सत्तापक्ष के रणनीतिकारों की एक और आत्मघाती चूक। उस छात्र समुदाय को छेड़ दिया जिनकी अंगड़ाईयाँ या फिर विद्रोह सत्ता परिवर्तन का कारण बनती रही हैं! पहले हैदराबाद, फिर जेएनयू और अब जाधवपुर में। इन घटनाओं के पाश्र्व में निहित कारणों की पड़ताल से अलग यह सत्य, कड़वा सत्य, उभरकर सामने आया है कि पूरे देश में छात्र असंतोष मुखर होने को तत्पर है। क्या ऐसी परिणति से रणनीतिकार अनजान थे? या फिर, किसी गुप्त 'योजना' के तहत जान-बूझकर ऐसी स्थिति का निर्माण किया जा रहा है? ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त कर केंद्रीय सत्ता पर काबिज होनेवाली भारतीय जनता पार्टी की पहचान, सूझ-बूझ से परिपूर्ण राष्ट्रीय विचारकों की लंबी पंक्ति से युक्त एक शालीन राष्ट्रवादी राजनीतिक दल के रूप में रही है। फिर इसके रणनीतिकार ऐसी भूल कैसे कर बैठे? सामान्य चूक का तर्कस्वीकार्य नहीं। तो क्या किसी दूरगामी राजनीतिक 'प्रयोग' के रूप में इसे देखा जाए। अगर ऐसा है तो 'संभावित परिणाम' पर बहस स्वाभाविक है। प्रयोग के लिए भी समय और स्थान महत्व रखता है। और जब यह राजनीति से जुड़ा हो, सत्ता से जुड़ा हो तो प्रयोगधर्मी की 'नीयत' कसौटी पर कसी जाती है। 70 के दशक के आरंभ में गुजरात में छात्र असंतोष ने आंदोलन का रूप लिया था। विश्वसनीय नेतृत्व के अभाव में आरंभिक विफलता के बाद वह चिनगारी बिहार पहुंची। वहां जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वमान्य लोकप्रिय नेतृत्व आंदोलन को प्राप्त हुआ। चिनगारी ने दावानल का रूप लिया, जिसकी तपिश में पूरा भारत उद्वेलित हो उठा। आरंभ में सत्तापक्ष ने असंतोष को हल्के से लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पूछे जाने पर तब के बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने उन्हें जानकारी दी कि, ' मैडम ये कदमकुआं के एक जाति विशेष का आंदोलन है। मैं उन्हें (जेपी) उनके असली मुकाम पर पहुंचा दूंगा।' गफूर के उन शब्दों ने न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में ऐसी ज्वाला पैदा की, जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता को हिलाकर रख दिया। आंदोलन को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब आत्मघाती कदम उठाते हुए पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था। जयप्रकाश नारायण सहित इंदिरा और कांग्रेस सरकार का विरोध करने वाले सभी बड़े नेता, पत्रकार, बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया गया। छात्र तो गिरफ्तार किए ही गए थे। तब लगभग पूरा देश जेल में परिवर्तित हो गया था। लेकिन सत्ता-शासन के डंडे के बल पर विरोध के स्वर को कुचलने में सत्ता विफल साबित हुई। छात्र आक्रोश दमित होने के बजाए और मुखर हो उठा था। अंतत: छात्र आंदोलन की विजय हुई, सत्ता की पराजय हुई। तब देश में पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार सत्तारूढ़ हुई थी।
इस ऐतिहासिक तथ्य की मौजूदगी में छात्र और शिक्षण संस्थानों के साथ सत्तापक्ष की ओर से छेड़-छाड़ के संकेत मिलते हैं तब 'नीयत' की पड़ताल जरूरी हो जाती है। यह तो निर्विवाद है कि नई सरकार के गठन के बाद से 'विचारधारा' के आधार पर शिक्षण संस्थाओं को रास्ते पर लाने के प्रयास शुरू हो गए थे। नियुक्ति से लेकर पाठ्यक्रम के साथ छेड़-छाड़ के अनेक बेचैन करने वाले प्रसंग सामने आए। चाहे मामला पुणे स्थित फिल्म संस्थान का हो या कोलकाता स्थित अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्व भारती का या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों का, 'अनुकूल पात्र' के अरुचिकर प्रसंग सामने आए। विभिन्न राज्यों में विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी 'अनुकूल बदलाव' के दृष्टांत सामने लाए गए। विरोध और बहसें अभी भी जारी हैं। कालांतर में इनके संभावित हश्र पर फिलहाल चर्चा नहीं। चर्चा ताजातरीन विवाद जेएनयू और उससे जुड़ी घटनाओं पर।
जेएनयू परिसर में एक घोर आपत्तिजनक कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से राष्ट्र विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए गए। छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। विवाद का असली कारण यही बना। जिन तथ्यों के आधार पर कन्हैया कुमार को देशद्रोही बताया जा रहा है, वे संदिग्ध हैं।
यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि विश्वविद्यालय परिसर के अंदर आतंकी अफजल गुरु को महिमामंडित कर राष्ट्र विरोधी नारे लगाना, निश्चय ही एक गंभीर अपराध है। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन जो आरोप कन्हैया कुमार के ऊपर लगे उनके सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। मामले की जांच, निष्पक्ष जांच से ही असलियत सामने आ पाएगी। इस बिंदु पर दिल्ली पुलिस स्वयं एक पक्ष बनती नजर आ रही है। यह दु:खद है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। घटनाक्रम का विस्तार और भी दु:खद, बल्कि विस्मयकारी है। दो दिन बाद कन्हैया की पेशी के पूर्व अदालत परिसर व अदालत के कमरे में जो कुछ घटित हुआ, उससे पूरी की पूरी कानून और न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। अदालत के कमरे में छात्रों, शिक्षकों और कर्तव्य निष्पादन हेतु मौजूद मीडिया कर्मियों की पिटाई की गई। छात्राओं व महिला मीडियाकर्मियों को भी नहीं बख्शा गया। उनके साथ बदसलूकी भी हुई। विस्मयकारी यह कि तब अदालत के कमरे में मौजूद पुलिसकर्मी मूकदर्शक बने रहे। कमरे से सटे 'चेंबर' में मौजूद 'जज' भी बाहर नहीं निकले। और पिटाई करनेवाले कौन? 'न्याय मंदिर' में न्याय के पैरोकार अधिवक्ता, अर्थात वकील। जाहिर है कि ये वकील किसी विचारधारा से प्रभावित किसी खास उद्देश्य से अदालत के कमरे के अंदर अराजकता के तांडव का मंचन कर रहे थे। अपने पेशे को लांछित करते हुए वकीलों के जिस गुट ने अदालत के कमरे को प्रताडऩा-कक्ष में परिवर्तित कर डाला था, उनकी 'नीयत' की पड़ताल जरूरी है। चुन-चुन कर मीडिया कर्मियों की पिटाई कर बाहर निकालने का मतलब साफ है-पिटाई करनेवाले वकीलों का गुट नहीं चाहता था कि उनके घोर गैर-कानूनी अनैतिक कृत्य का कोई साक्ष्य सार्वजनिक हो। कन्हैया कुमार की अदालत में पेशी के ठीक पहले छात्रों, शिक्षकों और मीडियाकर्मियों की पहचान कर पिटाई करते हुए कमरे से बाहर क्यों निकाला गया? क्या वकीलों का गुट चाहता था कि कन्हैया की पेशी के समय अदालत के कमरे में अन्य कोई ना रहे? अगर इस संभावना में आंशिक सचाई भी निहित है तो एक अत्यंत ही बेचैन करने वाला असहज प्रश्न कि, क्या वकीलों की मंशा कुछ और थी? इस शंका का तार्किक निराकरण जरूरी है। क्योंकि इसके साथ न्याय मंदिर की पवित्रता, न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और न्याय के पैरोकारों की नैतिकता जुड़ी हुई है।
मैं चाहूंगा कि यह असहज संभावना या शंका गलत साबित हो। इसके लिए भी जरूरी है कि पूरे मामले की निष्पक्ष जांच-पड़ताल कर सच को सामने लाया जाए। सत्तापक्ष यानि भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी यह एक चुनौती पूर्ण समय है। मामले की गंभीर खतरनाक व्यापकता को ध्यान में रखकर ही प्रधानमंत्री ने यह टिप्पणी की होगी कि मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य का स्वागत। किंतु उनके शब्दों में निहित आश्वासन की असली परीक्षा व्यवहार के स्तर पर घटना की जांच के लिए उठाए गए कदमों से होगी। यह दोहराना ही होगा कि शासन की कुछ आरंभिक विफलताओं के बावजूद अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश का विश्वास प्राप्त है। ऐसे में क्या प्रधानमंत्री इस अद्भुत और निश्छल 'राष्ट्रीय विश्वास' को भंग करना चाहेंगे? कदापि नहीं। छात्र असंतोष के विस्तार को रोकना ही होगा। यह सत्तापक्ष और देशहित के लिए जरूरी है।विचारधारा संबंधी किसी प्रयोग का यह अवसर-काल नहीं है। अभी तो विकास आधारित वैश्विक उपलब्धियों के सपनों को साकार करने का समय है। 2014 के जनादेश में निहित अपेक्षाओं, विश्वास को पूरा करने का समय है। अपने 'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हें ही तो चिन्हित करते आ रहे हैं। फिर कोई व्यवधान क्यों?
सत्ता और संगठन दोनों इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही रणनीति तैयार करें, अंजाम दें। इसके लिए तात्कालिक जरूरत जेएनयू व इस सरीखे अन्य प्रकरण को विराम देने की है। जो हो गया, सो हो गया अब पूर्ण-विराम। रणनीतिकार इसे हृदयस्थ कर लें।
इस ऐतिहासिक तथ्य की मौजूदगी में छात्र और शिक्षण संस्थानों के साथ सत्तापक्ष की ओर से छेड़-छाड़ के संकेत मिलते हैं तब 'नीयत' की पड़ताल जरूरी हो जाती है। यह तो निर्विवाद है कि नई सरकार के गठन के बाद से 'विचारधारा' के आधार पर शिक्षण संस्थाओं को रास्ते पर लाने के प्रयास शुरू हो गए थे। नियुक्ति से लेकर पाठ्यक्रम के साथ छेड़-छाड़ के अनेक बेचैन करने वाले प्रसंग सामने आए। चाहे मामला पुणे स्थित फिल्म संस्थान का हो या कोलकाता स्थित अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्व भारती का या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों का, 'अनुकूल पात्र' के अरुचिकर प्रसंग सामने आए। विभिन्न राज्यों में विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी 'अनुकूल बदलाव' के दृष्टांत सामने लाए गए। विरोध और बहसें अभी भी जारी हैं। कालांतर में इनके संभावित हश्र पर फिलहाल चर्चा नहीं। चर्चा ताजातरीन विवाद जेएनयू और उससे जुड़ी घटनाओं पर।
जेएनयू परिसर में एक घोर आपत्तिजनक कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से राष्ट्र विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए गए। छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। विवाद का असली कारण यही बना। जिन तथ्यों के आधार पर कन्हैया कुमार को देशद्रोही बताया जा रहा है, वे संदिग्ध हैं।
यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि विश्वविद्यालय परिसर के अंदर आतंकी अफजल गुरु को महिमामंडित कर राष्ट्र विरोधी नारे लगाना, निश्चय ही एक गंभीर अपराध है। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन जो आरोप कन्हैया कुमार के ऊपर लगे उनके सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। मामले की जांच, निष्पक्ष जांच से ही असलियत सामने आ पाएगी। इस बिंदु पर दिल्ली पुलिस स्वयं एक पक्ष बनती नजर आ रही है। यह दु:खद है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। घटनाक्रम का विस्तार और भी दु:खद, बल्कि विस्मयकारी है। दो दिन बाद कन्हैया की पेशी के पूर्व अदालत परिसर व अदालत के कमरे में जो कुछ घटित हुआ, उससे पूरी की पूरी कानून और न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। अदालत के कमरे में छात्रों, शिक्षकों और कर्तव्य निष्पादन हेतु मौजूद मीडिया कर्मियों की पिटाई की गई। छात्राओं व महिला मीडियाकर्मियों को भी नहीं बख्शा गया। उनके साथ बदसलूकी भी हुई। विस्मयकारी यह कि तब अदालत के कमरे में मौजूद पुलिसकर्मी मूकदर्शक बने रहे। कमरे से सटे 'चेंबर' में मौजूद 'जज' भी बाहर नहीं निकले। और पिटाई करनेवाले कौन? 'न्याय मंदिर' में न्याय के पैरोकार अधिवक्ता, अर्थात वकील। जाहिर है कि ये वकील किसी विचारधारा से प्रभावित किसी खास उद्देश्य से अदालत के कमरे के अंदर अराजकता के तांडव का मंचन कर रहे थे। अपने पेशे को लांछित करते हुए वकीलों के जिस गुट ने अदालत के कमरे को प्रताडऩा-कक्ष में परिवर्तित कर डाला था, उनकी 'नीयत' की पड़ताल जरूरी है। चुन-चुन कर मीडिया कर्मियों की पिटाई कर बाहर निकालने का मतलब साफ है-पिटाई करनेवाले वकीलों का गुट नहीं चाहता था कि उनके घोर गैर-कानूनी अनैतिक कृत्य का कोई साक्ष्य सार्वजनिक हो। कन्हैया कुमार की अदालत में पेशी के ठीक पहले छात्रों, शिक्षकों और मीडियाकर्मियों की पहचान कर पिटाई करते हुए कमरे से बाहर क्यों निकाला गया? क्या वकीलों का गुट चाहता था कि कन्हैया की पेशी के समय अदालत के कमरे में अन्य कोई ना रहे? अगर इस संभावना में आंशिक सचाई भी निहित है तो एक अत्यंत ही बेचैन करने वाला असहज प्रश्न कि, क्या वकीलों की मंशा कुछ और थी? इस शंका का तार्किक निराकरण जरूरी है। क्योंकि इसके साथ न्याय मंदिर की पवित्रता, न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और न्याय के पैरोकारों की नैतिकता जुड़ी हुई है।
मैं चाहूंगा कि यह असहज संभावना या शंका गलत साबित हो। इसके लिए भी जरूरी है कि पूरे मामले की निष्पक्ष जांच-पड़ताल कर सच को सामने लाया जाए। सत्तापक्ष यानि भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी यह एक चुनौती पूर्ण समय है। मामले की गंभीर खतरनाक व्यापकता को ध्यान में रखकर ही प्रधानमंत्री ने यह टिप्पणी की होगी कि मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य का स्वागत। किंतु उनके शब्दों में निहित आश्वासन की असली परीक्षा व्यवहार के स्तर पर घटना की जांच के लिए उठाए गए कदमों से होगी। यह दोहराना ही होगा कि शासन की कुछ आरंभिक विफलताओं के बावजूद अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश का विश्वास प्राप्त है। ऐसे में क्या प्रधानमंत्री इस अद्भुत और निश्छल 'राष्ट्रीय विश्वास' को भंग करना चाहेंगे? कदापि नहीं। छात्र असंतोष के विस्तार को रोकना ही होगा। यह सत्तापक्ष और देशहित के लिए जरूरी है।विचारधारा संबंधी किसी प्रयोग का यह अवसर-काल नहीं है। अभी तो विकास आधारित वैश्विक उपलब्धियों के सपनों को साकार करने का समय है। 2014 के जनादेश में निहित अपेक्षाओं, विश्वास को पूरा करने का समय है। अपने 'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हें ही तो चिन्हित करते आ रहे हैं। फिर कोई व्यवधान क्यों?
सत्ता और संगठन दोनों इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही रणनीति तैयार करें, अंजाम दें। इसके लिए तात्कालिक जरूरत जेएनयू व इस सरीखे अन्य प्रकरण को विराम देने की है। जो हो गया, सो हो गया अब पूर्ण-विराम। रणनीतिकार इसे हृदयस्थ कर लें।
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