अरुचिकर है यह !
पहले 'मुस्लिम-मुस्लिम' और अब 'दलित-दलित' का जाप ! किसी भी सभ्य शिक्षित समाज को यह स्वीकार नहीं हो सकता। और हम न तो असभ्य हैं, और न ही अशिक्षित! फिर इसकी निरंतरता? जरूरत पूर्णविराम की है, कठोर पहल की है। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो कौन ?
इस सवाल को लेकर भयभीत होने की जरूरत नहीं है। यह 'राजनीतिक भय' ही है जिसने इस प्रवृत्ति को फलने -फूलने दिया। सत्ता-वासना से अभिभूत राजनेता-राजदल इसका बेजां इस्तेमाल करते रहे हैं। देश- समाज को धर्म-संप्रदाय और जाति के नाम पर बांटने में कोई हिचकिचाहट इन्होंने नहीं दिखाई। नतीजा सामने है। 21वीं सदी की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जहां हमें मजबूत विकास मार्ग पर कदमताल करना चाहिए था, हम धर्म-जाति का ढोल पिटते रहे। पिट रहे हैं, और सभी पिट रहे हैं। क्या सत्तापक्ष, क्या विपक्ष, इस राजनीतिक स्वार्थ पर सभी एक साथ हैं। समाज विभाजित होता है, देश विभाजित होता है तो होता रहे, इनकी चिंता है तो सिर्फसत्ता प्राप्ति की। सत्ता सुख की प्रबल लालसा के समक्ष आम जनता का सुख किसी कोने में सिसकने को मजबूर है। लेकिन अब और नहीं! आम जनता आगे आए, युवा पीढ़ी नेतृत्व करे और स्वार्थ आधारित इस 'राज-इच्छा' को दफना दें।
प्रमाण मौजूद हैं इस प्रवृत्ति के विकास- विरोधी खतरनाक अंजाम के। बिहार का उदाहरण देना चाहूंगा। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव ने अपने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से बिहार के (अविभाजित) पूरे समाज को जातीय आधार पर विभाजित कर डाला। विकास की कीमत पर जातीयता को प्राथमिकता दी गई। नतीजतन भ्रष्टाचार के दानव ने अपने हाथ-पैर फैलाने शुरू कर दिए। प्रबुद्ध वर्ग की आपत्ति-प्रतिरोध को निर्ममतापूर्वक कुचलकर जातीयता और सिर्फ जातीयता का प्रचार-प्रसार किया गया। परिणामस्वरुप राजनीतिक लाभ उठाते हुए लालू यादव व उनके परिवार ने लगातार पंद्रह वर्षों तक बिहार पर राज किया। किंतु इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि उन पंद्रह वर्ष के शासन के दरम्यान बिहार में विकास के नाम पर एक भी 'लाल ईंट' नहीं लगी। पहले से ही पिछड़ा बिहार और पिछड़ गया। अराजकता फैली, भय- आतंक ने पांव पसारे । उस काल का दंश आज भी महसूस किया जाता है। यह एक उदाहरण जातीयता के खिलाफ राष्ट्रीय जागृति के लिए है।
क्या देश का कोई राज्य उपर्युक्त 'बिहार-मंचन' चाहेगा? सवाल ही पैदा नहीं होता। अब तो स्वयं बिहार भी नहीं।
इसे चिन्हित कर दिया जाए कि सांप्रदायिकता से कहीं अधिक खतरनाक जातीयता का रोग है। फिर दलित-राग की गूंज को अनुमति क्यों ? वह भी जब इसका इस्तेमाल जाति-विशेष उत्थान के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब उसने 'मुस्लिम-वोटबैंक' की राजनीति को सींचा था। विपक्ष में आने के बाद भी उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया। दु:खद रूप से इसकी काट के रूप में 'दलित -वोटबैंक' की राजनीति को पैदा किया गया है। हैरानी इस बात पर है कि वर्तमान सत्तापक्ष भाजपा इसे उर्वरक प्रदान कर रही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए धर्म-संप्रदाय या जाति के नाम पर समाज के विभाजन की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती। चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, मुलायम की सपा हो या फिर मायावती की बसपा ! चूंकि सभी के अपने -अपने स्वार्थ हैं, सत्ता और विपक्ष दोनों इसे हवा देते रहेंगे। लेकिन समाज इस विषाक्त हवा को गले के नीचे क्यों उतारे? समाज और व्यापक राष्ट्रहित के लिए संविधान और कानून मौजूद हैं। इनका उपयोग हो।
जब धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते, इनका दुरूपयोग नहीं किया जा सकता, तब फिर जाति के नाम पर क्यों? चुनाव आयोग पहल करे! धर्म और संप्रदाय की भांति जाति अर्थात दलित आदि के नाम पर वोट मांगे जाने को अपराध घोषित किया जाय। इन नाम पर वोट की राजनीति करनेवालों को अयोग्य घोषित कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। जिस प्रकार जाति-सूचक संबोधन कानूनन अपराध है उसी प्रकार समुदाय-जाति के नाम पर वोट मांगे जाने को भी संज्ञेय अपराध घोषित किया जाए।
पहले 'मुस्लिम-मुस्लिम' और अब 'दलित-दलित' का जाप ! किसी भी सभ्य शिक्षित समाज को यह स्वीकार नहीं हो सकता। और हम न तो असभ्य हैं, और न ही अशिक्षित! फिर इसकी निरंतरता? जरूरत पूर्णविराम की है, कठोर पहल की है। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो कौन ?
इस सवाल को लेकर भयभीत होने की जरूरत नहीं है। यह 'राजनीतिक भय' ही है जिसने इस प्रवृत्ति को फलने -फूलने दिया। सत्ता-वासना से अभिभूत राजनेता-राजदल इसका बेजां इस्तेमाल करते रहे हैं। देश- समाज को धर्म-संप्रदाय और जाति के नाम पर बांटने में कोई हिचकिचाहट इन्होंने नहीं दिखाई। नतीजा सामने है। 21वीं सदी की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जहां हमें मजबूत विकास मार्ग पर कदमताल करना चाहिए था, हम धर्म-जाति का ढोल पिटते रहे। पिट रहे हैं, और सभी पिट रहे हैं। क्या सत्तापक्ष, क्या विपक्ष, इस राजनीतिक स्वार्थ पर सभी एक साथ हैं। समाज विभाजित होता है, देश विभाजित होता है तो होता रहे, इनकी चिंता है तो सिर्फसत्ता प्राप्ति की। सत्ता सुख की प्रबल लालसा के समक्ष आम जनता का सुख किसी कोने में सिसकने को मजबूर है। लेकिन अब और नहीं! आम जनता आगे आए, युवा पीढ़ी नेतृत्व करे और स्वार्थ आधारित इस 'राज-इच्छा' को दफना दें।
प्रमाण मौजूद हैं इस प्रवृत्ति के विकास- विरोधी खतरनाक अंजाम के। बिहार का उदाहरण देना चाहूंगा। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव ने अपने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से बिहार के (अविभाजित) पूरे समाज को जातीय आधार पर विभाजित कर डाला। विकास की कीमत पर जातीयता को प्राथमिकता दी गई। नतीजतन भ्रष्टाचार के दानव ने अपने हाथ-पैर फैलाने शुरू कर दिए। प्रबुद्ध वर्ग की आपत्ति-प्रतिरोध को निर्ममतापूर्वक कुचलकर जातीयता और सिर्फ जातीयता का प्रचार-प्रसार किया गया। परिणामस्वरुप राजनीतिक लाभ उठाते हुए लालू यादव व उनके परिवार ने लगातार पंद्रह वर्षों तक बिहार पर राज किया। किंतु इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि उन पंद्रह वर्ष के शासन के दरम्यान बिहार में विकास के नाम पर एक भी 'लाल ईंट' नहीं लगी। पहले से ही पिछड़ा बिहार और पिछड़ गया। अराजकता फैली, भय- आतंक ने पांव पसारे । उस काल का दंश आज भी महसूस किया जाता है। यह एक उदाहरण जातीयता के खिलाफ राष्ट्रीय जागृति के लिए है।
क्या देश का कोई राज्य उपर्युक्त 'बिहार-मंचन' चाहेगा? सवाल ही पैदा नहीं होता। अब तो स्वयं बिहार भी नहीं।
इसे चिन्हित कर दिया जाए कि सांप्रदायिकता से कहीं अधिक खतरनाक जातीयता का रोग है। फिर दलित-राग की गूंज को अनुमति क्यों ? वह भी जब इसका इस्तेमाल जाति-विशेष उत्थान के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब उसने 'मुस्लिम-वोटबैंक' की राजनीति को सींचा था। विपक्ष में आने के बाद भी उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया। दु:खद रूप से इसकी काट के रूप में 'दलित -वोटबैंक' की राजनीति को पैदा किया गया है। हैरानी इस बात पर है कि वर्तमान सत्तापक्ष भाजपा इसे उर्वरक प्रदान कर रही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए धर्म-संप्रदाय या जाति के नाम पर समाज के विभाजन की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती। चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, मुलायम की सपा हो या फिर मायावती की बसपा ! चूंकि सभी के अपने -अपने स्वार्थ हैं, सत्ता और विपक्ष दोनों इसे हवा देते रहेंगे। लेकिन समाज इस विषाक्त हवा को गले के नीचे क्यों उतारे? समाज और व्यापक राष्ट्रहित के लिए संविधान और कानून मौजूद हैं। इनका उपयोग हो।
जब धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते, इनका दुरूपयोग नहीं किया जा सकता, तब फिर जाति के नाम पर क्यों? चुनाव आयोग पहल करे! धर्म और संप्रदाय की भांति जाति अर्थात दलित आदि के नाम पर वोट मांगे जाने को अपराध घोषित किया जाय। इन नाम पर वोट की राजनीति करनेवालों को अयोग्य घोषित कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। जिस प्रकार जाति-सूचक संबोधन कानूनन अपराध है उसी प्रकार समुदाय-जाति के नाम पर वोट मांगे जाने को भी संज्ञेय अपराध घोषित किया जाए।
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