना घर कर रही थी। कारण वही, ब्रिटिश रचित षडय़ंत्र और दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथी।
वर्तमान अंतरिक्ष युग में भी क्या आत्मघाती, साम्प्रदायिक सोच को स्थान मिलना चाहिए? कदापि नहीं! इतिहास बदलकर नया इतिहास लिखा ही जाना चाहिए। दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथियों को छोड़ दें, सत्तालोलुप कथित नेताओं को छोड़ दें, गली-मोहल्लों में जाकर पता करें तो मालूम होगा कि दोनों कौमों के सदस्य मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं। मंदिर-मस्जिद के झगड़े की जड़ में कट्टरपंथी हैं, नेता हैं, आम हिन्दू या मुसलमान नहीं। जब यह हकीकत है तब फिर दोनों समुदायों के बीच परस्पर विश्वास, प्रेम संभव है।
पहल हो चुकी है। इसे गति दी जाए। कट्टरपंथियों और नेता तो विरोध करेंगे ही, उनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी। वे हरकत में आ भी गए हैं। देवबंदी उलेमा ने अयोध्या में मस्जिद की जगह बदलने से इन्कार कर दिया है। कुछ संतों ने भी गडकरी की पहल को गैरजरूरी करार दिया है। साफ है कि धर्म के कथित ठेकेदार ये तत्व समस्या का समाधान नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि हिन्दू और मुसलमान कभी मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहें। साम्प्रदायिक वैमनस्य को जीवित रखकर ही तो ये मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेल पाएंगे। लेकिन अब समय आ गया है जब इन तत्वों को उनकी औकात बता देनी चाहिए। नई पीढ़ी का नया नेतृत्व यह जिम्मेदारी ले। सर्वधर्म समभाव भारत की सनातन अवधारणा है। यहां सभी विचारधाराओं और दृष्टिकोण के आदर की परंपरा है। एक इस्लामी विद्वान जमाएतुल उलेमा के अध्यक्ष मोहम्मद हुसैन अहमद मदनी ने एक बार कहा था कि ''जिस प्रकार हजरत मोहम्मद ने मदीना में यहूदियों और मुसलमानों की एक संयुक्त राष्ट्रीयता की स्थापना की, उसी प्रकार भारत में भी हिन्दू-मुसलमान को एक राष्ट्रीयता में बांधा जा सकता है।'' महात्मा गांधी ने इसकी कोशिश की थी। वे असफल रहे थे। किन्तु क्या एक असफलता को स्थायी मान लिया जाना चाहिए? जवाब नई पीढ़ी को देना है। धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिए हो, वैमनस्य के लिए नहीं। वर्तमान भारत हर मोर्चे पर शांति का आग्रही है। हिन्दू-मुस्लिम एकता संभव है। जरूरत है ईमानदार प्रयासों की।
Saturday, February 20, 2010
...और तब दिखेगा असली हिन्दुस्तान!
इसी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से जब इतिहास बदल डालने का आह्वान अल्पसंख्यक मुस्लिमों के लिए आया है तब इस अवसर को व्यर्थ न जाने दिया जाए। भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मंदिर और मस्जिद दोनों बनाए जाने का आह्वान कर स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष ताकतों को चुनौती दी है। धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन राजनीति की रोटी सेंकने वाली ये ताकतें बेचैन हो उठी हैं। अगर मंदिर-मस्जिद का मसला शांतिपूर्ण तरीके से सुलझ गया तब तो इनका 'वोटबैंक' दिवालिया हो जाएगा। जाहिर है कि अब ये नई साजिश रचेंगे। विवाद को जीवित रखने के नए तरीके इजाद किए जाएंगे। अंग्रेजों की अंग्रेजियत का लबादा ढोने वाली ये राजनीतिक शक्तियां शासन करने की अंग्रेजी नीति 'फूट डालो और राज करो' की पोषक भी तो हैं! लेकिन छल-कपट की राजनीति का अंत होता ही है। ब्रिटिश शासकों को अंतत: सात समंदर पार इंग्लैंड वापस लौटना ही पड़ा था। हिन्दू व मुसलमानों के बीच फूट डाल राज करने वाले नए देशी हुक्मरान इस सचाई को न भूलें।
मंदिर-मस्जिद के दुर्भाग्यपूर्ण, संवेदनशील विवाद को सुलझाने की दिशा में उठाया गया नितिन गडकरी का सकारात्मक कदम सर्वमान्य-सुखद परिणति का आकांक्षी रहेगा। तेजी से विकसित देशों की श्रेणी में प्रवेश की ओर अग्रसर भारत की जनता अब ऐसी साजिशों का शिकार होना नहीं चाहती। धर्म निहायत निजी आस्था का मामला है। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध सभी की धार्मिक परंपराओं को भारतीय समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। इसे छिन्न-भिन्न करने वाले राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते। अयोध्या में मंदिर और मस्जिद विवाद को हल करने की दिशा में पहली बार भाजपा ने व्यावहारिक कदम उठाने की पहल की है। सराहनीय है यह। इसके पूर्व ऐसा ठोस फैसला कभी नहीं किया गया। यह सुखदायी परिवर्तन का पूर्व संकेत है। हिन्दू-मुसलमान के बीच दूरी पैदा करने का घृणित खेल अंग्रेजी शासकों ने शुरू किया था। 'फूट डालो और राज करो' की उनकी नीति के कारण ही देश का विभाजन हुआ। हां, यह कड़वा सच अवश्य मौजूद है कि तब हिन्दू-मुस्लिम संप्रदाय के कुछ कथित नुमाइंदे भी अंग्रेजों की चाल में फंस दोनों संप्रदायों के बीच दूरियां बढ़ाते रहे। एक-दूसरे के दिलों में परस्पर नफरत पैदा करते रहे। अब तो उन्हें यहां से विदा हुए छह दशक से अधिक हो गए। फिर अब दोनों संप्रदायों के बीच पुराने सद्भाव को वापस क्यों न लाया जाए? इतिहास गवाह है कि सैकड़ों वर्षों तक ये दोनों एक परिवार-एक भाई की तरह मिल-जुलकर रहते आए थे।
विलंब अभी भी नहीं हुआ है। अयोध्या में राम मंदिर और मस्जिद दोनों के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करने की पहल गडकरी ने की है। यह एक अवसर है सभी शिक्षित समाज के मुंह पर साम्प्रदायिकता की कालिख पोतने वालों को बेनकाब कर समुद्र में डुबो देने का। यह अवसर है कड़वाहट को खत्म कर मिठासपूर्ण साम्प्रदायिक सौहाद्र्र कायम करने का। यह अवसर है पूरे विश्व को संदेश भेज देने का कि भारत में विश्व गुरु बनने की सभी पात्रताएं मौजूद हैं। यह अवसर है आतंकवाद की बैसाखी के सहारे देश में सांप्रदायिक आग फैलाने वालों को मौत दे देने का। निश्चय मानिए, तब सचमुच इतिहास बदल जाएगा और तब दिखेगा असली हिन्दुस्तान।
Friday, February 19, 2010
संविधान के अपराधी चिदंबरम!
क्या सचमुच चिदंबरम हिन्दी नहीं समझ सकते, नहीं बोल सकते? विश्वास करना कठिन है। उक्त सम्मेलन में कुछ पत्रकारों द्वारा हिन्दी में पूछे गए सवालों का समाधानकारक जवाब गृहमंत्री अंग्रेजी में दे रहे थे। साफ है कि वे हिन्दी समझते हैं। जिज्ञासावश मैंने चिदंबरम के विभाग में काम कर चुके एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी से पूछा। जवाब मिला- चिदंबरम हिन्दी समझते हैं और बोल भी सकते हैं। फिर उन्होंने हिन्दी में कुछ सवालों का जवाब दिए जाने के एक अनुरोध को ठुकराते हुए हिन्दी न समझने की बात क्यों कही? यह आश्चर्यजनक है। क्या वे राजभाषा के मुद्दे पर किसी दबाव में हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि दक्षिण की खतरनाक हिन्दी विरोधी राजनीति के वे भी एक किरदार बन बैठे हैं? राजभाषा के व्यवहार के मुद्दे पर देश के गृहमंत्री का यह आचरण निश्चय ही अलगाववादी प्रवृत्ति को चिन्हित करने वाला है। यह भविष्य के एक अत्यंत ही विकट झंझावात का पूर्वाभास है। गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम के ऊपर देश की एकता-अखंडता और आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है। राजभाषा को सम्मान दिलवाने की जिम्मेदारी भी उन पर ही है। इसके बावजूद जब वे राजभाषा के प्रति अपनी अज्ञानता को सार्वजनिक कर रहे हैं, तब इसमें कोई गुत्थी है अवश्य। यह विस्मयकारी है कि वे अपनी नेता सोनिया गांधी से कुछ नहीं सीख पाए। इटली से आईं सोनिया गांधी हिन्दी से बिल्कुल अंजान थीं। लेकिन उन्होंने राजभाषा को सम्मान देते हुए, देश की जरूरत को देखते हुए हिन्दी सीखी और इतनी सीखी कि आज वे फर्राटेदार हिन्दी बोल रही हैं। फिर हमारे गृहमंत्री क्या यह बताएंगे कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे मंत्री बने हैं, उस संविधान में घोषित संघ की राजभाषा हिन्दी से वे दूर कैस्े हैं? क्या ऐसे व्यक्ति के अधीन गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी रहनी चाहिए? कदापि नहीं। अंग्रेजी और अंग्रेजियत के ऐसे पोषक जब तक सत्ता में मौजूद रहेंगे, देश में स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वदेशाभिमान उत्पन्न हो तो कैसे? फिर क्या आश्चर्य कि देश के कुछ भागों में हिन्दी विरोध की चिंगारी सुलगते दिखने लगी है।
दूसरों की लकीर छोटी न करें!
राजनीति में प्रतिस्पर्धा के गिरते स्तर ने समाज-परिवार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रखा है। इस तथ्य को भुलाया जा रहा है कि संस्कार परिवार देता है, संस्कृति देश। संस्कृति के विकास की सही तिथि की जानकारी का दावा इतिहासकार भी नहीं कर पाए हैं। हां, जानकार यह दावा अवश्य करते हैं कि देश में, समाज में जो कुछ भी दर्शनीय है, शुभ है वह भारतीय संस्कृति की देन है। कुछ पात्र-चरित्र जब देशी संस्कृति-सभ्यता का त्याग कर आयातित संस्कृति-सभ्यता का वरण कर लेते हैं तो पारिवारिक कुसंस्कारों के कारण। राहुल गांधी इस तथ्य को हृदयस्थ कर लें कि कुछ अच्छा करने की ललक तो ठीक है किन्तु राजनीतिक स्पर्धा में दूसरों का सम्मान भी जरूरी है। बेहतर हो, राहुल व उनकी मंडली गडकरी की नकल करते हुए उनके शब्दों को आत्मसात कर लें कि 'आप अपनी लकीर बड़ी करें, दूसरों की छोटी न करें।'
Tuesday, February 16, 2010
जब 'न्याय' रो पड़े
हालांकि यह पहला अवसर है जब सार्वजनिक रूप से भारत के दो न्यायाधीशों के उपर सरकारी दबाव के चलते अपनी आत्मा बेच देने के आरोप लगे हैं, लेकिन इस प्रसंग की चर्चा तब भी हुई थी। आज जब न्याय और न्यायपालिका सीमित रूप में ही सही विश्वसनीयता के संकट के एक दु:खद दौर से गुजर रही है, सोली सोराबजी के रहस्योद्घाटन से बहस का एक नया दौर शुरू हो चुका है। आम जनता घबराहट में है, सशंकित है। न्याय के प्रति उसके मन में एक नया भय पैदा हो गया है। वह भयभीत है कि जब भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर पहुंचे व्यक्ति अपनी आत्मा बेच सकते हैं, तब अन्य पर कैसे विश्वास किया जाए? बात कथनी और करनी का भी है। मुझे आज भी न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती के उन शब्दों की याद आ रही है, जो उन्होंने 26 नवंबर 1985 को विधिदिवस के अवसर पर अपने भाषण के दौरान कहे थे। तब उन्होंने कहा था 'मुझे यह देखकर बहुत पीड़ा हुई है कि न्यायिक प्रणाली करीब- करीब ढहने की कगार पर है। ये बहुत कठोर शब्द हैं जो मैं इस्तेमाल कर रहा हूॅं। लेकिन बहुत ही व्यथित होकर मैंने ऐसा कहा है।' इन शब्दों में कहीं ग्लानि है? ये शब्द तो देश को भुलावे में रखने वाले सरमन मात्र हैं। खुशी होती अगर वे 'अपराध' को स्वीकार कर जनता की अदालत से अपने लिए दंड मांगते। वे ऐसा नहीं कर पाए तो नैतिकता के अभाव के कारण। मेरे ये शब्द कठोर हो सकते हैं, किंतु ये जनता की सोच की अभिव्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार और पक्षपात संबंधी अनेक आरोपों से गुजर रही वर्तमान न्यायपालिका को स्वच्छ-पवित्र करने के उपाय किए जाने चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी दोनों साथ- साथ चलने चाहिए। न्यायिक स्वतंत्रता का अर्थ जवाबदेही से आजादी नहीं हो सकती। सोराबजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे सुनिश्चित कौन करे? संविधान की बात करें तो विधायिका और कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका लोकतंत्र का एक स्तंभ है। इसकी स्वतंत्रता की बातें तो की जाती है, लेकिन व्यवस्था का ताना- बाना ऐसा कि सत्ता के दबाव- प्रलोभन से यह पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। जजों की नियुक्ति और अवकाश प्राप्ति के बाद नए आकर्षक अनुबंध का अधिकार शासकों के हाथों में है। जजों के विरूध्द भ्रष्टाचार के जांच का भी अधिकार कार्यपालिका के पास है। इस व्यवस्था में संशोधन होना चाहिए। भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जिम्मेदारी कार्यपालिका या अधिवक्ताओं के हाथों में न देकर स्वच्छ छवि वाले वर्तमान और पूर्व वैसे जजों को दिया जाना चाहिए, जिन पर जनता का विश्वास हो। सोराबजी ने बिल्ली को थैले से बाहर निकाल लिया है, अब जरूरत है उन हाथों की जो उसके गले में घंटी बांध सके। प्रतीक्षा रहेगी पहल करने वाले हाथों की।
Monday, February 15, 2010
शहीदों की लाश पर ठाकरे की राजनीति!
वैसे अपेक्षा तो नहीं है, फिर भी ठाकरे पिता-पुत्र-भतीजा से प्रार्थना है कि वे पुणे आतंकी हमले को राजनीतिक रंग न दें। अगर वे ऐसा करना जारी रखते हैं तब कटघरे में उन्हें भी खड़ा किया जाएगा। उन्हें जवाब देना होगा कि शाहरुख खान की फिल्म का विरोध नहीं करने का ऐलान करने वाले बाल ठाकरे ने अपने सैनिकों को सड़क पर उतर हुड़दंग मचाने का आदेश क्यों दिया था? कानून, व्यवस्था को शिवसैनिकों द्वारा हिंसक चुनौती दिए जाने के कारण ही तो अतिरिक्त कड़ी सुरक्षा व्यवस्था करने राज्य सरकार मजबूर हुई थी। नागरिकों की जान-माल की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार पर है। शिवसैनिकों के हिंसक तेवर को देखते हुए राज्य सरकार अपने नागरिक-दायित्व का निर्वाह कर रही थी। पुणे की घटना के लिए इस व्यवस्था को दोषी ठहराकर ठाकरे ने संदेह के नए बिंदु खड़े कर दिए हैं। हो सकता है इसे मात्र लेखकीय कल्पना की श्रेणी में डाल दिया जाए, किंतु दो जोड़ दो चार का सच तो अपनी जगह कायम रहता ही है।
पूरे घटनाक्रम पर गौर करें। बाल ठाकरे के पीछे हटने के बाद शाहरूख की फिल्म के शांतिपूर्ण प्रदर्शन का माहौल बना था। मीडिया में इसे सकारात्मक स्थान भी मिला। अचानक केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार अवतरित होते हैं। देश में महंगाई के मुद्दे पर चौतरफा हमला झेल रहे पवार बाल ठाकरे के दरबार में हाजिर होते हैं। दो घंटे तक गुफ्तगूं होती है। बाल ठाकरे के तेवर बदल जाते हैं। शाहरूख की फिल्म पर पलटी मार जाते हैं वे। फिल्म प्रदर्शन पर शांत हो चुका माहौल अचानक हिंसक हो जाता है। मुंबई सहित पूरे राज्य में खौफ पैदा कर दिया जाता है। माहौल कुछ ऐसा बना कि महंगाई का मुद्दा गायब हो जाता है। उसी दिन जारी खबर कि महंगाई दर लगभग 18 प्रतिशत पर पहुंच गई है, लोगों के ध्यान में नहीं आ सकी। चूंकि शिवसेना की चुनौती सरकार के अस्तित्व के लिए थी, स्वाभाविक रूप से सरकार ने सुरक्षा के कड़े कदम उठाए। राज्य सरकार की विफलता की स्थिति में ठाकरे की समानांतर सरकार चिह्नित हो जाती, लेकिन राज्य सरकार सफल रही। ठाकरे एवं उनके शिवसैनिक नंगे हो गए। किंतु अचानक पुणे दहल उठता है, आतंकी हमला होता है। 26/11 के बाद महाराष्ट्र में आतंक का तांडव होता है। राज्य सहित जब पूरा देश, हर राजनीतिक दल एकजुट होकर हमले को पड़ोसी पाकिस्तान की साजिश निरूपित करते हुए भरत्सना कर रहा होता है, पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की मांग करता है, ठाकरे राज्य के मुख्यमंत्री को निशाने पर लेकर विस्फोट के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं! अगर यह ठाकरे की शेखी भर है, तब वे मुख्यमंत्री और राज्य से माफी मांग लें, लोग भूल जाएंगे। अन्यथा दो और दो का जोड़ आगे बढ़ता जाएगा।
Sunday, February 14, 2010
तुष्टिकरण की यह कैसी राजनीति!
काठियावाड़ा (गुजरात) के मोहनदास करमचंद गांधी जी को देश ने महात्मा कहकर संबोधित किया, उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं? यह सवाल इन दिनों बार-बार पूछा जा रहा है। इसका जवाब क्यों नहीं आ रहा? निजी बातचीत में सत्तारूढ़ नेता फुसफुसा देते हैं कि यह जिम्मेदारी तो आजादी के बाद पं. जवाहरलाल नेहरु की सरकार की ही थी। ब्रिटिश शासकों के चंगुल से देश को आजादी दिलाने वाले और फिर 6 माह के अंदर आजाद हिन्दुस्तान के एक हिन्दू की गोली खाकर शहीद हो जाने वाले महात्मा को तो प्रथम भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था। पंडित नेहरु तो महात्मा के प्रिय शिष्य थे। कांग्रेस पार्टी सहित पूरा देश महात्मा गांधी का ऋणी था। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले महात्मा गांधी को पार्टी या सरकार कैसे भूल गई? पिछले दिनों शासकीय अलंकरणों पर उठे कतिपय विवादों के बीच उस बिंदु पर महात्मा की उपेक्षा को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। चूंकि पिछले 6 दशक से सत्ता की ओर से इस सवाल का जवाब नहीं आया, अब उम्मीद करना बेकार है। तो क्या सवाल को अनुत्तरित छोड़ देना चाहिए? देश की जिज्ञासा को मौत देने के पक्ष में हम नहीं।सत्तापक्ष के मौन से विस्मित समीक्षक अपने अनुमान के लिए स्वतंत्र हैं। इस प्रक्रिया में संभावित गलतियों के लिए दोषी उन्हें नहीं ठहराया जा सकता। कहते हैं कि आजादी के बाद देश के कर्णधारों ने जिस धर्म निरपेक्षता को संविधान में शामिल किया वह सत्तापक्ष का चुनावी हथियार बन गया। सत्तापक्ष इस हथियार को सुरक्षित रखना चाहते थे। गांधी की हत्या का सच यह था कि उनके हत्यारे हिन्दू थे। विभाजन की शर्तों व वायदों सेे पीछे हटते हुए नेहरु की सरकार ने पाकिस्तान को न केवल तयशुदा राशि देने से इंकार कर दिया था बल्कि पाकिस्तान को सैन्य सामग्री की आपूर्ति भी बंद कर दी। इससे नाराज महात्मा गांधी ने अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा कर दी थी। नेहरु की सरकार जहां इससे परेशान हुई, देश चकित था। उन्हीं दिनों अफवाह फैली कि गांधी चाहते हैं कि पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आए लगभग 70 लाख शरणार्थी वापस पाकिस्तान अपने घरों को लौट जाएं ताकि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए वे वापस हिन्दुस्तान लौटकर हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्वक रहे। वह काल एक अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। गांधी, जो महात्मा बन चुके थे, देश के रक्षक थे, स्वतंत्रता सेनानी थे, संत थे और जो कभी कुछ गलत नहीं कर सकते थे, अचानक शरणार्थियों की नजरों में हिन्दुओं के प्रति घृणा करने वाले और मुसलमानों को प्यार करने वाले बन गए। रोटी और छत की तलाश में जब पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी दिल्ली की गलियों में भटकते रहे थे तब उन्होंने विस्मित नेत्रों से बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को साधिकार मोहल्लों में रहते देखा। उन दिनों सत्ता में, व्यवसाय में, सरकारी कार्यालयों में प्रभावशाली अल्पसंख्यक मौजूद थे। गांधी उन शरणार्थी शिविरों में स्वयं जाकर अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहित करते थे। गांधी ने तब नेहरु और पटेल पर दबाव डाला था कि हिन्दुओं और सिखों को हथियारों से वंचित कर दिया जाए ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम निर्भय वहां रह सकें। महात्मा गांधी की हत्या का एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पन्न आक्रोश था। तो क्या वर्ग विशेष की नाराजगी के भय से देश के नवशासकों ने महात्मा गांधी को भारत रत्न से अलंकृत नहीं किया। तुष्टिकरण व वोट की राजनीति पर आज चिल्ल-पों करने वाले इतिहास के इन पन्नों पर गौर करें। इस 'राजनीतिÓ के जन्म को याद रखें। जब महात्मा गांधी को इस 'राजनीतिÓ का शिकार बनाने से शासक नहीं चूके तब औरों की क्या बिसात! आजाद भारत की कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति बदले हुए स्वरूप में आज भी देश, समाज को बांट रही है। तुष्टिकरण का बेशर्म खेल चुनावी राजनीति का खतरनाक किंतु मजबूत हथियार बन गया है। बाल ठाकरे ने शाहरुख खान को निशाने पर इसलिए नहीं लिया कि शाहरुख ने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के हक में दो शब्द बोले थे, ठाकरे की परेशानी का सबब वह 'खानÓ शब्द बना जो पूरे संसार में अचानक लोकप्रिय बन बैठा। फिल्म में किरदार शाहरुख गर्व से कहते हैं कि हां, मेरा नाम खान है, किन्तु मैं आतंकवादी नहीं। पूरे संसार में संदेश गया कि सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं हैं। मुस्लिम विरोध की सांप्रदायिक राजनीति करने वाले बाल ठाकरे को भला यह कैसे बर्दाश्त होता? यह वोट की ही राजनीति है, जिसमें सत्ता पक्ष को शाहरुख का बचाव करना पड़ा। यही आज की राजनीति का कड़वा सच है। और यही कारण है राजनीति के प्रति सभ्य-शिक्षित युवा वर्ग की घृणा का। किसी ने ठीक कहा है कि मछली पकडऩे और राजनीति करने में कोई फर्क नहीं है। ------------------------
Saturday, February 13, 2010
कुचल दें अलगाववाद के बीज को!
महत्वपूर्ण यह नहीं कि मुंबई दंगल में कौन जीता और कौन हारा। महत्वपूर्ण है मुंबई को निशाने पर रखकर खेली जा रही खतरनाक राजनीति। जी हां! यह देश की पतित राजनीति का वह विद्रूप चेहरा है जो अलगाववाद का बीजारोपण करने को आतुर है। लोकतंत्र के प्रहरी सावधान हो जाएं। मुंबई की ताजा घटनाएं 30 साल पहले के पंजाब की यादें ताजा करने वाली हैं। अकाली दल के बढ़ते प्रभाव से चिंतित कांग्रेस ने संत जरनैलसिंह भिंडरावाले नामक कट्टरपंथी को विशुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए वहां सींचा था। अरुचिकर सच यह भी है कि पहल स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी। चंडीगढ़ में आज भी वह 'होटल रोमा' मौजूद है जहां ज्ञानी जैलसिंह (जो बाद में राष्ट्रपति बने) ने संत भिंडरावाले की इंदिरा गांधी से मुलाकात करवाई थी। बाद की सभी घटनाएं इतिहास मेंं दर्ज हैं। पंजाब में अलग खालिस्तान का हिंसक अभियान चला। भिंडरावाले कांग्रेस के लिए भस्मासुर बन गए। पवित्र स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले का शरण लेना, वहां सेना का प्रवेश, गोलीबारी, सैकड़ों मौत और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में पूरी घटना की दुखद परिणति! यूं कहें कि संत भिंडरावाले और स्वयं इंदिरा गांधी पतित राजनीति के शिकार बने थे। मुंबई की 'राजनीति' के रणनीतिकार इतिहास के उन पन्नों को पलट लें। स्वार्थ, षडय़ंत्र, घृणा, विश्वासघात और खून खराबे से रंगे हुए पन्ने किसी के भी रोंगटे खड़े कर देंगे। लेकिन लगता है वर्तमान कालखंड में राजनीतिकों की मोटी खालों से रोंगटे गायब हो गए हैं। फिर एहसास अथवा अनुभूति इनके पास फटके तो कैसे? स्वार्थ में अंधे भी तो हो गए हैं ये! लोकतंत्रीय व शासकीय दायित्व का महत्व ये नहीं समझ पा रहे हैं। यह अवस्था प्रदेश व देश दोनों के लिए खतरनाक है।
महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे मुंबई की ताजा घटनाओं के लिए शरद पवार को दोषी ठहरा रहे हैं। कह रहे हैं कि शरद पवार की बाल ठाकरे से मुलाकात के कारण शिवसेना पुनर्जीवित हो गई। शिवसैनिकों की हिम्मत बढ़ी और वे सड़क पर निकल आए। कांग्रेस के ही मंत्री नारायण राणे ने निर्वाचन आयोग को पत्र लिखकर शिवसेना की मान्यता रद्द करने की मांग की है। कांग्रेस की केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी की टिप्पणी है कि शिवसेना 1600 लोगों की पार्टी बनकर रह गई है। क्या यह बताने की जरूरत है कि केंद्र में और प्रदेश में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कांग्रेस नेतृत्व की सरकार में सहयोगी पार्टी के रूप में शामिल है? भारतीय जनता पार्टी ने मुंबई में जारी कोहराम के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया है। दोषारोपण और चुटकी समस्या के समाधान नहीं हैं। भिंडरावाले के उदय पर किसी ने घटित परिणति की कल्पना नहीं की थी। तब कांग्रेस सिर्फ अपना राजनीतिक लाभ देख रही थी। कांग्र्रेस भले ही इंकार करे किन्तु यह तथ्य निर्विवादित है कि शिवसेना के खिलाफ कांग्रेस ने राज ठाकरे को प्रोत्साहित किया। पूरी मुंबई और आसपास के क्षेत्रों के राज ठाकरे के गुंडे भाषा, धर्म और क्षेत्रीयता के नाम पर जब अराजकता का तांडव कर रहे थे, तब कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने उनके खिलाफ कभी कोई गंभीर कदम नहीं उठाया। कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिला भी। सत्ता हथियाने का दावा करने वाली शिवसेना राज्य में चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई। राज ठाकरे मजबूत हुए। लेकिन राजनीति का खेल सचमुच निराला है। शरद पवार ने अपनी 'राजनीति' के लिए कुछ ऐसा दांव चलाया कि बाल ठाकरे और राज ठाकरे आमने-सामने हो गए। अब राज ठाकरे दबे नजर आ रहे हैं। अपनी सहयोगी शिवसेना को दूर होता देख भाजपा ने कांग्रेस-राकांपा सरकार को निशाने पर लिया। भाजपा ने इस तथ्य को चिन्हित कर दिया कि कांग्रेस-राकांपा मुंबई की शांति व विकास की कीमत पर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हैं। इस खेल में विजेता का ताज चाहे जिसके सिर पर जाए, पराजित एक बार फिर लोकतंत्र हुआ है। आहत हुई है मुंबई की महान संस्कृति। आहत हुए हैं मुंबईकर। लेकिन जो खतरे संभावित हैं, मेरी चिंता उन्हें लेकर है। अलगाववाद के बीज को तत्काल अग्रि के हवाले कर दिया जाए, अन्यथा अंकुरित होकर यह सिर्फ मुंबई ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र प्रदेश की हवा को जहरीला बना देगा। पंजाब पर तब अगर काबू पाया जा सका था तो इंदिरा गांधी की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण। हालांकि कीमत उन्हें अपनी जान से चुकानी पड़ी। लेकिन राष्ट्रनेता कोई यूं ही नहीं बनता। आज मुंबई अराजकता और अलगाववाद के पहले पायदान पर है। अभी विलंब नहीं हुआ है। इसके पूर्व कि यह दूसरे-तीसरे पायदान को तय करे, इसके पैर काट डाले जाएं। दायित्व प्रदेश व केंद्र सरकार पर है। स्वार्थ का त्याग करें, समय की मांग को समझें। बचा लें मुंबई को, बचा लें महाराष्ट्र को- अलगाववाद के षडय़ंत्र से!
Friday, February 12, 2010
'गुंडा राज' को शासकीय स्वीकृति?
चूंकि मामला 'ब्रेड-बटर' अर्थात्ï 'वसूली' का है, अपने हिस्से की राशि में इजाफे के लिए भतीजे राज ठाकरे ने बाल ठाकरे को नंगा करना शुरू कर दिया तो क्या आश्चर्य। हिन्दी फिल्मों के 'गैंगस्टर' परिवार में यही सबकुछ तो होता है। अपने लाभ के लिए भाई भाई को, बाप बेटा को, बेटा बाप को नंगा करता है, पीठ में छुरा घोंपता है। परिवार से अलग होकर राज ठाकरे ऐसा ही करते रहे हैं। शाहरुख खान को लेकर उभरे ताजा हंगामे में बाल ठाकरे की शिवसेना को लाभान्वित होते देख भला राज ठाकरे चुप कैसे बैठते? जयचंद व विभीषण की भूमिका में आ गए। बाल ठाकरे को नंगा कर डाला। उन्होंने बिल्कुल ठीक ही सवाल किया है कि जब शाहरुख खान के पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के बारे में बोलने पर शिवसेना हिंसक विरोध कर रही है, माफी मांगने की मांग कर रही है, तब अमिताभ बच्चन को क्यों बख्शा गया? अभी कुछ दिनों पूर्व ही तो अमिताभ बच्चन मुंबई में एक कार्यक्रम में मंच पर पाकिस्तानी कलाकारों के साथ शिरकत कर रहे थे! शिवसेना ने उन पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध क्यों नहीं किया? अमिताभ बच्चन से माफी क्यों नहीं मंगवाई गई? जबकि वे पाकिस्तानी कलाकारों के साथ गलबहिया कर रहे थे? राज के अनुसार शिवसेना का शाहरुख विरोध एक स्टंट मात्र है। क्या बाल ठाकरे इस आरोप को गलत साबित कर पाएंगे? तर्क के सहारे तो कदापि नहीं। ये वही बाल ठाकरे हैं जिन्होंने 90 के दशक में नरगिस पुत्र संजय दत्त की फिल्मों का विरोध किया था। शिवसैनिकों ने उनकी फिल्मों के पोस्टर-बैनर फाड़ डाले थे। सिर्फ इसलिए तो नहीं कि संजय की मां नरगिस एक मुस्लिम थीं? बाद में एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता-नेता के हस्तक्षेप करने पर ठाकरे ने संजय को बख्श दिया था। तथापि ठाकरे की सांप्रदायिक सोच तो प्रकट हो ही चुकी थी। ठाकरे ने फिर इतिहास को दोहराया है। लेकिन इस मुकाम पर कानून-व्यवस्था की जिम्मेदार महाराष्ट्र सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा कि उसके शासन में समानांतर गुंडा राज कैसे चल रहा है? क्यों और कैसे पनपने दिया गया ऐसे 'राज' को? शाहरुख संबंधी ताजे मामले में शासन की विफलता से अनेक संदेह जन्म ले रहे हैं। जब सरकार की ओर से आम जनता को भरोसा दिलाया गया था कि शाहरुख की फिल्म रिलीज होगी और आम जनता को पूरी सुरक्षा दी जाएगी तब अब सरकार असहाय क्यों दिख रही है? शरद पवार की तरह झुकते हुए अब सरकार यह क्यों कह रही है कि शाहरुख और ठाकरे परिवार मिलकर मामले को सुलझा लें? क्या यह समानांतर गुंडा राज की शासकीय स्वीकृति नहीं है? लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिसिया बंदोबस्त तो तगड़ा किया गया किन्तु थिएटर के मालिकों को आश्वस्त सरकार क्यों नहीं कर पाई? उनमें से अधिकांश ने फिल्म के प्रदर्शन से स्वयं को अलग कैसे कर लिया? लोगों के मन से खौफ दूर क्यों नहीं हुआ? क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? गुंडाराज के सामने सरकार का आत्मसमर्पण है यह। यह अवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। अगर तत्काल इस पर अंकुश नहीं लगा तब आने वाले दिनों में स्वयं लोकतंत्र अपनी पहचान के लिए हाथ-पांव मारता दिखेगा।
Thursday, February 11, 2010
लोकतंत्र को धमकी तंत्र की खतरनाक चुनौती!
धमकी से आगे बढ़ मुंबई में कोहराम मचाने के षडय़ंत्र को शिवसेना ने अंजाम देना शुरू कर दिया है। एक अत्यंत ही खतरनाक षडय़ंत्र। जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता के जहर से बुझे तीर चलाने का षडय़ंत्र रचा गया है। अगर ये षडय़ंत्रकारी सफल हो गए तब मुंबई सिर्फ आग में झुलसेगी ही नहीं, खून से नहा भी जाएगी। षडय़ंत्र में शामिल होने से भारतीय जनता पार्टी के इन्कार के बाद बाल ठाकरे एवं उनके साथी चोट खाए नाग की तरह फुफकार रहे हैं। दूध के नए कटोरों की तलाश भी कर रहे हैं। इसके पहले कि यह फन काढ़ कर मुंबई एवं आसपास की सड़कों पर डसने के लिए निकलें, इनके फन को कुचल दिया जाए। यह जिम्मेदारी अशोक चव्हाण पर है। पढऩे-सुनने में शायद यह अभी असहज लगे लेकिन निश्चय मानिए, ये राष्ट्रहित विरोधी तत्व मुंबई में 1992-93 के दंगों की पुनरावृत्ति चाहते हैं। इस पर बहाना इन्होंने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को बनाया है।
बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे ने आखिर यह क्यों कहा कि शासकीय सुरक्षा की जरूरत उन्हें नहीं, गिरफ्तार आतंकवादी कसाब को है। एक मजहब विशेष को निशाने पर लेकर शिवसेना का नया अभियान कसाब से शुरू होकर शाहरुख खान पर क्यों खत्म हो रहा है? न तो मैं बाल की खाल निकाल रहा हूं और न ही तिल का ताड़ बना रहा हूं। महाराष्ट्र को राष्ट्र से अलग करने की साजिशकर्ताओं के मुख से शब्द ही ऐसे निकल रहे हैं। क्रोध में, आवेश में उगले शब्द वस्तुत: व्यक्ति के अंदर छुपा सच ही होता है। संजय राऊत शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' के संपादक हैं, राज्यसभा के सदस्य हैं और बाल ठाकरे के प्रवक्ता भी हैं। शाहरुख खान पर प्रहार करते हुए संजय राऊत जब यह ऐलान करते हैं कि 'कोहराम तो अब मचेगा', तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। पिछले कुछ दिनों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में शिवसैनिकों द्वारा जारी तोडफ़ोड़ क्या राऊत घोषित 'कोहराम' का अभ्यास नहीं? 1992-93 में भी तो कोहराम ही मचा था। उस समय तो मुद्दा एक बाबरी मस्जिद विध्वंस का था। 1992-93 के उत्पातियों ने इस बार तो क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को मुद्दा बना लिया है। सभी के सभी मुद्दे राष्ट्र विरोधी! हित किसी का नहीं, सिर्फ अहित ही अहित। स्वयं मुंबई और महान महाराष्ट्र का अहित। क्या इसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए? फैसला जनता को करना है, मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को करना है।
मुख्यमंत्री जागें। संविधान से इतर समानांतर सत्ता चलाने वालों को उनकी औकात बताना शासन का धर्म है। शिवसेना तो अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लुप्त हो रहे बाल ठाकरे के आभा मंडल में शेष चमक के द्वारा लोकतंत्र के मुकाबले धमकी तंत्र को खड़ा किया जा रहा है। पागल हैं ये षडय़ंत्रकारी! उन्होंने यह कैसे समझ लिया कि लोकतंत्र के 200 करोड़ हाथों को कुछ सौ-हजार दागदार हाथ चुनौती दे पाएंगे? भारत के लोकतंत्र की नींव अत्यंत ही मजबूत है। और लोकतंत्र की बुनियाद को रेखांकित 1942 में इसी मुंबई शहर में किया गया था जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 'अंगे्रजों भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया था। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करा लोकतंत्र स्थापना की पहल करने वाले मुंबई को अलगाववाद के सहारे आग में झोंकने की कोशिश कोई न करे। अनेक मायनों में मुंबई भारत का सिरमौर है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने बिल्कुल ठीक कहा है कि मुंबई की रक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। मुख्यमंत्री चव्हाण देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र के पक्ष में नीडर हो कानून का डंडा चलाएं। वे पाएंगे कि सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश की जनता उनके पीछे खड़ी है।
Wednesday, February 10, 2010
शरद पवार-बाल ठाकरे का साझा एजेंडा?
यह तो सभी जानते हंै कि बगैर बाल ठाकरे की रजामंदी के शिवसैनिक टॉयलेट तक नहीं जा सकते। जाहिर है कि आज की तोडफ़ोड़ शिवसैनिकों ने बाल ठाकरे के आदेश पर ही की। और ऐसा हुआ मराठा क्षत्रप शरद पवार से मुलाकात के बाद! पवार को नजदीक से जानने वाले इस बात की पुष्टि करेंगे कि उनका अब एक ही एजेंडा है। सुपुत्री सुप्रिया सुले की ताजपोशी। वे अपनी विरासत सुप्रिया के हाथों सौंपना चाहते हैं। वसंतदादा पाटिल को धोखा देकर कभी खुद मुख्यमंत्री बनने वाले शरद पवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा सर्वविदित है। सीताराम केसरी से कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में पराजित होने वाले पवार ने कांगे्रस का त्याग किया- सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर। तब इनकी हिम्मत की दाद दी गई थी। लेकिन सत्ता सुख के आदी पवार उसी सोनिया गांधी के दरबार में हाजिर हो गए। कांग्रेस की गठबंधन सरकार में अपने सहयोगियों के साथ मंत्री बन बैठे। उत्तराधिकारी के रूप में अब तक पेश किए जाते रहे भतीजे अजितदादा पवार को किनारे कर बेटी सुप्रिया को सामने लाया गया। सुप्रिया का राजनीति में प्रवेश पूर्वनियोजित था। पवार की तरह अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम पारी खेल रहे बाल ठाकरे ने भी पूर्व में घोषित उत्तराधिकारी भतीजे राज ठाकरे को किनारे कर पुत्र उद्धव ठाकरे को विरासत सौंपने की घोषणा कर दी। मुंबई में आतंक की पर्याय शिवसेना को वर्तमान तोडफ़ोड़ की राजनीति में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। पवार इसका अवसरवादी उपयोग करना चाहते हैं। बाल ठाकरे से उनकी मुलाकात एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत हुई। वर्तमान राजनीति का यह एक स्याह पक्ष है। पवार ने मुंबई के 'घायल शेर' ठाकरे को जीवित रखने के लिए उनसे मुलाकात की। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार की अवमानना की कीमत पर। सहसा विश्वास नहीं होता लेकिन इस बात के पुख्ता संकेत मिल रहे हैं कि अगर भयादोहण व दबाव के समक्ष मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार झुकी नहीं तब शरद पवार और बाल ठाकरे मराठी माणुस की अस्मिता का नया खेल खेलेंगे। शरद पवार की राकांपा कांग्रेस को और शिवसेना भाजपा को धता बता राज्य की सत्ता पर कब्जे के लिए एक साथ कदमताल करेंगे। जिस नई पीढ़ी को सामने लाने की बात पवार ने कही है, उसकी दो पंक्तियों में से एक में सुप्रिया सुले और दूसरी में उद्धव ठाकरे आगे दिखेंगे। रही बात दिल्ली की तो अवसर आने पर गठबंधन की राजनीति की मजबूरी का फायदा तो ये उठा ही लेंगे। क्या लोकतंत्र के इन खिलाडिय़ों के चरित्र पर आप विलाप करना चाहेंगे?
संविधान व लोकतंत्र के अपराधी पवार !
मुंबई का अपना एक विशिष्ट चरित्र है। कड़वा तो लगेगा किन्तु यह सच मौजूद है कि अपनी कतिपय परेशानियों, समस्याओं से निजात पाने के लिए व्यापारी, नेता, अधिकारी और कुछ मामलों में सामान्य जन भी मोहल्ले- टोले के गुंडों से लेकर अंडरवल्र्ड की शरण में जाते हैं। उनकी मदद लेते हैं। ऐसी स्थिति प्रशासन की अकर्मण्यता के कारण पैदा हुई है। कानून- व्यवस्था और नागरी सुरक्षा के मुद्दे पर लोग प्रशासन पर विश्वास नहीं कर पाते। अंडरवल्र्ड या मोहल्ले- टोले के गुंडे घोपित असामाजिक तत्व हैं, किंतु बाल ठाकरे एवं उनकी शिवसेना? ये तो सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त राजदल के नेता हैं। विधानसभा व संसद में इनके निर्वाचित नुमाइंदे मौजूद हैं! ये जब संविधान को चुनौती देते हुए हर उस गैरकानूनी हरकतों को अंजाम देते हैं जो घोषित गुंडे या अंडरवल्र्ड के लोग किया करते हैं, तब उन्हें भी इसी वर्ग में शामिल क्यों न कर लिया जाए? इनकी पार्टी की मान्यता क्यों न रद्द की जाए? जब केंद्रीय गृहमंत्री सार्वजनिक रूप से शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर चुके हैं, तब विलंब क्यों?
लेकिन हम बात शरद पवार की कर रहे हैं। ठाकरे से उनकी मुलाकात को जितना सीधा-सरल दिखाने की कोशिश की जा रही है, वैसा है नहीं। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले चतुर पवार इतना सीधा खेल खेलते ही नहीं। क्रिकेट के बहाने उन्होंने प्रधानमंत्री और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को चेतावनी दी है। महंगाई के मुद्दे पर घिर जाने से परेशान पवार राजनीति में अपनी अपरिहार्यता को चिन्हित करना चाहते थे। एक ओर उन्होंने उत्तर भारतीयों व गैर मराठियों के मुद्दे पर अकेली पड़ी शिवसेना की हौसला अफजाई की, दूसरी ओर विकल्प के रूप में राज्य में नए राजनीतिक समीकरण का संकेत भी दे दिया। लेकिन भौंडे ढंग से। ऐसा कि वे स्वयं नंगे हो गए। जिस क्रिकेट खेल को उन्होंने बहाना बनाया, वह उनके ही गले की फांस बन गया। खिलाडिय़ों को सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार गृह मंत्रालय पवार की ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के आर.आर.पाटिल के पास है। बाल ठाकरे के सामने गिड़गिड़ाकर पवार ने यही तो साबित किया कि स्वयं अपने ही गृहमंत्री पर उनको भरोसा नहीं है! पवार ने शायद इस पहलू की कल्पना नहीं की थी। शरद पवार ने पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बाल ठाकरे के आतंकराज के समक्ष बौना साबित कर दिया है। क्या ऐसे व्यक्ति को और उनकी पार्टी को सरकार में बने रहने का हक है? कदापि नहीं- कानून व नैतिकता दोनों दृष्टि से।
Monday, February 8, 2010
प्रधानमंत्री देशहित की सोंचे, विदेशहित की नहीं!
Sunday, February 7, 2010
चीनी की कड़वाहट के बीच रावण- शूर्पणखा
विगत कल शनिवार के दिन मराठा छत्रप केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार नेहरू-गांधी परिवार के युवा भाजपा नेता वरूण गांधी, बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे और फिल्म अभिनेता शाहरूख खान सत्तामद, अयोग्यता, अहंकार और समर्पण का बेशर्म प्रदर्शन करते देखे गए। पूरे देश को अज्ञानी और विवश मान इन लोगों ने वस्तुत: भारतीय सोच को चुनौती दे डाली। इनके कृत्य पर पूरा का पूरा समाज हतप्रभ है। क्या हो गया है राजनीतिकों की सोच को। शरद पवार जैसा अनुभवी राजनीतिक अपनी विफलता को छुपाने के लिए जब यह कहे कि चीनी नहीं खाएंगे तो मर जाएंगे क्या? तब निश्चय ही उन्हें देश व समाज हितैषी नहीं माना जा सकता। चीनी की बढ़ती कीमतों के लिए दोषी करार दिए जाने पर आई उनकी यह प्रतिक्रिया, क्या उनकी हताशा व खीज को चिह्नित नहीं करती। विफलता स्वीकार कर मंत्रिपद से इस्तीफा देने की जगह जनता को यह बताना कि 45-50 फीसदी लोग डायबिटीज के कारण मरते हैं, क्या शासकीय विफलता को महिमामंडित करना नहीं है। लोगों को चीनी नहीं खाने की सलाह देकर पवार ने वस्तुत: यह स्वीकार कर लिया कि इस मुद्दे पर सरकार कोई राहत नहीं दे सकती, देश इसे स्वीकार नहीं करेगा। पवार ने जब यह स्वीकार कर लिया कि सरकार महंगाई पर काबू नहीं पा सकती, तब उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है। बेहतर हो वे तत्काल पद त्याग दें, अन्यथा जनता उन्हें इसके लिए मजबूर कर देगी। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि मराठा छत्रप आम जनता के प्रति इतने असंवेदनशील हो सकते हैं। उन्हें महंगाई के कारण आम जनता की पीड़ा की अनुभूति कैसे नहीं हुई? सभी चकित हैं कि कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार शरद पवार एक मंत्री के रूप में आम जनता के दु:ख से तटस्थ कैसे रह सकते हैं? और तो और उन्होंने तो जनता के जख्मों पर नमक छिड़क दिया है। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि ज्ञान की तरह अनुभूति उधार नहीं मिलती। परम ज्ञानी को मिली अनुभूति का कारण उसका अपना अनुभव होता है। अनुभव ही सारे तर्कों- कुतर्कों और विश्लेषणों का जज होता है। फिर अनुभवी पवार ऐसी अनुभूति से वंचित कैसे रह गए? कहीं राजनीतिक व निजी स्वार्थ ने तो उन्हें पतित नहीं कर डाला।
लोग- बाग निराश वरूण गांधी से भी हुए। पिछली भूल को दोहराते हुए महंगाई को आधार बना वरूण ने शरद पवार को रावण और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को शूर्पणखा करार देकर उस भारतीय संस्कृति और सभ्यता को छलनी करने की कोशिश की है, जो उनकी पार्टी भाजपा का लक्ष्य-मंत्र है। भारतीय समाज निहायत निजी स्तर पर किसी के चरित्र हनन की इजाजत नहीं देता। राजनीतिक विरोध अथवा प्रतिद्वंदिता जब स्तरहीन हो जाता है तब भी वरूण जैसा निम्न स्तर प्राप्त नहीं करता। वरूण ने बिल्कुल सड़क छाप राजनीति का प्रदर्शन किया है। टपोरी बना दिया अपने को। देश के युवाओं के एक बड़े वर्ग को वरूण ने अपनी इस आपत्तिजनक हरकत से निराश किया है।
पवार और वरूण इस बिंदु पर श्रीकृष्ण के शब्दों को याद कर लें। कृष्ण ने कहा है कि राजनीति कर्मयोग से जुड़ी हुई है। केवल कर्मयोगी ही राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकता है। कर्म के बिना मनुष्य सहित किसी भी प्राणी का अस्तित्व नहीं है। जो मूढ़ व्यक्ति अपने कर्मेद्रियों का इस्तेमाल नहीं करता, वह नष्ट हो जाता है।
क्या पवार और वरूण ऐसी गति को प्राप्त करना चाहेंगे? अगर हां तो बेशक वे जीवनावश्यक वस्तुओं से जनता को वंचित करते रहें, समाज में रावण व शूर्पणखा पैदा करते रहें। लेकिन हां, तब जनता न्यायाधीश की भूमिका में न्यायदंड के साथ तत्पर मिलेगी।
शाहरूख और उद्धव ठाकरे के घालमेल ने भी पतित राजनीति का एक घिनौना चरित्र सामने ला दिया है। राहुल गांधी के मुंबई मिशन की सफलता से घबराए बाल ठाकरे ने अपने पहले के फरमान को वापस ले लिया कि शाहरूख खान की फिल्म के प्रदर्शन पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं। समय की नजाकत को देखते हुए अनुभवी बाल ठाकरे का यह फैसला बिल्कुल सही था। किंतु पुत्र उद्धव अपने दंभ को फिर भी प्रदर्शित करते रहे। मुंबई पर अपने एकाधिकार का भ्रम वे त्याग नहीं पा रहे। 'मुंबई राजा' की तरह शाहरूख खान को कह डाला कि अगर वे अपना पक्ष रखना चाहते हैं, तब घर पर आकर बाल ठाकरे से मिल लें। कितना हास्यास्पद है उद्धव का यह फरमान! क्या 'मातोश्री' मुंबई का राज-दरबार है, जहां शाहरूख अपनी फरियाद लेकर पहुंचे। ठाकरे का यह अंहकार बिल्कुल रावण के अहंकार की तरह है। ऐसे में रावण- दर्प की तरह ठाकरे- दर्प को भी एक दिन चूर- चूर तो होना ही है। अभिनेता शाहरूख ने विदेश से मुंबई लौटकर एक कुटिल बयान दे डाला। कहा कि वे आज जो कुछ हैं, मुंबई की वजह से हैं। मुंबई के कथित राजा ठाकरे प्रसन्न हो गए। लेकिन ठाकरे यह नहीं समझ पाए कि वस्तुत: शाहरूख के कहने का अर्थ क्या था। शाहरूख ने अपनी उपलब्धियों का श्रेय तो मुंबई को दिया किंतु यह तो नहीं कहा कि वे जो कुछ हैं ठाकरे की वजह से हैं। यानि ठाकरे, मुंबई तो कतई नहीं है।
Saturday, February 6, 2010
पुन: सुषुप्तावस्था में न जाए महाराष्ट्र सरकार ...!
कहते हैं कि सरकार अब जग गई है। चलो मान लिया। लेकिन आगे भी अर्थात राहुल गांधी की यात्रा की समाप्ति के बाद भी वह जगी रहेगी, पुन: सुसुप्तावस्था में नहीं जाएगी, क्या राज्य सरकार इस बात की गारंटी देने को तैयार है? लोग-बाग प्रतीक्षारत रहेंगे। अगर शुक्रवार 5 फरवरी 2010 को शासन-प्रशासन सफल हो सकता है तो 26 नवंबर 2008 को विफल कैसे रहा? अन्य मौकों पर भी उन पर कर्तव्यहीनता और विफलता के आरोप कैसे लगे? मुंबई तो सबकी जान है। शासन-प्रशासन इस सत्य को ह्रदयस्थ कर लें। ताजमहल भले आगरा में हो, देश का ताज तो मुंबई ही है। मुंबई के इस सच को मूक-रुदन का अवसर कोई न दे।
Friday, February 5, 2010
ठाकरे पर सरकार की रहस्यमय बेबसी!
यह निष्कर्ष गलत नहीं है। पता नहीं बाल ठाकरे 'मी मराठी' की जगह 'मी मुंबईकर' के पार्टी आंदोलन को कैसे भूल गए? पहले मराठी भाषियों को आकर्षित करने के लिए 'मी मराठी' आंदोलन उन्होंने खुद चलाया था। बाद में सन 2003 में जब पार्टी की कमान पुत्र उद्धव ठाकरे को सौंपी तब सरलचित्त उद्धव ठाकरे ने उत्तर भारतीयों को आकर्षित करने के लिए 'मी मुंबईकर' आंदोलन की शुरूआत की। उद्धव ने मुंबई में रस-बस जाने के लिए उत्तर- भारतीयों का आह्वान किया कि वे मराठी सीखें, महाराष्ट्र का सम्मान करें और 'मुंबईकर' बन जाएं। यहां तक कि संजय निरूपम द्वारा आयोजित उत्तर भारतीयों के छठ-पर्व कार्यक्रम में उद्धव ठाकरे उत्साह के साथ शामिल हुए थे। उद्धव के इस अभियान को बाल ठाकरे ने आशीर्वाद दिया था। अगर बाल ठाकरे यह भूल गए हैं तब मैं उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि सन 2007 में स्वयं बाल ठाकरे ने गति देने के लिए शिवसेना कार्यकर्ताओं और उत्तर भारतीयों का आह्वान किया था। ठाकरे ने तब कहा था कि हिंदुओं को चाहिए कि वे भाषा की दीवार तोड़ मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ एकजुट हो जाएं। क्या यह बताने की जरूरत है कि ठाकरे किस भाषा की दीवार तोडऩे की बात कर रहे हैं। अब जबकि ठाकरे मुंबई पर सिर्फ मराठियों के अधिकार की बात कर रहे हैं तब निश्चय ही लोगों की यह आशंका सच साबित हो रही है कि ठाकरे अपना दिमागी संतुलन खो चुके हैं, उनकी स्मरणशक्ति कमजोर पड़ गई है।
कोई आश्चर्य नहीं कि तब ऐसी अवस्था में बाल ठाकरे सभ्यता, शिष्टाचार भूल जाएं। उत्तर भारतीयों को समर्थन से राहुल गांधी पर वार करते हुए उन पर दिमागी संतुलन खो देने का जुमला तब तो ठीक था किंतु विवाह सरीखे निहायत निजी मामले पर वार कर ठाकरे ने घोर असभ्यता का परिचय दिया है।
इसके पूर्व बाल ठाकरे कभी भी इतना नीचे नहीं गिरे थे। उनकी यह टिप्पणी कि जब किसी का विवाह एक खास आयु तक नहीं हुआ तब वह व्यक्ति असंतुलित हो जाता है...और इसी पागलपन के कारण राहुल ने महाराष्ट्र का अपमान किया है, श्लीलता की सीमा पार कर गई है। बुजुर्ग बाल ठाकरे से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
'हिंदु सम्राट' के विशेषण से विभूषित बाल ठाकरे यह भी भूल गए कि हिंदु संस्कृति में किसी के नाम, रूप, धर्म, जाति और व्यवसाय को लेकर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जाती। लेकिन बाल ठाकरे पता नहीं किस रौ में ऐसी टिप्पणी कर गए कि मुंबई राहुल की 'इटालियन मां' की नहीं है। यह हिंदु संस्कृति ही नहीं, पूरी भारतीय संस्कृति और भारतीयता का अपमान है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। समझ से परे यह भी है कि एक व्यक्ति व उसका परिवार बेखौफ महाराष्ट्र का अपमान कर रहा है, भारतीय संविधान को चुनौती दे रहा है किंतु सरकार कानूनी कार्रवाई करने की जगह सिर्फ वक्तव्यों से जवाब दे रही है। क्या ठाकरे कानून से उपर हैं? आखिर राज्य सरकार उनसे भयभीत क्यों है? मुंबई के बड़े से बड़े अंडरवल्र्ड और माफियाओं पर अंकुश लगाने में सफल राज्य सरकार की ठाकरे के मामले में बेबसी रहस्यमय है।
...और तब पश्चाताप के आंसू बहाते दिखेंगे ठाकरे
Tuesday, February 2, 2010
क्षेत्रीयता- एक खतरनाक संक्रामक रोग!
न तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने गलत कहा था और न ही भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी गलत कह रहे हैं। कांग्रेस के गृहमंत्री पी.चिदंबरम भी शतप्रतिशत सही हैं। इन लोगों ने यही तो कहा कि देश के सभी क्षेत्रों के भारतीयों को भारतीय सीमा के भीतर कहीं भी रहने और रोजी कमाने का अधिकार प्राप्त है- मुंबई अपवाद नहीं हो सकती। भारत में विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। ऐसे में जब बाल ठाकरे की शिवसेना और वस्तुत: उसी का एक अंश राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हिन्दी भाषियों और उत्तर भारतीयों पर हमला करती है- प्रताडि़त करती है, तब इनका विरोध कर भाजपा, संघ और कांग्रेस ने गलत क्या किया? संघ ने अपने स्वयंसेवकों को बिल्कुल सही निर्देश दिया है कि वे ऐसे हमलों से उत्तर भारतीयों की रक्षा करें। भाजपा ने इसका समर्थन किया और कांग्रेस ने भी शिवसेना की आलोचना की। 'हम सब भारतीय हैं' की अवधारणा का विरोध करने वाली शिवसेना का तिलमिलाना राष्ट्रविरोधी हरकत है। सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए इन दो सेनाओं का अभियान खतरनाक अलगाववाद को समर्थन देने वाला है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उध्दव ठाकरे की तिलमिलाहट एक गैरजिम्मेदार, तथ्यों से अनभिज्ञ की तिलमिलाहट है। संघ पर आक्रमण करते हुए उध्दव कहते हैं कि मुंबई में हुए दंगों के समय आरएसएस दुम दबाकर बैठा हुआ था। उध्दव के इस आरोप की सत्यता संदिग्ध है। लेकिन क्या उध्दव ठाकरे देश को यह बताएंगे कि मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमलों के समय शिवसैनिक किस दरबे में दुम दबाकर छुपे बैठे थे? क्यों नहीं बाहर निकलकर उन्होंने आतंकियों का सामना किया? आतंकियों ने हमला 'ठाकरे की मुंबई' पर किया था, उत्तर भारत के किसी शहर पर नहीं। कांग्रेस महामंत्री राहुल गांधी ने यह बता ही दिया कि आतंकियों का सामना करने में उत्तर भारतीय ही आगे रहे थे। उन्होंने वस्तुत: भारत के एक भाग पर हमले का मुकाबला किया था। क्षेत्रीयता और भाषा की संकीर्ण व आत्मघाती राजनीति को ठाकरे सिंचित न करें। यह एक खतरनाक संक्रामक रोग है। अगर इसका प्रसार होता रहा तब इसके विषाणु किसी को नहीं बख्शेंगे- न मराठी को, न उत्तर भारतीय को और न ही देश के किसी अन्य भाषा-भाषी को।
Monday, February 1, 2010
ठाकरे परिवार की यह कैसी स्पर्धा!
ताजा मामला ह्रदयाग्राही है। शिवसेना ने मुंबई और ठाणे सहित महाराष्ट्र के अन्य शहरों के सिनेमागृह मालिकों को फतवा जारी कर कहा है कि वे प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता शाहरूख खान के फिल्मों को थियेटर में न लगाएं। क्या दोष है शाहरूख का? पिछले दिनों आईपीएल द्वारा आयोजित किए जा रहे क्रिकेट मैचों के लिए खिलाडिय़ों की नीलामी में किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी के लिए बोली नहीं लगाई गई। शाहरूख ने इस पर टिप्पणी करते हुए सिर्फ यह कहा था कि पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ गलत हुआ। शिवसेना प्रमुख बिफर उठे। उन्होंने शाहरूख को देशद्रोही करार दे दिया। ठाकरे की राजनीतिक सोच ने बयान को पाकिस्तान समर्थक निरूपित कर डाला। फरमान जारी हो गया कि शाहरूख की फिल्में थियेटरों में न लगाई जाए। बाल ठाकरे की इस 'अदालत' को किस रूप में देखा जाए? देशद्रोही या राष्ट्रभक्ति पर फैसला लेने का अधिकार इन्हें किसने दिया? सिर्फ शाहरूख की फिल्में नहीं लगाए जाने का फरमान ही जारी नहीं हुआ, यह भी ऐलान किया गया कि जब तक शाहरूख खान शिवसेना प्रमुख बालठाकरे से माफी नहीं मांगते, तब तक उनके फिल्मों का बहिष्कार जारी रहे। देश का लोकतंत्र क्या ऐसे किसी संविधानेत्तर सत्ता को स्वीकार करेगा? तोड़-फोड़, भय और अलगाववाद की बुनियाद पर राजनीति करने वाली ठाकरे एंड कंपनी की इन हरकतों को आखिर कब तक बर्दाश्त किया जाएगा? यह तो अब स्पष्ट हो गया है कि शिवसेना की ताजा अराजक सक्रियता वस्तुत: राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की गुंडागर्दी से ज्यादा कठोर दिखने के लिए है। अब लगभग अशक्त हो चुके बाल ठाकरे नहीं चाहते कि अराजकता की जिस बुनियाद पर शिवसेना खड़ी हुई थी, उसका राज ठाकरे अपहरण कर ले जाएं। वे इस बुनियाद पर एकाधिकार चाहते हैं, अपने उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के लिए। क्या यह शर्मनाक नहीं कि गुंडागर्दी की इस स्पर्धा में पूरे महाराष्ट्र राज्य का अपमान किया जा रहा है? ठाकरे बंधु तो इसकी चिंता करेंगे नहीं। खेद है कि राज्य सरकार भी इस मुद्दे पर तटस्थ दिख रही है। शासक यह न भूलें कि ऐसी अवस्थाएं ही कालांतर में आत्मघाती सिद्ध होती हैं।
क्या राजनीति की परिभाषा बदलेंगे गडकरी?
बहरहाल, इस विचार के प्रतिपादक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सशर्त साधुवाद। शर्त यह कि वे अपने विचार पर कायम रहें और व्यवहार के स्तर पर उन्हें क्रियान्वित करें। क्या गडकरी सत्ता शक्ति और सत्ता प्रलोभन के बाड़े को तोड़कर ऐसा कर पाएंगे? यह सवाल आज प्रत्येक राजनीतिक चिंतक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित कर रहा है। घोर निजी स्वार्थ और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था क्या गडकरी को उनकी 'राजनीतिक क्रांति' के लिए मार्ग सुलभ होने देगी? उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों के जानकार निराश नहीं हैं। आशावान हैं वे कि गडकरी लक्ष्य-मार्ग स्वयं तलाश कर राजनीति की परिभाषा बदल देंगे। लक्ष्य कोई भी असाध्य नहीं होता। दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण अंतत: लक्ष्य को अपनी गोद में बैठाने में सफल हो जाता है। गडकरी ने लगभग 2 दशक से अधिक की अवधि में उन्हें नजदीक से देखा-परखा है। कोई आडम्बर नहीं, प्रलोभन नहीं। ख्याली पुलाव से स्वयं को मुगालते में नहीं रखते। कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं। पूर्णत: व्यावहारिक। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं तो पालते हैं। किन्तु उनकी सीढिय़ां आर्थिक और सामाजिक विकास के दालान में जाकर समाप्त होती है। एक समीक्षक ने उनकी तुलना अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से यूं ही नहीं की है। अभिमान की जगह आत्मविश्वास के अस्त्र से लैस गडकरी की सोच कि 'गरीबी हटाना राजनीति का अंत होना चाहिए', उनका संपूर्ण वाङ्गमय है। अब फिर वही सवाल कि क्या गडकरी सफल हो पाएंगे?
दिल्ली के पत्रकार-राजनीतिक मित्र पूर्णत: आश्वस्त नहीं हैं। दिल्ली की दलदली राजनीति ही ऐसी है। सफेद बेदाग कपड़ों से उसे एलर्जी है। उसे यह बर्दाश्त नहीं कि किसी ऐसे बाहरी का वहां प्रवेश हो जो अपनी कार्यकुशलता का सफल मंचन कर दिखाए। इस मुकाम पर दिल्ली एक है- कोई पक्ष-विपक्ष नहीं। अपना-पराया नहीं। सो सुनियोजित तरीके से षड्यंत्र रच प्रचारतंत्र सक्रिय कर दिए गए- अनजान, अनुभवहीन के जुमले उछाले गए। लेकिन ये तत्व इस तथ्य को भूल गए कि गडकरी का अर्थ ही होता है- दुर्ग रक्षक। मेरे ये शब्द किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं, एक सोच, एक राष्ट्र हितचिंतक और एक सामाजिक सिद्धांत की स्वीकृति है। ध्यान रहे, आज देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है। प्राय: सभी राजनीतिक दल समय की इस मांग के प्रवाह के साथ हैं। निश्चय ही इसकी परिणति राष्ट्रीय स्तर पर बड़े परिवर्तन के रूप में होगी। अधिकार-एकाधिकार के ताने-बाने बिखर जाएंगे। नए परिदृश्य में राजनीति का पहिया आर्थिक, सामाजिक विकास की गाड़ी से जुड़ा मिलेगा। राजनीति में प्रवेश कर रहा कर्मठ युवा वर्ग इसे सुनिश्चित करेगा। यही तो है 'गडकरी लक्ष्य'! हां, इस बिंदु पर एक चेतावनी सभी राजदलों-राजनेताओं के लिए- पुजारी का अस्तित्व तभी तक है, जब मंदिर साबुत खड़ा हो। मंदिर ढहेगा तब पुजारी भी खत्म हो जाएंगे। ऐसे में मंदिर रूपी भारत देश की आभा, अखंडता पर कोई वार न करे।