प्रहरी से मार्गदर्शक!
कर्ण प्रिय हैं ये शब्द। सुनने में अच्छे लगते हैं, पढऩे में भी अच्छे लगते हैं । लेकिन वास्तविकता अथवा सचाई की जमीन पर कुकुरमुत्ते की तरह उपजे कड़वे सच इसे सामने से चुनौती देते स्पष्टत: परिलक्षित हैं। फिर तो इसकी चीर-फाड़ होगी ही। चलिए चाकू उठा लिया जाए।
इंडियन लॉ इंस्टिट्युट के सुप्रसिद्ध प्राध्यापक डॉ. एस. शिवकुमार की एक नई पुस्तक आई है- 'प्रेस लॉ एंड जर्नलिस्टस वॉचडॉग टू गाइड डॉग'। डॉ. कुमार दावा करते हैं कि उन्होंने भारतीय पत्रकारों को समाज के प्रति जिम्मेदारी के एहसास के साथ दायित्व निर्वाह करते देखा है। 'प्रेस' जिस प्रकार विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के साथ-साथ समाज के अन्य क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देता है, उससे प्रेरित होकर ही उन्होंने प्रेस को 'वॉच डॉग' से आगे 'गाइड डॉग' निरूपित किया है। अपनी इस वंदना से प्रेस बिरादरी स्वाभाविक रुप से पुलकित है।
लेकिन आलोचक-समालोचक भी ताल ठोंकने लगे कि अगर प्रेस इतना ही जिम्मेदार है तब फिर प्रधानमंत्री, मंत्री, नेता और आम लोगों का एक बड़ा-बहुत बड़ा वर्ग इसे 'वेश्या- सदृश' क्यों निरुपित कर रहा है? संक्रामक की तरह पांव पसार चुके 'सोशल मीडिया' पर पत्रकारों के लिए प्रतिकूल विशेषणों की खतरनाक व्यापक मौजूदगी क्यों? क्या ये बिरादरी के लिए असहज स्थिति नहीं है?
नि:संदेह समाज-शासन की हर विधा के लिए प्रेस की भूमिका प्रहरी अर्थात 'वॉच डॉग' से आगे मार्गदर्शक अर्थात 'गाइड डॉग' अपेक्षित है। 'प्रेस' के प्रति यह राष्ट्रीय अपेक्षा दायित्व व कर्तव्य को चिन्हित करता है। जब-जब इसे नजरअंदाज किया गया, आत्मघाती सिद्ध हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि बुरी तरह बदनाम हो चुकी राजनीतिक बिरादरी के समकक्ष पत्रकार बिरादरी को भी रखा जाने लगा। जिन विशेषणों से राजनीतिज्ञों को विभूषित किया जाता है, उनसे कहीं गंदे विशेषणों का इस्तेमाल आज पत्रकारों के लिए किया जाने लगा है। विश्वसनीयता के एक शर्मनाक दौर से 'प्रेस' को गुजरना पड़ रहा है। कारण की पड़ताल कठीन नहीं। साफ -साफ दिख रहा है कि अपने निजी व संस्थागत लाभ के लिए पत्रकार तथा मीडिया संस्थान पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत के साथ हर पल समझौता कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो देश -समाज के प्रति दायित्व, कर्तव्य निर्वाह से इतर इनकी भूमिका 'मार्गदर्शक' की तो कतई नहीं रह गई है। सत्ता-शासन व व्यावसायिक घरानों से जुड़ ये अपने लिए धन उपार्जन के साथ-साथ शासकीय तमगों के आकांक्षी बन गए हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष में इन्हें भी सत्ता सुख चाहिए, पुरस्कार चाहिए, सम्मान चाहिए। इन्हें हासिल करने के लिए ये कुछ भी करने को तत्पर मिलते हैं। इस तथ्य को भूल जाते हैं कि पुरस्कार और सम्मान स्वयं इनके कदम चूमेंगे अगर ये ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय दायित्व का निर्वाह करें।
प्रख्यात पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने पिछले दिनों अपने एक स्तंभ में टिप्पणी की थी कि पत्रकार को चाहिए कि वह खुद को पुरस्कार और तिरस्कार से ऊंचा उठाए रखे। वैदिक आगे लिखते हैं कि ''मैं ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूं जो इन प्रभावहीन पुरस्कारों के लिए प्रयास करते रहते हैं। एक बार एक ही अखबार के दो पत्रकारों को पद्मश्री मिल गया। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा,'एक खरीदो तो दूसरा मुफ्त।' ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्हें खोज-खोज कर पुरस्कार दिए जाते हैं। ज्यादातर लोग कतार में रहते हैं।'' वैदिक गलत नहीं हैं, पुरस्कारों से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक के लिए पत्रकारों को जुगाड़ बिठाते देखा जा सकता है। ऐसे में पत्रकार न तो 'वॉच डॉग' रह पाते हैं और न ही डॉ. शिवकुमार कल्पित 'गाइड डॉग'।
बावजूद इसके हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं। पत्रकार बिरादरी में आज भी, अपवाद स्वरुप ही सही, ऐसे पत्रकार मौजूद हैं जो शासकीय दबाव, प्रलोभन से दूर ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। यह दोहराना ही होगा कि प्रख्यात पत्रकार स्व. निखिल चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय सम्मान पद्मभूषण लेने से इन्कार कर दिया था। राष्ट्रीय स्तर पर जहां ऐसे सम्मान और अन्य 'तोहफों' के लिए शासन के समक्ष नाक रगडऩेवाले, बल्कि गिड़गिड़ानेवाले पत्रकारों की लंबी पंक्ति देखी जा सकती है, वहीं ऐसे पत्रकार भी मौजूद हैं जो ऐसी 'पेशकश' को अपने जूतों की नोंक पर रखते हैं।
कांग्रेस के एक बड़े नेता, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार दो-टूक कहा था कि, ''हम सत्ता में हैं तो हम चाहेंगे कि 'प्रेस' हमारा महिमामंडन करे, हमारा गुणगान करे..। हमारे पास दबाव और प्रलोभन के अनेक साधन मौजूद हैं..यह आप (पत्रकार) पर निर्भर करता है कि आप हमारे दबाव, प्रलोभन में फंसते हैं या नहीं।'' दिग्विजय जैसे शासकों की वह चुनौती समयानुसार बदलते स्वरुप में, आज भी मौजूद है। सचमुच, यह बिरादरी पर निर्भर करता है कि वे 'माया-मोह' में फंसें या 'माया-मुक्त' रहें।
चुनौती का सामना करने और कर्तव्य का निर्वाह करने के मार्ग में आनेवाले अवरोधकों को दूर कर ही पत्रकार 'गाइड डॉग' की भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। ध्यान रहे डॉ.शिवकुमार की अपेक्षा उनकी व्यक्तिगत अपेक्षा न होकर राष्ट्रीय अपेक्षा है। गिरावट के बावजूद देश-समाज आज भी पत्रकारिता और पत्रकारों को लोकतंत्र के 'पवित्र मंदिर' में स्थापित देखना चाहता है- सत्ता की कालिख भरी कोठरी या 'राज दरबार' में पूंछ हिलाते नहीं!
कर्ण प्रिय हैं ये शब्द। सुनने में अच्छे लगते हैं, पढऩे में भी अच्छे लगते हैं । लेकिन वास्तविकता अथवा सचाई की जमीन पर कुकुरमुत्ते की तरह उपजे कड़वे सच इसे सामने से चुनौती देते स्पष्टत: परिलक्षित हैं। फिर तो इसकी चीर-फाड़ होगी ही। चलिए चाकू उठा लिया जाए।
इंडियन लॉ इंस्टिट्युट के सुप्रसिद्ध प्राध्यापक डॉ. एस. शिवकुमार की एक नई पुस्तक आई है- 'प्रेस लॉ एंड जर्नलिस्टस वॉचडॉग टू गाइड डॉग'। डॉ. कुमार दावा करते हैं कि उन्होंने भारतीय पत्रकारों को समाज के प्रति जिम्मेदारी के एहसास के साथ दायित्व निर्वाह करते देखा है। 'प्रेस' जिस प्रकार विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के साथ-साथ समाज के अन्य क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देता है, उससे प्रेरित होकर ही उन्होंने प्रेस को 'वॉच डॉग' से आगे 'गाइड डॉग' निरूपित किया है। अपनी इस वंदना से प्रेस बिरादरी स्वाभाविक रुप से पुलकित है।
लेकिन आलोचक-समालोचक भी ताल ठोंकने लगे कि अगर प्रेस इतना ही जिम्मेदार है तब फिर प्रधानमंत्री, मंत्री, नेता और आम लोगों का एक बड़ा-बहुत बड़ा वर्ग इसे 'वेश्या- सदृश' क्यों निरुपित कर रहा है? संक्रामक की तरह पांव पसार चुके 'सोशल मीडिया' पर पत्रकारों के लिए प्रतिकूल विशेषणों की खतरनाक व्यापक मौजूदगी क्यों? क्या ये बिरादरी के लिए असहज स्थिति नहीं है?
नि:संदेह समाज-शासन की हर विधा के लिए प्रेस की भूमिका प्रहरी अर्थात 'वॉच डॉग' से आगे मार्गदर्शक अर्थात 'गाइड डॉग' अपेक्षित है। 'प्रेस' के प्रति यह राष्ट्रीय अपेक्षा दायित्व व कर्तव्य को चिन्हित करता है। जब-जब इसे नजरअंदाज किया गया, आत्मघाती सिद्ध हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि बुरी तरह बदनाम हो चुकी राजनीतिक बिरादरी के समकक्ष पत्रकार बिरादरी को भी रखा जाने लगा। जिन विशेषणों से राजनीतिज्ञों को विभूषित किया जाता है, उनसे कहीं गंदे विशेषणों का इस्तेमाल आज पत्रकारों के लिए किया जाने लगा है। विश्वसनीयता के एक शर्मनाक दौर से 'प्रेस' को गुजरना पड़ रहा है। कारण की पड़ताल कठीन नहीं। साफ -साफ दिख रहा है कि अपने निजी व संस्थागत लाभ के लिए पत्रकार तथा मीडिया संस्थान पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत के साथ हर पल समझौता कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो देश -समाज के प्रति दायित्व, कर्तव्य निर्वाह से इतर इनकी भूमिका 'मार्गदर्शक' की तो कतई नहीं रह गई है। सत्ता-शासन व व्यावसायिक घरानों से जुड़ ये अपने लिए धन उपार्जन के साथ-साथ शासकीय तमगों के आकांक्षी बन गए हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष में इन्हें भी सत्ता सुख चाहिए, पुरस्कार चाहिए, सम्मान चाहिए। इन्हें हासिल करने के लिए ये कुछ भी करने को तत्पर मिलते हैं। इस तथ्य को भूल जाते हैं कि पुरस्कार और सम्मान स्वयं इनके कदम चूमेंगे अगर ये ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय दायित्व का निर्वाह करें।
प्रख्यात पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने पिछले दिनों अपने एक स्तंभ में टिप्पणी की थी कि पत्रकार को चाहिए कि वह खुद को पुरस्कार और तिरस्कार से ऊंचा उठाए रखे। वैदिक आगे लिखते हैं कि ''मैं ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूं जो इन प्रभावहीन पुरस्कारों के लिए प्रयास करते रहते हैं। एक बार एक ही अखबार के दो पत्रकारों को पद्मश्री मिल गया। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा,'एक खरीदो तो दूसरा मुफ्त।' ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्हें खोज-खोज कर पुरस्कार दिए जाते हैं। ज्यादातर लोग कतार में रहते हैं।'' वैदिक गलत नहीं हैं, पुरस्कारों से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक के लिए पत्रकारों को जुगाड़ बिठाते देखा जा सकता है। ऐसे में पत्रकार न तो 'वॉच डॉग' रह पाते हैं और न ही डॉ. शिवकुमार कल्पित 'गाइड डॉग'।
बावजूद इसके हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं। पत्रकार बिरादरी में आज भी, अपवाद स्वरुप ही सही, ऐसे पत्रकार मौजूद हैं जो शासकीय दबाव, प्रलोभन से दूर ईमानदारी पूर्वक पत्रकारीय कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। यह दोहराना ही होगा कि प्रख्यात पत्रकार स्व. निखिल चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय सम्मान पद्मभूषण लेने से इन्कार कर दिया था। राष्ट्रीय स्तर पर जहां ऐसे सम्मान और अन्य 'तोहफों' के लिए शासन के समक्ष नाक रगडऩेवाले, बल्कि गिड़गिड़ानेवाले पत्रकारों की लंबी पंक्ति देखी जा सकती है, वहीं ऐसे पत्रकार भी मौजूद हैं जो ऐसी 'पेशकश' को अपने जूतों की नोंक पर रखते हैं।
कांग्रेस के एक बड़े नेता, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार दो-टूक कहा था कि, ''हम सत्ता में हैं तो हम चाहेंगे कि 'प्रेस' हमारा महिमामंडन करे, हमारा गुणगान करे..। हमारे पास दबाव और प्रलोभन के अनेक साधन मौजूद हैं..यह आप (पत्रकार) पर निर्भर करता है कि आप हमारे दबाव, प्रलोभन में फंसते हैं या नहीं।'' दिग्विजय जैसे शासकों की वह चुनौती समयानुसार बदलते स्वरुप में, आज भी मौजूद है। सचमुच, यह बिरादरी पर निर्भर करता है कि वे 'माया-मोह' में फंसें या 'माया-मुक्त' रहें।
चुनौती का सामना करने और कर्तव्य का निर्वाह करने के मार्ग में आनेवाले अवरोधकों को दूर कर ही पत्रकार 'गाइड डॉग' की भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। ध्यान रहे डॉ.शिवकुमार की अपेक्षा उनकी व्यक्तिगत अपेक्षा न होकर राष्ट्रीय अपेक्षा है। गिरावट के बावजूद देश-समाज आज भी पत्रकारिता और पत्रकारों को लोकतंत्र के 'पवित्र मंदिर' में स्थापित देखना चाहता है- सत्ता की कालिख भरी कोठरी या 'राज दरबार' में पूंछ हिलाते नहीं!
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