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Sunday, September 26, 2010

'नायक' पर वार को तत्पर ये 'खलनायक'!

सुबह-सुबह टेलीफोन पर एक मित्र द्वारा व्यक्त जिज्ञासा ने मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ दिया। मित्र जानना चाहते थे कि भारत के राजनेता बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन से सबक क्यों नहीं लेते! अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी के लिए साम-दाम-दंड-भेद के हथियारों से लैस एक-दूसरे के विरुद्ध लडऩे वाले राजनीति के ये योद्धा आज एकसाथ मिलजुलकर सरकार कैसे चला रहे हैं? राष्ट्रपति बनने के बाद कटुता त्यागकर अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी को सरकार में शामिल कर महत्वपूर्ण विदेश विभाग सौंप ओबामा ने सहृदयता और विश्वास की जो मिसाल कायम की, उसकी अनदेखी क्यों? हमारे राजनेता क्यों नहीं उनका अनुसरण कर पाते? निश्चय ही यह जिज्ञासा राजनीति के विद्यार्थियों को प्रेरित करेगी। वैसे मित्र ने महाशक्ति अमेरिका की हर क्षेत्र में सफलता के लिए इस अमेरिकी चरित्र को चिन्हित भी किया। प्रसंग था भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के 'मिशन-2014' और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं के राजनीतिक अंत:पुर में पक रही खिचड़ी का। मित्र की इस जिज्ञासा ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर भाजपा जैसी बड़ी पार्टी के बड़े नेता अपनी ही पार्टी के मार्ग में गड्ढïे क्यों खोद रहे हैं? कहीं सिर्फ अहंï की तुष्टि के लिए ही तो नहीं? पिछले 2 चुनावों में नेताओं के अहंकार के कारण पराजित भाजपा का नया नेतृत्व अगर अगले चुनाव के लिए विजय का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है तब उसके मार्ग में अवरोधक क्यों? यह ठीक है कि मन की दुष्प्रवृत्ति के बेलगाम होने पर ऐसे खलनायक का जन्म होता है जो अपने नायक की पीठ पर वार करने से नहीं चूकता। अगर पार्टी के कथित बड़े नेता इस दुष्प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं तो उनका इलाज किया जाना चाहिए। यह विचित्र है कि पार्टी के नए नेतृत्व को निर्णय क्षमता की कसौटी पर अयोग्य करार देने वाला पार्टी का यह गुट अब पार्टी हित में नेतृत्व द्वारा लिए जा रहे निर्णय पर बेचैन हो गया है। मैं यहां किसी की सोच को अथवा विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दे रहा। मेरी पीड़ा लोकतांत्रिक प्रणाली को पहुंचाई जा रही चोट और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य को लेकर है। स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व देने के नाम पर वर्षों मतदाता का भावनात्मक शोषण कर सत्ता प्राप्त करती रही कांग्रेस पार्टी चूंकि अब भारत और भारतीयता को भूलती जा रही है, राष्ट्रहित में उसका विकल्प आवश्यक है। भारत की विशिष्ट पहचान उसकी महान संस्कृति और सभ्यता रही है। ज्यादा विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह रेखांकित किया जा सकता है कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में आज देश का बहुमत भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है। लोगों ने इसे सत्ता सौंपी थी लेकिन पार्टी के कतिपय नेताओं के अहंकार और तुच्छ स्वार्थी नीतियों के कारण पिछले दो चुनावों में इसे मुंह की खानी पड़ी। सत्ता सिंहासन अनायास कांग्रेस और उसके सहयोगियों की झोली में चला गया। वैश्विक स्पर्धा और विकास के नाम पर ऐसी नीतियां बनीं जिसने समाज में अमीरी और गरीबी के बीच खाई और चौड़ी कर दी। अमीरों का एक विशेष वर्ग तैयार कर उसे भारत बताया जाने लगा। जबकि हकीकत में गरीबों की फौज बढ़ती गई और गलत नीतियों के कारण पूरे देश में अराजक स्थिति पैदा हो गई। आतंकवाद के रूप में अलगाववादियों के पांव मजबूत हुए। देश पर और एक विभाजन का खतरा मंडराने लगा। अपने ही देश में लोगों को यह समझाने की जरूरत आन पड़ी कि सभी भारतीय हैं। इससे अधिक हास्यास्पद स्थिति और क्या हो सकती है। उत्तर-पूर्व के क्षेत्र हों या फिर जम्मू-कश्मीर, वहां असुरक्षा की बढ़ती भावना ने सरकार के प्रति विश्वास को डिगा दिया है। दुश्मन देश सक्रिय हो इस असहज स्थिति का लाभ उठाने का षडय़ंत्र रच रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की जमीन पर अब 'आजादी' का नारा बुलंद होने लगा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। निश्चय ही यह सब शासकों की गलत नीतियां, निज स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण संभव हो पाया है। अब अगर देशवासी एक सशक्त राष्ट्रवादी विकल्प चाहते हैं तो बिल्कुल सही ही। भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे अनुकूल अवसर और कुछ नहीं हो सकता। पार्टी के नए नेतृत्व ने इस अवसर को भांपकर ही 'मिशन-2014' का लक्ष्य निर्धारित किया है। मैं व्यक्तिगत जानकारी और अनुभव के आधार पर यह शब्दांकित करने की स्थिति में हूं कि पार्टी नेतृत्व के शीर्ष पद की आकांक्षा पालने वाले कथित बड़े नेतागण खलनायक की भूमिका में सक्रिय हैं। सार्वजनिक मंचों से नए नेतृत्व की प्रशंसा करने वाला यह वर्ग अपने विश्वस्तों से निजी बातचीत में मिशन को विफल बनाने का षडय़ंत्र रचता रहता है। लोकतंत्र के लिए यह एक अत्यंत ही दुखद घटना विकासक्रम है। अगर कोई मंदिर का महंत बनना चाहता है तो जरूरी तो यह है कि पहले मंदिर को सुरक्षित रखा जाए। फिर महंतगीरी के दावे किए जा सकते हैं। लेकिन यहां तो मंदिर को ही ढहाने को तत्पर ये दिख रहे हैं। पिछले दिनों नए नेतृत्व की ओर से एक सुखद संकेत यह अवश्य मिला कि उसने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए सकारात्मक निर्णय लेना शुरू कर दिया है। ऐसे में मठाधीशों की बेचैनी पर कोई आश्चर्य नहीं। हां, नेतृत्व से पार्टी का आम कार्यकर्ता और पार्टी के प्रति समर्पित नेता यह अपेक्षा अवश्य कर रहा है कि मठाधीशों के वार से नेतृत्व अविचलित आगे बढ़ता रहेगा- जीवन के इस सत्य को समझकर कि भूतकाल का सत्य तो भोगा जा चुका है, अब वह वर्तमान के कटु सत्य का मंथन कर भविष्य के लिए एक नए शुद्ध सत्य को जन्म देगा।

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