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Friday, February 6, 2009

राजनीति के हमाम में ये नंगे!


हेडमास्टर सोम दा ने एक बार फिर देश को निराश किया है. औरों की तरह मैं भी दुखी हूं. सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा के सिंहासन पर बैठा व्यक्ति जब स्वप्रतिपादित सिद्धांत का खंडन करता दिखे तब लोगबाग निराश तो होंगे ही. हां, मैं चर्चा लोकसभा अध्यक्ष मारक्सवादी सोमनाथ चटर्जी की ही कर रहा हूं. वे चाहे जितनी सफाई दे लें, अब आम लोगों की नजर में वे सत्ता सुख भोगी एक साधारण इंसान बनकर रह गए हैं. पिछले वर्ष केंद्र की संप्रग सरकार के विरूद्ध लोकसभा में पेश अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने कपड़े उतार सत्तापक्ष का साथ देने वाले चटर्जी की छवि तभी दागदार बन गई थी. भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालास्वामी के मामले में सोम दा का ताजा बयान एक बार फिर उन्हें कटघरे में खड़ा कर देने वाला है. जरा उनके बयान की बानगी देखें- चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त की आलोचना करते हुए लोकसभाध्यक्ष कहते हैं कि 'हम अपना काम करने की बजाय खुद को दूसरे से बेहतर दिखाने में लगे हैं... हर एक संस्थान के लिए एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिये.'
लगता है सोम दा 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली पुरानी कहावत को भूल गये हैं. गोपालास्वामी ने तो अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए संदिग्ध आचरण वाले अपने सहयोगी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी. उन्होंने न तो स्वयं को दूसरों से बेहतर बताया और न ही किसी अन्य के दायित्व का निर्वहन किया. अब सोम दा स्वयं बता दें कि गोपालास्वामी के विशुद्घ कर्तव्य निर्वाह पर वे तिलमिला क्यों उठे? यह तो साफ है कि चुनाव आयोग लोकसभाध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. जाहिर है कि स्वयं सोम दा दूसरे के कार्य क्षेत्र में टांग अड़ाने के अपराधी बन बैठे. क्यों ? इसका जवाब तो भविष्य में शायद लोकसभाध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद ही देश को मिलेगा. फिलहाल तो यही परिलक्षित है कि वे किसी 'लक्ष्य' को सामने रखकर केंद्र की संप्रग सरकार की अगुवा पार्टी कांग्रेस को खुश करने में लगे हैं. सोमदा, कृपया वचन और व्यवहार के अंतर को समझें- लोकसभा की लक्ष्मण रेखा को ठीक से पहचान लें - अपनी नसीहत को पहले खुद पर लागू करें- खुद को दूसरों से बेहतर साबित करने की ऐसी कोशिश आपके द्वारा ही प्रतिपादित सिद्धांत के विरूद्ध है. लेकिन अकेले सोमनाथ चटर्जी को ही आईना क्यों दिखाया जाए.
शासन में भ्रष्टाचार समाप्त कर इसे स्वच्छ और पारदर्शी बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार ने सूचना के अधिकार के रूप में एक क्रांतिकारी पहल की थी. ऐसा लगा था कि अब आजाद देश के आजाद नागरिक को अपने शासकों के क्रिया कलापों तथा उससे संबंधित अन्य जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी. भ्रष्टाचार, अनियमितता व पक्षपात पर इससे अंकुश लग सकेगा. इसकी पारदर्शी रोशनी के भय से शासक प्रशासक स्वयं को पाक साफ रखने की कोशिश करेंगे. पारदर्शी शासन और समाज का एक नया युग इस कानून के द्वारा शुरू होगा. लेकिन यहां भी लोगों को निराशा मिलने लगी है. पहले तो न्यायाधीशों ने स्वयं को जनता के इस अधिकार की परिधि से बाहर कर दिया और अब प्रधानमंत्री कार्यालय मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों को भी कानून से उपर रखने की जुगत करने लगा है. प्रधानमंत्री कार्यालय ने मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों की संपत्ति का ब्यौरा देने से मना कर दिया है. जनता द्वारा निर्वाचित एक जनप्रतिनिधि मंत्री बनने के बाद ऐसे कानून की परिधि से बाहर क्यों? यह तो सूचना के अधिकार की मूल भावना के साथ बलात्कार है. मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे की जानकारी से जनता को वंचित कर क्या प्रधानमंत्री कार्यालय अर्थात प्रधानमंत्री स्वयं मंत्रियों को संदिग्ध नहीं बना रहे. मंत्री बनने के बाद अवैध संपत्ति जमा करने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं. ऐसी अवैध-अघोषित संपत्ति के कारण कुछ मंत्रियों के खिलाफ न्यायालय में मामले भी चलते रहे हैं. ऐसे मंत्रियों को उच्च स्तर पर संरक्षण क्यों? बात प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की उठी है तब अटल बिहारी वाजपेयी की याद जरूरी है. जब लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस जारी थी तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं पहल करते हुए सुझाव दिया था कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल की जांच की परिधि में रखा जाए. जनता के शासन का तकाजा भी यही है. खेद है कि कांग्रेस नेतृत्व की वर्तमान केंद्र सरकार ऐसी जरूरतों को या तो भूल गई है या भूलने का नाटक कर रही है. लोकतंत्र में ऐसा नैतिक पतन अंतत: आत्मघाती सिद्ध होता है. प्रसंगवश मैं इस बिंदू पर बुजुर्ग माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के शब्दों को उद्धृत करना चाहूंगा. सुरभि बनर्जी ने ज्योति बसु की अधिकृत जीवनी में लिखा है कि राजनीति में नैतिकता के ह्रास की शुरुआत इंदिरा गांधी के शासन काल में ही हुई थी. क्या वर्तमान कांग्रेसी शासक इतिहास में ऐसे काले अध्याय से देश को मुक्ति दिलाएंगे? अन्यथा देश यह मान लेगा कि राजनीति के हमाम में सभी के सभी नंगे हैं.

2 comments:

चलते चलते said...

नंगे ना होते तो ये राजनीति में ही नहीं होते।

Anonymous said...

यह बात तो सच में हज़म नही होती की क्यों न्यायाधीशों व शीर्ष मंत्रियों को को संपत्ति का ब्यौरा देने पर आपत्ति है, जब तक पारदर्शिता नही आएगी तब तक जनता का कैसे इन सब पर विश्वास बन सकेगा। इसमें हर्ज़ ही क्या है?