Tuesday, September 28, 2010
सेक्स, पैसा, नेता और खेल!
अगर असलम शेर खान सच बोल रहे हैं तब खेल संगठनों से जुड़े राजनेतागण चुल्लूभर पानी में डूब मरें। क्या ऐसा करने की हिम्मत उनमें है? शायद नहीं। क्योंकि राजनीति की मोटी चमड़ी शर्म को नहीं बेशर्मी को पनाह देती है। भारत के लिए औपनिवेशिक शर्म राष्ट्रकुल खेल के बहाने ही सही खेल के एक और सच ने हमारे नेताओं की कलई अनावरित कर दी है। विभिन्न खेल संगठनों में नेताओं की दिलचस्पी पर भौंहें तनती रही हैं। लेकिन हॉकी आलिम्पियन और पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री ने सीधे यह कहकर कि सेक्स और पैसे के लिए नेता ऐसे संगठनों से जुड़ते हैं, भूचाल ला दिया है। सचमुच यह आश्चर्यजनक है कि शरद पवार, विलासराव देशमुख, सुरेश कलमाड़ी, राजीव शुक्ला, लालू प्रसाद यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण जेटली, मनोहर जोशी आदि नेताओं को क्रिकेट व अन्य खेलों से क्या लेना-देना रहा है जो ये इन संगठनों पर काबिज होने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं! एक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही लें। हजारों करोड़ रुपयों का वारा-न्यारा करने वाले इस संगठन पर आश्चर्यजनक रूप से नेताओं व अन्य गैरखिलाडिय़ों का कब्जा रहा है। निश्चय ही इसके पीछे ग्लैमर और पैसे का आकर्षण रहा है। वरना शरद पवार जैसे कद्दावर नेता, केंद्रीय मंत्री के पास इन संगठनों को चलाने के लिए समय कैसे मिल पाया? वे वर्षों भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे और अब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष हैं। निश्चय ही राजनीति से इतर कोई चुंबकीय आकर्षण अवश्य है। इसी प्रकार यह पूछा जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव, विलासराव देशमुख और अरुण जेटली जैसे राजनीति के 'फुलटाइमर' खेल संगठनों के लिए समय कैसे निकाल पाते हैं? यह निश्चय ही शोध का विषय है। मैं यह नहीं कहता कि असलम शेर खान के आरोप शतप्रतिशत सही हैं। बल्कि सच तो यह है कि हाल के दिनों में कतिपय खिलाडिय़ों ने सार्वजनिक रूप से यौन शोषण के आरोप नेताओं पर नहीं बल्कि गैरराजनीतिक खेल पदाधिकारियों पर लगाए हैं। लेकिन जहां तक अन्य आकर्षण का सवाल है, उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। भारत में क्रिकेट और हॉकी सबसे अधिक लोकप्रिय खेल हैं। इनमें खिलाडिय़ों के लिए प्रचुर धन भी है और राष्ट्रीय सम्मान भी। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रतिभाएं अवसर से वंचित रह जाती हैं? खिलाडिय़ों के चयन को लेकर हमेशा संदेह प्रकट किए गए हैं। क्षेत्रीयता का दंश अनेक प्रतिभाओं को डंस चुका है। संगठन के शीर्ष पर राजनेताओं की मौजूदगी के कारण भी पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। और तो और, पैसे का लोभ ऐसा कि सट्टïेबाजी और मैच फिक्सिंग में भी खिलाडिय़ों के नाम शुमार किए जा चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन, मनोज प्रभाकर और अजय जडेजा जैसे महान खिलाडिय़ों पर ऐसे आरोप लग चुके हैं। मोहम्मद अजहरुद्दीन को तो आजीवन प्रतिबंधित तक कर दिया गया। वैसे राजनीति के इस निराले खेल ने अजहरुद्दीन को लोकसभा में पहुंचा दिया है। लेकिन यह अलग विषय है। फिलहाल असलम शेर खान के आरोप के आलोक में बेहतर होगा कि इस पर बहस हो और खेल की पवित्रता के हक में कड़े कदम उठाए जाएं। इस दिशा में पहला कदम यह हो कि सभी खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त किया जाए। खेलों से जुड़ी हस्तियों को ऐसी जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। हमारे देश में सुनील गावसकर, कपिलदेव, के. श्रीकांत, रवि शास्त्री, मोहिन्दर अमरनाथ, धनराज पिल्ले, परगट सिंह आदि महान पूर्व खिलाड़ी मौजूद हैं। क्यों नहीं इनके अनुभव का लाभ खेल और खिलाडिय़ों को मिले। क्या इस पर कोई मतभेद हो सकता है कि राजनेताओं से कहीं अधिक अच्छे ढंग से ये खिलाड़ी खेल संगठनों का नेतृत्व करेंगे? पिछले दिनों संसद एवं संसद के बाहर ऐसी मांग उठी भी थी। असलम शेर खान के खुलासे के बाद तो यह और भी जरूरी प्रतीत होने लगा है। सरकार पहल करे। जरूरत पड़े तो कानून बनाकर खेल संगठनों को राजनेताओं के चंगुल से मुक्त कराया जाए। राजनेता राजनीति करें। यह उनका पेशा है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। बल्कि खेल संगठनों से विलग होकर राजनेता मतदाता और देश के प्रति अधिक न्याय कर पाएंगे। इसी प्रकार जब पूर्व महान खिलाडिय़ों को खेल संगठनों के नेतृत्व का दायित्व सौंपा जाएगा, तभी खेल और खिलाडिय़ों के साथ सही न्याय हो पाएगा। प्रतिभाओं को न्याय मिलेगा, अवसर मिलेगा, तब निश्चय ही देश भी गौरवान्वित होगा।
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83 वर्षीय विद्या स्टोक्स भारतीय हाकी की सिरमौर ४१ वोट पाकर बन जाती हैं और परगट सिंह को मात्र २१ वोट मिलते हैं तो ऐसे में जान लीजिये कि हाकी किस दिशा में जा रही है.. बाकी सभी एक ही थैली के हैं...
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