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Friday, February 26, 2016

जेएनयू परिसर में 'टैंक'... खतरनाक सुझाव

समाज के दो महत्वपूर्ण अंग छात्र और वकील समुदाय में आपराधिक, राजनीतिक विभाजन के बाद पूरे राष्ट्र की सुरक्षा के जिम्मेदार सैनिकों के बीच राजनीतिक विभाजन की खतरनाक कोशिशों पर तत्काल अंकुश लगाया जाए।  पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि खबरिया   'चैनल' अपनी बहसों में भूतपूर्व सैनिक अधिकारियों को विशेषज्ञ अतिथि के रूप में शामिल कर रहे हैं। सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंध के मामलों में उनके विशेषज्ञ विचारों का तो स्वागत है, किंतु राजनीति से जुड़े मुद्दों में उनकी सहभागिता खतरनाक है। जेएनयू विवाद में एक 'चैनल'  पर एक भूतपूर्व सैन्य अधिकारी को यह कहते सुना गया कि अभी तो भूतपूर्व सैनिकों में असंतोष उभरा है, अगर कार्यरत सैनिकों में ऐसा हो जाए तो...  क्या पूर्व अधिकारी चेतावनी दे रहे थे? बहस के आयोजक 'चैनलों' को चाहिए कि बहस के उनके सार्थक मंचों का ऐसा खतरनाक उपयोग न होने दें। जेएनयू मामला शत-प्रतिशत राजनीतिक स्वरूप ले चुका है। राष्ट्रभक्ति बनाम राष्ट्रद्रोह का जुमला उछाल सभी राजनीतिक दल इसका राजनीतिक लाभ उठाना चाह रहे हैं। ऐसे में पूर्व सैन्य अधिकारियों, कर्मियों को इस विवाद से दूर रहना चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। विगत बुधवार को पूरा देश स्तब्ध रह गया, जब सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों ने जेएनयू प्रशासन को विश्वविद्यालय परिसर के अंदर एक 'टैंक' स्थापित करने का सुझाव दे डाला। 'महा बुद्धिमानी'! पूर्व सैन्य अधिकारी विश्वविद्यालय परिसर में टैंक खड़ा कर छात्रों के बीच राष्ट्रभक्ति की भावना उत्पन्न करने का तर्क दे रहे थे। छात्रों के मन में राष्ट्रभक्ति पैदा करने का ऐसा हास्यास्पद उपक्रम! क्या युद्ध में काम आनेवाले 'टैंक' विश्वविद्यालय में छात्रों को राष्ट्रभावना की प्रेरणा दे सकते हैं।
शौर्य के प्रतीक के रूप में टैंक का प्रदर्शन तो ठीक है, किंतु जिस संदर्भ में सैनिकों ने विश्वविद्यालय परिसर के अंदर इसकी स्थापना का सुझाव दिया वह आपत्तिजनक है।  एक राजदल से संबद्ध छात्र संगठन के कार्यक्रम में उपस्थित होकर इन पूर्व सैनिकों ने अपनी निष्पक्षता को संदिग्ध बना डाला है। अगर उन्हें राजनीति करनी है तो वे स्वतंत्र हैं। किंतु तब उन्हें सैनिक के लबादे का त्याग करना होगा। दु:खद और आपत्तिजनक बात तो यह कि तब ये पूर्व सैनिक अपनी पूरी वर्दी में तमगों के साथ कार्यक्रम में मौजूद थे। सैनिकों का किसी राजदल के साथ संबंद्धता लोकतंत्र के पूरे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा। अनुशासित भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास रहा है। देश की सीमा के रक्षार्थ उनकी कुर्बानियां इतिहास में स्वर्णिम शब्दों में मौजूद हैं। राष्ट्रीयता और कर्तव्य तो उनके पवित्र मूल मंत्र हैं। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ता परिवर्तन स्वाभाविक है। होते भी रहे हैं। किंतु सेना निष्पक्षता के साथ देश की सुरक्षा के पक्ष में अपना कर्तव्य निष्पादन करती रही है। अनेक अधिकारी अवकाश प्राप्त करने के बाद सक्रिय राजनीति में आए हैं, देश ने उनका स्वागत भी किया है। किंतु सैनिक वर्दी में उनसे ऐसी आशा नहीं की जा सकती। यह तो अपराध की श्रेणी का है, कर्तव्य विमुखता है। बल्कि कर्तव्य के साथ ऐसा घात, जिसे अंतत: राष्ट्रीय विश्वासघात के रूप में देखा जाएगा। अभी भी विलंब नहीं हुआ है, पूर्व सैनिक ऐसी हरकतों से बचें। मीडिया भी इन्हें हतोत्साहित करे।

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