प्रधानमंत्री जी!
'भारतीय मन' बेचैन है, हतप्रभ है!
आपको यह बताने की जरुरत क्यों पड़ी कि आप भाजपा के नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं? और, यह कि विपक्ष व एनजीओ आपको खत्म करना चाहते हैं, अपदस्थ करना चाहते हैं? आपके प्रधानमंत्री पद की हैसियत को किसने चुनौती दी? किसने कहा, नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं? राजनीतिक चुहलबाजियों की परवाह न करें, ऐतिहासिक जनादेश के साथ अर्थात 'भारतीय मन' की इच्छा के अनुरूप भारत के प्रधानमंत्री आप ही हैं। कोई सिरफिरा ही आपकी इस हैसियत को चुनौती देगा। बावजूद इसके आपने इसका संज्ञान लिया तो कैसे?
देश का लोकतंत्र आपसे जवाब चाहता है। देश की जनता ने पूरे विश्वास के साथ आप पर भरोसा कर देश के शासन की बागडोर आपके हाथ में सौंप दी। भारतीय लोकतंत्र, समाज और देश के प्रति आपकी प्रतिबद्धता और समर्पण पर भारत ने विश्वास जताया। आरंभिक झंझावातों के बावजूद विश्वास आज भी कायम है। ऐसे में जब नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसा मजबूत कर्मठ प्रधानमंत्री चिन्हित करें कि 'मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं', तो सवाल तो खड़े होंगे ही! यह शंका भी कि कहीं आप स्वयं को असुरक्षित तो नहीं मानने लगे? अगर यह शंका आंशिक रूप से भी सच है तब दु:खद है। दोहरा दूं कि देश का आपके प्रति विश्वास आज भी कायम है। कतिपय विफलताओं के बावजूद देश अभी भी आपको संदेह का लाभ देने को तैयार है। किंतु 'समयावधि' और 'सीमा' की शर्त तो रहेगी ही।
केंद्रीय सत्ता का आपका पहला अनुभव और इसी तरह आपके अनेक साथियों के नवीन अनुभव के कारण अति उत्साह आधारित ऐसे अनेक प्रसंग लगभग एक वर्ष पूर्व सामने आए थे, जिसने अनेक असहज सवाल खड़े कर दिये थे। स्वयं सत्ता-संगठन और इससे बाहर असहज सवाल आपकी नीति और नीयत को लेकर पूछे जाने लगे। ऐसा तब हुआ जब आप आशाओं, अपेक्षाओं के झूले पर सवार हो इंद्रधुनष की भांति विश्व नीलाभ पर अवतरित हुए। राजनीतिक पंडितों के लिए अकल्पनीय आपका वह उदय 'भारतीय मन' की हिलोरें मारती आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में रेखांकित हुआ। इस पाश्र्व में सवाल खड़े हुए कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? विपक्ष नहीं, स्वयं आपकी पार्टी, सरकार और देश की जनता के एक वर्ग के बीच सवाल पूछा जाने लगा कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? क्या मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर 'रिमोट' अपने हाथ में रखना चाहते हैं? मोदी को 'सिर्फ' 'हां' चाहिए, विरोध स्वरूप 'ना' नहीं चाहिए। क्या मोदी तानाशाह बनना चाहते हैं? मोदी विश्व शांतिदूत बनना चाहते हैं? मोदी लोकतंत्रिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं? मोदी हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं? मोदी विपक्ष मुक्त लोकतंत्र चाहते हैं? मोदी भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते हैं? मोदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भगवा लहराना चाहते हैं? मोदी शब्दों की खुराक से 'बीमार' भारत को 'निरोग' करना चाहते हैं? मोदी परिवारवाद, वंशवाद खत्म करना चाहते हैं? मोदी सबका विकास सबका साथ चाहते हैं? मोदी सिर्फ चुने हुए औद्योगिक घरानों का विकास चाहते हैं? मोदी दमित इच्छायुक्त कुंठाग्रस्त व्यक्ति हैं? मोदी अल्पसंख्यक विरोधी हैं? मोदी सिर्फ व्यक्तिगत आभा मंडल की चमक के हिमायती हैं? मोदी भाषा-जुबान संस्कृति में भी परिवर्तन चाहते हैं? मोदी 'मेक इन इंडिया' का विस्तार कर 'मेड फार वल्र्ड' की पताका लहराना चाहते हैं? ये सभी सवाल आज भी गुंजायमान हैं। इनके जवाब आपको ही देने हैं। शंकायुक्त ये सवाल पूर्णत: निराधार भी नहीं है।
प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही ऐसी संभावना व्यक्त की गई थी कि आने वाले समय में एक नया द्वंद्व खड़ा होगा-मोदी बनाम शेष का। सत्ता और संगठन के बीच सुगबुगाहट ऐसी संभावना के आधार बने थे। फुसफुसाहट में ही सही शंका उभरी थी कि आनेवाले समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल विपक्ष बल्कि अपनी पार्टी और सहयोगी संगठनों के 'धुरंधरों' से निपटना होगा। लेकिन सुखद रूप से यह भी कहा गया था कि इस नये द्वंद में अंतत: विजयी नरेंद्र दामोदरदास मोदी ही होंगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मोदी को उन तत्वों से फिलहाल आंतरिक चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई हैं? क्या इसी से मजबूर होकर प्रधानमंत्री मोदी को अपनी 'हैसियत' को चिन्हित करना पड़ा।
इतिहास गवाह है आपके जैसे दृढ़ संकल्प व्यक्ति को आसानी से कभी लक्ष्य प्राप्त होने नहीं दिया गया। संघर्ष होते रहे, इतिहास में नये-नये अध्याय जुड़ते चले गये। लेकिन कड़वा सच यह कि आज तक कोई भी नेतृत्व निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाया। ऐसे में अगर कोई लक्ष्य के निकट भी पहुंच पाता है तो देश उसे अपना स्थायी सिरमौर बनाने में हिचकेगा नहीं। यह सत्य अडिग है। प्रधानमंत्रीजी! फिर आप विचलित क्यों हो रहे हैं? देश ने हमेशा साफ नीयत नेतृत्व को अपना 'महानायक' बनाया है।
'भारतीय मन' बेचैन है, हतप्रभ है!
आपको यह बताने की जरुरत क्यों पड़ी कि आप भाजपा के नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं? और, यह कि विपक्ष व एनजीओ आपको खत्म करना चाहते हैं, अपदस्थ करना चाहते हैं? आपके प्रधानमंत्री पद की हैसियत को किसने चुनौती दी? किसने कहा, नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं? राजनीतिक चुहलबाजियों की परवाह न करें, ऐतिहासिक जनादेश के साथ अर्थात 'भारतीय मन' की इच्छा के अनुरूप भारत के प्रधानमंत्री आप ही हैं। कोई सिरफिरा ही आपकी इस हैसियत को चुनौती देगा। बावजूद इसके आपने इसका संज्ञान लिया तो कैसे?
देश का लोकतंत्र आपसे जवाब चाहता है। देश की जनता ने पूरे विश्वास के साथ आप पर भरोसा कर देश के शासन की बागडोर आपके हाथ में सौंप दी। भारतीय लोकतंत्र, समाज और देश के प्रति आपकी प्रतिबद्धता और समर्पण पर भारत ने विश्वास जताया। आरंभिक झंझावातों के बावजूद विश्वास आज भी कायम है। ऐसे में जब नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसा मजबूत कर्मठ प्रधानमंत्री चिन्हित करें कि 'मैं भाजपा का नहीं, देश का प्रधानमंत्री हूं', तो सवाल तो खड़े होंगे ही! यह शंका भी कि कहीं आप स्वयं को असुरक्षित तो नहीं मानने लगे? अगर यह शंका आंशिक रूप से भी सच है तब दु:खद है। दोहरा दूं कि देश का आपके प्रति विश्वास आज भी कायम है। कतिपय विफलताओं के बावजूद देश अभी भी आपको संदेह का लाभ देने को तैयार है। किंतु 'समयावधि' और 'सीमा' की शर्त तो रहेगी ही।
केंद्रीय सत्ता का आपका पहला अनुभव और इसी तरह आपके अनेक साथियों के नवीन अनुभव के कारण अति उत्साह आधारित ऐसे अनेक प्रसंग लगभग एक वर्ष पूर्व सामने आए थे, जिसने अनेक असहज सवाल खड़े कर दिये थे। स्वयं सत्ता-संगठन और इससे बाहर असहज सवाल आपकी नीति और नीयत को लेकर पूछे जाने लगे। ऐसा तब हुआ जब आप आशाओं, अपेक्षाओं के झूले पर सवार हो इंद्रधुनष की भांति विश्व नीलाभ पर अवतरित हुए। राजनीतिक पंडितों के लिए अकल्पनीय आपका वह उदय 'भारतीय मन' की हिलोरें मारती आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में रेखांकित हुआ। इस पाश्र्व में सवाल खड़े हुए कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? विपक्ष नहीं, स्वयं आपकी पार्टी, सरकार और देश की जनता के एक वर्ग के बीच सवाल पूछा जाने लगा कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते क्या हैं? क्या मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर 'रिमोट' अपने हाथ में रखना चाहते हैं? मोदी को 'सिर्फ' 'हां' चाहिए, विरोध स्वरूप 'ना' नहीं चाहिए। क्या मोदी तानाशाह बनना चाहते हैं? मोदी विश्व शांतिदूत बनना चाहते हैं? मोदी लोकतंत्रिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं? मोदी हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं? मोदी विपक्ष मुक्त लोकतंत्र चाहते हैं? मोदी भ्रष्टाचारमुक्त भारत चाहते हैं? मोदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भगवा लहराना चाहते हैं? मोदी शब्दों की खुराक से 'बीमार' भारत को 'निरोग' करना चाहते हैं? मोदी परिवारवाद, वंशवाद खत्म करना चाहते हैं? मोदी सबका विकास सबका साथ चाहते हैं? मोदी सिर्फ चुने हुए औद्योगिक घरानों का विकास चाहते हैं? मोदी दमित इच्छायुक्त कुंठाग्रस्त व्यक्ति हैं? मोदी अल्पसंख्यक विरोधी हैं? मोदी सिर्फ व्यक्तिगत आभा मंडल की चमक के हिमायती हैं? मोदी भाषा-जुबान संस्कृति में भी परिवर्तन चाहते हैं? मोदी 'मेक इन इंडिया' का विस्तार कर 'मेड फार वल्र्ड' की पताका लहराना चाहते हैं? ये सभी सवाल आज भी गुंजायमान हैं। इनके जवाब आपको ही देने हैं। शंकायुक्त ये सवाल पूर्णत: निराधार भी नहीं है।
प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही ऐसी संभावना व्यक्त की गई थी कि आने वाले समय में एक नया द्वंद्व खड़ा होगा-मोदी बनाम शेष का। सत्ता और संगठन के बीच सुगबुगाहट ऐसी संभावना के आधार बने थे। फुसफुसाहट में ही सही शंका उभरी थी कि आनेवाले समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल विपक्ष बल्कि अपनी पार्टी और सहयोगी संगठनों के 'धुरंधरों' से निपटना होगा। लेकिन सुखद रूप से यह भी कहा गया था कि इस नये द्वंद में अंतत: विजयी नरेंद्र दामोदरदास मोदी ही होंगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मोदी को उन तत्वों से फिलहाल आंतरिक चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई हैं? क्या इसी से मजबूर होकर प्रधानमंत्री मोदी को अपनी 'हैसियत' को चिन्हित करना पड़ा।
इतिहास गवाह है आपके जैसे दृढ़ संकल्प व्यक्ति को आसानी से कभी लक्ष्य प्राप्त होने नहीं दिया गया। संघर्ष होते रहे, इतिहास में नये-नये अध्याय जुड़ते चले गये। लेकिन कड़वा सच यह कि आज तक कोई भी नेतृत्व निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाया। ऐसे में अगर कोई लक्ष्य के निकट भी पहुंच पाता है तो देश उसे अपना स्थायी सिरमौर बनाने में हिचकेगा नहीं। यह सत्य अडिग है। प्रधानमंत्रीजी! फिर आप विचलित क्यों हो रहे हैं? देश ने हमेशा साफ नीयत नेतृत्व को अपना 'महानायक' बनाया है।
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