अगर 'सठियाना' आज भी प्रासंगिक है, तब यही कहा जा सकता है कि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे पूरी तरह सठिया गए हैं। समझ में नहीं आता कि उन्होंने यह भ्रम कैसे पाल लिया है कि मुंबई उनकी जागीर है? जब भी कोई मुंबई के संदर्भ में राष्ट्रीयता अथवा भारतीयता की बातें करता है, ठाकरे उसे मुंबई विरोधी व मराठी विरोधी निरूपित कर देते हैं। मुंबई को भारतीयता से पृथक पेश कर ठाकरे आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? उनकी सोच अत्यंत ही संकुचित है। यह तो अब दोहराना ही होगा कि वे जातीयता और क्षेत्रीयता की खतरनाक राजनीति को सिंचित कर रहे हैं। उस जहरीली प्रवृत्ति को ऊर्जा दे रहे हैं ठाकरे, जिस पर तत्काल काबू नहीं पाया गया तो वह एक दिन सांप्रदायिकता का तांडव ही मंचित नहीं करेगा बल्कि देश को खंडित करने का कारण भी बनेगा। दुख और आश्चर्य यह भी कि महाराष्ट्र जैसे आदर्श प्रदेश में एक निर्वाचित मजबूत सरकार तो है किन्तु ठाकरे एवं उन जैसे अलगाववादी तत्वों पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। क्या मजबूरी है उनकी? वरुण गांधी अल्पसंख्यकों के खिलाफ कथित रूप से भड़काऊ भाषण देते हैं तो उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार जेल भेज देती है। यहां प्रदेश में बाल ठाकरे एवं उनके भतीजे राज ठाकरे सार्वजनिक रूप से जातीयता, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता का जहर उगलते हैं और बेखौफ विचरने के लिए स्वतंत्र हैं। क्यों?
बाल ठाकरे उद्योगपति मुकेश अंबानी को चेतावनी देते हैं कि वे बिजनेस करें, राजनीति नहीं। मुकेश अंबानी को ठाकरे ने इस लिए निशाने पर लिया कि उन्होंने मुंबई को सभी भारतीयों का शहर बता दिया। क्या गलत कहा था अंबानी ने? क्या मुंबई भारतीय संघ से बाहर है? इस पर ठाकरे का बिफरना हास्यास्पद है। इसके पूर्व जब सचिन तेंदुलकर ने यही बात कही थी तब भी ठाकरे क्रोधित हो उठे थे। ठाकरे का यह कहना कि मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है और रहेगी तथा यह कि मुंबई, चेन्नई और दिल्ली सभी भारतीयों की है तब अंबानी अहमदाबाद, जामनगर और राजकोट जैसे शहरों को क्यों छोड़ देते हैं, ठाकरे के दिमागी दिवालिएपन का सूचक है। अव्वल तो महाराष्ट्र की राजधानी के रूप में मुंबई को कोई चुनौती नहीं दे रहा। दूसरे मुंबई, चेन्नई और दिल्ली का उदाहरण देने वाले वस्तुत: महानगरों की चर्चा करते हैं। अहमदाबाद, जामनगर और राजकोट या फिर बंगलुरु, अहमदाबाद, लखनऊ आदि नगर तो भारतीय संघ के अंग हैं ही, सभी शहरों पर सभी भारतीयों का अधिकार है। इसकी चर्चा ही व्यर्थ है। मुंबई और मराठी मानुस को आहत करने का सवाल ही नहीं उठता। मुंबई में या देश के अन्य शहरों में कार्यरत रिलायंस कंपनियां भारतीय औद्योगिक विकास की प्रतीक हैं। उन पर सभी का अधिकार है। कोई इस बात को भी चुनौती नहीं दे सकता कि अंबानी के औद्योगिक साम्राज्य का विस्तार मुंबई और महाराष्ट्र की वजह से ही हुआ। अंबानी परिवार ने इस तथ्य से कभी इंकार नहीं किया। फिर बाल ठाकरे क्यों तिलमिलाए? जवाब बाल ठाकरे को ही देना है। लोग-बाग यह तो पूछ ही रहे हैं कि जब आस्टे्रलिया में हो रहे भारतीयों पर हमले की निंदा बाल ठाकरे करते हैं और आस्टे्रलियाई क्रिकेट खिलाडिय़ों के भारत में खेलने के खिलाफ आवाज उठाते हैं तब खुद मुंबई में उनके लोग गैर मराठियों को निशाना क्यों बना रहे हैं। लोग तो अब यहां तक पूछने लगे हैं कि क्या बाल ठाकरे तमाम गैर मराठी उद्योगपतियों और हिंदी फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को मुंबई व महाराष्ट्र से निकल जाने का अभियान चलाएंगे? बाल ठाकरे इसकी परिणति की कल्पना कर लें। शेष मुंबई का अवशेष तब ठाकरे एवं उनके सहयोगियों को समुद्र की ओर मुंह करने को विवश कर देगा। बेहतर हो ठाकरे नेतागीरी करें, दादागीरी नहीं।
Saturday, January 30, 2010
Friday, January 29, 2010
पद्मभूषण से 'उपकृत' एक दलाल!
किंवदंती बन चुके कुख्यात ठग नटवरलाल की आज बरबस याद आ रही है। जिन दिनों भारत विदेशी मुद्रा के घोर संकट के दौर से गुजर रहा था, नटवरलाल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को प्रस्ताव दिया था कि अगर सरकार उसके सभी अपराधों को माफ कर दे और अनुमति दे तब वह विदेशों में कुछ करतब दिखा भारतीय विदेशी मुद्रा कोष को भर देगा। जाहिर है प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। आज नटवरलाल की याद आ रही है, भारतीय मूल के अमेरिकी होटल उद्योगपति संत सिंह चटवाल को पद्मभूषण से अलंकृत किये जाने के संदर्भ में। पूरे देश में बहस छिड़ी है कि लाखों-करोड़ों की ठगी का आरोपी, दीवालिया और झूठी जानकारी देने वाले को भारत सरकार ने पद्मभूषण जैसे पवित्र, बड़े सम्मान से सुशोभित कैसे किया। केंद्र सरकार चटवाल पर लगाए जा रहे आरोपों को खारिज कर रही है। भारत सरकार की सफाई किसी के गले नहीं उतर रही। बल्कि केंद्र सरकार ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। केंद्र सरकार का यह तर्क कि चटवाल अमेरिका में भारतीय हितों का प्रबल पैरोकार है, अनेक शंकाओं को जन्म देने वाला है। सरकार की ओर से यह सफाई कि चटवाल के खिलाफ अब भारत में कोई मामला दर्ज नहीं है, कानून उल्लंघन के नए दरवाजे खोलने वाला है। चटवाल अमेरिका में किन भारतीय हितों को अंजाम दे रहा है? भारतीय जनता पार्टी ने चटवाल को एक दलाल के रूप में निरूपित किया है। क्या केंद्र सरकार के पास इस आरोप का कोई जवाब है? हो ही नहीं सकता! जानकार इस बात की पुष्टि करेंगे कि जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार के मुद्दे को प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार के अस्तित्व को दांव पर लगाते हुए व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्र बना लिया था, तब संत सिंह चटवाल ने अमेरिका में भारत की ओर से एक दलाल की ही भूमिका अदा की थी। बगैर मेहनताने के नहीं, उसे भारत सरकार की ओर से 'उपकृत' किया गया था। देशहित साधने के लिए प्रत्येक सरकार ऐसे कदम उठाती रहती है। कभी राजनयिक स्तर पर तो कभी निजी स्तर पर। लेकिन अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार में कोई देशहित निहित था, वह अभी भी विवादास्पद है। सच तो यह है कि चटवाल का उपयोग प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने निहायत निजी तौर पर किया था। शायद प्रधानमंत्री इस बात से इंकार नहीं करेंगे कि चटवाल के साथ उनका निरंतर संवाद रहा है और वैश्विक अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर उनसे सलाह लेते रहते हैं। दो व्यक्तियों के बीच निजी संबंधों पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु, मामला जब देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा हो तब वह निजी नहीं होता। चूंकि चटवाल को पद्मभूषण सम्मान दिए जाने की सिफारिश प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा की गई थी, निशाने पर प्रधानमंत्री तो आएंगे ही। देश किसी सरकार या किसी व्यक्ति विशेष की जागीर नहीं है। निर्वाचित सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है। पद्म सम्मान पर विवाद पहले भी खड़े हुए हैं। किन्तु संत सिंह चटवाल के चयन ने पूरे के पूरे पद्म सम्मान को ही लांछित कर डाला है। एक ठग, एक दीवालिया, एक दलाल और एक झूठे को पद्मभूषण सम्मान से अलंकृत कर प्रधानमंत्री कार्यालय ने भारत सरकार की ओर से दिए जाने वाले इस पवित्र सम्मान की मूल अवधारणा को तार-तार कर डाला है। देश के इतिहास में यह प्रकरण एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया। भारत की आजादी के समय किसी ने ठीक ही कहा था कि एक समय ऐसा आएगा जब योग्यता-प्रतिभा हाशिए पर सिसकती मिलेगी और बिचौलिए अर्थात दलाल उपकृत होते रहेंगे।
Thursday, January 28, 2010
पहल करें सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री!
क्या वाकई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुनाव में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी को लेकर चिंतित हैं? आम जन इस पर विश्वास नहीं कर सकता। इसलिए नहीं कि राजनीतिक भाषणों से लोगों का विश्वास उठ गया है, बल्कि इसलिए कि इन दोनों ने एक बार फिर आम लोगों की स्मरण शक्ति को कमजोर मान लिया है। सचमुच देश के शासक यही मानकर चलते हैं कि जनता की स्मरणशक्ति कमजोर होती है। वे मूर्ख होते हैं। शासकों की ऐसी सोच पूरे देश के लिए अपमानजनक है। निर्वाचन आयोग की हीरक जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इन दोनों 'बल' के विस्तार पर चिंता प्रकट करते हुए ऐसे लोगों को चुनाव लडऩे से रोकने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि इस पर सर्वानुमति बनाई जानी चाहिए।
सोनिया जी! इस पर सर्वानुमति बनी थी और वह भी संसद के अंदर। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर दोनों सदनों के विशेष सत्र में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी पर पक्ष-विपक्ष सभी ने चिंता जताई थी। तभी इन पर अंकुश लगाए जाने संबंधी उपायों पर भी चर्चा हुई थी। सर्वानुमति से ऐसा संकल्प पारित हुआ था कि राजनीतिक दल चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करते समय यह सुनिश्चित करेंगे कि आपराधिक पाश्र्व वाले किसी व्यक्ति को टिकट न मिले। किंतु भारतीय संसद के अंदर पारित संकल्प कार्यवाही पुस्तिका में बंद होकर रह गया। आज संसद के बाहर सोनिया गांधी जब इसी मुद्दे पर सर्वानुमति बनाने की बात कह रही हैं तब उनसे अनुरोध है कि वे उसे पढ़ें और भारतीय गणतंत्र की इस व्याधि से मुक्ति की पहल करें। यह ठीक है कि बगैर सर्वानुमति के यह संभव नहीं है। संसद में तब सर्वानुमति बनी थी लेकिन कमजोर इच्छाशक्ति के कारण न तो कोई प्रभावी कानून बन सका और न ही राजदलों ने उनका पालन किया। निर्वाचन आयोग ने कुछ कदम उठाए अवश्य किन्तु कानूनी मकडज़ाल ने उन्हें निरस्त कर दिया। अब यह तथ्य रेखाकिंत हो चुका है कि वर्तमान कानून के अंतर्गत ऐसे तत्व चुनाव लड़ते रहेंगे और अपनी 'शक्ति' के बल पर जीतते भी रहेंगे। इनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, संसद में पारित संकल्प के अनुसार राजनीतिक दल चुनाव में ऐसे तत्वों को उम्मीदवार ही न बनाएं। इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं। जरूरत है तो दृढ़ इच्छाशक्ति की और ईमानदार, स्वच्छ राजनीति की। संसद सहित पूरे देश की विधानसभाओं में बड़ी संख्या में मौजूद आपराधिक पाश्र्व वाले सांसदों, विधायकों के कारण लोकतंत्र की मूल अवधारणा लांछित हुई है। यह एक ऐसा रोग है जिससे मुक्ति की बातें तो सभी दल करते हैं किन्तु जब बात रोकथाम की आती है, मुंह फेर लेते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र को कलंकित करने वाली इस व्याधि से स्थायी मुक्ति जरूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनीति में देश के सर्वोत्तम और उत्कृष्ट लोगों को शामिल किए जाने को बड़ी चुनौती मानते हैं तो बिल्कुल ठीक ही। धनबली और बाहुबली जब तक राजनीति के आखाड़े में गदा भांजते रहेंगे, तब तक सर्वोत्तम व उत्कृष्ट इसमें प्रवेश नहीं कर पाएंगे। चुनौती है प्रधानमंत्री को और सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी को। अगर उन्होंने ईमानदारी से इन शब्दों को उगला है, वे गंभीर हैं अपनी बातों के प्रति, तब पहले अपनी पार्टी की ओर से आदर्श प्रस्तुत करें। आज के बाद जो पहला चुनाव हो उसमें वे किसी भी धनबली, बाहुबली को उम्मीदवार न बनाएं। क्या वे इसके लिए तैयार हैं? देश तब तक प्रतीक्षा करेगा और उसी समय कथनी और करनी में फर्क की पुरानी मान्यता को वास्तविकता की कसौटी पर कसेगा।
सोनिया जी! इस पर सर्वानुमति बनी थी और वह भी संसद के अंदर। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर दोनों सदनों के विशेष सत्र में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी पर पक्ष-विपक्ष सभी ने चिंता जताई थी। तभी इन पर अंकुश लगाए जाने संबंधी उपायों पर भी चर्चा हुई थी। सर्वानुमति से ऐसा संकल्प पारित हुआ था कि राजनीतिक दल चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करते समय यह सुनिश्चित करेंगे कि आपराधिक पाश्र्व वाले किसी व्यक्ति को टिकट न मिले। किंतु भारतीय संसद के अंदर पारित संकल्प कार्यवाही पुस्तिका में बंद होकर रह गया। आज संसद के बाहर सोनिया गांधी जब इसी मुद्दे पर सर्वानुमति बनाने की बात कह रही हैं तब उनसे अनुरोध है कि वे उसे पढ़ें और भारतीय गणतंत्र की इस व्याधि से मुक्ति की पहल करें। यह ठीक है कि बगैर सर्वानुमति के यह संभव नहीं है। संसद में तब सर्वानुमति बनी थी लेकिन कमजोर इच्छाशक्ति के कारण न तो कोई प्रभावी कानून बन सका और न ही राजदलों ने उनका पालन किया। निर्वाचन आयोग ने कुछ कदम उठाए अवश्य किन्तु कानूनी मकडज़ाल ने उन्हें निरस्त कर दिया। अब यह तथ्य रेखाकिंत हो चुका है कि वर्तमान कानून के अंतर्गत ऐसे तत्व चुनाव लड़ते रहेंगे और अपनी 'शक्ति' के बल पर जीतते भी रहेंगे। इनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, संसद में पारित संकल्प के अनुसार राजनीतिक दल चुनाव में ऐसे तत्वों को उम्मीदवार ही न बनाएं। इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं। जरूरत है तो दृढ़ इच्छाशक्ति की और ईमानदार, स्वच्छ राजनीति की। संसद सहित पूरे देश की विधानसभाओं में बड़ी संख्या में मौजूद आपराधिक पाश्र्व वाले सांसदों, विधायकों के कारण लोकतंत्र की मूल अवधारणा लांछित हुई है। यह एक ऐसा रोग है जिससे मुक्ति की बातें तो सभी दल करते हैं किन्तु जब बात रोकथाम की आती है, मुंह फेर लेते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र को कलंकित करने वाली इस व्याधि से स्थायी मुक्ति जरूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनीति में देश के सर्वोत्तम और उत्कृष्ट लोगों को शामिल किए जाने को बड़ी चुनौती मानते हैं तो बिल्कुल ठीक ही। धनबली और बाहुबली जब तक राजनीति के आखाड़े में गदा भांजते रहेंगे, तब तक सर्वोत्तम व उत्कृष्ट इसमें प्रवेश नहीं कर पाएंगे। चुनौती है प्रधानमंत्री को और सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी को। अगर उन्होंने ईमानदारी से इन शब्दों को उगला है, वे गंभीर हैं अपनी बातों के प्रति, तब पहले अपनी पार्टी की ओर से आदर्श प्रस्तुत करें। आज के बाद जो पहला चुनाव हो उसमें वे किसी भी धनबली, बाहुबली को उम्मीदवार न बनाएं। क्या वे इसके लिए तैयार हैं? देश तब तक प्रतीक्षा करेगा और उसी समय कथनी और करनी में फर्क की पुरानी मान्यता को वास्तविकता की कसौटी पर कसेगा।
कहां है गणतंत्र की राष्ट्रभाषा ?
शर्म, शर्म और शर्म ....! लोग-बाग क्षमा करेंगे। आज जब देश राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराकर अपने गणतांत्रिक स्वरूप पर गौरवान्वित होगा, मेरे जैसे करोड़ों लोग शर्मसार हो रहे हैं, इस बात पर कि देश के एक उच्च न्यायालय (गुजरात हाईकोर्ट) ने यह व्यवस्था दी है कि वस्तुत: भारत की कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं। तकनीकि दृष्टि से यह बात बिल्कुल सही है। अतएव भारतीय संविधान के अंतर्गत घोषित गणतंत्र की स्थापना के दिन मैं सर्वप्रथम देश के राष्ट्रपति और देश के कर्णधारों से पूछना चाहता हूं कि ऐसा क्यों? विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र भारत की कोई अपनी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है? अपना राष्ट्र ध्वज है, राष्ट्रगीत है तो फिर राष्ट्रभाषा क्यों नहीं? इस एहसास से ही कि हमारी कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है, पूरा शरीर कंपनमय हो जाता है।
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की बात कह हम गौरवान्वित तो होते हैं, किंतु राष्ट्रभाषा की अनुपस्थिति इस गर्व पर काला परदा डाल देती है।
गुजरात उच्च न्यायालय की यह व्यवस्था तो अब आई है, किंतु इस आशय का भय लोगों को बहुत पहले से सता रही थी। वस्तुत: सन 1949 में संविधान की स्वीकृति के साथ ही संविधान सभा के सदस्यों के बीच मतैक्य का अभाव और शीर्ष नेतृत्व में दृढ़ संकल्प की कमी के कारण राष्ट्रभाषा शब्द ही संविधान से गायब हो गया। यह ठीक है कि संविधान के अनुच्छेद 343 में राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को स्थान मिला। दृढ़इच्छा शक्ति के अभाव के कारण 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की प्रावधान संविधान में जोड़ दिया गया। तब घोषणा की गई कि इन 15 वर्षों की अवधि में हिंदी का सर्वांगीण विकास, प्रचार-प्रसार कर उसे पूर्ण रूप में राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। अर्थात, उन 15 वर्षों में व्यवहार के स्तर पर हिंदी, अंग्रेजी का स्थान ले लेगी। लेकिन देश में भाषा की ऐसी राजनीति शुरू हुई कि संविधान के अनुच्छेद 343 के ही खंड (3) में इस आशय का उपबंध जोड़ दिया गया, जिसमें संसद को अधिकृत कर दिया गया कि वह चाहे तो संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को जारी रख सकती है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को दर्जा दिलाए जाने के खिलाफ षडयंत्र की तब एक दीवार खड़ी कर दी गई थी। षडयंत्रकारी देश की मान-प्रतिष्ठा को दांव पर लगाते रहे और आज स्थिति यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने भाषा अर्थात हिंदी विरोध को ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया है। अंग्रेजी को अधिकार की भाषा समझने वाले अधिकारियों की फौज ने भी हिंदी के मार्ग में अवरोधक खड़े कर दिए हैं। प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी का शासकीय दंभ की अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल करते हंै। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के अपने पूर्वग्रह है। हालांकि सच यह है कि यह वर्ग घोर हीन मनोग्रंथि का शिकार है। और कड़वा सच यह है कि अंगे्रजी का पक्षधर यह वर्ग अंगे्रजी भाषा का अल्पज्ञान ही रखता है। मानक अंगे्रजी से पृथक यह वर्ग लिखने और बोलने में भी गलत अंगे्रजी का इस्तेमाल करता है। इनमें सिर्फ ढ़ाई-तीन प्रतिशत लोग ही सही अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अफसोस कि यही वर्ग सत्ता का निर्णायक वर्ग माना गया है। सरकार का नीतिगत निर्णय यही वर्ग लेेता है। इससे भी कड़वा सच यह कि हमारे राजनेता राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर इस अधिकारी वर्ग के आगे नतमस्तक हैं। इन नेताओं के अल्पज्ञान पर अंग्रेजीदां अधिकारी हावी होकर अपनी मनमानी करते हैं। यह अधिकारी वर्ग तो बेशर्म है ही, लेकिन हमारे राजनेता? देश-विदेश में भारतीय गणतंत्र का डंका पीटने वाले ये नेता यह भूल जाते हैं कि भारत संसार का संभवत: एक अकेला देश है, जिसकी अपनी राष्ट्रीय जुबां अर्थात राष्ट्रभाषा नहीं है। संसद के अंदर अंग्रेजी में अपनी बातें करने वाले इन राजनेताओं को शर्म आए भी तो कैसे? क्योंकि इतका संबोधन देश की जनता के लिए नहीं होता, विदेशों में बैठे उन गोरी चमड़ी वालों के लिए होता है, जिनके रहमो-करम पर ये भारत का भाग्य निर्धारित करना चाहते हैं। एक ओर तो वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में हम भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का ख्वाब देखते हैं, दूसरी ओर हमारे ये कथित जन-प्रतिनिधि बेशर्मों की तरह हिंदी को, जिसे संविधान में राजभाषा का दर्जा तो दिया ही गया है, अंग्रेजी की जूठन खाने को मजबूर करते हैं। क्या आज गणतंत्र दिवस के दिन हमारे राजनेता इस दु:खद स्थिति के खिलाफ कोई संकल्प लेंगे? क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि राष्ट्रभाषा के बगैर देश गूंगा है। महात्मा गांधी का स्वप्न था-
''एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो
एक ह्रदय हो भारत-जननी''!
और कुछ नहीं तो महात्मा गांधी के प्रति ऋणी भारत कम से कम उनके स्वप्न को तो पूरा कर दिखाए। गुजरात उच्च न्यायालय ने बहस और फिर निर्णय का द्वार तो खोल ही दिया है।
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की बात कह हम गौरवान्वित तो होते हैं, किंतु राष्ट्रभाषा की अनुपस्थिति इस गर्व पर काला परदा डाल देती है।
गुजरात उच्च न्यायालय की यह व्यवस्था तो अब आई है, किंतु इस आशय का भय लोगों को बहुत पहले से सता रही थी। वस्तुत: सन 1949 में संविधान की स्वीकृति के साथ ही संविधान सभा के सदस्यों के बीच मतैक्य का अभाव और शीर्ष नेतृत्व में दृढ़ संकल्प की कमी के कारण राष्ट्रभाषा शब्द ही संविधान से गायब हो गया। यह ठीक है कि संविधान के अनुच्छेद 343 में राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को स्थान मिला। दृढ़इच्छा शक्ति के अभाव के कारण 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की प्रावधान संविधान में जोड़ दिया गया। तब घोषणा की गई कि इन 15 वर्षों की अवधि में हिंदी का सर्वांगीण विकास, प्रचार-प्रसार कर उसे पूर्ण रूप में राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। अर्थात, उन 15 वर्षों में व्यवहार के स्तर पर हिंदी, अंग्रेजी का स्थान ले लेगी। लेकिन देश में भाषा की ऐसी राजनीति शुरू हुई कि संविधान के अनुच्छेद 343 के ही खंड (3) में इस आशय का उपबंध जोड़ दिया गया, जिसमें संसद को अधिकृत कर दिया गया कि वह चाहे तो संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को जारी रख सकती है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को दर्जा दिलाए जाने के खिलाफ षडयंत्र की तब एक दीवार खड़ी कर दी गई थी। षडयंत्रकारी देश की मान-प्रतिष्ठा को दांव पर लगाते रहे और आज स्थिति यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने भाषा अर्थात हिंदी विरोध को ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया है। अंग्रेजी को अधिकार की भाषा समझने वाले अधिकारियों की फौज ने भी हिंदी के मार्ग में अवरोधक खड़े कर दिए हैं। प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी का शासकीय दंभ की अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल करते हंै। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के अपने पूर्वग्रह है। हालांकि सच यह है कि यह वर्ग घोर हीन मनोग्रंथि का शिकार है। और कड़वा सच यह है कि अंगे्रजी का पक्षधर यह वर्ग अंगे्रजी भाषा का अल्पज्ञान ही रखता है। मानक अंगे्रजी से पृथक यह वर्ग लिखने और बोलने में भी गलत अंगे्रजी का इस्तेमाल करता है। इनमें सिर्फ ढ़ाई-तीन प्रतिशत लोग ही सही अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अफसोस कि यही वर्ग सत्ता का निर्णायक वर्ग माना गया है। सरकार का नीतिगत निर्णय यही वर्ग लेेता है। इससे भी कड़वा सच यह कि हमारे राजनेता राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर इस अधिकारी वर्ग के आगे नतमस्तक हैं। इन नेताओं के अल्पज्ञान पर अंग्रेजीदां अधिकारी हावी होकर अपनी मनमानी करते हैं। यह अधिकारी वर्ग तो बेशर्म है ही, लेकिन हमारे राजनेता? देश-विदेश में भारतीय गणतंत्र का डंका पीटने वाले ये नेता यह भूल जाते हैं कि भारत संसार का संभवत: एक अकेला देश है, जिसकी अपनी राष्ट्रीय जुबां अर्थात राष्ट्रभाषा नहीं है। संसद के अंदर अंग्रेजी में अपनी बातें करने वाले इन राजनेताओं को शर्म आए भी तो कैसे? क्योंकि इतका संबोधन देश की जनता के लिए नहीं होता, विदेशों में बैठे उन गोरी चमड़ी वालों के लिए होता है, जिनके रहमो-करम पर ये भारत का भाग्य निर्धारित करना चाहते हैं। एक ओर तो वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में हम भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का ख्वाब देखते हैं, दूसरी ओर हमारे ये कथित जन-प्रतिनिधि बेशर्मों की तरह हिंदी को, जिसे संविधान में राजभाषा का दर्जा तो दिया ही गया है, अंग्रेजी की जूठन खाने को मजबूर करते हैं। क्या आज गणतंत्र दिवस के दिन हमारे राजनेता इस दु:खद स्थिति के खिलाफ कोई संकल्प लेंगे? क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि राष्ट्रभाषा के बगैर देश गूंगा है। महात्मा गांधी का स्वप्न था-
''एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो
एक ह्रदय हो भारत-जननी''!
और कुछ नहीं तो महात्मा गांधी के प्रति ऋणी भारत कम से कम उनके स्वप्न को तो पूरा कर दिखाए। गुजरात उच्च न्यायालय ने बहस और फिर निर्णय का द्वार तो खोल ही दिया है।
Monday, January 25, 2010
शाबास, रावसाहब रामराव पाटिल!
शाबास रावसाहब रामराव पाटिल। अभिनंदन राज्य के गृह मंत्री का। साधुवाद राज्य के इस पहले मंत्री का जिन्होंने हथेली पर अपने प्राण रख माओवादियों से निपटने का नहीं बल्कि उन्हें राज्य की मुख्य धारा से जोडऩे का बीड़ा उठाया है। सत्ता सिंहासन से जुड़े ऐसे महाराष्ट्र राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल उर्फ आबा का शत्-शत् अभिवादन। निश्चय ही सत्ता की ओर से ऐसी पहल के सकारात्मक परिणाम निकलेंगे और भविष्य के लिए अनुकरणीय बनेगा। यह दोहराने की जरूरत तो नहीं है कि आरआर पाटिल माओवाद अथवा नक्सलवाद प्रभावित गड़चिरोली जिले का पालक मंत्री बने तो अपनी इच्छा से। जब उन्होंने ऐसी इच्छा व्यक्त की थी, तभी यह संकेत मिल गया था कि पाटिल पूरी गंभीरता से इस समस्या के समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं। आतंक के पर्याय के रूप में कुख्यात माओवादियों ने गड़चिरोली में 25, 26 व 27 जनवरी को बंद का एलान कर रखा है। पाटिल 25 व 26 जनवरी को गड़चिरोली दौरे पर रहेंगे। यही नहीं माओवादियों की धमकी की परवाह किए बगैर पाटिल गणतंत्र दिवस के अवसर पर 26 जनवरी को ध्वजारोहण भी करेंगे। निश्चय ही स्थानीय प्रशासन को पाटिल की इस पहल से शक्ति मिलेगी। प्रोत्साहन मिलेगा उन्हें। मनोबल बढ़ेगा उनका। कायरों की तरह माओवादियों के सामने आत्मसमर्पण से इतर उनके हृदय परिवर्तन के लिए प्रयास की जरूरत है। बंदूक समस्या का समाधान कतई नहीं हो सकता। माओवादी अथवा नक्सलवादी हमारे समाज के ही एक अंग हैं। परिस्थितियों से मजबूर उन्होंने हथियार उठाए हैं तो इसके कारणों को समाप्त करना होगा। गोलियों से उनका अंत नहीं किया जा सकता। एक का अंत रक्तबीज में परिवर्तित हो जाएगा। साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी ग्राम में कनु सान्याल, चारू मजुमदार और जंगल संथाल ने हथियारबंद नक्सलवाद का बीज बोया था तो वर्ग विशेष की सामाजिक उपेक्षा के कारण। वर्ग संघर्ष और वर्ग शत्रु को उन लोगों ने रेखांकित किया था। मजुमदार और संथाल तो अब नहीं रहे। कनु सान्याल अवश्य उत्तरी बंगाल के सिलीगुड़ी के पास एक गांव में अतीत और वर्तमान की तुलना करते मिल जाएंगे। अतीत में प्रबल नक्सलवाद के एक प्रणेता सान्याल आज अगर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि लोकतांत्रिक पद्धति से ही अधिकार हासिल किए जा सकते हैं हथियारों के बल पर नहीं, तब इस सूत्र को पकड़ लिया जाना चाहिए। भ्रमित माओवादियों को सान्याल की बातों के गूढ़ार्थ को बताना जरूरी है। आरआर पाटिल जब उनके बीच जाकर समस्या का निदान ढूंढना चाहते हैं तब उन्हें इस ऐतिहासिक सच को भी जानना चाहिए कि जब माक्र्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बैनरतले आंदोलन अपनी चरम पर था, तब चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति माओत्से तुंग ने आंदोलन की आलोचना की थी और भारत के आंदोलन प्रणेताओं को चीन बुलाकर हिंसक आंदोलन के लिए मना किया था। पाटिल एक सघन अभियान छेड़ें भ्रमित माओवादियों को इस बिंदु पर शिक्षित करने के लिए। उन्हें यह बताया जाए कि हमारा एक ऐसा राष्ट्र है जिसका संचालन लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकारें ही किया करती हैं। राष्ट्र किसी की बपौती नहीं। जनता ही अपने शासकों को निर्वाचित करती है। ऐसे में सरकार किसी के लिए अछूत कैसे हो सकती है? माओवादी अथवा नक्सलवादी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग बनें। स्वयं को अलग-थलग रखने की बजाय राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ जाएं। गड़चिरोली एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता है। चूंकि पहल आरआर पाटिल ने की है, अपेक्षा है कि वे इस मुद्दे की सचाई के आलोक में व्यवहार के स्तर पर आगे बढ़ते हुए समाज के इस भ्रमित वर्ग को राष्ट्रीय मुख्यधारा में वापस ले आएंगे।
Sunday, January 24, 2010
देश बड़ा है, प्रदेश नहीं!
शायद यह बात कड़वी लगे, लेकिन 'कुनैन' के रूप में ही सही यह आत्मघाती सत्य मौजूद है कि हमारे ही कुछ लोग देश को टुकड़ों में बांट डालने के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। अनजाने में ही सही ये तत्व भारत की प्रगति से बौखलाए कतिपय विदेशी ताकतों के मंसूबे को अंजाम दे रहे हैं। इसके पूर्व कि अत्यधिक विलंब हो, इस बात का फैसला हो जाए कि क्या हम देश को भाषा के आधार पर टुकड़ों में बंटते देखना चाहेंगे? अगर हां तो आज ही भारत के लिए एक नवीन शोकगीत रच डालें। अगर नहीं तो ऐसे तत्वों को राष्ट्रीय एकता-अखंडता के पक्ष में सही रास्ते पर लाया जाए।
मैं आज अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की करीब डेढ़ दशक पुरानी एक रपट को पुन: उद्धृत करने के लिए मजबूर हूं। महाराष्ट्र सरकार के ताजे कदम ने मुझे इसके लिए विवश किया है। 90 के दशम में सीआईए ने अमेरिकी सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट में संसार के वैसे संभावित देशों की सूची दी गई थी जिनका भविष्य में भाषा के आधार पर विघटन हो सकता है। सूची में भारत का नाम शीर्ष पर था। रिपोर्ट में कहा गया था कि भविष्य में भाषा और प्रांतीयता के नाम पर भारत का विघटन संभव है। अगर मराठी संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने के उपाए सरकार करती है, तब उस पर कोई आपत्ति नहीं। बल्कि बहुभाषी, बहुसंस्कृति वाले भारत की पहचान कायम रखने के लिए ऐसे कदम उठाए ही जाने चाहिए। सभी प्रदेशों का यह कर्तव्य है। किन्तु इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय संस्कृति, एकता और अखंडता पर आंच न आए, यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता की कीमत पर ऐसा कोई प्रयास न हो। ऐसे में महाराष्ट्र सरकार को यह सुझाव देना कि सभी सरकारी समारोहों को राज्य के मंत्री सिर्फ मराठी में संबोधित करें और विदेशी अतिथियों के साथ भी मराठी में ही वार्तालाप करें, दुखद है। राज्य में आयोजित समारोहों को मराठी में संबोधित किया जाना तो ठीक है। किन्तु, दुभाषिये की मदद से विदेशी अतिथियों के साथ मराठी में बातें करना उचित नहीं होगा। ऐसी प्रवृत्ति खतरनाक साबित होगी। खतरनाक संक्रामक रोग की तरह इसका विस्तार पूरे देश में हो जा सकता है। यह रोग तो ठाकरे एंड कंपनी के बाड़े से निकल कर बाहर आई है। इसका विस्तार महाराष्ट्र सरकार न करे। विदेशी अतिथियों के सामने मराठी में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। अतिथि मराठी संस्कृति और भाषा से रूबरू हो पाएंगे। कोई भी विदेशी अतिथि जब यहां आता है तब वह भारत देश आता है, किसी राज्य विशेष में नहीं। होना तो ये चाहिए कि विदेशी अतिथियों के साथ नेतागण राजभाषा हिन्दी में ही बातें करें। राष्ट्र ध्वज की तरह राष्ट्रभाषा भी देश की पहचान कराती है। संसार के प्राय: सभी देशों में ऐसा प्रचलन है। विदेशी अतिथियों के साथ और विदेश के दौरों में उनके राष्ट्राध्यक्ष सहित अन्य सभी मंत्री अपनी राष्ट्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं। भारत को इनका अनुकरण करना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार अपनी मराठी संस्कृति, मराठी भाषा का सरंक्षण करे, प्रचार-प्रसार करे, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, किन्तु राष्ट्रीय संस्कृति और राष्ट्रभाषा की कीमत पर ऐसा न हो। बड़ा देश है, प्रदेश नहीं।
मैं आज अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की करीब डेढ़ दशक पुरानी एक रपट को पुन: उद्धृत करने के लिए मजबूर हूं। महाराष्ट्र सरकार के ताजे कदम ने मुझे इसके लिए विवश किया है। 90 के दशम में सीआईए ने अमेरिकी सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट में संसार के वैसे संभावित देशों की सूची दी गई थी जिनका भविष्य में भाषा के आधार पर विघटन हो सकता है। सूची में भारत का नाम शीर्ष पर था। रिपोर्ट में कहा गया था कि भविष्य में भाषा और प्रांतीयता के नाम पर भारत का विघटन संभव है। अगर मराठी संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने के उपाए सरकार करती है, तब उस पर कोई आपत्ति नहीं। बल्कि बहुभाषी, बहुसंस्कृति वाले भारत की पहचान कायम रखने के लिए ऐसे कदम उठाए ही जाने चाहिए। सभी प्रदेशों का यह कर्तव्य है। किन्तु इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय संस्कृति, एकता और अखंडता पर आंच न आए, यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता की कीमत पर ऐसा कोई प्रयास न हो। ऐसे में महाराष्ट्र सरकार को यह सुझाव देना कि सभी सरकारी समारोहों को राज्य के मंत्री सिर्फ मराठी में संबोधित करें और विदेशी अतिथियों के साथ भी मराठी में ही वार्तालाप करें, दुखद है। राज्य में आयोजित समारोहों को मराठी में संबोधित किया जाना तो ठीक है। किन्तु, दुभाषिये की मदद से विदेशी अतिथियों के साथ मराठी में बातें करना उचित नहीं होगा। ऐसी प्रवृत्ति खतरनाक साबित होगी। खतरनाक संक्रामक रोग की तरह इसका विस्तार पूरे देश में हो जा सकता है। यह रोग तो ठाकरे एंड कंपनी के बाड़े से निकल कर बाहर आई है। इसका विस्तार महाराष्ट्र सरकार न करे। विदेशी अतिथियों के सामने मराठी में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। अतिथि मराठी संस्कृति और भाषा से रूबरू हो पाएंगे। कोई भी विदेशी अतिथि जब यहां आता है तब वह भारत देश आता है, किसी राज्य विशेष में नहीं। होना तो ये चाहिए कि विदेशी अतिथियों के साथ नेतागण राजभाषा हिन्दी में ही बातें करें। राष्ट्र ध्वज की तरह राष्ट्रभाषा भी देश की पहचान कराती है। संसार के प्राय: सभी देशों में ऐसा प्रचलन है। विदेशी अतिथियों के साथ और विदेश के दौरों में उनके राष्ट्राध्यक्ष सहित अन्य सभी मंत्री अपनी राष्ट्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं। भारत को इनका अनुकरण करना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार अपनी मराठी संस्कृति, मराठी भाषा का सरंक्षण करे, प्रचार-प्रसार करे, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, किन्तु राष्ट्रीय संस्कृति और राष्ट्रभाषा की कीमत पर ऐसा न हो। बड़ा देश है, प्रदेश नहीं।
भारत के गालों पर तमाचा!
जब भारत सरकार यह कह रही है कि आईपीएल अर्थात बीसीसीआई से उसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है, तब इस संस्था के कारण भारत के गालों पर पाकिस्तान द्वारा जड़े गए तमाचे का क्या होगा? क्रिकेट का मनोरंजन के रूप में आयोजन करने वाली आईपीएल की नीलामी में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों का कोई खरीदार सामने नहीं आया। पाकिस्तानी क्रिकेटरों का गुस्सा जायज है। चूंकि पाकिस्तान में क्रिकेट पर सरकार का नियंत्रण है, पाकिस्तानी शासकों का गुस्सा भी उतना ही जायज है। यह तो साफ है कि पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को योग्यता के आधार पर नकारा नहीं गया। कहीं न कहीं कोई राजनीति हुई है अवश्य, जिसे पाकिस्तान में अपमान समझा गया। पाकिस्तान से तनावपूर्ण रिश्तों के बावजूद भारत की धरती पर पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ जो कुछ हुआ, वह निश्चय ही अपमानजनक है।
लेकिन यहां मुद्दा खिलाड़ी ही नहीं, राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान में हो रही प्रतिक्रिया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के क्रियाकलापों से पल्ला झाड़ भारत सरकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती। पाकिस्तान ने भारत के सभी सरकारी दौरों को रद्द किए जाने की घोषणा कर यह जता दिया है कि उसने मामले को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया है। लेकिन क्या हमारे शासकों की नींद टूटेगी? चूंकि भारत के गालों पर यह तमाचा ऐसे अपराध के लिए जड़ा गया है जो भारत सरकार ने किया ही नहीं, उसे जगना होगा। जवाब देना होगा। दो मोर्चों पर। एक- राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान को, दूसरा- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को। बल्कि दूसरे मोर्चे पर तो उसे कड़े फैसले लेने होंगे। इस सचाई के बावजूद कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक निजी ट्रस्ट है, देश-विदेश में संदेश यही है कि भारत में क्रिकेट पर इस संस्था का एकाधिकार है। सरकारी संस्था जैसा इसका नाम सभी को भ्रमित करता है। विदेश की छोडिय़े, अपने देश में भी प्राय: सब यही मानते हैं कि इस संस्था को सरकारी संरक्षण प्राप्त है। इसकी करतूतों से नाराज पाकिस्तान ने अगर सीधे भारत को निशाने पर लिया है तो उसका कारण यही है। अब इस भ्रम को तोडऩा होगा। पिछले दिनों आयकर विभाग ने इसका चैरिटेबल दर्जा छीन कर शुरुआत कर दी है। भारत सरकार यह सुनिश्चित करे कि भारतीय क्रिकेट पर इस संस्था का एकाधिकार समाप्त हो जाए। अगर यह संस्था पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है, तब भारत की प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी संस्था की है। संस्था के वर्तमान व्यावसायिक चरित्र में यह संभव नहीं है। फिर क्यों नहीं संस्था में भारत सरकार के प्रतिनिधियों को स्थान दिया जाए? भारत सरकार के पास खेल मंत्रालय मौजूद है। उसके प्रतिनिधियों को बोर्ड में शामिल किया जाना चाहिए। ध्यान रहे, भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व करने वाली टीम को 'टीम इंडिया' या 'भारतीय टीम' के रूप में संबोधित किया जाता है। बीसीसीआई टीम के रूप में इसकी पहचान नहीं है। क्रिकेट में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस टीम के साथ भारत की प्रतिष्ठा जुड़ी है। ऐसे में भारत सरकार तटस्थ कैसे रह सकती है? और जब इसकी करतूतों के कारण किसी अन्य देश के साथ हमारे राजनयिक रिश्तों पर चोट पहुंचे तब तो कतई नहीं। यह सही वक्त है जब सरकार अपनी ओर से पहल कर निदान ढूंढे।
लेकिन यहां मुद्दा खिलाड़ी ही नहीं, राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान में हो रही प्रतिक्रिया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के क्रियाकलापों से पल्ला झाड़ भारत सरकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती। पाकिस्तान ने भारत के सभी सरकारी दौरों को रद्द किए जाने की घोषणा कर यह जता दिया है कि उसने मामले को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया है। लेकिन क्या हमारे शासकों की नींद टूटेगी? चूंकि भारत के गालों पर यह तमाचा ऐसे अपराध के लिए जड़ा गया है जो भारत सरकार ने किया ही नहीं, उसे जगना होगा। जवाब देना होगा। दो मोर्चों पर। एक- राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान को, दूसरा- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को। बल्कि दूसरे मोर्चे पर तो उसे कड़े फैसले लेने होंगे। इस सचाई के बावजूद कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक निजी ट्रस्ट है, देश-विदेश में संदेश यही है कि भारत में क्रिकेट पर इस संस्था का एकाधिकार है। सरकारी संस्था जैसा इसका नाम सभी को भ्रमित करता है। विदेश की छोडिय़े, अपने देश में भी प्राय: सब यही मानते हैं कि इस संस्था को सरकारी संरक्षण प्राप्त है। इसकी करतूतों से नाराज पाकिस्तान ने अगर सीधे भारत को निशाने पर लिया है तो उसका कारण यही है। अब इस भ्रम को तोडऩा होगा। पिछले दिनों आयकर विभाग ने इसका चैरिटेबल दर्जा छीन कर शुरुआत कर दी है। भारत सरकार यह सुनिश्चित करे कि भारतीय क्रिकेट पर इस संस्था का एकाधिकार समाप्त हो जाए। अगर यह संस्था पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है, तब भारत की प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी संस्था की है। संस्था के वर्तमान व्यावसायिक चरित्र में यह संभव नहीं है। फिर क्यों नहीं संस्था में भारत सरकार के प्रतिनिधियों को स्थान दिया जाए? भारत सरकार के पास खेल मंत्रालय मौजूद है। उसके प्रतिनिधियों को बोर्ड में शामिल किया जाना चाहिए। ध्यान रहे, भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व करने वाली टीम को 'टीम इंडिया' या 'भारतीय टीम' के रूप में संबोधित किया जाता है। बीसीसीआई टीम के रूप में इसकी पहचान नहीं है। क्रिकेट में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस टीम के साथ भारत की प्रतिष्ठा जुड़ी है। ऐसे में भारत सरकार तटस्थ कैसे रह सकती है? और जब इसकी करतूतों के कारण किसी अन्य देश के साथ हमारे राजनयिक रिश्तों पर चोट पहुंचे तब तो कतई नहीं। यह सही वक्त है जब सरकार अपनी ओर से पहल कर निदान ढूंढे।
Friday, January 22, 2010
संक्रामक रोग है भाषावाद!
यह प्रवृत्ति स्वीकार्य नहीं। पहले विवादास्पद आदेश जारी करना, देश भर में हंगामा खड़ा करना, सरकार और सत्तापक्ष की नीयत पर सवालिया निशान चस्पाना और फिर पलटी मारते हुए अपने शब्दों को वापस उदरस्थ करना। यह एक कमजोर सरकार और भ्रमित नेतृत्व की निशानी है।
सिर्फ मराठी भाषियों को टैक्सी परमिट दिए जाने संबंधी महाराष्ट्र सरकार का आदेश यूं भी कानून की कसौटी पर नहीं टिकता। 24 घंटे के अंदर मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने जब अपनी बात से पलटते ऐसी सफाई दी कि टैक्सी चालकों को हिंदी और गुजराती सहित किसी भी स्थानीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए, तब मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। एक निहायत गलत निर्णय में संशोधन कर मुख्यमंत्री चव्हाण ने सरकार को विवाद से बचाने की कोशिश की है। किन्तु नुकसान तो हो चुका है। एक बार फिर महाराष्ट्र को पूरे देश के सामने शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और इसे बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। खेद इस बात का है कि इसके पूर्व प्रांतीयता और भाषावाद का जहर फैलाने वाले बाल ठाकरे और राज ठाकरे ऐसे आपत्तिजनक कदम उठाया करते थे, इस बार सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की ओर से ऐसा हुआ।
क्या यह दोहराने की जरूरत है कि इस प्रवृत्ति में देश की अखंडता को चुनौती छुपी है। सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक प्रांतीयता और भाषावाद को अगर कोई हवा देता है तो वह 'राष्ट्रीय' कभी नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में राष्ट्रीयता की भावना इनमें आए तो कैसे? देश की एकता, अखंडता के लिए 'राष्ट्रीयता' की अनिवार्यता से अनजान आज के राजनेता अपनी राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे संभल जाएं। अन्यथा भविष्य में राष्ट्रव्यापी अराजकता और विघटन के अपराधी घोषित कर दिए जाएंगे वे।
पिछले बुधवार को महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी आदेश हर दृष्टि से आपत्तिजनक ही नहीं संक्रामक भी है। भूमिपुत्रों के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर प्रदान करने की सोच गलत नहीं है। इसे तो मैं उनका जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूं। गलत है तो आदेश में निहित नकारात्मक संदेश, गलत है आदेश में निहित 'नीयत' और गलत है देश के अभिभावक दल कांग्रेस की ओर से ऐसे कदम का उठाया जाना। मुख्यमंत्री द्वारा पेश सफाई के बावजूद 'आदेश' में निहित नीयत की चीरफाड़ लाजमी है। आदेश के समय पर ध्यान दें। अभी प्राय: सभी राजनीतिक दल व्यापक पैमाने पर सदस्यता अभियान चला रहे हैं। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना मराठी मानुस का उपयोग हथियार के रूप में कर रही है। बाल ठाकरे की शिवसेना सुप्तावस्था से जागकर उस मुद्दे को ले मैदान में कूद पड़ी है। ऐसे में क्या यह सच नहीं कि मराठी मानुस की भावनाओं को उभार कांग्रेस ने उक्त आदेश के द्वारा ठाकरे एंड कंपनी को पीछे ढकेलने की कोशिश की? घृणा से घृणा को मात नहीं दी जा सकती। यह एक संक्रामक रोग है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसा सुलझा व्यक्ति इस तथ्य से अनजान नहीं हो सकता। मैं समझ सकता हंू कि कभी-कभी राजनीतिक मजबूरियां निर्णयों को प्रभावित कर देती हैं। मुख्यमंत्री चव्हाण ऐसी अवस्था के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं। लेकिन उनकी इस बात के लिए तो प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने समय रहते संशोधन कर लिया। अब अपेक्षा यह कि वे अपने संशोधन पर कायम रहते हुए महाराष्ट्र की मान को कायम रखेंगे।
सिर्फ मराठी भाषियों को टैक्सी परमिट दिए जाने संबंधी महाराष्ट्र सरकार का आदेश यूं भी कानून की कसौटी पर नहीं टिकता। 24 घंटे के अंदर मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने जब अपनी बात से पलटते ऐसी सफाई दी कि टैक्सी चालकों को हिंदी और गुजराती सहित किसी भी स्थानीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए, तब मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। एक निहायत गलत निर्णय में संशोधन कर मुख्यमंत्री चव्हाण ने सरकार को विवाद से बचाने की कोशिश की है। किन्तु नुकसान तो हो चुका है। एक बार फिर महाराष्ट्र को पूरे देश के सामने शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और इसे बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। खेद इस बात का है कि इसके पूर्व प्रांतीयता और भाषावाद का जहर फैलाने वाले बाल ठाकरे और राज ठाकरे ऐसे आपत्तिजनक कदम उठाया करते थे, इस बार सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की ओर से ऐसा हुआ।
क्या यह दोहराने की जरूरत है कि इस प्रवृत्ति में देश की अखंडता को चुनौती छुपी है। सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक प्रांतीयता और भाषावाद को अगर कोई हवा देता है तो वह 'राष्ट्रीय' कभी नहीं हो सकता है। ऐसी अवस्था में राष्ट्रीयता की भावना इनमें आए तो कैसे? देश की एकता, अखंडता के लिए 'राष्ट्रीयता' की अनिवार्यता से अनजान आज के राजनेता अपनी राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे संभल जाएं। अन्यथा भविष्य में राष्ट्रव्यापी अराजकता और विघटन के अपराधी घोषित कर दिए जाएंगे वे।
पिछले बुधवार को महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी आदेश हर दृष्टि से आपत्तिजनक ही नहीं संक्रामक भी है। भूमिपुत्रों के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर प्रदान करने की सोच गलत नहीं है। इसे तो मैं उनका जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूं। गलत है तो आदेश में निहित नकारात्मक संदेश, गलत है आदेश में निहित 'नीयत' और गलत है देश के अभिभावक दल कांग्रेस की ओर से ऐसे कदम का उठाया जाना। मुख्यमंत्री द्वारा पेश सफाई के बावजूद 'आदेश' में निहित नीयत की चीरफाड़ लाजमी है। आदेश के समय पर ध्यान दें। अभी प्राय: सभी राजनीतिक दल व्यापक पैमाने पर सदस्यता अभियान चला रहे हैं। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना मराठी मानुस का उपयोग हथियार के रूप में कर रही है। बाल ठाकरे की शिवसेना सुप्तावस्था से जागकर उस मुद्दे को ले मैदान में कूद पड़ी है। ऐसे में क्या यह सच नहीं कि मराठी मानुस की भावनाओं को उभार कांग्रेस ने उक्त आदेश के द्वारा ठाकरे एंड कंपनी को पीछे ढकेलने की कोशिश की? घृणा से घृणा को मात नहीं दी जा सकती। यह एक संक्रामक रोग है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसा सुलझा व्यक्ति इस तथ्य से अनजान नहीं हो सकता। मैं समझ सकता हंू कि कभी-कभी राजनीतिक मजबूरियां निर्णयों को प्रभावित कर देती हैं। मुख्यमंत्री चव्हाण ऐसी अवस्था के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं। लेकिन उनकी इस बात के लिए तो प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने समय रहते संशोधन कर लिया। अब अपेक्षा यह कि वे अपने संशोधन पर कायम रहते हुए महाराष्ट्र की मान को कायम रखेंगे।
Thursday, January 21, 2010
शिष्टाचार के सोनिया मायने!
वामपंथियों के साथ कांग्रेस और नेहरू परिवार का संबंध आरंभ से ही प्रेम और शत्रुता का रहा है। जब जरूरत पड़ी, मधुर संबंध को सामने रख कांगेस ने वामपंथियों का और वामपंथियों ने कांग्रेस का इस्तेमाल किया। और जब परिस्थितियों के दबाव बने तब दोनों दुश्मन के रूप में आमने-सामने खड़े भी हो गए। लेकिन जब अवसर संवेदना-शिष्टाचार का हो तब दुश्मनी को बीच में नहीं आने देना चाहिए। यह एक स्थापित परंपरा है। खेद है कि नेहरू-गांधी परिवार इस बिंदू पर कभी-कभी परंपरा से पृथक क्रूर बन जाता है। मानवीय संवेदना और शिष्टाचार के अंग-भंग को भारतीय संस्कृति स्वीकार नहीं करती। क्या यह किसी को समझाने की जरूरत है?
दिवंगत ज्योति बसु को श्रद्धांजलि देने कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी कोलकाता पहुंचीं। वहां ऐसा शिष्टाचार भूल गईं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री प्रकाश करात और उनकी पत्नी पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात को सोनिया ने पहचानने से इंकार कर दिया। उनके अभिवादन का उत्तर तो दूर, उनकी ओर देखा भी नहीं। कुछ बेशर्म बन बृंदा बार-बार उनके सामने आईं। किन्तु सोनिया ने उनके अस्तित्व से ही स्वयं को अनजान दिखाया। किसी व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद का मामला बता खारिज नहीं किया जा सकता। सोनिया गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की भी अध्यक्ष हैं। प्रकाश करात व बृंदा करात माक्र्सवादी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। संप्रग की पिछली सरकार वामपंथियों के सहयोग-समर्थन से ही चली। उसके कार्यकाल के अंतिम कुछ माह को छोड़ दें तो बगैर वामपंथियों के समर्थन के संप्रग सरकार नहीं चली सकती थी। हालांकि समर्थन के एवज में वामपंथियों ने सरकार का भरपूर दोहन-भयादोहन किया। विनिवेश के मुद्दे पर वामपंथियों ने सरकार को बार-बार झुकाया। कतिपय महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों को भी तब वामपंथियों ने प्रभावित किया था। वामपंथी सार्वजनिक रूप से ऐसा दावा करने से नहीं चूकते थे कि कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार उनकी दया की मोहताज है। लेकिन रिश्ते तब टूटे जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार का विरोध करते हुए वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार को वामदल समर्थित अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था। सरकार गिर भी जाती अगर समाजवादी पार्टी ने समर्थन नहीं दिया होता। कांग्रेस और वामदलों के बीच खटास बढ़ी और खूब बढ़ी। किन्तु क्या इस कारण सार्वजनिक रूप से शोक के अवसर पर किसी का अपमान किया जाना चाहिए? सोनिया निश्चय ही यहां अशिष्टता की अपराधी बन जाती हैं।
प्रसंगवश ऐसी अशिष्टता और घातक परिणति की एक घटना की याद मुझे आज आ रही है। 80 के दशक के आरंभिक काल की घटना है यह। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1977 की परायज के बाद 1980 की जीत ने उनमें अहंकार के साथ-साथ क्रूरता भी भर दिया था। अपने ही मंत्रियों के साथ उनका व्यवहार आपत्तिजनक हो चला था। एक बार दो कैबिनेट मंत्रियों भीष्मनारायण सिंह और केदार पांडेय ने उनसे मिलने का समय मांगा। समय दिया गया किन्तु अलग से नहीं, जनता दरबार में शामिल होकर मिलने को कहा गया। निश्चित दिन दोनों मंत्री जनता दरबार में पंक्ति में खड़े थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पंक्ति में खड़े सभी से एक-एक कर मिल रही थीं। भीष्मनारायण सिंह के अभिवादन का हाथ जोड़ कर उत्तर तो दिया लेकिन कोई बात नहीं की। बात यहीं खत्म नहीं हुई। बगल में खड़े केदार पांडेय के अभिवादन का उत्तर तो दूर उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ गईं। पांडेय को गहरा आघात लगा। कुछ-दिनों बाद हृदयाघात से उनकी मृत्यु भी हो गई। यह सवाल तब अनुत्तरित रह गया था कि अपने कैबिनेट मंत्रियों से मिलने के लिए जनता दरबार में क्यों बुलाया गया? और जब बुलाया तो फिर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित क्यों किया गया। क्या सिर्फ मानवीय क्रूरता के भौंडे प्रदर्शन के लिए?
व्यक्ति महान अपने अनुकरणीय कर्मों से बनता है। त्याग से बनता है। परस्पर प्रेम, सद्भाव से बनता है। इसके विपरीत आचरण को इतिहास कभी माफ नहीं करता।
दिवंगत ज्योति बसु को श्रद्धांजलि देने कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी कोलकाता पहुंचीं। वहां ऐसा शिष्टाचार भूल गईं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री प्रकाश करात और उनकी पत्नी पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात को सोनिया ने पहचानने से इंकार कर दिया। उनके अभिवादन का उत्तर तो दूर, उनकी ओर देखा भी नहीं। कुछ बेशर्म बन बृंदा बार-बार उनके सामने आईं। किन्तु सोनिया ने उनके अस्तित्व से ही स्वयं को अनजान दिखाया। किसी व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद का मामला बता खारिज नहीं किया जा सकता। सोनिया गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की भी अध्यक्ष हैं। प्रकाश करात व बृंदा करात माक्र्सवादी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। संप्रग की पिछली सरकार वामपंथियों के सहयोग-समर्थन से ही चली। उसके कार्यकाल के अंतिम कुछ माह को छोड़ दें तो बगैर वामपंथियों के समर्थन के संप्रग सरकार नहीं चली सकती थी। हालांकि समर्थन के एवज में वामपंथियों ने सरकार का भरपूर दोहन-भयादोहन किया। विनिवेश के मुद्दे पर वामपंथियों ने सरकार को बार-बार झुकाया। कतिपय महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों को भी तब वामपंथियों ने प्रभावित किया था। वामपंथी सार्वजनिक रूप से ऐसा दावा करने से नहीं चूकते थे कि कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार उनकी दया की मोहताज है। लेकिन रिश्ते तब टूटे जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार का विरोध करते हुए वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार को वामदल समर्थित अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था। सरकार गिर भी जाती अगर समाजवादी पार्टी ने समर्थन नहीं दिया होता। कांग्रेस और वामदलों के बीच खटास बढ़ी और खूब बढ़ी। किन्तु क्या इस कारण सार्वजनिक रूप से शोक के अवसर पर किसी का अपमान किया जाना चाहिए? सोनिया निश्चय ही यहां अशिष्टता की अपराधी बन जाती हैं।
प्रसंगवश ऐसी अशिष्टता और घातक परिणति की एक घटना की याद मुझे आज आ रही है। 80 के दशक के आरंभिक काल की घटना है यह। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1977 की परायज के बाद 1980 की जीत ने उनमें अहंकार के साथ-साथ क्रूरता भी भर दिया था। अपने ही मंत्रियों के साथ उनका व्यवहार आपत्तिजनक हो चला था। एक बार दो कैबिनेट मंत्रियों भीष्मनारायण सिंह और केदार पांडेय ने उनसे मिलने का समय मांगा। समय दिया गया किन्तु अलग से नहीं, जनता दरबार में शामिल होकर मिलने को कहा गया। निश्चित दिन दोनों मंत्री जनता दरबार में पंक्ति में खड़े थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पंक्ति में खड़े सभी से एक-एक कर मिल रही थीं। भीष्मनारायण सिंह के अभिवादन का हाथ जोड़ कर उत्तर तो दिया लेकिन कोई बात नहीं की। बात यहीं खत्म नहीं हुई। बगल में खड़े केदार पांडेय के अभिवादन का उत्तर तो दूर उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ गईं। पांडेय को गहरा आघात लगा। कुछ-दिनों बाद हृदयाघात से उनकी मृत्यु भी हो गई। यह सवाल तब अनुत्तरित रह गया था कि अपने कैबिनेट मंत्रियों से मिलने के लिए जनता दरबार में क्यों बुलाया गया? और जब बुलाया तो फिर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित क्यों किया गया। क्या सिर्फ मानवीय क्रूरता के भौंडे प्रदर्शन के लिए?
व्यक्ति महान अपने अनुकरणीय कर्मों से बनता है। त्याग से बनता है। परस्पर प्रेम, सद्भाव से बनता है। इसके विपरीत आचरण को इतिहास कभी माफ नहीं करता।
Tuesday, January 19, 2010
राहुल की साफगोई,राहुल की जिज्ञासा!
राहुल गांधी को सेल्यूट। सेल्यूट इस बात के लिए कि उन्होंने साफगोई से यह सत्य स्वीकार कर लिया है कि वे राजनीति में आए हैं तो वंशवाद के सहारे। अगर उनके पिता, दादा-दादी या मां राजनीति में नहीं होतीं तो वे इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते। और यह भी कि कांग्रेस में (अन्यदलों की तरह) लोकतंत्र शेष नहीं रह गया है।
राहुल गांधी इस स्वीकारोक्ति के द्वारा अपनी पार्टी कांग्रेस को और देश को आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर वे सिर्फ प्रचार पाने के लिए या स्वंय को अपने पिता राजीव गांधी की तरह 'मिस्टर क्लीन' साबित करने के लिए ऐसी बातों का सहारा ले रहें हैं तब हम उन्हें महत्व देना नहीं चाहेंगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद 1985 में कांग्रेस के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए राजीव गांधी ने विकास के लिए आबंटित राशि में घपले की बात को स्वीकार किया था, प्रधानमंत्री कार्यालय से दागियों को निकाल बाहर किया था। तब देश ने उनकी ओर आशा भरी निगाहें डाल उन्हें 'मिस्टर क्लीन' की उपमा प्रदान की। लेकिन कुछ समय बाद ही 'बोफोर्स कांड' के कारण वे संदिग्ध बन गए थे। मिस्टर क्लीन की छवि खत्म हो गई। क्रोधित देश ने तब 1989 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था। आज जब राहुल गांधी कुछ कड़वे सच स्वीकार कर रहे हैं तब उनकी प्रंशसा स्वाभाविक तो है किन्तु स्वाभाविक रूप से पूछा यह भी जाएगा कि इनमें सुधार - संशोधन के कौन से कदम वे उठाने वाले हैं? जहां तक वंशवाद का सवाल है कांग्रेस ने इसे परंपरा के रूप में स्वीकार कर लिया है। जाने-अनजाने पार्टी में ऐसे कदम उठाए जाते रहें हैं कि राष्ट्रीय स्तर का कोई भी सर्वमान्य नेता नहीं रह गया या पनपने नहीं दिया गया।
नेहरु-गांधी परिवार को कुछ इस रूप में पेश किया जाता रहा मानो 'परिवार' और कांगे्रस एक दूसरे के पर्याय हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांगे्रस का जनाधार घटते जाने के बावजूद पार्टी ने इस परिवार को ही अपना मुखिया बनाए रखा। राहुल इसी प्रक्रिया की उपज हैं। उन्होंने इस सचाई को स्वीकार कर विवाद पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की है। तथापि उन्हें मुखिया की पात्रता-योग्यता को प्रमाणित तो करना ही होगा।
उनकी असली परीक्षा 'लोकतंत्र' के मुद्दे पर होगी। यह एक गंभीर मसला है। जब राजदलों में लोकतंत्र समाप्त हो गया है तब संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या होगा? इस प्रणाली को जीवित व मजबूत रखने की जिम्मेदारी राजदलों पर है। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का 'भविष्य' यह स्वीकार कर रहा है कि पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया है तब वह लोकतांत्रिक प्रणाली का अंग कैसे बना रहेगा? राहुल ने जब यह स्वीकार किया है तब उन्हें पार्टी में लोकतंत्र को पुनर्जीवित करना होगा। उनकी यह बात भी सही है कि अन्य दलों में भी लोकतंत्र समाप्त हो गया है। राजनीतिक दल चाहे जो दावा करें इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र लुप्त है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक अवस्था है। अगर देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को जीवित रखना है तब प्रत्येक राजनीतिक दल पूरी ईमानदारी से अपने-अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्र को पुनर्जीवित ही न करें उसे अमरत्व प्रदान करें। मुद्दा राहुल ने उठाया है, पहल वे करें।
हां, राहुल यह भी जानना चाहते हैं कि क्या वे भ्रष्ट अथवा मूल्यविहीन राजनीतिक दिखते हैं? सवाल उन्होंने उस युवा वर्ग से किया जो अभी उत्तर देने की स्थिति में नहीं है। बोफोर्स कांड में उनके पिता राजीव और माता सोनिया गांधी दोनों कटघरे में खड़े किए गए थे। यह तब हुआ था जब राजीव सत्ता में थे। राहुल अभी सिर्फ संगठन में हैं। देश उनकी जिज्ञासा को फिलहाल सुरक्षित रखेगा।
राहुल गांधी इस स्वीकारोक्ति के द्वारा अपनी पार्टी कांग्रेस को और देश को आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर वे सिर्फ प्रचार पाने के लिए या स्वंय को अपने पिता राजीव गांधी की तरह 'मिस्टर क्लीन' साबित करने के लिए ऐसी बातों का सहारा ले रहें हैं तब हम उन्हें महत्व देना नहीं चाहेंगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद 1985 में कांग्रेस के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए राजीव गांधी ने विकास के लिए आबंटित राशि में घपले की बात को स्वीकार किया था, प्रधानमंत्री कार्यालय से दागियों को निकाल बाहर किया था। तब देश ने उनकी ओर आशा भरी निगाहें डाल उन्हें 'मिस्टर क्लीन' की उपमा प्रदान की। लेकिन कुछ समय बाद ही 'बोफोर्स कांड' के कारण वे संदिग्ध बन गए थे। मिस्टर क्लीन की छवि खत्म हो गई। क्रोधित देश ने तब 1989 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था। आज जब राहुल गांधी कुछ कड़वे सच स्वीकार कर रहे हैं तब उनकी प्रंशसा स्वाभाविक तो है किन्तु स्वाभाविक रूप से पूछा यह भी जाएगा कि इनमें सुधार - संशोधन के कौन से कदम वे उठाने वाले हैं? जहां तक वंशवाद का सवाल है कांग्रेस ने इसे परंपरा के रूप में स्वीकार कर लिया है। जाने-अनजाने पार्टी में ऐसे कदम उठाए जाते रहें हैं कि राष्ट्रीय स्तर का कोई भी सर्वमान्य नेता नहीं रह गया या पनपने नहीं दिया गया।
नेहरु-गांधी परिवार को कुछ इस रूप में पेश किया जाता रहा मानो 'परिवार' और कांगे्रस एक दूसरे के पर्याय हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांगे्रस का जनाधार घटते जाने के बावजूद पार्टी ने इस परिवार को ही अपना मुखिया बनाए रखा। राहुल इसी प्रक्रिया की उपज हैं। उन्होंने इस सचाई को स्वीकार कर विवाद पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की है। तथापि उन्हें मुखिया की पात्रता-योग्यता को प्रमाणित तो करना ही होगा।
उनकी असली परीक्षा 'लोकतंत्र' के मुद्दे पर होगी। यह एक गंभीर मसला है। जब राजदलों में लोकतंत्र समाप्त हो गया है तब संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या होगा? इस प्रणाली को जीवित व मजबूत रखने की जिम्मेदारी राजदलों पर है। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का 'भविष्य' यह स्वीकार कर रहा है कि पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया है तब वह लोकतांत्रिक प्रणाली का अंग कैसे बना रहेगा? राहुल ने जब यह स्वीकार किया है तब उन्हें पार्टी में लोकतंत्र को पुनर्जीवित करना होगा। उनकी यह बात भी सही है कि अन्य दलों में भी लोकतंत्र समाप्त हो गया है। राजनीतिक दल चाहे जो दावा करें इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र लुप्त है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक अवस्था है। अगर देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को जीवित रखना है तब प्रत्येक राजनीतिक दल पूरी ईमानदारी से अपने-अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्र को पुनर्जीवित ही न करें उसे अमरत्व प्रदान करें। मुद्दा राहुल ने उठाया है, पहल वे करें।
हां, राहुल यह भी जानना चाहते हैं कि क्या वे भ्रष्ट अथवा मूल्यविहीन राजनीतिक दिखते हैं? सवाल उन्होंने उस युवा वर्ग से किया जो अभी उत्तर देने की स्थिति में नहीं है। बोफोर्स कांड में उनके पिता राजीव और माता सोनिया गांधी दोनों कटघरे में खड़े किए गए थे। यह तब हुआ था जब राजीव सत्ता में थे। राहुल अभी सिर्फ संगठन में हैं। देश उनकी जिज्ञासा को फिलहाल सुरक्षित रखेगा।
अब फैसला हो जाए कि सांप्रदायिक कौन? - II
हां, इस पर बहस जरूरी है। 'सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता' का ऐसा हव्वा खड़ा कर दिया गया है जिससे युवा पीढ़ी ही नहीं, एक वर्ग विशेष को छोड़ कर समाज के तमाम लोग भ्रमित हैं। लोगों के दिलों में डर पैदा कर दिया गया है। ऐसा डर कि हिंदू और हिंदुत्व की बात करना गुनाह हो गया है। अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए, ऐसा कहने वाले तत्काल सांप्रदायिक निरूपित कर दिये जाते हैं। जबकि अयोध्या में मस्जिद बननी चाहिए, ऐसा कहने वाले धर्मनिरपेक्ष मान लिए जाते हैं? न्याय का यह कैसा तराजू? पूरे देश में सर्वेक्षण करवा लें, लोग इस सवाल पर कतराते मिलेंगे। पूरा देश कायर कैसे हो गया? क्या देश की पूरी की पूरी आबादी बुद्धिहीन है, विवेकहीन है? लोगों के दिलों में ऐसा डर कैसे पैदा हो गया कि कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय पर टिप्पणी नहीं कर पाता? क्योंकि ऐसा करने वाले को तत्काल सांप्रदायिक करार दिया जाएगा। क्या है यह सांप्रदायिकता? इतिहास के पन्नों को पलट लें, मालूम हो जाएगा कि दरअसल यह शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है। सेना और सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के लिए वे इसका इस्तेमाल करते थे। फूट डालो और राज करो की नीति को वे इसी सांप्रदायिक शब्द से चलाते थे। आजादी बाद कांग्रेस सरकार ने वस्तुत: अंग्रेजों के दिखाए रास्ते पर चलते हुए इसे वोट बैंक में बदल डाला। मुस्लिम तुष्टिकरण का एक भयावह सिलसिला चला। संविधान में धारा 370 जोड़ कर जम्मू और कश्मीर को ऐसी स्वायत्तता दे दी गई, जो आज पड़ोसी पाकिस्तान के लिए मददगार साबित हो रहा है। कहने को तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है किन्तु क्या कश्मीर को मिला विशेषाधिकार उसे भारत से अलग नहीं कर देता? तब श्यामाप्रसाद मुखर्जी पं. नेहरु के मंत्रिमंडल के सदस्य थे। उन्होंने इसका विरोध करते हुए इस्तीफा दे दिया और जनसंघ की स्थापना की। अब हालत ये है कि धारा 370 को हटाने की मांग करने वालों को सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। अगर भाजपा और संघ की ऐसी मांग सांप्रदायिक है तब पूरे भारत को सांप्रदायिक क्यों न घोषित कर दिया जाए?
अयोध्या में राममंदिर निर्माण का मुद्दा हो, या रामेश्वरम में राम सेतु का मुद्दा, भारत सरकार के पक्ष को समर्थन नहीं दिया जा सकता। अयोध्या का मामला तो फिलहाल न्यायालय में लंबित है। लेकिन रामसेतु के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार द्वारा दायर शपथ पत्र को क्या कहेंगे? सरकार के अनुसार राम के अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। क्या यह विशाल हिंदू समाज को अपमानित करने और उसकी भावना को भड़काने का काम नहीं? लेकिन आपको मौन रहना होगा। कोई आवाज उठाएगा तो वह सांप्रदायिक करार दिया जाएगा। कैसा देश है यह? कैसे शासक हैं हमारे? दुनिया के किसी भी इस्लामी देश में हिंदुओं के लिए अलग कानून नहीं है। लेकिन भारत में इस्लाम की धारणा और शरीयत का आदर करते हुए विशेष कानून मौजूद है। मैं इसका विरोध नहीं कर रहा। मैं तो देशवासियों की उस भावना को व्यक्त कर रहा हूं जो यह जानना चाहती है कि हिंदू और हिंदुत्व की बात करना सांप्रदायिक कैसे बन जाता है। और यह कि भाजपा या संघ को बगैर सोचे समझे हर अवसर-कुअवसर पर सांप्रदायिक कैसे करार कर दिया जाता है? कहते हैं अगर महात्मा गांधी नहीं होते तब न तो कांग्रेस को अपने लिए जमीन मिलती और न ही भारत आजादी की सफल लड़ाई लड़ पाता। महात्मा गांधी ने रामराज्य की कल्पना की थी। और सीने पर गोली लगने के बाद मरते-मरते उनके मुंह से राम शब्द ही निकला। उनके भजन 'रघुपति राघव राजाराम' देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। तब तो गांधी भी सांप्रदायिक हुए और पूरा देश सांप्रदायिक हुआ। देश की युवा-पीढ़ी को इस तथ्य की जानकारी जरूरी है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि हिंदू धर्म को छूत बताने वाले सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करते आये हैं। धर्म का शब्दकोशीय अर्थ कर्तव्य है। फिर कर्तव्य पालन सांप्रदायिक कैसे हो गया? कांग्रेस व कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की ओर से बार-बार यह कहा जाता है कि संघ परिवार ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा तक नहीं लिया। लेकिन क्यों और कैसे यह बताने से वे मुकर जाते हैं। संघ से पहले मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी और आजादी की लड़ाई में वो कांग्रेस के साथ थी। संघ की स्थापना के साथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सभी को हिंदू धर्म अंगीकार करने का आह्वान किया। उन्होंने साफ-साफ कहा कि हर हिंदू का धर्म है कि वह विदेशियों का राज खत्म करें। कांग्रेस डर गई। उसने आजादी की लड़ाई में मुस्लिम लीग को तो साथ रखा पर संघ को अलग रखा। उसे डर था कि विशाल हिंदू संगठन के नाते आंदोलन कांग्रेस के हाथ से निकल जाएगा। नेहरू , गांधी और पटेल के साथ हेडगेवार का पत्र व्यवहार इस बात का प्रमाण है। देश विभाजन का आधार क्या था? धर्म के नाम पर विभाजन को स्वीकार करने वाली कांग्रेस अगर धर्मनिरपेक्षता की बात करती है तब यह विडंबना ही तो है। आज भी कांग्रेस व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। किन्तु वे धर्म निरपेक्ष बने हुए हैं। राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद की बात करने वाली भाजपा व संघ परिवार सांप्रदायिक घोषित कर दिये जाते है। निश्चय ही यह पूरे देश की सोच व विवेक का अपमान है। सारे तथ्यों को सामने रखकर, इतिहास के पन्नों को पलटते हुए इस पर राष्ट्रीय बहस हो। इस पर तटस्थता की नीति खतरनाक होगी। पूरे भारत का भविष्य इससे जुड़ा हुआ है। अंतिम रूप से यह फैसला हो ही जाना चाहिए कि, वास्तव में सांप्रदायिकता क्या है, साम्प्रदायिक कौन है।
अयोध्या में राममंदिर निर्माण का मुद्दा हो, या रामेश्वरम में राम सेतु का मुद्दा, भारत सरकार के पक्ष को समर्थन नहीं दिया जा सकता। अयोध्या का मामला तो फिलहाल न्यायालय में लंबित है। लेकिन रामसेतु के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार द्वारा दायर शपथ पत्र को क्या कहेंगे? सरकार के अनुसार राम के अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। क्या यह विशाल हिंदू समाज को अपमानित करने और उसकी भावना को भड़काने का काम नहीं? लेकिन आपको मौन रहना होगा। कोई आवाज उठाएगा तो वह सांप्रदायिक करार दिया जाएगा। कैसा देश है यह? कैसे शासक हैं हमारे? दुनिया के किसी भी इस्लामी देश में हिंदुओं के लिए अलग कानून नहीं है। लेकिन भारत में इस्लाम की धारणा और शरीयत का आदर करते हुए विशेष कानून मौजूद है। मैं इसका विरोध नहीं कर रहा। मैं तो देशवासियों की उस भावना को व्यक्त कर रहा हूं जो यह जानना चाहती है कि हिंदू और हिंदुत्व की बात करना सांप्रदायिक कैसे बन जाता है। और यह कि भाजपा या संघ को बगैर सोचे समझे हर अवसर-कुअवसर पर सांप्रदायिक कैसे करार कर दिया जाता है? कहते हैं अगर महात्मा गांधी नहीं होते तब न तो कांग्रेस को अपने लिए जमीन मिलती और न ही भारत आजादी की सफल लड़ाई लड़ पाता। महात्मा गांधी ने रामराज्य की कल्पना की थी। और सीने पर गोली लगने के बाद मरते-मरते उनके मुंह से राम शब्द ही निकला। उनके भजन 'रघुपति राघव राजाराम' देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। तब तो गांधी भी सांप्रदायिक हुए और पूरा देश सांप्रदायिक हुआ। देश की युवा-पीढ़ी को इस तथ्य की जानकारी जरूरी है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि हिंदू धर्म को छूत बताने वाले सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करते आये हैं। धर्म का शब्दकोशीय अर्थ कर्तव्य है। फिर कर्तव्य पालन सांप्रदायिक कैसे हो गया? कांग्रेस व कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की ओर से बार-बार यह कहा जाता है कि संघ परिवार ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा तक नहीं लिया। लेकिन क्यों और कैसे यह बताने से वे मुकर जाते हैं। संघ से पहले मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी और आजादी की लड़ाई में वो कांग्रेस के साथ थी। संघ की स्थापना के साथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सभी को हिंदू धर्म अंगीकार करने का आह्वान किया। उन्होंने साफ-साफ कहा कि हर हिंदू का धर्म है कि वह विदेशियों का राज खत्म करें। कांग्रेस डर गई। उसने आजादी की लड़ाई में मुस्लिम लीग को तो साथ रखा पर संघ को अलग रखा। उसे डर था कि विशाल हिंदू संगठन के नाते आंदोलन कांग्रेस के हाथ से निकल जाएगा। नेहरू , गांधी और पटेल के साथ हेडगेवार का पत्र व्यवहार इस बात का प्रमाण है। देश विभाजन का आधार क्या था? धर्म के नाम पर विभाजन को स्वीकार करने वाली कांग्रेस अगर धर्मनिरपेक्षता की बात करती है तब यह विडंबना ही तो है। आज भी कांग्रेस व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। किन्तु वे धर्म निरपेक्ष बने हुए हैं। राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद की बात करने वाली भाजपा व संघ परिवार सांप्रदायिक घोषित कर दिये जाते है। निश्चय ही यह पूरे देश की सोच व विवेक का अपमान है। सारे तथ्यों को सामने रखकर, इतिहास के पन्नों को पलटते हुए इस पर राष्ट्रीय बहस हो। इस पर तटस्थता की नीति खतरनाक होगी। पूरे भारत का भविष्य इससे जुड़ा हुआ है। अंतिम रूप से यह फैसला हो ही जाना चाहिए कि, वास्तव में सांप्रदायिकता क्या है, साम्प्रदायिक कौन है।
Sunday, January 17, 2010
अब फैसला हो जाए कि सांप्रदायिक कौन?
पृथक विदर्भ आंदोलन पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कांग्रेसी कोशिश निंदनीय है। एक अपराध है यह। लगता है सांप्रदायिकता की राजनीति को जीवित रखने का कोई भी अवसर कांग्रेस हाथ से जाने देना नहीं चाहती। मजे की बात कि ऐसा कर वह धर्मनिरपेक्ष बनी रहती है। लगता है, कांग्रेस ने यह मान लिया है कि कम से कम सांप्रदायिकता के मुददे पर देश के लोग अज्ञानी हैं और यह भी कि देश सांप्रदायिकता के सच से अनजान है। कांग्रेस का यह आकलन आंशिक रूप से सच है। कारण जान लें। हमारे देश में तथाकथित सांप्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता का ऐसा ताना-बाना बुन दिया गया है कि समाज का निर्णायक वर्ग इसकी चकाचौंध में अपनी दृष्टि गंवा बैठा है। अन्यथा महिमामंडित धर्मनिरपेक्षता की कुरूप वास्तविकता कब की सामने आ गई होती। और तब सांप्रदायिकता को मोहरा बना राजनीति करने वाले कथित धर्मनिरपेक्ष राजदल और राजनेता दूसरा वैकल्पिक शब्द तलाशते मिलते। ऐसा अब तक नहीं हो पाया तो सिर्फ इसलिए कि इस मुद्दे पर निष्पक्ष राष्ट्रीय बहस कभी नहीं हो पाई। सत्ता और सुविधा की राजनीति करने वाले भला बिल्ली के गले में घंटी बांधें तो क्यों?
इसके पहले कि यह अवस्था आत्मघाती बन जाए, देश इस बात पर अंतिम रूप से फैसला ले ले कि वास्तव में सांप्रदायिक है कौन! अभी कल ही मैंने टिप्पणी की थी कि सांप्रदायिकता को भारतीय जनता पार्टी के साथ चस्पा कर देना एक फैशन हो गया है। शायद जब मैं इस टिप्पणी को शब्दांकित कर रहा था, तब उधर मुंबई में महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे अपनी पार्टी के सदस्यों को चेतावनी दे रहे थे कि पृथक विदर्भ के मुद्दे पर कांग्रेसजन भाजपा का साथ न दें। क्योंकि कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है और उसका भाजपा समान सांप्रदायिक दल से कुछ लेना-देना नहीं है। क्या कांग्रेसजन यह बताएंगे कि स्वयं ठाकरे की उपर्युक्त टिप्पणी सांप्रदायिक नहीं है? बिल्कुल सांप्रदायिक है। ठाकरे ने पृथक विदर्भ राज्य सरीखे जन आंदोलन पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कोशिश की है। धर्म, जाति, भाषा से बिल्कुल अलग विदर्भ आंदोलन एक सर्वदलीय आंदोलन के रूप में गति प्राप्त कर रहा है। विदर्भ के ही माणिकराव ठाकरे अगर नहीं चाहते कि विदर्भ अलग राज्य बने तब वे कांग्रेस नेतृत्व से ऐसी घोषणा क्यों नहीं करवा देते? फिर विदर्भ के कांग्रेसी स्वयं फैसला कर लेंगे कि उन्हें आंदोलन के साथ रहना है या नहीं। लेकिन ईश्वर के लिए माणिकराव ठाकरे विदर्भ आंदोलन को सांप्रदायिक रंग न दें। विदर्भवासी इसे स्वीकार नहीं करेंगे। कथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में किसी आंदोलन को सांप्रदायिक करार देना एक घटिया राजनीति है। शायद माणिकराव ठाकरे ने अपनी टिप्पणी में निहित इस पक्ष की कल्पना नहीं की होगी। संभव है कांग्रेस नेतृत्व के आदेश पर उन्होंने विदर्भ आंदोलन में भाजपा की सक्रिय सहभागिता को देख ऐसी टिप्पणी कर डाली हो। यह दुर्भाग्यजनक है। पृथक विदर्भ के लिए जब यहां सभी राजनीतिक दल अभूतपूर्व एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे हैं, एक मंच पर एकत्रित हो इतिहास रच रहे हैं, माणिकराव ठाकरे के इस बयान ने एक बार फिर अगर कुछ साबित किया है तो यही कि कांग्रेस सांप्रदायिकता की ओछी राजनीति को जीवित रखना चाहती है। धर्मनिरपेक्षता का तमगा तो उसने वोट की राजनीति के लिए ही लगा रखा है। लेकिन कब तक? देश अब सांप्रदायिकता पर निर्णायक बहस चाहता है। वह इस बात पर फैसला चाहता है कि सांप्रदायिकता क्या है और सांप्रदायिक कौन है?
-(कल जारी...)
इसके पहले कि यह अवस्था आत्मघाती बन जाए, देश इस बात पर अंतिम रूप से फैसला ले ले कि वास्तव में सांप्रदायिक है कौन! अभी कल ही मैंने टिप्पणी की थी कि सांप्रदायिकता को भारतीय जनता पार्टी के साथ चस्पा कर देना एक फैशन हो गया है। शायद जब मैं इस टिप्पणी को शब्दांकित कर रहा था, तब उधर मुंबई में महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे अपनी पार्टी के सदस्यों को चेतावनी दे रहे थे कि पृथक विदर्भ के मुद्दे पर कांग्रेसजन भाजपा का साथ न दें। क्योंकि कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है और उसका भाजपा समान सांप्रदायिक दल से कुछ लेना-देना नहीं है। क्या कांग्रेसजन यह बताएंगे कि स्वयं ठाकरे की उपर्युक्त टिप्पणी सांप्रदायिक नहीं है? बिल्कुल सांप्रदायिक है। ठाकरे ने पृथक विदर्भ राज्य सरीखे जन आंदोलन पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कोशिश की है। धर्म, जाति, भाषा से बिल्कुल अलग विदर्भ आंदोलन एक सर्वदलीय आंदोलन के रूप में गति प्राप्त कर रहा है। विदर्भ के ही माणिकराव ठाकरे अगर नहीं चाहते कि विदर्भ अलग राज्य बने तब वे कांग्रेस नेतृत्व से ऐसी घोषणा क्यों नहीं करवा देते? फिर विदर्भ के कांग्रेसी स्वयं फैसला कर लेंगे कि उन्हें आंदोलन के साथ रहना है या नहीं। लेकिन ईश्वर के लिए माणिकराव ठाकरे विदर्भ आंदोलन को सांप्रदायिक रंग न दें। विदर्भवासी इसे स्वीकार नहीं करेंगे। कथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में किसी आंदोलन को सांप्रदायिक करार देना एक घटिया राजनीति है। शायद माणिकराव ठाकरे ने अपनी टिप्पणी में निहित इस पक्ष की कल्पना नहीं की होगी। संभव है कांग्रेस नेतृत्व के आदेश पर उन्होंने विदर्भ आंदोलन में भाजपा की सक्रिय सहभागिता को देख ऐसी टिप्पणी कर डाली हो। यह दुर्भाग्यजनक है। पृथक विदर्भ के लिए जब यहां सभी राजनीतिक दल अभूतपूर्व एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे हैं, एक मंच पर एकत्रित हो इतिहास रच रहे हैं, माणिकराव ठाकरे के इस बयान ने एक बार फिर अगर कुछ साबित किया है तो यही कि कांग्रेस सांप्रदायिकता की ओछी राजनीति को जीवित रखना चाहती है। धर्मनिरपेक्षता का तमगा तो उसने वोट की राजनीति के लिए ही लगा रखा है। लेकिन कब तक? देश अब सांप्रदायिकता पर निर्णायक बहस चाहता है। वह इस बात पर फैसला चाहता है कि सांप्रदायिकता क्या है और सांप्रदायिक कौन है?
-(कल जारी...)
पत्रकारिता कल की, पत्रकारिता आज की!
यह न तो संयोग है, न ही मजाक। विडंबना भी नहीं। यह कतिपय अज्ञानियों-अल्पज्ञानियों का मिथ्या संसार है, जहां सच पर झूठ का आवरण डाल उसे ही सच साबित करने की कोशिश की जाती है। क्यों न इसे कुत्सित प्रयास के रूप में लिया जाए? खीझ होती है यह देख-सुनकर कि जब भी सांप्रदायिकता की बात आती है, भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। तथाकथित बुद्धिजीवी और मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इस कृत्य को एक फैशन के रूप में अपना लिया है। ठीक इसी तरह, फैशन की तरह यह प्रचलन ही चल पड़ा है कि अपनी गलतियों और मजबूरियों पर पर्दा डालने के लिए पत्रकार-संपादक मालिकों को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। क्या यही पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत और आदर्श के क्षरण का सच है? पतित तो शायद कतरा जाए, किंतु सच के झंडाबरदार इसे स्वीकार करने में झिझकेंगे नहीं।
शनिवार की संध्या नागपुर में संपन्न एक पत्रकारीय समारोह में 'कल की पत्रकारिता, आज की पत्रकारिता' पर वरिष्ठ पत्रकारों के विचार सामने आए। अंग्रेजी दैनिक हितवाद के प्रबंध संपादक बनवारीलाल पुरोहित, प्रेस कौंसिल के पूर्व सदस्य मेघनाथ बोधनकर और श्रमिक पत्रकार आंदोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार टी.बी. गोल्हर विगत कल की उज्ज्वल पत्रकारिता और वर्तमान की कालिमायुक्त पत्रकारिता को लेकर चिंतित दिखे। इनके द्वारा व्यक्त शब्दों पर मंथन कर ही रहा था कि दैनिक भास्कर में प्रकाशित नूर अली के आलेख पर नजर पड़ी। अली ने अरुण शौरी और प्रभाष जोशी जैसे साहसिक बल्कि दु:साहसिक पत्रकार-द्वय के उदय के लिए इंडियन एक्सप्रेस के मालिक (स्व.) रामनाथ गोयनका को श्रेय दिया है। अली के अनुसार, अगर गोयनका मालिक नहीं होते, तब शौरी और जोशी चर्चित नहीं होते। अली ने राहुल बारपुते और रैन माथुर की भी चर्चा करते हुए सवाल उठाया है कि आज के पत्रकार को क्या वे स्थितियां सुलभ हैं, जिनमें प्रभाष जोशी जैसे व्यक्तित्व पैदा होते हैं?
नागपुर के पत्रकारों से लेकर नूर अली तक ने स्वयं को परिस्थिति विशेष और व्यक्ति विशेष में सिकोड़ लिया। कल की पत्रकारिता के सूर्य बाल गंगाधर तिलक, गणेशशंकर विद्यार्थी, विष्णु पराडकर, लाला लाजपत राय आदि यदि बगैर अस्त हुए समाज में चमकते रहे तब इस कारण कि तात्कालिक परिस्थितियों व जरूरतों के अनुरूप उनकी लेखनी आजाद भारत के पक्ष में अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती रही। इसके साथ ही तब समाज में व्याप्त कुरीतियों-कुप्रथाओं के खिलाफ भी वे योद्धा बनकर खड़े हो गए थे। निडरता व ईमानदारी उनकी पूंजी थी। वे सफल रहे। कल की पत्रकारिता का यह अध्याय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।
आज की पत्रकारिता अर्थात् आजादी के बाद की पत्रकारिता का चरित्र-स्वरूप बदल गया। आजादी के आरंभिक वर्षों को छोड़ दें तब पत्रकारिता ने मूल्य, आदर्श और सिद्धांत की परिभाषा को बदल डाला। पत्रकारों के लक्ष्य बदल गए। सुविधाभोगी बन गए वे। अपने निजी लाभों की पूर्ति के लिए उसने सरकार व सत्ता से हाथ मिला लिया। राजनीतिक शक्ति और अर्थलाभ के लिए मालिकों ने गोलंबद होकर पत्रकारीय मूल्य के पर कतरने शुरू कर दिए। हां, रामनाथ गोयनका के रूप में अवश्य एक ऐसा मालिक था, जिसने लाभ-प्रलोभन को लात मार भ्रष्ट सत्ता को चुनौती दी थी। शासकीय प्रताडऩाओं को झेलते रहे, झुके कभी नहीं। तब बिल्कुल ठीक है कि शौरी, शौरी न होते, जोशी, जोशी न होते, अगर उनके सिर पर गोयनका जैसे मालिक का हाथ नहीं होता। लेकिन पत्रकार-संपादक इसे अपवाद मान अपने कर्तव्य से पल्ला न झाड़ें। मैं इस बात पर दृढ़ हूं कि अगर संपादक-पत्रकार चाहें तो मालिक भी पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ कदमताल करने लगेंगे। शर्त यह है कि पत्रकार पहले स्वयं को पाक-साफ साबित करें। अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करें। मालिकों के दबाव का बहाना न बनाएं। मालिक तो हावी तब होता है जब वह अपने पत्रकारों को रेंगते-गिड़गिड़ाते पाता है। शायद उनका कमजोर पाश्र्व इसके लिए उन्हें मजबूर करता है। मालिक की नजर में इनका कोई महत्व नहीं होता। जबकि ईमानदार-निडर पत्रकारीय मूल्यों व सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित पत्रकार-संपादक मालिकों की दृष्टि में सम्मान के पात्र होते हैं। वैचारिक मतभेद की स्थिति में एक साथ मिल-बैठ बातचीत कर मतभेद दूर किए जाते हैं-टकराव नहीं होते। आज की पत्रकारिता को नकारात्मक दृष्टि से देखने वाले इस पक्ष का अवलोकन करें। पत्रकारिता का पूरा का पूरा तालाब अभी दूषित नहीं हुआ है। जरूरत है इनमें प्रविष्ट विषयुक्त मछलियों की पहचान कर निकाल बाहर फेंकने की। पत्रकारीय आभा की चमक लौट आएगी, गरिमा पुनस्र्थापित हो जाएगी।
शनिवार की संध्या नागपुर में संपन्न एक पत्रकारीय समारोह में 'कल की पत्रकारिता, आज की पत्रकारिता' पर वरिष्ठ पत्रकारों के विचार सामने आए। अंग्रेजी दैनिक हितवाद के प्रबंध संपादक बनवारीलाल पुरोहित, प्रेस कौंसिल के पूर्व सदस्य मेघनाथ बोधनकर और श्रमिक पत्रकार आंदोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार टी.बी. गोल्हर विगत कल की उज्ज्वल पत्रकारिता और वर्तमान की कालिमायुक्त पत्रकारिता को लेकर चिंतित दिखे। इनके द्वारा व्यक्त शब्दों पर मंथन कर ही रहा था कि दैनिक भास्कर में प्रकाशित नूर अली के आलेख पर नजर पड़ी। अली ने अरुण शौरी और प्रभाष जोशी जैसे साहसिक बल्कि दु:साहसिक पत्रकार-द्वय के उदय के लिए इंडियन एक्सप्रेस के मालिक (स्व.) रामनाथ गोयनका को श्रेय दिया है। अली के अनुसार, अगर गोयनका मालिक नहीं होते, तब शौरी और जोशी चर्चित नहीं होते। अली ने राहुल बारपुते और रैन माथुर की भी चर्चा करते हुए सवाल उठाया है कि आज के पत्रकार को क्या वे स्थितियां सुलभ हैं, जिनमें प्रभाष जोशी जैसे व्यक्तित्व पैदा होते हैं?
नागपुर के पत्रकारों से लेकर नूर अली तक ने स्वयं को परिस्थिति विशेष और व्यक्ति विशेष में सिकोड़ लिया। कल की पत्रकारिता के सूर्य बाल गंगाधर तिलक, गणेशशंकर विद्यार्थी, विष्णु पराडकर, लाला लाजपत राय आदि यदि बगैर अस्त हुए समाज में चमकते रहे तब इस कारण कि तात्कालिक परिस्थितियों व जरूरतों के अनुरूप उनकी लेखनी आजाद भारत के पक्ष में अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती रही। इसके साथ ही तब समाज में व्याप्त कुरीतियों-कुप्रथाओं के खिलाफ भी वे योद्धा बनकर खड़े हो गए थे। निडरता व ईमानदारी उनकी पूंजी थी। वे सफल रहे। कल की पत्रकारिता का यह अध्याय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।
आज की पत्रकारिता अर्थात् आजादी के बाद की पत्रकारिता का चरित्र-स्वरूप बदल गया। आजादी के आरंभिक वर्षों को छोड़ दें तब पत्रकारिता ने मूल्य, आदर्श और सिद्धांत की परिभाषा को बदल डाला। पत्रकारों के लक्ष्य बदल गए। सुविधाभोगी बन गए वे। अपने निजी लाभों की पूर्ति के लिए उसने सरकार व सत्ता से हाथ मिला लिया। राजनीतिक शक्ति और अर्थलाभ के लिए मालिकों ने गोलंबद होकर पत्रकारीय मूल्य के पर कतरने शुरू कर दिए। हां, रामनाथ गोयनका के रूप में अवश्य एक ऐसा मालिक था, जिसने लाभ-प्रलोभन को लात मार भ्रष्ट सत्ता को चुनौती दी थी। शासकीय प्रताडऩाओं को झेलते रहे, झुके कभी नहीं। तब बिल्कुल ठीक है कि शौरी, शौरी न होते, जोशी, जोशी न होते, अगर उनके सिर पर गोयनका जैसे मालिक का हाथ नहीं होता। लेकिन पत्रकार-संपादक इसे अपवाद मान अपने कर्तव्य से पल्ला न झाड़ें। मैं इस बात पर दृढ़ हूं कि अगर संपादक-पत्रकार चाहें तो मालिक भी पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ कदमताल करने लगेंगे। शर्त यह है कि पत्रकार पहले स्वयं को पाक-साफ साबित करें। अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करें। मालिकों के दबाव का बहाना न बनाएं। मालिक तो हावी तब होता है जब वह अपने पत्रकारों को रेंगते-गिड़गिड़ाते पाता है। शायद उनका कमजोर पाश्र्व इसके लिए उन्हें मजबूर करता है। मालिक की नजर में इनका कोई महत्व नहीं होता। जबकि ईमानदार-निडर पत्रकारीय मूल्यों व सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित पत्रकार-संपादक मालिकों की दृष्टि में सम्मान के पात्र होते हैं। वैचारिक मतभेद की स्थिति में एक साथ मिल-बैठ बातचीत कर मतभेद दूर किए जाते हैं-टकराव नहीं होते। आज की पत्रकारिता को नकारात्मक दृष्टि से देखने वाले इस पक्ष का अवलोकन करें। पत्रकारिता का पूरा का पूरा तालाब अभी दूषित नहीं हुआ है। जरूरत है इनमें प्रविष्ट विषयुक्त मछलियों की पहचान कर निकाल बाहर फेंकने की। पत्रकारीय आभा की चमक लौट आएगी, गरिमा पुनस्र्थापित हो जाएगी।
Saturday, January 16, 2010
अर्थलाभ, राष्ट्राभिमान, स्वाभिमान?
आस्टे्रलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों से क्रोधित शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे यह कहते हैं कि देशवासियों में, खासकर क्रिकेट खिलाडिय़ों में, स्वाभिमान और राष्ट्राभिमान बिल्कुल नहीं है, तब इस पर चिंतन जरूरी है। वैसे उनका 'आदेश' कि आस्टे्रलिया क्रिकेट टीम को मुंबई में खेलने से प्रतिबंधित कर दिया है, उनके पुराने तानाशाही रवैये को रेखांकित कर गया। एक बार फिर ठाकरे ने यह जताने की कोशिश की है कि कोई माने न माने मुंबई उनकी जागीर है। इसके पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के खिलाफ इसी तरह का आदेश जारी कर ठाकरे पाकिस्तान को मुंबई में खेलने से रोकने में सफल हो चुके हैं ।
स्वाभिमान-राष्ट्राभिमान की विवेचना के पूर्व ठाकरे के आदेश पर गौर कर लिया जाए। बाल ठाकरे को इस तरह का आदेश देने का अधिकार कहां से मिल गया? क्या मुंबई में बाल ठाकरे का समानांतर शासन चल रहा है? उनके ऐसे आदेशों को शासन की ओर से चुनौती क्यों नहीं मिलती? और सवाल यह भी कि क्या बाल ठाकरे से अलग कोई अन्य ऐसा आदेश जारी करे तो उसे भी ठाकरे की तरह अनदेखा कर दिया जाएगा? शासन की ओर से चाहे कोई भी सफाई दी जाए, यह स्पष्ट है कि ठाकरे के ऐसे आदेशों को चूंकि सरकार की ओर से चुनौती नहीं मिलती, यह मान लिया गया है कि मुंबई में बाल ठाकरे कानून से ऊपर हैं और उनकी समानांतर सरकार चलती है। यह स्थिति लोकतांत्रिक भारत के लिए और निर्वाचित महाराष्ट्र सरकार के लिए शर्मनाक है। एक संविधानेत्तर सत्ता की उदय को सरकार बर्दाश्त कैसे कर रही है? यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए अत्यंत ही खतरनाक है। अगर राज्य में कोई सरकार है तब उसे ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही होगा। अन्यथा, भविष्य में शायद मुंबई अराजकता का एक ऐसा उदाहरण पेश करेगी जिससे पूरे देश में महाराष्ट्र को शर्मसार होना पड़ेगा । अभी भी वक्त है राज्य सरकार पहल करें और मुंबईवासियों को यह विश्वास दिलाए कि वहां कानून का शासन है और आगे भी रहेगा। किसी ठाकरे का शासन नहीं।
अब ठाकरे की दूसरी बात पर । क्या सचमुच हममें स्वाभिमान और राष्ट्राभिमान शेष नहीं है। ठाकरे ने यह मुद्दा उठाया है आस्टे्रलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों के संदर्भ में। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं कि जिस आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले हो रहे हैं, उनकी हत्याएं हो रही हैं, उस आस्टे्रलिया के क्रिकेट खिलाडिय़ों का भारत में स्वागत हो- उन्हें भारत की जमीन पर खेलने की अनुमति दी जाए।
दरअसल, इस पर भारत सरकार को पहल करनी चाहिए। आस्टे्रलिया में भारतीयों की हो रही हत्याओं से पूरा देश आक्रोशित है। कोई आश्चर्य नहीं कि आस्टे्रलियाई खिलाडिय़ों को देख भारतीय आक्रोश फूट पड़े और कोई अनहोनी हो जाए। इतने तनावपूर्ण वातावरण में आस्ट्रेलिया को भारत आने से मना कर देना ही बेहतर होगा । भारत में सक्रिय आतंकवादी भी इस तनाव का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं। तब भारत सरकार क्या जवाब देगी? ध्यान रहे कुछ देशों में आतंकवादी हमलों के बाद स्वयं आस्टे्रलिया की टीम उन देशों में जाकर खेलने से मना कर चुकी है। यहां हम ठाकरे के साथ हैं। ठाकरे ने बिल्कुल सही ही अमिताभ बच्चन का उदाहरण दिया है । बच्चन ऐसे हमलों के विरोध में आस्ट्रेलिया में मिलने वाले एक प्रतिष्ठित सम्मान को ठुकरा चुके हैं। अगर सरकार अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठाती तब क्या हमारे खिलाड़ी अमिताभ बच्चन की राह पर चलते हुए आस्टे्रलिया के खिलाफ खेलने से इंकार करने को तैयार हैं? शायद ठाकरे यही चाहते हैं। लेकिन अर्थलाभ को प्राथमिकता देने वाले खिलाडिय़ों से ऐसी अपेक्षा की जाए?
स्वाभिमान-राष्ट्राभिमान की विवेचना के पूर्व ठाकरे के आदेश पर गौर कर लिया जाए। बाल ठाकरे को इस तरह का आदेश देने का अधिकार कहां से मिल गया? क्या मुंबई में बाल ठाकरे का समानांतर शासन चल रहा है? उनके ऐसे आदेशों को शासन की ओर से चुनौती क्यों नहीं मिलती? और सवाल यह भी कि क्या बाल ठाकरे से अलग कोई अन्य ऐसा आदेश जारी करे तो उसे भी ठाकरे की तरह अनदेखा कर दिया जाएगा? शासन की ओर से चाहे कोई भी सफाई दी जाए, यह स्पष्ट है कि ठाकरे के ऐसे आदेशों को चूंकि सरकार की ओर से चुनौती नहीं मिलती, यह मान लिया गया है कि मुंबई में बाल ठाकरे कानून से ऊपर हैं और उनकी समानांतर सरकार चलती है। यह स्थिति लोकतांत्रिक भारत के लिए और निर्वाचित महाराष्ट्र सरकार के लिए शर्मनाक है। एक संविधानेत्तर सत्ता की उदय को सरकार बर्दाश्त कैसे कर रही है? यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए अत्यंत ही खतरनाक है। अगर राज्य में कोई सरकार है तब उसे ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही होगा। अन्यथा, भविष्य में शायद मुंबई अराजकता का एक ऐसा उदाहरण पेश करेगी जिससे पूरे देश में महाराष्ट्र को शर्मसार होना पड़ेगा । अभी भी वक्त है राज्य सरकार पहल करें और मुंबईवासियों को यह विश्वास दिलाए कि वहां कानून का शासन है और आगे भी रहेगा। किसी ठाकरे का शासन नहीं।
अब ठाकरे की दूसरी बात पर । क्या सचमुच हममें स्वाभिमान और राष्ट्राभिमान शेष नहीं है। ठाकरे ने यह मुद्दा उठाया है आस्टे्रलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों के संदर्भ में। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं कि जिस आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले हो रहे हैं, उनकी हत्याएं हो रही हैं, उस आस्टे्रलिया के क्रिकेट खिलाडिय़ों का भारत में स्वागत हो- उन्हें भारत की जमीन पर खेलने की अनुमति दी जाए।
दरअसल, इस पर भारत सरकार को पहल करनी चाहिए। आस्टे्रलिया में भारतीयों की हो रही हत्याओं से पूरा देश आक्रोशित है। कोई आश्चर्य नहीं कि आस्टे्रलियाई खिलाडिय़ों को देख भारतीय आक्रोश फूट पड़े और कोई अनहोनी हो जाए। इतने तनावपूर्ण वातावरण में आस्ट्रेलिया को भारत आने से मना कर देना ही बेहतर होगा । भारत में सक्रिय आतंकवादी भी इस तनाव का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं। तब भारत सरकार क्या जवाब देगी? ध्यान रहे कुछ देशों में आतंकवादी हमलों के बाद स्वयं आस्टे्रलिया की टीम उन देशों में जाकर खेलने से मना कर चुकी है। यहां हम ठाकरे के साथ हैं। ठाकरे ने बिल्कुल सही ही अमिताभ बच्चन का उदाहरण दिया है । बच्चन ऐसे हमलों के विरोध में आस्ट्रेलिया में मिलने वाले एक प्रतिष्ठित सम्मान को ठुकरा चुके हैं। अगर सरकार अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठाती तब क्या हमारे खिलाड़ी अमिताभ बच्चन की राह पर चलते हुए आस्टे्रलिया के खिलाफ खेलने से इंकार करने को तैयार हैं? शायद ठाकरे यही चाहते हैं। लेकिन अर्थलाभ को प्राथमिकता देने वाले खिलाडिय़ों से ऐसी अपेक्षा की जाए?
बीसीसीआई पर इनकम टैक्स का 'बाउंसर'!
ऐसा तो बहुत पहले ही होना चाहिए था। पर चलो देर से ही सही आयकर विभाग वालों की आंखें तो खुलीं। बीसीसीआई के नाम से प्रसिद्ध भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को 120 करोड़ रुपए का टैक्स और जुर्माना अदा करने का आदेश देकर आयकर विभाग ने अपने कर्तव्यबोध का परिचय दिया है। हालांकि इसमें विलंब बहुत हुआ। सचमुच यह अनेक लोगों के लिए पहले से ही यह चिंता का सबब था कि एक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर्ड बीसीसीआई को आयकर की छूट कैसे मिली हुई है। यह तो कोई आंख का अंधा भी देख सकता था कि बीसीसीआई विशुद्ध रूप से एक मुनाफा कमानेवाले व्यावसायिक संगठन के रूप में काम करता रहा है। क्रिकेट मैच का आयोजन करना, इसके लिए पैसे लेकर प्रायोजक ढूंढना, विज्ञापन से धन अर्जित करना, टेलीविजन पर प्रसार का अधिकार देकर मुनाफा कमाना, खेल मैदान के अंदर भी विज्ञापन प्रदर्शित कर धन लेना और यहां तक कि खिलाडिय़ों की पोशाक को भी विज्ञापन का माध्यम बनाकर धन अर्जित करना, धर्मार्थ अर्थात 'चैरिटी' का काम कैसे हो गया? खिलाड़ी बेचे-खरीदे जाते हैं। अद्र्धनग्न सुंदरियां मैदान में आकर खिलाडिय़ों और दर्शकों का मनोरंजन करती हैं। अब तक आयकर विभाग बीसीसीआई की चैरिटी के दर्जे को स्वीकार कैसे करता रहा? अब इतने वर्षों बाद आयकर विभाग इस नतीजे पर पहुंचा कि बीसीसीआई की गतिविधियां विशुद्ध रूप से व्यावसायिक हैं? उसने इसके चैरिटेबल दर्जे को समाप्त कर दिया। इसके लिए निश्चय ही पहल करने वाले आयकर अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। और इस बात की विभागीय जांच हो कि अब तक इस पर विभाग आंखें क्यों मूंदे रखा। कहीं कोई प्रलोभन या प्रभाव तो काम नहीं कर रहा था? दोषियों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए। और हां, अगर कानूनी रूप से संभव हो तो बीसीसीआई से टैक्स की वसूली आरंभ से ही की जाए। क्योंकि वह आरंभ से ही उसकी गतिविधियां व्यावसायिक ही रही हैं। फिर कोई छूट क्यों?
बीसीसीआई एक निजी चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में तमिलनाडु में निबंधित संस्था है। तब क्या यह आश्चर्य नहीं कि इसने भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे प्राप्त कर लिया? क्या सरकार ने इसके लिए बोर्ड को कोई अधिकार दिया है? जब इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) और बीसीसीआई का विवाद अदालत पहुंचा था तब बोर्ड की ओर से शपथ पत्र दाखिल कर यह कहा गया था कि वह एक निजी ट्रस्ट है। अदालत ने भी उसका संज्ञान लिया था। ऐसे में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे मिल सकता है? हमारी सरकार के पास एक पूर्णकालिक खेल मंत्रालय है। लेकिन उसका भी कोई नियंत्रण इस बोर्ड पर नहीं है। बोर्ड के संविधान के अनुसार विभिन्न राज्यों के क्रिकेट संघ बोर्ड के पदाधिकारियों का निर्वाचन करते हैं। बोर्ड उन्हें आर्थिक मदद भी करता है। पूरे देश में क्रिकेट पर बोर्ड का एकाधिकार है। शायद इसलिए कि बोर्ड ने किसी भी समानांतर संस्था को पनपने नहीं दिया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड संसार का सबसे धनी और रुतबे वाला बोर्ड माना जाता है। इसी से आकर्षित होकर बोर्ड के महत्वपूर्ण पदों पर राजनीतिकों या अन्य प्रभावशाली लोगों ने कब्जा जमा रखा है। धन पर नियंत्रण के लिए धन बल के सहारे से। बीसीसीआई के हाल तक अध्यक्ष रहे शरद पवार हों या दिल्ली क्रिकेट संघ के अरुण जेटली या फिर बिहार के लालू यादव या केंद्रीय मंत्री राजस्थान के सी.पी. जोशी हों, दूर-दूर तक इनका क्रिकेट से कोई संबंध नहीं। लेकिन भारतीय क्रिकेट के भाग्य का निर्णय इन लोगों ने अपने हाथ में रखा। अनेक मशहूर खिलाड़ी इस बात की मांग कर चुके हैं कि भारतीय क्रिकेट पर क्रिकेट खिलाडिय़ों का नियंत्रण हो। ऐसा नहीं हो पाया तो इसलिए कि ऐसी मांग करने वालों के पीछे धनशक्ति नहीं थी। लेकिन यह विडंबना तो है ही। आज भी भारतीय क्रिकेट और क्रिकेट खिलाडिय़ों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार गैर क्रिकेट खिलाडिय़ों के हाथों में है। अब चूंकि आयकर विभाग के ताजा कदम से बोर्ड का एक मुखौटा उतर चुका है, बेहतर हो कि या तो बोर्ड को सरकार अपने अधीन कर ले, या फिर नियम-कानून बनाकर पूर्व खिलाडिय़ों या क्रिकेट से जुड़ी हस्तियों के हाथों में बोर्ड का संचालन सौंप दिया जाए।
बीसीसीआई एक निजी चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में तमिलनाडु में निबंधित संस्था है। तब क्या यह आश्चर्य नहीं कि इसने भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे प्राप्त कर लिया? क्या सरकार ने इसके लिए बोर्ड को कोई अधिकार दिया है? जब इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) और बीसीसीआई का विवाद अदालत पहुंचा था तब बोर्ड की ओर से शपथ पत्र दाखिल कर यह कहा गया था कि वह एक निजी ट्रस्ट है। अदालत ने भी उसका संज्ञान लिया था। ऐसे में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे मिल सकता है? हमारी सरकार के पास एक पूर्णकालिक खेल मंत्रालय है। लेकिन उसका भी कोई नियंत्रण इस बोर्ड पर नहीं है। बोर्ड के संविधान के अनुसार विभिन्न राज्यों के क्रिकेट संघ बोर्ड के पदाधिकारियों का निर्वाचन करते हैं। बोर्ड उन्हें आर्थिक मदद भी करता है। पूरे देश में क्रिकेट पर बोर्ड का एकाधिकार है। शायद इसलिए कि बोर्ड ने किसी भी समानांतर संस्था को पनपने नहीं दिया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड संसार का सबसे धनी और रुतबे वाला बोर्ड माना जाता है। इसी से आकर्षित होकर बोर्ड के महत्वपूर्ण पदों पर राजनीतिकों या अन्य प्रभावशाली लोगों ने कब्जा जमा रखा है। धन पर नियंत्रण के लिए धन बल के सहारे से। बीसीसीआई के हाल तक अध्यक्ष रहे शरद पवार हों या दिल्ली क्रिकेट संघ के अरुण जेटली या फिर बिहार के लालू यादव या केंद्रीय मंत्री राजस्थान के सी.पी. जोशी हों, दूर-दूर तक इनका क्रिकेट से कोई संबंध नहीं। लेकिन भारतीय क्रिकेट के भाग्य का निर्णय इन लोगों ने अपने हाथ में रखा। अनेक मशहूर खिलाड़ी इस बात की मांग कर चुके हैं कि भारतीय क्रिकेट पर क्रिकेट खिलाडिय़ों का नियंत्रण हो। ऐसा नहीं हो पाया तो इसलिए कि ऐसी मांग करने वालों के पीछे धनशक्ति नहीं थी। लेकिन यह विडंबना तो है ही। आज भी भारतीय क्रिकेट और क्रिकेट खिलाडिय़ों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार गैर क्रिकेट खिलाडिय़ों के हाथों में है। अब चूंकि आयकर विभाग के ताजा कदम से बोर्ड का एक मुखौटा उतर चुका है, बेहतर हो कि या तो बोर्ड को सरकार अपने अधीन कर ले, या फिर नियम-कानून बनाकर पूर्व खिलाडिय़ों या क्रिकेट से जुड़ी हस्तियों के हाथों में बोर्ड का संचालन सौंप दिया जाए।
Thursday, January 14, 2010
उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करे सर्वोच्च न्यायालय!
दिल्ली उच्च न्यायालय को लोकतंत्र का सलाम! हाल के दिनों में न्यायपालिका में प्रविष्ट भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर चिंताएं जताई गई हैं। लोकतंत्र के इस दरवाजे में छिद्र भला कैसे स्वीकार किया जाए? न्याय मंदिर और उसमें बैठे 'देवता' अर्थात न्यायाधीश के दामन पर दाग का अर्थ न्याय की मौत है। सभ्यता के विकास के साथ ही सभ्य समाज ने अपने लिए न्याय और न्याय के लिए न्याय मंदिर की कल्पना की। मानव जाति ने इस सत्य को स्वीकार किया कि वह ऐसे अपराध कर सकता है जो समाज के लिए घातक हो, समाज में अराजकता निर्मित हो। वह दूसरे का हक छीन सकता है, दुष्कर्म कर सकता है, चोरी-डकैती कर सकता है और हत्या जैसा संगीन अपराध भी कर सकता है। स्वयं को दंडित करने और न्याय पाने के लिए न्याय मंदिर की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए न्यायपालिका की स्थापना हुई।
लोकतांत्रिक भारत ने सुशासन के लिए अपना संविधान बनाया। आवश्यकतानुसार समय-समय पर इसमें संशोधन किए गए। नए-नए कानून बनते रहे। पारदर्शिता के हक में सूचना का अधिकार कानून भी बना। यह एक क्रांतिकारी कदम था। इसके द्वारा आम लोगों को यह जानने का अधिकार दिया गया कि उनके द्वारा गठित सरकार के विभिन्न अंग अपने दायित्व का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन कर रहे हैं या नहीं। हर दृष्टि से इस कदम ने लोकतंत्र को जनहित में पारदर्शी बना दिया। लेकिन शासन-प्रशासन में मौजूद भ्रष्टाचारियों की फौज ने समय-समय पर इसका विरोध किया। निरंकुश शासन चलाने का आकांक्षी अधिकारी वर्ग तिलमिला उठा था। लेकिन कानून ऐसा कि वे कुछ नहीं कर पाए। सूचना के अधिकार के माध्यम से कुछ ऐसी गंभीर जानकारियां सामने आईं जो लोकतंत्र को घुन की तरह चाट रही थीं। उन पर रोक लगी। लोकतंत्र में जनता के प्रति शासकीय जिम्मेदारी की मूल कल्पना साकार होने लगी।
लेकिन आश्चर्य कि न्यायपालिका के एक वर्ग की ओर से इसका विरोध हुआ। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को इस कानून से अलग रखने की चेष्टा की। लेकिन कतिपयराज्यों में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश खुलकर इस कानून के पक्ष में आए और खुद ही इसके दायरे में होने की घोषणा कर डाली। भारत के मुख्य न्यायाधीश स्वयं को और अपने कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के तहत पारदर्शी बनाने को तत्पर नहीं दिखे। लेकिन देश में सचमुच कानून के ईमानदार रक्षकों की कमी नहीं है। उस दिल्ली उच्च न्यायालय को सलाम कि उसने भारत के मुख्य न्यायाधीश, उनके दफ्तर, जजों की नियुक्ति, शिकायतों, पत्राचार, तबादलों आदि को सूचना के कानून के दायरे में डाल दिया। उसने साफ शब्दों में फैसला दिया कि इनसे संबंधित जानकारी प्राप्त करने का अधिकार नागरिकों का है। इसके पूर्व केंद्रीय सूचना आयोग ने भी इस आशय का फैसला सुनाया था। किन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश सहमत नहीं हुए थे। अब चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुना दिया है, इसका आदर किया जाना चाहिए। कोई इस आदेश को चुनौती न दे। खबर है कि सर्वोच्च न्यायालय अर्थात मुख्य न्यायाधीश ऐसा कुछ कदम उठा सकते हैं। यह संभावित कदम सूचना के अधिकार के उद्देश्य पर कुठाराघात होगा। लोकतंत्र के पक्ष में, न्याय के पक्ष में और पारदर्शी शासन के पक्ष में बेहतर होगा, सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करे। उसे चुनौती न दे।
लोकतांत्रिक भारत ने सुशासन के लिए अपना संविधान बनाया। आवश्यकतानुसार समय-समय पर इसमें संशोधन किए गए। नए-नए कानून बनते रहे। पारदर्शिता के हक में सूचना का अधिकार कानून भी बना। यह एक क्रांतिकारी कदम था। इसके द्वारा आम लोगों को यह जानने का अधिकार दिया गया कि उनके द्वारा गठित सरकार के विभिन्न अंग अपने दायित्व का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन कर रहे हैं या नहीं। हर दृष्टि से इस कदम ने लोकतंत्र को जनहित में पारदर्शी बना दिया। लेकिन शासन-प्रशासन में मौजूद भ्रष्टाचारियों की फौज ने समय-समय पर इसका विरोध किया। निरंकुश शासन चलाने का आकांक्षी अधिकारी वर्ग तिलमिला उठा था। लेकिन कानून ऐसा कि वे कुछ नहीं कर पाए। सूचना के अधिकार के माध्यम से कुछ ऐसी गंभीर जानकारियां सामने आईं जो लोकतंत्र को घुन की तरह चाट रही थीं। उन पर रोक लगी। लोकतंत्र में जनता के प्रति शासकीय जिम्मेदारी की मूल कल्पना साकार होने लगी।
लेकिन आश्चर्य कि न्यायपालिका के एक वर्ग की ओर से इसका विरोध हुआ। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को इस कानून से अलग रखने की चेष्टा की। लेकिन कतिपयराज्यों में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश खुलकर इस कानून के पक्ष में आए और खुद ही इसके दायरे में होने की घोषणा कर डाली। भारत के मुख्य न्यायाधीश स्वयं को और अपने कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के तहत पारदर्शी बनाने को तत्पर नहीं दिखे। लेकिन देश में सचमुच कानून के ईमानदार रक्षकों की कमी नहीं है। उस दिल्ली उच्च न्यायालय को सलाम कि उसने भारत के मुख्य न्यायाधीश, उनके दफ्तर, जजों की नियुक्ति, शिकायतों, पत्राचार, तबादलों आदि को सूचना के कानून के दायरे में डाल दिया। उसने साफ शब्दों में फैसला दिया कि इनसे संबंधित जानकारी प्राप्त करने का अधिकार नागरिकों का है। इसके पूर्व केंद्रीय सूचना आयोग ने भी इस आशय का फैसला सुनाया था। किन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश सहमत नहीं हुए थे। अब चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुना दिया है, इसका आदर किया जाना चाहिए। कोई इस आदेश को चुनौती न दे। खबर है कि सर्वोच्च न्यायालय अर्थात मुख्य न्यायाधीश ऐसा कुछ कदम उठा सकते हैं। यह संभावित कदम सूचना के अधिकार के उद्देश्य पर कुठाराघात होगा। लोकतंत्र के पक्ष में, न्याय के पक्ष में और पारदर्शी शासन के पक्ष में बेहतर होगा, सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करे। उसे चुनौती न दे।
Wednesday, January 13, 2010
वैद्यजी, सरकार और पत्रकार तो आज घनिष्ठ मित्र हैं!
पिछले दिनों झारखंड मुक्ति मोर्चा को समर्थन दे झारखंड में सरकार बनाने के कदम को अनुचित बताने वाले प्रसिद्ध पत्रकार मा.गो. वैद्य का कहना है कि सरकार और पत्रकार मित्र नहीं हो सकते। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कभी प्रवक्ता रहे वैद्य अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए विख्यात हैं। अपने स्तंभ के माध्यम से समसामयिक विषयों पर उनकी दोटूक टिप्पणियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनती रही हैं। सच लिखने और सच कहने का साहस वैद्य में है। सरकार और पत्रकार के संबंध को लेकर उनकी ताजा टिप्पणी पर क्या पत्रकार बिरादरी गौर करेगी? चूंकि वैद्य की यह टिप्पणी पत्रकारों के लिए एक संदेश है, इस पर बहस होनी चाहिए। लेकिन क्या बिरादरी इस पर इमानदार मंथन के लिए तैयार होगी? अगर साहस है तो वे वैद्य के संदेश को चुनौती दें।
बुजुर्ग वैद्य ने तो सैद्धांतिक सच को रेखांकित किया है, किन्तु वे वर्तमान के सच को शब्द नहीं दे पाए। उन्हें इस सच की अवश्य जानकारी होगी कि उनके 'दर्शन' के विपरीत आज सरकार और पत्रकार मित्रता इतनी प्रगाढ़ है कि वे एक-दूसरे की जरूरतों के पूरक बन गए हैं। पत्रकार अगर सिर्फ पत्रकारिता करते और सरकार के नेता, अधिकारी राजनीतिक और लोकसेवक के रूप में दायित्व निर्वाह करते तब निश्चय ही दोनों के बीच कभी मित्रता नहीं होती। लेकिन आज का सच ये है कि पत्रकारों का एक वर्ग जिनकी संख्या बहुत अधिक है, सरकार की इच्छानुरूप उनका महिमामंडन करता है, उनकी खामियों-विफलताओं पर पर्दा डालता है और बदले में 'पारिश्रमिक' वसूलता है। यह 'पारिश्रमिक' निज अर्थ लाभ से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक होता है। हैसियत व उपयोगिता के अनुसार इनमें से कुछ सुविधाओं से युक्त सरकारी समीतियों की सदस्यता से संतुष्ट हो जाते हैं, कुछ धन लाभ से, कुछ दूसरों को लाभ पहुंचा धन अर्जित कर और कुछ बड़े खिलाड़ी संसद की सदस्यता प्राप्त कर। काजल की कोठरी में रहने वाले सत्ताधारी सत्ता की ओर से टुकड़े फेंक इन्हें अनुग्रहित कर देते हैं। श्री वैद्य निराश होंगे किन्तु यह सच मौजूद रहेगा कि सैद्धांतिक अपेक्षा के विपरीत आज सरकार और पत्रकार घनिष्ठ मित्र हैं।
श्री वैद्य पत्रकारिता को सरोकारों की पत्रकारिता से जोडऩे की सलाह देते हैं। ऐसा होना चाहिए। स्वयं को पत्रकार अथवा संपादक मानने वाला सामाजिक सरोकारों से दूर कैसे रह सकता है। किन्तु जब प्राथमिकताएं बदल जाएं तब? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एन. रे ऐसी टिप्पणी कर चुके हैं कि मीडिया बिक गया है और संपादक दो कौड़ी के हो गए हैं। श्री रे ने इससे भी आगे बढ़ते हुए यह भी कह डाला था कि 'पत्रकारिता वेश्यावृत्ति में तब्दील हो गई है।' जो मीडिया अपने किसी संस्थान पर राजनीतिक दलों और गुंडों के हमलों पर गला फाड़-फाड़ कर चीखता-चिल्लाता है, वही मीडिया पेशे को 'वेश्यावृत्ति' निरूपित किए जाने पर लगभग खामोश रहा। क्या यह सच की स्वीकृति नहीं थी? चूंकि झूठ के पैर नहीं होते, मीडिया श्री रे के शब्दों का अपेक्षित प्रतिरोध नहीं कर सका। ठीक इसी प्रकार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सार्वजनिक रूप से पत्रकारों के एक वर्ग को भ्रष्ट निरूपित किया था, तब भी बिरादरी ने लगभग मौन साध लिया था। बिरादरी के मन का चोर विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
इन सब सच की मौजूदगी में क्या मा.गो. वैद्य की अपेक्षा समाचार पत्र के पन्नों में कैद होकर रह जाएगी? फैसला बिरादरी को करना है- खासकर बिरादरी के युवा सदस्यों को। उन्हें यह तय करना ही होगा कि क्या वे अपनी संतानों की नजरों में 'वेश्यावृत्ति' से अर्जित पूंजी के स्वामी दिखना चाहेंगे? फैसला कर ले बिरादरी।
बुजुर्ग वैद्य ने तो सैद्धांतिक सच को रेखांकित किया है, किन्तु वे वर्तमान के सच को शब्द नहीं दे पाए। उन्हें इस सच की अवश्य जानकारी होगी कि उनके 'दर्शन' के विपरीत आज सरकार और पत्रकार मित्रता इतनी प्रगाढ़ है कि वे एक-दूसरे की जरूरतों के पूरक बन गए हैं। पत्रकार अगर सिर्फ पत्रकारिता करते और सरकार के नेता, अधिकारी राजनीतिक और लोकसेवक के रूप में दायित्व निर्वाह करते तब निश्चय ही दोनों के बीच कभी मित्रता नहीं होती। लेकिन आज का सच ये है कि पत्रकारों का एक वर्ग जिनकी संख्या बहुत अधिक है, सरकार की इच्छानुरूप उनका महिमामंडन करता है, उनकी खामियों-विफलताओं पर पर्दा डालता है और बदले में 'पारिश्रमिक' वसूलता है। यह 'पारिश्रमिक' निज अर्थ लाभ से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक होता है। हैसियत व उपयोगिता के अनुसार इनमें से कुछ सुविधाओं से युक्त सरकारी समीतियों की सदस्यता से संतुष्ट हो जाते हैं, कुछ धन लाभ से, कुछ दूसरों को लाभ पहुंचा धन अर्जित कर और कुछ बड़े खिलाड़ी संसद की सदस्यता प्राप्त कर। काजल की कोठरी में रहने वाले सत्ताधारी सत्ता की ओर से टुकड़े फेंक इन्हें अनुग्रहित कर देते हैं। श्री वैद्य निराश होंगे किन्तु यह सच मौजूद रहेगा कि सैद्धांतिक अपेक्षा के विपरीत आज सरकार और पत्रकार घनिष्ठ मित्र हैं।
श्री वैद्य पत्रकारिता को सरोकारों की पत्रकारिता से जोडऩे की सलाह देते हैं। ऐसा होना चाहिए। स्वयं को पत्रकार अथवा संपादक मानने वाला सामाजिक सरोकारों से दूर कैसे रह सकता है। किन्तु जब प्राथमिकताएं बदल जाएं तब? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एन. रे ऐसी टिप्पणी कर चुके हैं कि मीडिया बिक गया है और संपादक दो कौड़ी के हो गए हैं। श्री रे ने इससे भी आगे बढ़ते हुए यह भी कह डाला था कि 'पत्रकारिता वेश्यावृत्ति में तब्दील हो गई है।' जो मीडिया अपने किसी संस्थान पर राजनीतिक दलों और गुंडों के हमलों पर गला फाड़-फाड़ कर चीखता-चिल्लाता है, वही मीडिया पेशे को 'वेश्यावृत्ति' निरूपित किए जाने पर लगभग खामोश रहा। क्या यह सच की स्वीकृति नहीं थी? चूंकि झूठ के पैर नहीं होते, मीडिया श्री रे के शब्दों का अपेक्षित प्रतिरोध नहीं कर सका। ठीक इसी प्रकार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सार्वजनिक रूप से पत्रकारों के एक वर्ग को भ्रष्ट निरूपित किया था, तब भी बिरादरी ने लगभग मौन साध लिया था। बिरादरी के मन का चोर विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
इन सब सच की मौजूदगी में क्या मा.गो. वैद्य की अपेक्षा समाचार पत्र के पन्नों में कैद होकर रह जाएगी? फैसला बिरादरी को करना है- खासकर बिरादरी के युवा सदस्यों को। उन्हें यह तय करना ही होगा कि क्या वे अपनी संतानों की नजरों में 'वेश्यावृत्ति' से अर्जित पूंजी के स्वामी दिखना चाहेंगे? फैसला कर ले बिरादरी।
योग्यता हो संसदीय पात्रता, थियेटर की लोकप्रियता नहीं!
मुलायम भ्राता रामगोपाल यादव इन दिनों अमर सिंह के कारण सुर्खियां बटोर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के महासचिव पद से इस्तीफा दे चुके अमर सिंह को थियेटर का मैनेजर निरूपित करते हैं तो कभी पागल करार देते हैं। समाजवादी पार्टी में मुलायम परिवार के वर्चस्व और इन सभी के राजनीतिक चरित्र की जानकारी रखने वालों को कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। लोहिया शिष्य मुलायम के दर्द की भी इन्हें कोई चिंता नहीं। वैसे बबूल का पौधा स्वयं मुलायम ने लगाया तो फिर फल के रूप में आम की अपेक्षा उन्हें करनी भी नहीं चाहिए। किन्तु इस बीच रामगोपाल यादव एक मंथन करने योग्य टिप्पणी अवश्य कर गए। अमर के समर्थन में जब अभिनेता संजय दत्त ने भी महासचिव पद से इस्तीफे की घोषणा की, तब रामगोपाल की टिप्पणी गौरतलब है। उन्होंने कहा कि ये तो थियेटर वाले हैं। उसके मैनेजर अमर जहां जाएंगे, ये लोग चले जाएंगे। इन फिल्मवालों की वजह से पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ है। रामगोपाल की यह टिप्पणी निश्चय ही विचारणीय है। चूंकि रामगोपाल की टिप्पणी संजय दत्त के संदर्भ में आई, पहले दो शब्द संजय पर। इस सचाई से तो कोई इंकार नहीं करेगा कि संजय दत्त पिछले लोकसभा चुनाव में भीड़ इकट्ठी करने में सफल रहे। किन्तु भीड़ को वोट के रूप में परिवर्तित नहीं कर सके। राजनीतिक रैलियों में उनकी बातें मसखरे और टपोरियों की हुआ करती थीं। सो किसी ने उनके शब्दों को गंभीरता से नहीं लिया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण वे चुनाव नहीं लड़ पाए अन्यथा परिणाम से अमर सिंह को भी धक्का पहुंचता। अपने जमाने की प्रसिद्ध नायिकाएं जया बच्चन और जया प्रदा संसद में समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। यह दोहराना ही होगा कि दोनों अमर सिंह की खोज हैं। संसद में इनकी शून्य भूमिका से स्वयं अमर भी इंकार नहीं कर सकते। फिर इन दोनों को जनप्रतिनिधि का तमगा लगाने का अधिकार कैसे? यह तो जनता और संसद के साथ धोखा है। इसकी अपराधी सिर्फ समाजवादी पार्टी नहीं, सत्ताधारी कांग्रेस और मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी भी है। अभिनेता, अभिनेत्रियों और खिलाडिय़ों की लोकप्रियता को भंजाते हुए संसद में सिर्फ संख्या बल बढ़ाने के उद्देश्य से इन्हें संसद में लाया जाता है। निश्चय ही यह कृत्य संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की मूल भावना के साथ विश्वासघात है। कांग्रेस की ओर से प्रसिद्ध अभिनेत्री वैजयंती माला को संसद में भेजा गया था। सांसद के रूप में उनकी भूमिका-उपयोगिता शून्य रही। गायिका लता मंगेशकर को नामित कर संसद में लाया गया था। उन्होंने संसद में उपस्थिति की कभी जरूरत ही नहीं समझी। भारतीय जनता पार्टी की ओर से अभिनेता विनोद खन्ना और खिलाड़ी नवज्योत सिंह सिद्धू को सांसद बनाया गया, भूमिका वही शून्य। अगर कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि संसद के अंदर आसनों पर इनका कब्जा अवैध था- कानूनी अथवा तकनीकी रूप से नहीं, नैतिकता के आधार पर।
हां, कांग्रेस और भाजपा की ओर से अपवाद स्वरूप सुनील दत्त और शत्रुघ्न सिन्हा, दो ऐसी शख्सियतें संसद में पहुंचीं जो वास्तव में इसकी हकदार थीं। सुनील दत्त मुंबई में आम लोगों के बीच जाकर उनके दुख-दर्द में शरीक हुआ करते थे। पर्दे के पीछे भीड़ जुटाऊ लोकप्रियता से पृथक सुनील दत्त ने अपने कार्यों से समाज में पृथक स्थान बनाया था। 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान सांप्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने के लिए उन्होंने अपने जान की भी परवाह नहीं की थी। बगैर भेदभाव के दोनों समुदाय के दंगा पीडि़तों की उन्होंने समान रूप से मदद की थी। वे सांसद बने थे तो एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में न कि अभिनेता के रूप में।
दत्त की तरह ही भाजपा में शत्रुघ्न सिन्हा अपवाद हैं। जयप्रकाश आंदोलन के दौरान जब सिन्हा अपनी लोकप्रियता की सर्वोच्च ऊंचाई पर थे, तब वे आंदोलन में कूदे और अंत तक सक्रिय रहे। भाजपा में वे तब शामिल हुए जब पार्टी विपक्ष में थी, सत्ता में नहीं। वह अकेले ऐसे अभिनेता-नेता हैं जो भीड़ को वोट में बदलने की क्षमता रखते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें दो बार राज्यसभा में भेजा गया और अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बने। पिछले लोकसभा चुनाव में पहली बार सीधा चुनाव लड़ वे पटना से भारी बहुमत से विजयी हुए।
लेकिन दत्त और सिन्हा को छोड़ दें तब रामगोपाल यादव की बातों को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारतीय संसद की गरिमा बनाए रखने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि सभी राजनीतिक दल अभिनेता, अभिनेत्रियों व खिलाडिय़ों की लोकप्रियता को संसद में सिर्फ संख्या बल बढ़ाने के उद्देश्य से न भंजाएं। पात्रता सिर्फ योग्यता हो। पर्दे और खेल के मैदान की लोकप्रियता नहीं।
हां, कांग्रेस और भाजपा की ओर से अपवाद स्वरूप सुनील दत्त और शत्रुघ्न सिन्हा, दो ऐसी शख्सियतें संसद में पहुंचीं जो वास्तव में इसकी हकदार थीं। सुनील दत्त मुंबई में आम लोगों के बीच जाकर उनके दुख-दर्द में शरीक हुआ करते थे। पर्दे के पीछे भीड़ जुटाऊ लोकप्रियता से पृथक सुनील दत्त ने अपने कार्यों से समाज में पृथक स्थान बनाया था। 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान सांप्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने के लिए उन्होंने अपने जान की भी परवाह नहीं की थी। बगैर भेदभाव के दोनों समुदाय के दंगा पीडि़तों की उन्होंने समान रूप से मदद की थी। वे सांसद बने थे तो एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में न कि अभिनेता के रूप में।
दत्त की तरह ही भाजपा में शत्रुघ्न सिन्हा अपवाद हैं। जयप्रकाश आंदोलन के दौरान जब सिन्हा अपनी लोकप्रियता की सर्वोच्च ऊंचाई पर थे, तब वे आंदोलन में कूदे और अंत तक सक्रिय रहे। भाजपा में वे तब शामिल हुए जब पार्टी विपक्ष में थी, सत्ता में नहीं। वह अकेले ऐसे अभिनेता-नेता हैं जो भीड़ को वोट में बदलने की क्षमता रखते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें दो बार राज्यसभा में भेजा गया और अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बने। पिछले लोकसभा चुनाव में पहली बार सीधा चुनाव लड़ वे पटना से भारी बहुमत से विजयी हुए।
लेकिन दत्त और सिन्हा को छोड़ दें तब रामगोपाल यादव की बातों को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारतीय संसद की गरिमा बनाए रखने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि सभी राजनीतिक दल अभिनेता, अभिनेत्रियों व खिलाडिय़ों की लोकप्रियता को संसद में सिर्फ संख्या बल बढ़ाने के उद्देश्य से न भंजाएं। पात्रता सिर्फ योग्यता हो। पर्दे और खेल के मैदान की लोकप्रियता नहीं।
Monday, January 11, 2010
सच को स्वीकारें, परिणाम सकारात्मक मिलेंगे !
पत्रकार, चिंतक अरुण शौरी कहते हैं कि जब तक हम सच को स्वीकार नहीं करेंगे, संशोधन कैसे कर पाएंगे? शौरी यह भी कहते हैं कि अगर 'ब्यूरोक्रैट्स' और 'प्रोफेशनल्स ' एक हो जाएं, आपस में संवाद करते रहें, तब राजनीतिक और राजनीतिक व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा सकता है।
पत्रकारिता में अमूल्य योगदान कर महानायक के अवस्था में पहुंच चुके शौरी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। खोजी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलाने को श्रेय अरुण शौरी के खाते में हैं। मैंने हमेशा उन्हें सच और साहस की प्रतिमूर्ति के रूप में देखा है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शौरी पर तब कुछ आरोप भी लगे थे। लेकिन सत्ता की काली कोठरी में शौरी सरीखे स्पष्टवादी को राजनीति के खिलाड़ी भला बेदाग कैसे छोड़ देते! आरोप के लिए आरोप तो लगाए गए किंतु आरोपकत्र्ता कभी उन्हें प्रमाणित नहीं कर पाए। सत्ता की राजनीति को करीब से नंगा देखने वाले शौरी अब अगर राज और राजनीति पर अंकुश संबंधी सुभाव दे रहे हैं, तब उन्हें गंभीरता से लेना होगा। हां! यह दीगर है कि सच को स्वीकार कर सकने योग्य 'लुप्त प्राणी ' को कहां ढूंढा जाए? वर्तमान में सच बोलने वाले तो दो-चार मिल जाएंगे, किंतु यह विडंबना तो स्वत: रेखांकित होती है कि सच सुनने का साहस दिखाने वाला कोई सामने नहीं आता। शौरी रायसीना की जिन पहाडिय़ों के बीच बैठे हैं, वहां तो हर दिन-हर पल सच को षड्यंत्र रच बेरहमी से कुचला जाता है। सच के साथ बलात्कार की ऐसी घटनाओं की कोई शिकायत किसी थाने में दर्ज नहीं होती। उन्हें सिसकने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। और 'सच ' यह है कि ऐसे सच को दबाने के अपराधी वही 'ब्यूरोक्रैट्स ' और 'प्रोफेशनल्स ' हैं, जिन्हें एकजुट होने का आह्वान अरुण शौैरी कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यह दोनों वर्ग भ्रष्ट हो चुका है- 'ब्यूरोक्रैट्स ' लगभग पूरी तरह और 'प्रोफेशनल्स ' आंशिक। यह सच तो सामने है। लेकिन क्या यह दोनों वर्ग संशोधन-सुधार के लिए तैयार हैं। उत्तर में तो 'ना' आएगा किंतु मुझे विश्वास है कि गुमराह के रास्ते पर कदमताल करता यह शिक्षित वर्ग संशोधन-सुधार के नाम पर ना कदापि नहीं करेगा। यह तो हमारी वह सड़ी-गली व्यवस्था है, जिसने इन्हें स्वार्थी बना भ्रष्टाचार की खाई में उतार दिया है। लेकिन इनके दिलों में मौजूद संवेदनशीलता की अनुभूति खत्म नहीं हुई है। जरूरत है इन्हें झकझोरने की। यह अहम दायित्व लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों व समाजसेवियों के उपर है। चूंकि समाज इनकी बातों पर गौर करता है, चिंतन-मनन करता है, ये आगे आएं। ये आह्वान करें अरुण शौरी द्वारा चिह्नित दोनों वर्ग का। जागृत करें उन्हें। देशद्रोही नहीं हैं वे। समाज के आह्वान को सुन वे एक दिन निश्चय ही जागृत होंगे। और जिस दिन इन दोनों में परस्पर विश्वासयुक्त संवाद स्थापित हुए, चमत्कार हो जाएगा। सभी रोगों की जड़, सड़ी-गली व्यवस्था को निरोग करने की क्षमता इसी वर्ग में है। इसलिए मैं आशावादी हूं। एक ही तो शर्त है-हमारी बिरादरी और सहयोगी ईमानदारी से संसोधन-सुधार के पक्ष में अभियान चलाएं। परिणाम शत-प्रतिशत सकारात्मक मिलेंगे। चाहें तो शर्त लगा लें।
पत्रकारिता में अमूल्य योगदान कर महानायक के अवस्था में पहुंच चुके शौरी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। खोजी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलाने को श्रेय अरुण शौरी के खाते में हैं। मैंने हमेशा उन्हें सच और साहस की प्रतिमूर्ति के रूप में देखा है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शौरी पर तब कुछ आरोप भी लगे थे। लेकिन सत्ता की काली कोठरी में शौरी सरीखे स्पष्टवादी को राजनीति के खिलाड़ी भला बेदाग कैसे छोड़ देते! आरोप के लिए आरोप तो लगाए गए किंतु आरोपकत्र्ता कभी उन्हें प्रमाणित नहीं कर पाए। सत्ता की राजनीति को करीब से नंगा देखने वाले शौरी अब अगर राज और राजनीति पर अंकुश संबंधी सुभाव दे रहे हैं, तब उन्हें गंभीरता से लेना होगा। हां! यह दीगर है कि सच को स्वीकार कर सकने योग्य 'लुप्त प्राणी ' को कहां ढूंढा जाए? वर्तमान में सच बोलने वाले तो दो-चार मिल जाएंगे, किंतु यह विडंबना तो स्वत: रेखांकित होती है कि सच सुनने का साहस दिखाने वाला कोई सामने नहीं आता। शौरी रायसीना की जिन पहाडिय़ों के बीच बैठे हैं, वहां तो हर दिन-हर पल सच को षड्यंत्र रच बेरहमी से कुचला जाता है। सच के साथ बलात्कार की ऐसी घटनाओं की कोई शिकायत किसी थाने में दर्ज नहीं होती। उन्हें सिसकने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। और 'सच ' यह है कि ऐसे सच को दबाने के अपराधी वही 'ब्यूरोक्रैट्स ' और 'प्रोफेशनल्स ' हैं, जिन्हें एकजुट होने का आह्वान अरुण शौैरी कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यह दोनों वर्ग भ्रष्ट हो चुका है- 'ब्यूरोक्रैट्स ' लगभग पूरी तरह और 'प्रोफेशनल्स ' आंशिक। यह सच तो सामने है। लेकिन क्या यह दोनों वर्ग संशोधन-सुधार के लिए तैयार हैं। उत्तर में तो 'ना' आएगा किंतु मुझे विश्वास है कि गुमराह के रास्ते पर कदमताल करता यह शिक्षित वर्ग संशोधन-सुधार के नाम पर ना कदापि नहीं करेगा। यह तो हमारी वह सड़ी-गली व्यवस्था है, जिसने इन्हें स्वार्थी बना भ्रष्टाचार की खाई में उतार दिया है। लेकिन इनके दिलों में मौजूद संवेदनशीलता की अनुभूति खत्म नहीं हुई है। जरूरत है इन्हें झकझोरने की। यह अहम दायित्व लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों व समाजसेवियों के उपर है। चूंकि समाज इनकी बातों पर गौर करता है, चिंतन-मनन करता है, ये आगे आएं। ये आह्वान करें अरुण शौरी द्वारा चिह्नित दोनों वर्ग का। जागृत करें उन्हें। देशद्रोही नहीं हैं वे। समाज के आह्वान को सुन वे एक दिन निश्चय ही जागृत होंगे। और जिस दिन इन दोनों में परस्पर विश्वासयुक्त संवाद स्थापित हुए, चमत्कार हो जाएगा। सभी रोगों की जड़, सड़ी-गली व्यवस्था को निरोग करने की क्षमता इसी वर्ग में है। इसलिए मैं आशावादी हूं। एक ही तो शर्त है-हमारी बिरादरी और सहयोगी ईमानदारी से संसोधन-सुधार के पक्ष में अभियान चलाएं। परिणाम शत-प्रतिशत सकारात्मक मिलेंगे। चाहें तो शर्त लगा लें।
Sunday, January 10, 2010
माओवादियों के खिलाफ ममता का साथ दे कांग्रेस!
कभी बंगाल की बाघिन के रूप में विख्यात केन्द्रीय रेल मंत्री ममता बैनर्जी गलत नहीं हैं। उनका यह आरोप बिल्कुल सही है कि बंगाल में सरकार प्रायोजित हिंसा हो रही है। ममता अगर इसके लिए केन्द्र सरकार को भी दोषी ठहरा रहीं हैं तो बिल्कुल ठीक ही। यह एक विडंबना है कि एक ओर तो केन्द्र सरकार छह राज्यों में माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाकर उनका सफाया करना चाहती है, वहीं दूसरी ओर तमाम सबूतों की मौजूदगी के बावजूद बंगाल के लालगढ़ को सेना के हवाले करने से कतरा रही है। बंगाल की माक्र्सवादी सरकार नियोजित तरीके से लालगढ़ में पुलिस ऑपरेशन के नाम पर अपनी जमीन तैयार कर रही है। वहां केन्द्र सरकार की शिथिलता को फिर क्या कहा जाए? किसी सफाई की जरूरत नहीं। लालगढ़ में जारी गतिविधियां प्रमाण हैं कि बंगाल सरकार के मंसूबे को लालगढ़ में अंजाम देने के लिए केन्द्र का समर्थन मिल रहा है।
मां, माटी और माणुष की राजनीति करने का दावा करनेवाली ममता बैनर्जी के इस कथन को चुनौती नहीं दी जा सकती कि बंगाल में माओवादियों और माक्र्सवादियों की मिलीभगत से प्रतिदिन हिंसा हो रही है। ममता की तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की हत्याएं हो रही हैं। इन हत्याओं पर केन्द्र सरकार का मौन क्या रहस्यमय नहीं? साफ है कि केन्द्र सरकार माक्र्सवादियों के सामने पहले की भांति अभी भी नतमस्तक है। शायद यह गठबंधन सरकार की मजबूरी है। डॉ. मनमोहन सिंह की नेतृत्ववाली पिछली केन्द्र सरकार सत्ता में बनी थी तो माक्र्सवादियों के समर्थन से। वैसे मनमोहन सिंह का नाम सिर्फ तकनीकी तौर पर ही लिया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि सत्ता का असली केन्द्र प्रधानमंत्री कार्यालय न होकर 10,जनपथ अर्थात सोनिया गांधी का आवास था-आज भी है। सन् 1969 में जब इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई थी तब कम्युनिस्ट के समर्थन से ही उनकी सरकार बची थी। आपातकाल के दौरान भी जब पूरा देश इंदिरा गांधी शासन के खिलाफ एकजुट हो कुर्बानियां दे रहा था तब इंदिरा को कम्युनिस्टों का समर्थन प्राप्त था। ठीक उसी तरह जैसे कम्युनिस्टों ने आजादी की लड़ाई के समय ब्रिटिश शासकों का साथ दिया था। यह तो भारत है जो अपने ऊपर हुए हर प्रताडऩा को भूल जाता है। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तब माक्र्सवादियों की चीन समर्थक भूमिका को क्या कोई झुठला सकता है। पीड़ा होती है इस तथ्य को रेखांकित करने में कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मौत का कारण भी ऐसे ही सदमे थे। लेकिन गांधी परिवार किन्हीं अज्ञात कारणों से कम्युनिस्टों को शरण देता रहा और कम्युनिस्ट शरण लेते रहे।
बंगाल में माओवादियों के मंसूबे को सिंचित करनेवाली माक्र्सवादी सरकार को बर्दाश्त कर केन्द्र भविष्य के लिए खतरा मोल ले रहा है। ममता बैनर्जी केन्द्र में संप्रग सरकार में शामिल हैं। उनकी बातों को तरजीह न देकर केन्द्र सरकार राजनीति का एक घिनौना खेल खेल रही है। गठबंधन युग में अपने लिए समर्थक के रूप में माक्र्सवादियों को जमीन मुहैया कराकर कांगे्रस क्या अपने ही सहयोगी दल को धोखा नहीं दे रही? कांग्रेस वस्तुत: ममता की तृणमूल कांग्रेस के समर्थन को स्थायी नहीं मानती। बेबाक-ईमानदार-निर्भीक ममता के लिए भी कांग्रेस स्थायी मित्र नहीं हो सकती। जबकि हकीकत यही है कि दिन-ब-दिन बंगाल के हर कोने में अपनी जड़ें जमाती जा रही ममता ही माक्र्सवादी सरकार को उखाड़ फेंकने का माद्दा रखती हैं। चुनौती है कांग्रेस नेतृत्व को, केन्द्र सरकार को, अगर वो सचमुच माओवादियों के सफाए के प्रति गंभीर है तो वह बंगाल में ममता के अभियान को समर्थन दे। जनता अब ममता के साथ है। क्या कांग्रेस जनता की इच्छा के खिलाफ जाना चाहेगी?
मां, माटी और माणुष की राजनीति करने का दावा करनेवाली ममता बैनर्जी के इस कथन को चुनौती नहीं दी जा सकती कि बंगाल में माओवादियों और माक्र्सवादियों की मिलीभगत से प्रतिदिन हिंसा हो रही है। ममता की तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की हत्याएं हो रही हैं। इन हत्याओं पर केन्द्र सरकार का मौन क्या रहस्यमय नहीं? साफ है कि केन्द्र सरकार माक्र्सवादियों के सामने पहले की भांति अभी भी नतमस्तक है। शायद यह गठबंधन सरकार की मजबूरी है। डॉ. मनमोहन सिंह की नेतृत्ववाली पिछली केन्द्र सरकार सत्ता में बनी थी तो माक्र्सवादियों के समर्थन से। वैसे मनमोहन सिंह का नाम सिर्फ तकनीकी तौर पर ही लिया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि सत्ता का असली केन्द्र प्रधानमंत्री कार्यालय न होकर 10,जनपथ अर्थात सोनिया गांधी का आवास था-आज भी है। सन् 1969 में जब इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई थी तब कम्युनिस्ट के समर्थन से ही उनकी सरकार बची थी। आपातकाल के दौरान भी जब पूरा देश इंदिरा गांधी शासन के खिलाफ एकजुट हो कुर्बानियां दे रहा था तब इंदिरा को कम्युनिस्टों का समर्थन प्राप्त था। ठीक उसी तरह जैसे कम्युनिस्टों ने आजादी की लड़ाई के समय ब्रिटिश शासकों का साथ दिया था। यह तो भारत है जो अपने ऊपर हुए हर प्रताडऩा को भूल जाता है। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तब माक्र्सवादियों की चीन समर्थक भूमिका को क्या कोई झुठला सकता है। पीड़ा होती है इस तथ्य को रेखांकित करने में कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मौत का कारण भी ऐसे ही सदमे थे। लेकिन गांधी परिवार किन्हीं अज्ञात कारणों से कम्युनिस्टों को शरण देता रहा और कम्युनिस्ट शरण लेते रहे।
बंगाल में माओवादियों के मंसूबे को सिंचित करनेवाली माक्र्सवादी सरकार को बर्दाश्त कर केन्द्र भविष्य के लिए खतरा मोल ले रहा है। ममता बैनर्जी केन्द्र में संप्रग सरकार में शामिल हैं। उनकी बातों को तरजीह न देकर केन्द्र सरकार राजनीति का एक घिनौना खेल खेल रही है। गठबंधन युग में अपने लिए समर्थक के रूप में माक्र्सवादियों को जमीन मुहैया कराकर कांगे्रस क्या अपने ही सहयोगी दल को धोखा नहीं दे रही? कांग्रेस वस्तुत: ममता की तृणमूल कांग्रेस के समर्थन को स्थायी नहीं मानती। बेबाक-ईमानदार-निर्भीक ममता के लिए भी कांग्रेस स्थायी मित्र नहीं हो सकती। जबकि हकीकत यही है कि दिन-ब-दिन बंगाल के हर कोने में अपनी जड़ें जमाती जा रही ममता ही माक्र्सवादी सरकार को उखाड़ फेंकने का माद्दा रखती हैं। चुनौती है कांग्रेस नेतृत्व को, केन्द्र सरकार को, अगर वो सचमुच माओवादियों के सफाए के प्रति गंभीर है तो वह बंगाल में ममता के अभियान को समर्थन दे। जनता अब ममता के साथ है। क्या कांग्रेस जनता की इच्छा के खिलाफ जाना चाहेगी?
Saturday, January 9, 2010
रेड्डी की मौत में रूस की दिलचस्पी?
आंध्र प्रदेश में भड़की हिंसा के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि राजशेखर रेड्डी की मौत से संबंधित संशयपूर्ण समाचार प्रसारित करने वाला चैनल गैर जिम्मेदार आचरण का दोषी है। लेकिन बहस इस पर भी होनी चाहिए कि चैनल ने रूसी वेबसाइट से प्राप्त जानकारी को सार्वजनिक कर उसने जनता को सूचना देने संबंधी अपने हक व दायित्व का निर्वाह कर कौन सा अपराध किया है? चूंकि ऐसे मामले पहले भी प्रकाश में आते रहे हैं, भविष्य में और भी आ सकते हैं। इस पर बहस व फैसला जरूरी है। रूसी वेबसाइट की खबर के अनुसार आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की मौत के पीछे प्रसिद्ध औद्योगिक घराना रिलायंस समूह के मालिक की साजिश थी। दुर्घटनाग्रस्त हेलीकॉप्टर, जिस पर रेड्डी यात्रा कर रहे थे, रिलायंस समूह का था। कृष्णा-गोदावरी बेसिन गैस विवाद के कारण रेड्डी से अंबानी क्षुब्ध थे। षडयंत्र रचा गया।
एक कैंसर पीडि़त पायलट को प्रलोभन देकर षडयंत्र में शामिल किया गया। हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हुआ और रेड्डी मारे गए। इसी मुकाम पर मैं मान लेता हूँ कि वह खबर बेबुनियाद, भ्रामक और कुटिल थी। रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी ने खबर को ही षडयंत्र निरूपित किया है। आंध्र शासन की ओर से भी खबर को आधारहीन और दुर्भावनापूर्ण बताया गया है। इसे भ्रामक बताने वाले तर्क दे रहे हैं कि आलोच्य रूसी वेबसाइट पर यह खबर विगत सितंबर माह में प्रसारित की गई थी। फिर इस पुरानी खबर को आधार बनाकर चैनल ने खबर प्रसारित क्यों किया? यह प्रश्र गलत है। विलंब से ही सही अगर कोई महत्वपूर्ण जानकारी किसी खबरची के हाथ लगती है तब वह इसका उपयोग अवश्य करेगा। ऐसा नहीं करना कर्तव्य से चूकना माना जाएगा। भ्रामक ही सही रूसी वेबसाइट पर दी गई जानकारियां सनसनीखेज थी। भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री की मौत से संबंधित किसी जानकारी को नजरअंदाज कैसे किया जाता? पूछा तो यह जाना चाहिए कि हमारी गुप्तचर एजेंसियां क्या कर रहीं थीं? रूसी वेबसाइट पर सार्वजनिक की गई उक्त जानकारी का संज्ञान तब क्यों नहीं लिया गया? कथित भ्रामक-दुर्भावनापूर्ण खबर की तब चीर-फाड़ क्यों नहीं की गई? 'झूठ' तब सामने क्यों नहीं लाया गया? आज बगैर जांच किए खबर को निराधार बताने वालों के पास अपने मंतव्य के पक्ष में कौन से प्रमाण हैं? खबर झूठी है इस बात को प्रमाणित किया जाना चाहिए। खबर की संवेदनशीलता के कारण आंध्र प्रदेश में हिंसा फैली। यह दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु खबर के झूठ-सच का फैसला तो जांच के बाद ही संभव है। फिर तेलुगू चैनल को एकतरफा दोषी कैसे करार दिया जाए? हां, भड़काऊ खबर प्रसारित करने का अपराधी वह अवश्य है। लेकिन वह भी तब जब खबर झूठी सिद्ध हो जाए।
न्याय और नैतिकता का तकाजा है कि देर से ही सही रूसी वेबसाइट द्वारा जारी आरोप की निष्पक्ष जांच की जाए। परिणाम अगर खबर को झूठा साबित करते हैं, तब राजनयिक स्तर पर उक्त चैनल के खिलाफ कार्रवाई हेतु रूसी सरकार से संपर्क किया जाए। देश को यह मालूम होना चाहिए कि आखिर उक्त सनसनीखेज खबर को प्रसारित करने के पीछे रूसी वेबसाइट का उद्देश्य क्या था? इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। मामला सिर्फ एक समाचार चैनल और औद्योगिक घराने का नहीं है। मामला भारत के आंतरिक मामले में विदेशी हस्तक्षेप का भी है।
एक कैंसर पीडि़त पायलट को प्रलोभन देकर षडयंत्र में शामिल किया गया। हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हुआ और रेड्डी मारे गए। इसी मुकाम पर मैं मान लेता हूँ कि वह खबर बेबुनियाद, भ्रामक और कुटिल थी। रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी ने खबर को ही षडयंत्र निरूपित किया है। आंध्र शासन की ओर से भी खबर को आधारहीन और दुर्भावनापूर्ण बताया गया है। इसे भ्रामक बताने वाले तर्क दे रहे हैं कि आलोच्य रूसी वेबसाइट पर यह खबर विगत सितंबर माह में प्रसारित की गई थी। फिर इस पुरानी खबर को आधार बनाकर चैनल ने खबर प्रसारित क्यों किया? यह प्रश्र गलत है। विलंब से ही सही अगर कोई महत्वपूर्ण जानकारी किसी खबरची के हाथ लगती है तब वह इसका उपयोग अवश्य करेगा। ऐसा नहीं करना कर्तव्य से चूकना माना जाएगा। भ्रामक ही सही रूसी वेबसाइट पर दी गई जानकारियां सनसनीखेज थी। भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री की मौत से संबंधित किसी जानकारी को नजरअंदाज कैसे किया जाता? पूछा तो यह जाना चाहिए कि हमारी गुप्तचर एजेंसियां क्या कर रहीं थीं? रूसी वेबसाइट पर सार्वजनिक की गई उक्त जानकारी का संज्ञान तब क्यों नहीं लिया गया? कथित भ्रामक-दुर्भावनापूर्ण खबर की तब चीर-फाड़ क्यों नहीं की गई? 'झूठ' तब सामने क्यों नहीं लाया गया? आज बगैर जांच किए खबर को निराधार बताने वालों के पास अपने मंतव्य के पक्ष में कौन से प्रमाण हैं? खबर झूठी है इस बात को प्रमाणित किया जाना चाहिए। खबर की संवेदनशीलता के कारण आंध्र प्रदेश में हिंसा फैली। यह दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु खबर के झूठ-सच का फैसला तो जांच के बाद ही संभव है। फिर तेलुगू चैनल को एकतरफा दोषी कैसे करार दिया जाए? हां, भड़काऊ खबर प्रसारित करने का अपराधी वह अवश्य है। लेकिन वह भी तब जब खबर झूठी सिद्ध हो जाए।
न्याय और नैतिकता का तकाजा है कि देर से ही सही रूसी वेबसाइट द्वारा जारी आरोप की निष्पक्ष जांच की जाए। परिणाम अगर खबर को झूठा साबित करते हैं, तब राजनयिक स्तर पर उक्त चैनल के खिलाफ कार्रवाई हेतु रूसी सरकार से संपर्क किया जाए। देश को यह मालूम होना चाहिए कि आखिर उक्त सनसनीखेज खबर को प्रसारित करने के पीछे रूसी वेबसाइट का उद्देश्य क्या था? इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। मामला सिर्फ एक समाचार चैनल और औद्योगिक घराने का नहीं है। मामला भारत के आंतरिक मामले में विदेशी हस्तक्षेप का भी है।
Friday, January 8, 2010
जातिवादी, भाषावादी नहीं है विदर्भ आंदोलन!
नहीं, चव्हाण साहब, नहीं! पृथक विदर्भ राज्य की मांग के मुद्दे पर मुख्यमंत्री के रूप में आपका व्यवहार गलत है। तर्क का आखिरी कोना भी आपकी बातों को सही नहीं ठहराता। ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री किन्हीं अज्ञात कारणों से पूर्वग्रह से ग्रसित हैं। किसी भी मांग पर मतभेद हो सकते हैं। मतभेद के कुछ सही कारण भी हो सकते हैं। किन्तु मामला जब एक राज्य के क्षेत्र विशेष के लोगों की आकांक्षा-भावना का हो तब शासकीय निर्णय किसी गुट या व्यक्ति विशेष की इच्छा-अनिच्छा आधारित नहीं होना चाहिए।
जब विदर्भ के लोग अपने लिए एक पृथक राज्य की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं तब उनकी इच्छा के आदर की जगह तिरस्कार क्यों? अगर मुख्यमंत्री को लगता है कि मांग अनुचित है तब सर्वमान्य तर्क देकर मांग का विरोध करें। खेद है कि ऐसी सकारात्मक सोच के उलट उन्होंने आरोप जड़ दिया कि भाषावाद, प्रांतवाद और जातिवाद भड़काकर महाराष्ट्र को तोडऩे का प्रयास हो रहा है। सरासर झूठ है यह। दुर्भावना प्रेरित है ऐसी सोच। क्या कांग्रेस के सांसद द्वय विलास मुत्तेमवार, दत्ता मेघे भाषा, प्रांत और जाति के नाम पर महाराष्ट्र को तोड़ विदर्भ का निर्माण करना चाहते हैं! क्या महाराष्ट्र मंत्रिमंडल के सदस्य डॉ. नितीन राऊत और शिवाजीराव मोघे मराठी भाषा या जाति विरोधी हैं? क्या पूर्व सांसद बनवारीलाल पुरोहित, नरेश पुगलिया और पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी तथा अनीस अहमद प्रांतवाद कर रहे हैं, जातीयता कर रहे हैं? क्या जामुवंतराव धोटे मराठा विरोधी हैं? ऐसी सोच स्वयं में एक विकृति है। विदर्भ आंदोलन का नेतृत्व महाराष्ट्र, मराठा, मराठी विरोधी कतई नहीं। यह तो विगत 50 वर्षों की उपेक्षा है जिसने विदर्भ वासियों को आंदोलनरत होने को मजबूर किया। क्षेत्र के विकास के लिए, विदर्भ के सम्मान के लिए, स्वाभिमान के रक्षार्थ विदर्भवासियों ने अपने लिए पृथक राज्य की मांग रखी है।
विकास के लिए छोटे राज्यों का सिद्धांत केन्द्रीय स्तर पर स्वीकार किया जा चुका है। पड़ोसी छत्तीसगढ़ प्रमाण है कि मध्य प्रदेश से अलग होकर वह किस गति से एक विकसित राज्य का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। पृथक विदर्भ की उपयोगिता, सार्थकता के पक्ष में वस्तुत: जितने तर्क आंदोलनकारी नेता दे रहे हैं वे कम हैं। सच तो यह है कि हजारों तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण संयुक्त महाराष्ट्र के लिए बार-बार 105 शहीदों की याद दिलाकर यह चेतावनी देने से नहीं चूकते कि राज्य को तोडऩे का प्रयास विफल साबित होगा।
संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के शहीदों का तर्क शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बार-बार दिया करते हैं। उनकी संकुचित सोच को समझना कठिन नहीं। कठिन है अशोक चव्हाण की सोच को समझना। एक ओर तो वे यह कहते हैं कि इस मांग पर फैसला पार्टी आलाकमान करेंगी दूसरी ओर मांग के विरोध में तर्क भी दे डालते हैं। इसे ही पूर्वग्रह कहते हैं। वैसे मैं मुख्यमंत्री को यह याद दिलाना चाहूंगा कि एक अवसर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि विदर्भ राज्य के निर्माण के लिए महाराष्ट्र विधानमण्डल प्रस्ताव पारित करें, नेतृत्व उस पर विचार करेगा। क्या प्रदेश कांग्रेस के लिए सोनिया की यह शर्त बाध्यकारी नहीं?
मुख्यमंत्री समझ लें कि यह आंदोलन प्रांतवाद, भाषावाद या जातिवाद आधारित नहीं है। विदर्भ ऐसे किसी 'वाद' का पक्षधर हरगिज नहीं। वह सिर्फ विदर्भ का पक्षधर है। वह भी क्षेत्र के वांछित विकास के लिए। शेष महाराष्ट्र को वह अपना बड़ा भाई मानता है और हमेशा मानता रहेगा। क्या एक बड़ा भाई-कुछ नुकसान सहकर ही सही - अपने छोटे भाई की जायज मांग को पूरा नहीं कर सकता?
जब विदर्भ के लोग अपने लिए एक पृथक राज्य की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं तब उनकी इच्छा के आदर की जगह तिरस्कार क्यों? अगर मुख्यमंत्री को लगता है कि मांग अनुचित है तब सर्वमान्य तर्क देकर मांग का विरोध करें। खेद है कि ऐसी सकारात्मक सोच के उलट उन्होंने आरोप जड़ दिया कि भाषावाद, प्रांतवाद और जातिवाद भड़काकर महाराष्ट्र को तोडऩे का प्रयास हो रहा है। सरासर झूठ है यह। दुर्भावना प्रेरित है ऐसी सोच। क्या कांग्रेस के सांसद द्वय विलास मुत्तेमवार, दत्ता मेघे भाषा, प्रांत और जाति के नाम पर महाराष्ट्र को तोड़ विदर्भ का निर्माण करना चाहते हैं! क्या महाराष्ट्र मंत्रिमंडल के सदस्य डॉ. नितीन राऊत और शिवाजीराव मोघे मराठी भाषा या जाति विरोधी हैं? क्या पूर्व सांसद बनवारीलाल पुरोहित, नरेश पुगलिया और पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी तथा अनीस अहमद प्रांतवाद कर रहे हैं, जातीयता कर रहे हैं? क्या जामुवंतराव धोटे मराठा विरोधी हैं? ऐसी सोच स्वयं में एक विकृति है। विदर्भ आंदोलन का नेतृत्व महाराष्ट्र, मराठा, मराठी विरोधी कतई नहीं। यह तो विगत 50 वर्षों की उपेक्षा है जिसने विदर्भ वासियों को आंदोलनरत होने को मजबूर किया। क्षेत्र के विकास के लिए, विदर्भ के सम्मान के लिए, स्वाभिमान के रक्षार्थ विदर्भवासियों ने अपने लिए पृथक राज्य की मांग रखी है।
विकास के लिए छोटे राज्यों का सिद्धांत केन्द्रीय स्तर पर स्वीकार किया जा चुका है। पड़ोसी छत्तीसगढ़ प्रमाण है कि मध्य प्रदेश से अलग होकर वह किस गति से एक विकसित राज्य का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। पृथक विदर्भ की उपयोगिता, सार्थकता के पक्ष में वस्तुत: जितने तर्क आंदोलनकारी नेता दे रहे हैं वे कम हैं। सच तो यह है कि हजारों तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण संयुक्त महाराष्ट्र के लिए बार-बार 105 शहीदों की याद दिलाकर यह चेतावनी देने से नहीं चूकते कि राज्य को तोडऩे का प्रयास विफल साबित होगा।
संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के शहीदों का तर्क शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बार-बार दिया करते हैं। उनकी संकुचित सोच को समझना कठिन नहीं। कठिन है अशोक चव्हाण की सोच को समझना। एक ओर तो वे यह कहते हैं कि इस मांग पर फैसला पार्टी आलाकमान करेंगी दूसरी ओर मांग के विरोध में तर्क भी दे डालते हैं। इसे ही पूर्वग्रह कहते हैं। वैसे मैं मुख्यमंत्री को यह याद दिलाना चाहूंगा कि एक अवसर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि विदर्भ राज्य के निर्माण के लिए महाराष्ट्र विधानमण्डल प्रस्ताव पारित करें, नेतृत्व उस पर विचार करेगा। क्या प्रदेश कांग्रेस के लिए सोनिया की यह शर्त बाध्यकारी नहीं?
मुख्यमंत्री समझ लें कि यह आंदोलन प्रांतवाद, भाषावाद या जातिवाद आधारित नहीं है। विदर्भ ऐसे किसी 'वाद' का पक्षधर हरगिज नहीं। वह सिर्फ विदर्भ का पक्षधर है। वह भी क्षेत्र के वांछित विकास के लिए। शेष महाराष्ट्र को वह अपना बड़ा भाई मानता है और हमेशा मानता रहेगा। क्या एक बड़ा भाई-कुछ नुकसान सहकर ही सही - अपने छोटे भाई की जायज मांग को पूरा नहीं कर सकता?
Thursday, January 7, 2010
सपा और मुलायम का पिंड छोड़ दें अमर
जब अमर सिंह स्वयं कह रहे हैं कि वे 'फिट' नहीं हैं, तब अविश्वास का कोई कारण नहीं। हां, यह जरूर पूछा जाएगा कि वे किस रूप में फिट नहीं हैं। शारीरिक, मानसिक, राजनीतिक, व्यावसायिक या फिर समाजवादी पार्टी व मुलायम यादव के आस-पास रोज पैदा हो रहे नए समीकरण में 'विसर्ग'। अमर सिंह ने इसका खुलासा नहीं किया। वैसे राजनीति के पंडितों ने यह अवश्य उछाल दिया है कि पार्टी में दिनोंदिन अपनी कमजोर होती स्थिति के कारण मुलायम पर दवाब बनाने के लिए उन्होंने इस्तीफे का पासा फेंका है। अमर पार्टी और मुलायम परिवार में अपनी पुरानी हैसियत की वापसी चाहते हैं। क्यों चाहते हैं, क्या इसे बताने की जरूरत है?
सभी जानते हैं कि अमर सिंह राजनीति से अधिक अपने व्यावसायिक हित को ज्यादा तरजीह देते हैं। दूसरे शब्दों में वे राजनीति करते हैं, अपना व्यावसायिक हित साधने के लिए। सन् 2006 के उन दिनों को याद करें जब अमर सिंह की एक सीडी को लेकर पूरे देश में हंगामा बरपा था। लगभग दो घंटे की उस आडियो-सीडी को मैंने सुना है। भारतीय राजनीति, पत्रकारिता, सामाजिक सरोकार, उद्योग, न्यायिक प्रणाली पर उस सीडी में की गई टिप्पणियों में वर्तमान सरोकारों का एक अकल्पनीय खाका खींचा गया है। मूल्य, आदर्श, सिद्धांत, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, समर्पण आदि उक्त सीडी की बातचीत में नग्न और सिर्फ नग्न किए गए थे। अमर सिंह की बातचीत चाहे मुलायम यादव से हो या फिर उद्योगपति अनिल अंबानी, बिपाशा बसु, जयाप्रदा, पत्रकार प्रभु चावला सहित कोलकाता के व्यवसायी और कुछ अन्य लोगों के साथ हो, सभी में देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रष्टाचार और दलाली की बेशर्म मौजूदगी थी। गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उक्त सीडी का प्रसार रोक दिया गया, अन्यथा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से पूरे देश का विश्वास उठ जाता। घृणा करने लगते लोग, आज की राजनीति से और आज के राजनीतिकों से। वही अमर सिंह जब आज दबाव की राजनीति का खेल खेलना चाहते हैं तब उनकी बेशर्मी पर किसी को शर्म आए भी तो कैसे? हतप्रभ हैं सभी। अमर सिंह न केवल देश की राजनीतिक व्यवस्था को भ्रष्ट करने के एक बड़े अपराधी हैं, बल्कि राममनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव को पतन के गर्त में धकेलने के भी दोषी हैं। यह कृत्य वैसे अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है, जहां दंडित को अंतिम समय में पानी से भी वंचित रखा जाता है। मुलायम यादव कभी सचे अर्थ में लोहिया की विरासत को झंडाबरदार माने जाते थे। समाजवादी आंदोलन के निष्कपट पुरोधा के रूप में उनकी पहचान थी। देश उनकी ओर आशा की दृष्टि से देखा करता था। वह मुलायम अगर भ्रष्ट-पतित हुए, परिवार समाज की नजर में ही नहीं स्वयं अपनी नजर में भी गिरे तो अमर सिंह के कारण। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिसे यहां इसलिए उद्धृत कर रहा हूं ताकि भविष्य में कोई अपना हित साधने के लिए मुलायम जैसे समाजवादी का भविष्य अंधकारमय बनाने की कोशिश न करे। पीड़ा तो हो रही है इस सच को उगलने में किंतु जब भारत के एक 'भविष्य' को हाशिए पर डाल दिया गया तब ऐसा करने वाले चेहरे को बेनकाब तो किया ही जाना चाहिए।
सभी जानते हैं कि मुलायम व समाजवादी आंदोलन पर ग्रहण लगा तो अमर के कारण। उन्हें बिल्कुल ठीक ही कोने में फेंक दिया गया। किंतु वही अमर जब फिर जाल बुन मुलायम को कब्जे में करने की कोशिश कर रहे हैं तब प्रतिरोध जरूरी है। बेहतर हो 'अनफिट' अमर सिंह स्वास्थ्य लाभ के लिए स्थायी रूप से राजनीति से संन्यास ले लें। समाजवादी पार्टी और मुलायम का पिंड छोड़ दें।
सभी जानते हैं कि अमर सिंह राजनीति से अधिक अपने व्यावसायिक हित को ज्यादा तरजीह देते हैं। दूसरे शब्दों में वे राजनीति करते हैं, अपना व्यावसायिक हित साधने के लिए। सन् 2006 के उन दिनों को याद करें जब अमर सिंह की एक सीडी को लेकर पूरे देश में हंगामा बरपा था। लगभग दो घंटे की उस आडियो-सीडी को मैंने सुना है। भारतीय राजनीति, पत्रकारिता, सामाजिक सरोकार, उद्योग, न्यायिक प्रणाली पर उस सीडी में की गई टिप्पणियों में वर्तमान सरोकारों का एक अकल्पनीय खाका खींचा गया है। मूल्य, आदर्श, सिद्धांत, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, समर्पण आदि उक्त सीडी की बातचीत में नग्न और सिर्फ नग्न किए गए थे। अमर सिंह की बातचीत चाहे मुलायम यादव से हो या फिर उद्योगपति अनिल अंबानी, बिपाशा बसु, जयाप्रदा, पत्रकार प्रभु चावला सहित कोलकाता के व्यवसायी और कुछ अन्य लोगों के साथ हो, सभी में देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रष्टाचार और दलाली की बेशर्म मौजूदगी थी। गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उक्त सीडी का प्रसार रोक दिया गया, अन्यथा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से पूरे देश का विश्वास उठ जाता। घृणा करने लगते लोग, आज की राजनीति से और आज के राजनीतिकों से। वही अमर सिंह जब आज दबाव की राजनीति का खेल खेलना चाहते हैं तब उनकी बेशर्मी पर किसी को शर्म आए भी तो कैसे? हतप्रभ हैं सभी। अमर सिंह न केवल देश की राजनीतिक व्यवस्था को भ्रष्ट करने के एक बड़े अपराधी हैं, बल्कि राममनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव को पतन के गर्त में धकेलने के भी दोषी हैं। यह कृत्य वैसे अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है, जहां दंडित को अंतिम समय में पानी से भी वंचित रखा जाता है। मुलायम यादव कभी सचे अर्थ में लोहिया की विरासत को झंडाबरदार माने जाते थे। समाजवादी आंदोलन के निष्कपट पुरोधा के रूप में उनकी पहचान थी। देश उनकी ओर आशा की दृष्टि से देखा करता था। वह मुलायम अगर भ्रष्ट-पतित हुए, परिवार समाज की नजर में ही नहीं स्वयं अपनी नजर में भी गिरे तो अमर सिंह के कारण। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिसे यहां इसलिए उद्धृत कर रहा हूं ताकि भविष्य में कोई अपना हित साधने के लिए मुलायम जैसे समाजवादी का भविष्य अंधकारमय बनाने की कोशिश न करे। पीड़ा तो हो रही है इस सच को उगलने में किंतु जब भारत के एक 'भविष्य' को हाशिए पर डाल दिया गया तब ऐसा करने वाले चेहरे को बेनकाब तो किया ही जाना चाहिए।
सभी जानते हैं कि मुलायम व समाजवादी आंदोलन पर ग्रहण लगा तो अमर के कारण। उन्हें बिल्कुल ठीक ही कोने में फेंक दिया गया। किंतु वही अमर जब फिर जाल बुन मुलायम को कब्जे में करने की कोशिश कर रहे हैं तब प्रतिरोध जरूरी है। बेहतर हो 'अनफिट' अमर सिंह स्वास्थ्य लाभ के लिए स्थायी रूप से राजनीति से संन्यास ले लें। समाजवादी पार्टी और मुलायम का पिंड छोड़ दें।
ऐसा नहीं होना चाहिए था!
नागपुर शहर में प्रबुद्ध कलाकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों, कवि, लेखकों के दर्द के साथ मैं उनकी पंक्ति में खड़ा हूं। नागपुर की अनुकरणीय संस्कृति के साथ खिलवाड़ करते हुए कतिपय स्थानीय प्रशासकीय अधिकारियों ने संस्कृति के गालों पर तमाचा मारा है। शहर के 'वात्सल्य' को लहूलुहान कर दिया है। वह भी किसलिए? सिर्फ अपने अहम् की संतुष्टि के लिए! जी हां, सच यही है। स्थानीय कस्तूरचंद पार्क में आयोजित राष्ट्रीय पुस्तक मेले को कानूनन अवैद्य करार देने वाले अधिकारी अपनी गिरेबां में झांके। उनका स्वच्छ मन उनके आदेश को खारिज करता मिलेगा। क्योंकि यह जो मन है वह बाहरी प्रदूषण से मुक्त पाक-साफ होता है - झूठ नहीं बोलता। केन्द्र में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा चुके शहर के एक जिम्मेदार नागरिक के अनुसार, पूरा का पूरा मामला व्यक्तिगत अहम् एवं खुन्नस का है। एक प्रशासनिक अधिकारी का अहं और एक अन्य दूसरे की अपने वरिष्ठ के प्रति निष्ठा के कारण सत्तर के दशक के आपातकाल के दौरान बुलडोजर संस्कृति को पुनर्मंचित करने की कोशिश की गई। यह बिल्कुल सही है कि जिलाधिकारी ने विगत 30 दिसंबर को राष्ट्रीय पुस्तक मेले के आयोजन को अनुमति देने से मना कर दिया था। कानूनी भाषा में आयोजन की अनुमति नहीं दी गई थी लेकिन क्यों? आयोजक ने छह माह पूर्व औपचारिक आवेदन देकर मेले की अनुमति मांगी थी। यह दोहराना ही होगा कि पिछले 9 वर्षों से राष्ट्रीय पुस्तक मेला समिति प्रतिवर्ष नागपुर में ऐसा आयोजन करती आयी है। बल्कि नागपुर के त्रिशताब्दी समारोह के दौरान तत्कालीन जिलाधिकारी मनु कुमार श्रीवास्तव ने मेले को सादर नागपुर में आमंत्रित किया था। तब से निर्विघ्न समिति यहां पुस्तक मेले का आयोजन करती आई है। इस वर्ष भी आयोजन संबंधी पूरी व्यवस्था समिति ने कर ली। इस बीच कुछ स्थानीय प्रकाशकों ने षडयंत्र रचा और उन्होंने नागपुर महानगर पालिका को अपने झांसे में ले लिया। मनपा ने भी बगैर सोचे-समझे इन प्रकाशकों का आर्थिक हित साधने के लिए उनके साथ अलग से पुस्तक मेला आयोजित कर डाला। पुस्तक मेला एक-दो नहीं दस लगें, किसी को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन स्थानीय अधिकारियों ने प्रथम आयोजक की गर्दन पर छुरी चला दी। कानून का सहारा लिया गया लेकिन यह सभी समझ चुके हैं कि संबंधित अधिकारी ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए अग्रिशमन विभाग को ना-हरकत प्रमाण-पत्र देने से मना कर दिया। मामला किसी आयोजक विशेष को ही प्रताडि़त करने का नहीं है, पूरे देश से आए 150 से अधिक पुस्तक प्रकाशकों, वितरकों को प्रताडि़त करने का है। नागपुर शहर की मान-मर्यादा सम्मान को इन अधिकारियों ने अपने व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि के लिए धूल-धूसरित कर दिया। कानून की दृष्टि से शायद यह अपराध नहीं हो किन्तु नैतिक दृष्टि से घोर पाप है। युवा अधिकारी समाज के प्रति अपने दायित्व और कर्तव्य को भूल गए। उन्हें तो चाहिए था कि बातचीत कर दोनों आयोजनों के लिए मार्ग सुलभ करते। पुस्तक प्रेमी नागपुर के हित में यह सुनिश्चित करते कि सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण में दोनों पुस्तक मेलों का आयोजन हो। खेद है कि इन अधिकारियों ने आपसी बातचीत और सहयोग की जगह कानून प्रदत्त अधिकारों के दुरूपयोग को प्राथमिकता दी। शासन विरोधी वातावरण का निर्माण ऐसे ही कर्मो से होता है। ऐसा नहीं होना चाहिए था!
Tuesday, January 5, 2010
विदर्भ को चाहिए क्रांतिकारी नेतृत्व!
सांसद विलास मुत्तेमवार, मंत्रिद्वय नितिन राऊत और शिवाजीराव मोघे, कभी विदर्भ वीर के रूप में ख्यातनाम जामवंतराव धोटे का 'सशर्त अभिनंदन कि इन्होंने विदर्भ राज्य के निर्माण के पक्ष में दहाड़ लगाई। 'सशर्त इसलिए कि आंदोलन के प्रति इनकी गंभीरता को लेकर विदर्भवासी आश्वस्त नहीं हो पाए। इस शर्त को आंदोलनकारी नेतागण चेतावनी भी समझ लें। अगर यह ताजा आंदोलन पुन: मौसमी साबित हुआ तो छल मानते हुए विदर्भवासी नेताओं को कभी क्षमा नहीं करेंगे।
विदर्भवासी गलत नहीं हैं। पूर्व के उदाहरण चुगली करते मिलेंगे कि आंदोलन के साथ दगा बार-बार नेताओं ने ही की है। फिर क्या आश्चर्य कि मोहमंग की अवस्था में पहुंचे विदर्भवासी नेताओं की गंभीरता के प्रति संदिग्ध हैं। एक समय था जब जामवंतराव धोटे की दहाड़ पर विदर्भवासी सड़कों पर निकल आया करते थे। धोटे कीनेतृत्व क्षमता और ईमानदार आंदोलन पर उन्हें विश्वास था। लेकिन कारण जो भी हो, वे भी मांद में चले गए थे। शेर की दहाड़ तो दूर बिल्ली सदृश म्याऊं भी उनके मुंह से नहीं निकली। लोग निराश हो गए। विदर्भवासियों की निराशा यह देख-सुन गहरी होती चली गई कि पृथक विदर्भ की मांग, एक अवसरवादी मांग के रूप में बदल गई। आंदोलन का मजमा तो दूर, आंदोलन शब्द ही लुप्त हो गया। नतीजतन, पृथक विदर्भ के विरोधी सक्रिय हो गए। दलील दी जाने लगी कि पृथक विदर्भ राज्य आर्थिक दृष्टि से मजबूत साबित नहीं होगा। महाराष्ट्र से अलग होकर क्षेत्र, वांछित विकास हासिल नहीं कर पाएगा। ये सारे तर्क उन लोगों द्वारा दिए गए जिनके आर्थिक हित मुंबई व पश्चिम महाराष्ट्र से जुड़े हैं। नेतृत्वविहीन आंदोलन का लाभ इन तत्वों ने पृथक विदर्भ के विरोध में भरपूर उठाया।
तथापि, यह उत्साहवर्धक है कि तेलंगाना प्रकरण के बाद विदर्भ के नेता ईमानदारी से पृथक विदर्भ के पक्ष में सक्रिय दिख रहे हैं। पक्ष-विपक्ष दोनों ने विदर्भ का मुद्दा उठा लिया है। सर्वाधिक प्रशंसनीय कदम कांग्रेस की ओर से उठे हैं। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की 'ना के बावजूद सांसद मुत्तेमवार समेत दो कैबिनेट मंत्रियों नितिन राऊत और शिवाजीराव मोघे न केवल धरना-प्रदर्शन में शामिल हुए बल्कि जरूरत पडऩे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफे की भी पेशकश कर डाली। विदर्भवासी उत्साहित हुए। लेकिन पूर्व का अनुभव 'किंतु-परंतु को समाप्त नहीं कर पा रहा है। शंका और चेतावनी कीउत्पत्ति का कारण यही है। अगर सांसद समेत क्षेत्र के मंत्रिगण अपनी घोषणा पर कायम रहते हैं, तब आज यह लिखकर दिया जा सकता है कि विदर्भ राज्य को अस्तित्व में आने से कोई नहीं रोक सकता। विदर्भवासी अब प्रतीक्षा करेंगे, अपने नेताओं के अगले कदम की। वादे को निभाने की।
विदर्भवासी गलत नहीं हैं। पूर्व के उदाहरण चुगली करते मिलेंगे कि आंदोलन के साथ दगा बार-बार नेताओं ने ही की है। फिर क्या आश्चर्य कि मोहमंग की अवस्था में पहुंचे विदर्भवासी नेताओं की गंभीरता के प्रति संदिग्ध हैं। एक समय था जब जामवंतराव धोटे की दहाड़ पर विदर्भवासी सड़कों पर निकल आया करते थे। धोटे कीनेतृत्व क्षमता और ईमानदार आंदोलन पर उन्हें विश्वास था। लेकिन कारण जो भी हो, वे भी मांद में चले गए थे। शेर की दहाड़ तो दूर बिल्ली सदृश म्याऊं भी उनके मुंह से नहीं निकली। लोग निराश हो गए। विदर्भवासियों की निराशा यह देख-सुन गहरी होती चली गई कि पृथक विदर्भ की मांग, एक अवसरवादी मांग के रूप में बदल गई। आंदोलन का मजमा तो दूर, आंदोलन शब्द ही लुप्त हो गया। नतीजतन, पृथक विदर्भ के विरोधी सक्रिय हो गए। दलील दी जाने लगी कि पृथक विदर्भ राज्य आर्थिक दृष्टि से मजबूत साबित नहीं होगा। महाराष्ट्र से अलग होकर क्षेत्र, वांछित विकास हासिल नहीं कर पाएगा। ये सारे तर्क उन लोगों द्वारा दिए गए जिनके आर्थिक हित मुंबई व पश्चिम महाराष्ट्र से जुड़े हैं। नेतृत्वविहीन आंदोलन का लाभ इन तत्वों ने पृथक विदर्भ के विरोध में भरपूर उठाया।
तथापि, यह उत्साहवर्धक है कि तेलंगाना प्रकरण के बाद विदर्भ के नेता ईमानदारी से पृथक विदर्भ के पक्ष में सक्रिय दिख रहे हैं। पक्ष-विपक्ष दोनों ने विदर्भ का मुद्दा उठा लिया है। सर्वाधिक प्रशंसनीय कदम कांग्रेस की ओर से उठे हैं। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की 'ना के बावजूद सांसद मुत्तेमवार समेत दो कैबिनेट मंत्रियों नितिन राऊत और शिवाजीराव मोघे न केवल धरना-प्रदर्शन में शामिल हुए बल्कि जरूरत पडऩे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफे की भी पेशकश कर डाली। विदर्भवासी उत्साहित हुए। लेकिन पूर्व का अनुभव 'किंतु-परंतु को समाप्त नहीं कर पा रहा है। शंका और चेतावनी कीउत्पत्ति का कारण यही है। अगर सांसद समेत क्षेत्र के मंत्रिगण अपनी घोषणा पर कायम रहते हैं, तब आज यह लिखकर दिया जा सकता है कि विदर्भ राज्य को अस्तित्व में आने से कोई नहीं रोक सकता। विदर्भवासी अब प्रतीक्षा करेंगे, अपने नेताओं के अगले कदम की। वादे को निभाने की।
Monday, January 4, 2010
'अध्ययन' का बोझ क्यों उठाएं राहुल !
दो टूक टिप्पणी करने के लिए विख्यात अंगरेजी की वरिष्ठ महिला पत्रकार तवलीन सिंह को यह स्पष्टीकरण देने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वे अपने स्तम्भ में राहुल गांधी के विषय में (प्रशंसा में) क्यों नहीं लिखती? जाहिर है कि कहीं किसी ओर से उन पर दबाव पड़ा होगा। किस ओर से क्या, यह बताने की जरूरत है? इन दिनों जबकि दिल्ली स्थित छोटे-बड़े पत्रकारों में 'राहुल स्तुति' की होड़ लगी है, तवलीन की 'राहुल उपेक्षा' भला कैसे बर्दाश्त की जाती? या फिर संभव यह भी है कि राहुल को मिल रहे सकारात्मक कवरेज से तवलीन स्वयं परेशान हो गई होंगी। सो उन्होंने अध्ययन कक्ष में उपलब्ध राहुल गांधी संबंधी खबरों और उनके भाषणों को खंगाल डाला। उन्होंने पाया कि राहुल में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे उन्हें गंभीरता से लिया जाए। तवलीन के अनुसार राहुल ने यदा-कदा अपनी पार्टी कांग्रेस के लिए तो कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं, किन्तु देश के लिए महत्वपूर्ण कभी कुछ नहीं कहा। तवलीन ने यह भी पाया कि राहुल हल्की-फुल्की और गंभीर बातें करने के आदि हैं। तवलीन इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि राहुल बाबा के लिए 'ट्यूटोरियल' जरूरी है।
राहुल गांधी संबंधी तवलीन की 'खोज' पर मंथन किया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव हंै, सोनिया-राजीव के पुत्र हैं बल्कि इसलिए कि लोकतांत्रिक भारत में दु:खद राजनीतिक विरासत की परंपरा के प्रतीक हैं, भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे हैं। इस मुकाम पर लोकतंत्र को उद्धृत किए जाने से उत्पन्न पीड़ा, सच मानिए असहनीय है। लोकतंत्र में सत्ता पर 'विरासत' का कब्जा!! लोकतंत्र की कल्पना को ऐसी चुनौती? एक सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाला लोकतांत्रिक भारत फिर भी इस 'सत्य' को स्वीकार करता है। तो इसका दोषी कौन? लोकतंत्र ने तो स्वयं को परिभाषित कर रखा है। उसे दोष नहीं दिया जा सकता। दोषी अगर कोई है तो, हमारी वह राजनीतिक व्यवस्था, जिसमें प्रतिभा तो हाशिये पर सिसकने को मजबूर है किंतु अयोग्य, अवसरवादी इस पर कुंडली मारकर बैठ गए हैं। कांग्रेस जो स्वयं को भारत देश का अभिभावक दल मानती है, स्वतंत्रता का श्रेय लेती है, विश्व समुदाय में भारत की ताजा पृथक पहचान का सेहरा अपने सिर बांधती है, उस पार्टी ने एक परिवार-एक शासक का सिद्धान्त कैसे अपना लिया? उत्तर सहज है भारत विभाजन और आजादी के समय से ही योजनाबद्ध तरीके से इस षडयंत्र को अंजाम दिया जाने लगा। ऐसा ताना-बाना बुना गया कि नेहरू परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति पार्टी के अंदर नेतृत्व पर कब्जा करने की न सोचें। विरोध के स्वर दबा दिए जाएं। यहां तक कि इंदिरा गांधी के पति तेजतर्रार, बुद्धिजीवी, विचारक फिरोजगांधी को भी परिवार से अलग कर दिया गया। यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि शांतिदूत पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी ईमानदार, कर्मठ, प्रतिभावान फिरोज गांधी नापसंद थे। कानून बदल डाला गया ताकि इंदिरा गांधी को तलाक मिल सके। इंदिरा पुत्र संजय ने मेनका से विवाह किया, एक दुर्घटना में संजय की मृत्यु पश्चात विधवा मेनका के लिए दु:स्थितियां पैदा की गई, उसे घर से निकाल दिया गया। दो वर्ष के अबोध पुत्र वरूण को गोद में ले बिलखती मेनका प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकल गई थी। दोनो मां-बेटे मेनका और वरूण आज सांसद तो हैं किंतु नेहरू परिवार का वारिस उन्हें नहीं माना जाता, क्योंकि उन्हें तो परिवार से बाहर कर दिया गया है।
अब शेष अकेले राहुल गांधी युवराज के रूप में मौजूद हैं। फिर क्या आश्चर्य कि सत्ता वंश के इस एकमात्र उत्तराधिकारी को हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भारत का भविष्य निरूपित करते हैं। पार्टी में मौजूद चाटुकारों की फौज उन्हें अपना राजा घोषित कर चुकी है? कोई आश्चर्य नहीं! फिर भला राहुल गांधी किसी की परवाह करें तो क्यों करें? तवलीन सिंह के सुझाव पर अध्ययन का बोझ वे क्यों उठाएं? वे गरीब परिवारों के बीच जाकर 'पिकनिक' मना लेते हैं। वैश्वीकरण की चमक से मुग्ध युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए उन्हें सुनहरे भारत का स्वप्न दिखा देते हैं। अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए मुस्लिम समुदाय के बीच जाकर ऐसी घोषणा कर देते हैं कि देश में कोई मुसलमान भी प्रधानमंत्री बन सकता है। विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसान परिवारों के बीच बैठकर 'कलावती-संवाद' कर लेते हैं। प्रचार तंत्र को साधने के लिए बड़े मीडिया समूहों के संचालकों-संपादकों-पत्रकारों की फौज सक्रिय है। अब राहुल को क्या चाहिए? आर्थिक विकास और शिक्षा को गंभीरता से राहुल लें तो क्यों? तवलीन बेचारी फिर शोध कर राहुल गांधी पर लिखें तो क्या लिखें?
राहुल गांधी संबंधी तवलीन की 'खोज' पर मंथन किया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव हंै, सोनिया-राजीव के पुत्र हैं बल्कि इसलिए कि लोकतांत्रिक भारत में दु:खद राजनीतिक विरासत की परंपरा के प्रतीक हैं, भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे हैं। इस मुकाम पर लोकतंत्र को उद्धृत किए जाने से उत्पन्न पीड़ा, सच मानिए असहनीय है। लोकतंत्र में सत्ता पर 'विरासत' का कब्जा!! लोकतंत्र की कल्पना को ऐसी चुनौती? एक सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाला लोकतांत्रिक भारत फिर भी इस 'सत्य' को स्वीकार करता है। तो इसका दोषी कौन? लोकतंत्र ने तो स्वयं को परिभाषित कर रखा है। उसे दोष नहीं दिया जा सकता। दोषी अगर कोई है तो, हमारी वह राजनीतिक व्यवस्था, जिसमें प्रतिभा तो हाशिये पर सिसकने को मजबूर है किंतु अयोग्य, अवसरवादी इस पर कुंडली मारकर बैठ गए हैं। कांग्रेस जो स्वयं को भारत देश का अभिभावक दल मानती है, स्वतंत्रता का श्रेय लेती है, विश्व समुदाय में भारत की ताजा पृथक पहचान का सेहरा अपने सिर बांधती है, उस पार्टी ने एक परिवार-एक शासक का सिद्धान्त कैसे अपना लिया? उत्तर सहज है भारत विभाजन और आजादी के समय से ही योजनाबद्ध तरीके से इस षडयंत्र को अंजाम दिया जाने लगा। ऐसा ताना-बाना बुना गया कि नेहरू परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति पार्टी के अंदर नेतृत्व पर कब्जा करने की न सोचें। विरोध के स्वर दबा दिए जाएं। यहां तक कि इंदिरा गांधी के पति तेजतर्रार, बुद्धिजीवी, विचारक फिरोजगांधी को भी परिवार से अलग कर दिया गया। यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि शांतिदूत पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी ईमानदार, कर्मठ, प्रतिभावान फिरोज गांधी नापसंद थे। कानून बदल डाला गया ताकि इंदिरा गांधी को तलाक मिल सके। इंदिरा पुत्र संजय ने मेनका से विवाह किया, एक दुर्घटना में संजय की मृत्यु पश्चात विधवा मेनका के लिए दु:स्थितियां पैदा की गई, उसे घर से निकाल दिया गया। दो वर्ष के अबोध पुत्र वरूण को गोद में ले बिलखती मेनका प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकल गई थी। दोनो मां-बेटे मेनका और वरूण आज सांसद तो हैं किंतु नेहरू परिवार का वारिस उन्हें नहीं माना जाता, क्योंकि उन्हें तो परिवार से बाहर कर दिया गया है।
अब शेष अकेले राहुल गांधी युवराज के रूप में मौजूद हैं। फिर क्या आश्चर्य कि सत्ता वंश के इस एकमात्र उत्तराधिकारी को हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी भारत का भविष्य निरूपित करते हैं। पार्टी में मौजूद चाटुकारों की फौज उन्हें अपना राजा घोषित कर चुकी है? कोई आश्चर्य नहीं! फिर भला राहुल गांधी किसी की परवाह करें तो क्यों करें? तवलीन सिंह के सुझाव पर अध्ययन का बोझ वे क्यों उठाएं? वे गरीब परिवारों के बीच जाकर 'पिकनिक' मना लेते हैं। वैश्वीकरण की चमक से मुग्ध युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए उन्हें सुनहरे भारत का स्वप्न दिखा देते हैं। अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए मुस्लिम समुदाय के बीच जाकर ऐसी घोषणा कर देते हैं कि देश में कोई मुसलमान भी प्रधानमंत्री बन सकता है। विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसान परिवारों के बीच बैठकर 'कलावती-संवाद' कर लेते हैं। प्रचार तंत्र को साधने के लिए बड़े मीडिया समूहों के संचालकों-संपादकों-पत्रकारों की फौज सक्रिय है। अब राहुल को क्या चाहिए? आर्थिक विकास और शिक्षा को गंभीरता से राहुल लें तो क्यों? तवलीन बेचारी फिर शोध कर राहुल गांधी पर लिखें तो क्या लिखें?
Sunday, January 3, 2010
गलत है अभिव्यक्ति पर नियंत्रण की कोशिश !
ललाट पर शिकन लाने की जरूरत नहीं। चाहे सरकार कितना भी इनकार कर ले, निजी चैनलों पर प्रस्तावित नकेल अपरोक्ष में सेंसर की भूमिका ही निभाएगी। मीडिया की आशंका निर्मूल नहीं है। मुंबई में 26/11 हमले की अनियंत्रित मीडिया कवरेज को आधार बनाकर महाराष्ट्र सरकार निजी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों की विषयवस्तु पर निगरानी रखने के लिए जिला स्तर पर समिति बनाकर क्या हासिल करेगी यह तो बाद की बात है। फिलहाल इसकी मंशा चैनलों को चेतावनी देने की है। शायद वह इस प्रयास से चैनलों की प्रतिक्रिया भी देखना चाहती है। लगता है इस योजना के पीछे लक्ष्य कुछ और है। नि:संदेह केंद्र सरकार भी इसके पीछे है। अगर यह सच है तब केंद्र सरकार पुरानी भूल को दोहरा रही है। समझ में नहीं आता कि पिछले दो अवसरों पर मुंह की खाने के बाद भी केंद्र सरकार फिर अपने उगले को निगलने की ओर क्यों बढ़ चली है।
मैं यह मानता हूं कि 26/11 के हमले के दौरान कतिपय निजी चैनलों ने घोर गैर-जिम्मेदाराना आचरण का परिचय दिया था, लेकिन वह सब कुछ अति उत्साह और अनजाने में हुआ था। चैनलों की नीयत में कहीं कोई खोट नहीं थी। ऐसा आरोप कोई पागल ही लगा सकता है कि चैनलों ने जान-बूझकर हमले का कुछ यूं प्रसारण किया, जिनसे आतंकवादियों को मदद मिली। आतंकवादी मदद ले गए यह ठीक है, किंतु चैनलों ने जान-बूझकर ऐसा किया, यह गलत है। इसलिए हमले को आधार बनाकर चैनलों को नियंत्रित करने की पहल अनुचित है। सरकार पहले अपनी मंशा स्पष्ट करे। मीडिया की ताकत को आंकने का यह तरीका गलत है।
सन् 1988 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी फेयर फैक्स और बोफोर्स जैसे कांडों में बुरी तरह उलझ प्रेस का निशाना बन रहे थे, तब अवसरवादी मूर्ख सलाहकारों ने उन्हें गुमराह किया। उनके परामर्श पर मानहानि विधेयक संसद में पेश कर दिया गया था। उद्देश्य प्रेस की जुबां पर ताला लगाना था। यह वह काल था जब विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर 'जनमंच' के माध्यम से राजीव गांधी सरकार पर आक्रमण कर रहे थे। राजीव के अनेक नजदीकी साथ छोड़ उन्हें निशाना बना रहे थे। प्रेस में उन दिनों 'मि. क्लीन' की छवि एक भ्रष्ट शासक के रूप में परिवर्तित हो रही थी। मानहानि विधेयक लाकर प्रेस पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई। पूरे देश में इसका विरोध हुआ। प्रेस की एकता रंग लाई और अंतत: विधेयक को वापस लेने के लिए राजीव सरकार मजबूर हो गई।
इसके पूर्व सन् 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी प्रेस की ताकत को तौलने की जुर्रत की थी। उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र को विश्वास में लिया और बिहार विधानसभा में बिहार प्रेस विधेयक पेश कर दिया गया। वस्तुत: वह विधेयक एक प्रयोग था। बिहार में जयप्रकाश आंदोलन और अपातकाल के विरोध से क्रुद्ध इंदिरा गांधी ने बिहार की जमीन से ही प्रेस की मुंह पर ताला जडऩे का प्रयोग किया था। जगन्नाथ मिश्र तो निमित्त मात्र थे। इंदिरा गांधी भी तब प्रेस को 'टेस्ट' करना चाहतीं थीं। लेकिन उनका प्रयोग प्रति-उत्पादक सिद्ध हुआ। न केवल बिहार में बल्कि पूरे देश में प्रेस ने इंदिरा शासन के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया। बिहार में एकत्रित होकर प्रेसकर्मी सड़क पर उतर गए। साथ देने आम जनता भी सरकार के विरोध में खड़ी हो गई। इंदिरा गांधी और डा. मिश्र के पैरों तले की जमीन निकल गई। इज्जत बचाने के उपाय ढूंढे जाने लगे। रास्ता निकला- प्रेस प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की गई और अंतत: प्रेस विधेयक वापस ले लिया गया था। तब भी पराजय बिहार के मुख्यमंत्री की नहीं, देश के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हुई थी।
चूंकि महाराष्ट्र सरकार की ताजा पहल को केंद्र की इच्छापूर्ति के रूप में देखा जा रहा है, मैं चाहूंगा कि राज्य व केंद्र सरकार उपरोक्त वर्णित प्रयासों के हश्र को याद कर ले। तब तो सिर्फ प्रिंट मीडिया था, अब तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बड़ी मौजूदगी है। आम लोगों से ये 24 घंटे रू-ब-रू हैं। इनकी ताकत-प्रभाव को कोई चुनौती देने का दु:साहस नहीं करे। प्रेस और मीडिया की आजादी में संविधान प्रदत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है। इसके साथ छेड़-छाड़ का अर्थ लोकतांत्रिक अधिकार को छीनने की कोशिश है। अश्लील तथा आपत्तिजनक कार्यक्रमों के प्रसारण पर निगरानी रखने के लिए केंद्र सरकार चैनल संचालकों के सहयोग से, बल्कि उनकी भागीदारी में नियमन बनाने का कदम उठा चुकी है। हालांकि इसकी भी कोई जरूरत नहीं। बेहतर हो चैनल संचालक स्वयं समाजहित में अपने लिए आचार संहिता बनाएं। यही कदम प्रभावी होगा। कानून बनाकर अभिव्यक्ति पर नियंत्रण की सोच बेवकूफी ही होगी।
मैं यह मानता हूं कि 26/11 के हमले के दौरान कतिपय निजी चैनलों ने घोर गैर-जिम्मेदाराना आचरण का परिचय दिया था, लेकिन वह सब कुछ अति उत्साह और अनजाने में हुआ था। चैनलों की नीयत में कहीं कोई खोट नहीं थी। ऐसा आरोप कोई पागल ही लगा सकता है कि चैनलों ने जान-बूझकर हमले का कुछ यूं प्रसारण किया, जिनसे आतंकवादियों को मदद मिली। आतंकवादी मदद ले गए यह ठीक है, किंतु चैनलों ने जान-बूझकर ऐसा किया, यह गलत है। इसलिए हमले को आधार बनाकर चैनलों को नियंत्रित करने की पहल अनुचित है। सरकार पहले अपनी मंशा स्पष्ट करे। मीडिया की ताकत को आंकने का यह तरीका गलत है।
सन् 1988 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी फेयर फैक्स और बोफोर्स जैसे कांडों में बुरी तरह उलझ प्रेस का निशाना बन रहे थे, तब अवसरवादी मूर्ख सलाहकारों ने उन्हें गुमराह किया। उनके परामर्श पर मानहानि विधेयक संसद में पेश कर दिया गया था। उद्देश्य प्रेस की जुबां पर ताला लगाना था। यह वह काल था जब विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर 'जनमंच' के माध्यम से राजीव गांधी सरकार पर आक्रमण कर रहे थे। राजीव के अनेक नजदीकी साथ छोड़ उन्हें निशाना बना रहे थे। प्रेस में उन दिनों 'मि. क्लीन' की छवि एक भ्रष्ट शासक के रूप में परिवर्तित हो रही थी। मानहानि विधेयक लाकर प्रेस पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई। पूरे देश में इसका विरोध हुआ। प्रेस की एकता रंग लाई और अंतत: विधेयक को वापस लेने के लिए राजीव सरकार मजबूर हो गई।
इसके पूर्व सन् 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी प्रेस की ताकत को तौलने की जुर्रत की थी। उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र को विश्वास में लिया और बिहार विधानसभा में बिहार प्रेस विधेयक पेश कर दिया गया। वस्तुत: वह विधेयक एक प्रयोग था। बिहार में जयप्रकाश आंदोलन और अपातकाल के विरोध से क्रुद्ध इंदिरा गांधी ने बिहार की जमीन से ही प्रेस की मुंह पर ताला जडऩे का प्रयोग किया था। जगन्नाथ मिश्र तो निमित्त मात्र थे। इंदिरा गांधी भी तब प्रेस को 'टेस्ट' करना चाहतीं थीं। लेकिन उनका प्रयोग प्रति-उत्पादक सिद्ध हुआ। न केवल बिहार में बल्कि पूरे देश में प्रेस ने इंदिरा शासन के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया। बिहार में एकत्रित होकर प्रेसकर्मी सड़क पर उतर गए। साथ देने आम जनता भी सरकार के विरोध में खड़ी हो गई। इंदिरा गांधी और डा. मिश्र के पैरों तले की जमीन निकल गई। इज्जत बचाने के उपाय ढूंढे जाने लगे। रास्ता निकला- प्रेस प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की गई और अंतत: प्रेस विधेयक वापस ले लिया गया था। तब भी पराजय बिहार के मुख्यमंत्री की नहीं, देश के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हुई थी।
चूंकि महाराष्ट्र सरकार की ताजा पहल को केंद्र की इच्छापूर्ति के रूप में देखा जा रहा है, मैं चाहूंगा कि राज्य व केंद्र सरकार उपरोक्त वर्णित प्रयासों के हश्र को याद कर ले। तब तो सिर्फ प्रिंट मीडिया था, अब तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बड़ी मौजूदगी है। आम लोगों से ये 24 घंटे रू-ब-रू हैं। इनकी ताकत-प्रभाव को कोई चुनौती देने का दु:साहस नहीं करे। प्रेस और मीडिया की आजादी में संविधान प्रदत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है। इसके साथ छेड़-छाड़ का अर्थ लोकतांत्रिक अधिकार को छीनने की कोशिश है। अश्लील तथा आपत्तिजनक कार्यक्रमों के प्रसारण पर निगरानी रखने के लिए केंद्र सरकार चैनल संचालकों के सहयोग से, बल्कि उनकी भागीदारी में नियमन बनाने का कदम उठा चुकी है। हालांकि इसकी भी कोई जरूरत नहीं। बेहतर हो चैनल संचालक स्वयं समाजहित में अपने लिए आचार संहिता बनाएं। यही कदम प्रभावी होगा। कानून बनाकर अभिव्यक्ति पर नियंत्रण की सोच बेवकूफी ही होगी।
Saturday, January 2, 2010
मजबूत मीडिया का यह कैसा कमजोर चरित्र!
नागपुर से प्रकाशित एक मराठी दैनिक के पत्रकार, गैर-पत्रकार कर्मचारी भीषण प्रताडऩा के दौर से गुजर रहे हैं। प्रबंधन की मार और प्रशासन का बेरूखापन ही नहीं, अपनी बिरादरी के सदस्य भी उन्हें चोट पहुंचा रहे हैं। जब अपने बेगाने दिखने लगे तब पीड़ा गहरी हो जाती है।
अभी पिछले दिनों जब राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ गुंडों ने मुंबई स्थित आईबीएन लोकमत मराठी समाचार चैनल के दफ्तर पर हमला किया था, तोड़-फोड़ की थी, संपादक निखिल वागले को निशाना बनाना चाहा था, तब मीडिया के हर वर्ग ने ठाकरे के खिलाफ आग उगला था। राष्ट्रव्यापी भत्र्सना हुई थी। टीवी समाचार चैनलों और समाचार-पत्रों ने समान रूप से घटना की निंदा करते हुए राज ठाकरे और उनके गुंडों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी। प्रशासन हरकत में आया और आक्रमणकारी गुंडे गिरफ्तार कर लिए गए। दिल्ली से लेकर मुंबई तक नेताओं ने मीडिया पर हुए आक्रमण को अलोकतांत्रिक निरूपित किया। कहने का तात्पर्य यह कि तब सभी मीडिया के साथ थे, अराजकता के खिलाफ थे।
किंतु अब जबकि, नागपुर के इस मराठी दैनिक के कर्मचारियों पर प्राणघातक हमला हुआ, दो कर्मचारियों का अपहरण कर लिया गया, तब मीडिया खामोश क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि हमलावर प्रबंधन के लोग थे, उनके द्वारा भाड़े पर लाए गुंडे थे? हां, यही सच है। कर्मचारियों की यूनियन ने बकायदा हड़ताल का अग्रिम नोटिस दे दिया था। वे कानून सम्मत हड़ताल पर हैं। चूंकि प्रिंटींग प्रेस के कर्मचारी भी हड़ताल पर चले गए, समाचार-पत्र का मुद्रण प्रभावित हो रहा था। अडिय़ल और असंवेदनशील संचालक और प्रबंधन के कुछ पिठ्ठू हड़ताली कर्मचारियों से बातचीत कर मामला सुलझाने की जगह प्रताडऩा पर उतर आए। पहले तो उन्होंने बाहर से कुछ लोगों को बुलाकर छपाई शुरू की। बाद में जब औद्योगिक न्यायालय ने प्रबंधन के इस कदम को अवैध करार देते हुए बाहर के लोगों द्वारा छपाई कार्य संपन्न कराने पर रोक लगा दी, तब प्रबंधन बौखला उठा। कानून की परवाह किए बगैर प्रबंधन ने असामाजिक तत्त्वों को एकत्रित कर हड़ताली कर्मचारियों पर हमला बोल दिया। उन्हें पीट-पीट कर जख्मी कर दिया गया। वहां तैनात पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने रहे। संभवत: प्रबंधन उन्हें पहले ही साध लिया था। जैसा कि अमूमन होता है, एफआईआर दर्ज होने के बावजूद पुलिस ने प्रबंधन और उनके गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई अभी तक नहीं की। दु:ख या आश्चर्य इस बात पर नहीं, पीड़ा हुई मीडिया के व्यवहार पर। गुंडों की पिटाई से जख्मी अपनी बिरादरी का साथ देने के लिए श्रमिक पत्रकार संघ में बैठक हुई। प्रबंधन की भरपूर आलोचना की गई। उसके खिलाफ कार्रवाई किए जाने की औपचारिक मांग भी की गई। नागपुर के इतिहास की यह पहली घटना है जब हड़ताली पत्रकारों, गैर-पत्रकारों की भरपूर पिटाई प्रबंधन और उनके गुंडों द्वारा की गई। आक्रोशित पत्रकारों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की, किंतु पीड़ा तब गहरी हो गई जब मीडिया में इस पूरी घटना की खबर लगभग नदारद रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने छोटी, महत्त्वहीन दर्जे की खबर लगाकर हाथ झाड़ लिए। आईबीएन लोकमत प्रकरण के ठीक विपरीत मीडिया के आचरण पर बिरादरी सौ-सौ आंसू तो बहा रही है, किंतु खबर के 'बायकॉट' पर कुछ कहने को तैयार नहीं। बताने की जरूरत नही, सभी समझ सकते हैं। लाचार, असहाय हैं वे। यह दीगऱ है कि उनकी यह लाचारी भविष्य में स्वयं उन्हें निशाने पर ले सकती है। मजबूत पत्रकार बिरादरी का यह कमजोर चरित्र आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। पीडि़त 'अ' की उपेक्षा कर फिलहाल सुरक्षित 'ब' अंतत: स्वयं को, कहीं 'अ' की स्थिति में न पहुंचा दें। और तब उनके रूदन में साथ देने वाला शायदही कोई उपलब्ध मिलेगा।
अभी पिछले दिनों जब राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ गुंडों ने मुंबई स्थित आईबीएन लोकमत मराठी समाचार चैनल के दफ्तर पर हमला किया था, तोड़-फोड़ की थी, संपादक निखिल वागले को निशाना बनाना चाहा था, तब मीडिया के हर वर्ग ने ठाकरे के खिलाफ आग उगला था। राष्ट्रव्यापी भत्र्सना हुई थी। टीवी समाचार चैनलों और समाचार-पत्रों ने समान रूप से घटना की निंदा करते हुए राज ठाकरे और उनके गुंडों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी। प्रशासन हरकत में आया और आक्रमणकारी गुंडे गिरफ्तार कर लिए गए। दिल्ली से लेकर मुंबई तक नेताओं ने मीडिया पर हुए आक्रमण को अलोकतांत्रिक निरूपित किया। कहने का तात्पर्य यह कि तब सभी मीडिया के साथ थे, अराजकता के खिलाफ थे।
किंतु अब जबकि, नागपुर के इस मराठी दैनिक के कर्मचारियों पर प्राणघातक हमला हुआ, दो कर्मचारियों का अपहरण कर लिया गया, तब मीडिया खामोश क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि हमलावर प्रबंधन के लोग थे, उनके द्वारा भाड़े पर लाए गुंडे थे? हां, यही सच है। कर्मचारियों की यूनियन ने बकायदा हड़ताल का अग्रिम नोटिस दे दिया था। वे कानून सम्मत हड़ताल पर हैं। चूंकि प्रिंटींग प्रेस के कर्मचारी भी हड़ताल पर चले गए, समाचार-पत्र का मुद्रण प्रभावित हो रहा था। अडिय़ल और असंवेदनशील संचालक और प्रबंधन के कुछ पिठ्ठू हड़ताली कर्मचारियों से बातचीत कर मामला सुलझाने की जगह प्रताडऩा पर उतर आए। पहले तो उन्होंने बाहर से कुछ लोगों को बुलाकर छपाई शुरू की। बाद में जब औद्योगिक न्यायालय ने प्रबंधन के इस कदम को अवैध करार देते हुए बाहर के लोगों द्वारा छपाई कार्य संपन्न कराने पर रोक लगा दी, तब प्रबंधन बौखला उठा। कानून की परवाह किए बगैर प्रबंधन ने असामाजिक तत्त्वों को एकत्रित कर हड़ताली कर्मचारियों पर हमला बोल दिया। उन्हें पीट-पीट कर जख्मी कर दिया गया। वहां तैनात पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने रहे। संभवत: प्रबंधन उन्हें पहले ही साध लिया था। जैसा कि अमूमन होता है, एफआईआर दर्ज होने के बावजूद पुलिस ने प्रबंधन और उनके गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई अभी तक नहीं की। दु:ख या आश्चर्य इस बात पर नहीं, पीड़ा हुई मीडिया के व्यवहार पर। गुंडों की पिटाई से जख्मी अपनी बिरादरी का साथ देने के लिए श्रमिक पत्रकार संघ में बैठक हुई। प्रबंधन की भरपूर आलोचना की गई। उसके खिलाफ कार्रवाई किए जाने की औपचारिक मांग भी की गई। नागपुर के इतिहास की यह पहली घटना है जब हड़ताली पत्रकारों, गैर-पत्रकारों की भरपूर पिटाई प्रबंधन और उनके गुंडों द्वारा की गई। आक्रोशित पत्रकारों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की, किंतु पीड़ा तब गहरी हो गई जब मीडिया में इस पूरी घटना की खबर लगभग नदारद रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने छोटी, महत्त्वहीन दर्जे की खबर लगाकर हाथ झाड़ लिए। आईबीएन लोकमत प्रकरण के ठीक विपरीत मीडिया के आचरण पर बिरादरी सौ-सौ आंसू तो बहा रही है, किंतु खबर के 'बायकॉट' पर कुछ कहने को तैयार नहीं। बताने की जरूरत नही, सभी समझ सकते हैं। लाचार, असहाय हैं वे। यह दीगऱ है कि उनकी यह लाचारी भविष्य में स्वयं उन्हें निशाने पर ले सकती है। मजबूत पत्रकार बिरादरी का यह कमजोर चरित्र आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। पीडि़त 'अ' की उपेक्षा कर फिलहाल सुरक्षित 'ब' अंतत: स्वयं को, कहीं 'अ' की स्थिति में न पहुंचा दें। और तब उनके रूदन में साथ देने वाला शायदही कोई उपलब्ध मिलेगा।
Friday, January 1, 2010
सन 2009 का पत्रकारीय कलंक!
पहले एक औपचारिकता - नव वर्ष की बधाईयां, शुभकामनाएं! और अब सीधे चलें नव वर्ष में पत्रकारीय अपेक्षाओं पर बीते वर्ष की पत्रकारीय कालिमा पर।
मीडिया के सबसे बड़े लोकप्रिय न्यूज पोर्टल भड़ास फॉर मीडिया ने 'खबरों के बिकाऊ हो जाने को' वर्ष का सबसे बड़ा स्कैंडल बताया है। वहीं आज से शुरु हो रहे सन् 2010 में संपादकों से प्रण लेने का अनुरोध किया है कि वे खबरों और सिर्फ खबरों के प्रति निष्ठावान रहें।
कालिमा और फिर उज्ज्वलता? कौन उठाएगा इस दिशा में कदम? अब तो संपादक नाम की संस्था लगभग समाप्त हो गई है। उसमें हाथ-पांव मार रहे अपवाद स्वरूप जो बचें हैं, वे इतने निरीह हो गए हैं कि उनसे किसी क्रांति की अपेक्षा करना बेकार है। वे बेचारे यदा-कदा लिख - बोलकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। उनके 'सरमन' का कोई खरीदार कभी सामने नहीं आता। कारण बताने की जरूरत नहीं है।
मीडिया संचालकों ने जब खबरों को बेचना शुरु कर दिया, तभी उन्होंने संपादकों को उनकी औकात बता दी थी। संचालकों ने यह सब योजनाबद्ध तरीके से किया। संपादकों के सामने कुछ टुकड़े फेंक, दुलारकर पुचकारकर, उधार लिए अलंकृत शब्दों से उन्हें महिमामंडित कर, कभी मंच पर, कभी प्रथम पंक्ति में बैठाकर, सुविधा भोगी बनाकर उन्हें अपाहिज बना डाला गया। कुंए की मेढ़क की दशा में उन्हें पहुंचा दिया गया। बेचारे पानी के अंदर टर्र-टर्र करने को मजबूर कर दिए गए। कुएं से बाहर निकलने की इजाजत नहीं। सन् 2009 में संपन्न लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में विज्ञापन की तरह खबरें छपवाने के लिए खुलकर पैसे लिए गए। अखबार संचालकों की इस योजना में संपादक और संस्थान के पत्रकार शामिल थे। संस्थान में काम करने वाले पत्रकारों को मुख्यालय से लेकर जिला स्तर तक - 'कोटा' निर्धारित कर दिया गया था। पत्रकारों के लिए कमीशन भी तय किए गए। बड़ी ईमानदारी से संपादकों, पत्रकारों ने संचालकों की योजना को अंजाम दिया। चूंकि शब्दकोश में अपवाद शब्द अभी भी मौजूद है, बिरादरी में कुछ 'अपवाद' सामने तो आए किन्तु निहत्थे। उन्हें साथ देने वालों की संख्या नगण्य। नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गए वे। बेअसर साबित हुई उनकी आवाज। ऐसे में कोई प्रण, कोई संकल्प! जाहिर है ये सभी भी अंततोगत्वा बेअसर ही साबित होंगे। इस संबंध में एक बार मैंने आगे के खतरों के प्रति आशंका प्रकट की थी। उसकी शुरुआत भी हो चुकी है। पीडि़त बता रहे हैं कि अब संचालक-संपादक-पत्रकार अन्य खबरों के लिए भी धन की मांग करने लगे हैं। अखबारों में खबरों के लिए निर्धारित स्थान बेचे जाने लगे हैं। इस रोक का प्रसार अभी सभी जगह नहीं हुआ है। इसे खैरियत न मानिए, तत्काल अंकुश लगाने के उपाय करें। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा जब प्रथम पृष्ठ की प्रथम अर्थात मुख्य खबर भी प्रायोजित होगी। खबर का स्रोत धन होगा। कल की यह तस्वीर भयावह है। पाठक - समाज - देश के साथ ऐसे छल पर रोक के लिए कोई तो पहल करें। निश्चय मानिए, अगर एक भी कदम आगे बढ़ेगा तब अनुकरण करने वाले पग कम नहीं रहेंगे। हां, यह शर्त अवश्य कि पहला कदम ईमानदार हो।
कभी प्रसिद्ध पत्रकार एडविन लाहये ने डंके की चोट पर कहा था कि, 'मैं किसी देश का राष्ट्रपति बनना पसंद नहीं करूंगा। मैं धन का नहीं, शब्दों का कोष तलाशता हं।' तब कहा गया था कि एडविन के इस कथन में प्रत्येक पत्रकार की आत्मा का वास है। पत्रकार आत्मचिंतन करें एडविन के कथन से उभरे विश्वास पर। क्या यह सच नहीं कि आज शब्दों का कोष तलाशने वालों को मूर्ख व अव्यवहारिक घोषित कर दिया जाता है? धन के कोष को तैयार कर निरंतर उसमें वृद्धि के लिए दिन-रात प्रयत्नशील आज का पत्रकार भला तब कलम के साथ ईमानदारी कैसे करें? अपवाद की श्रेणी में शेष पत्रकार उस बड़े वर्ग का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। ये फिर संचालकों के खिलाफ विद्रोह कैसे कर पाएंगे? ये खबरें लिखेंगे, खबरें दिखाएंगे अवश्य, लेकिन संचालकों के इच्छानुरूप। पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत, आदर्श का परित्याग कर।
बावजूद वर्तमान के इस कड़वे सच के मैं आशा त्यागने को तैयार नहीं। मुझे विश्वास है कि पत्रकारों की वर्तमान युवा पीढ़ी की पंक्ति से विरोध-विद्रोह के स्वर एक न एक दिन अवश्य उठेंगे- पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ। तब यह वर्ग सेना, सैनिक और सेनापति की भूमिका निभाएगा। सन् 2010 का संकल्प इस विश्वास से ओत-प्रोत हो यही कामना है।
मीडिया के सबसे बड़े लोकप्रिय न्यूज पोर्टल भड़ास फॉर मीडिया ने 'खबरों के बिकाऊ हो जाने को' वर्ष का सबसे बड़ा स्कैंडल बताया है। वहीं आज से शुरु हो रहे सन् 2010 में संपादकों से प्रण लेने का अनुरोध किया है कि वे खबरों और सिर्फ खबरों के प्रति निष्ठावान रहें।
कालिमा और फिर उज्ज्वलता? कौन उठाएगा इस दिशा में कदम? अब तो संपादक नाम की संस्था लगभग समाप्त हो गई है। उसमें हाथ-पांव मार रहे अपवाद स्वरूप जो बचें हैं, वे इतने निरीह हो गए हैं कि उनसे किसी क्रांति की अपेक्षा करना बेकार है। वे बेचारे यदा-कदा लिख - बोलकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। उनके 'सरमन' का कोई खरीदार कभी सामने नहीं आता। कारण बताने की जरूरत नहीं है।
मीडिया संचालकों ने जब खबरों को बेचना शुरु कर दिया, तभी उन्होंने संपादकों को उनकी औकात बता दी थी। संचालकों ने यह सब योजनाबद्ध तरीके से किया। संपादकों के सामने कुछ टुकड़े फेंक, दुलारकर पुचकारकर, उधार लिए अलंकृत शब्दों से उन्हें महिमामंडित कर, कभी मंच पर, कभी प्रथम पंक्ति में बैठाकर, सुविधा भोगी बनाकर उन्हें अपाहिज बना डाला गया। कुंए की मेढ़क की दशा में उन्हें पहुंचा दिया गया। बेचारे पानी के अंदर टर्र-टर्र करने को मजबूर कर दिए गए। कुएं से बाहर निकलने की इजाजत नहीं। सन् 2009 में संपन्न लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में विज्ञापन की तरह खबरें छपवाने के लिए खुलकर पैसे लिए गए। अखबार संचालकों की इस योजना में संपादक और संस्थान के पत्रकार शामिल थे। संस्थान में काम करने वाले पत्रकारों को मुख्यालय से लेकर जिला स्तर तक - 'कोटा' निर्धारित कर दिया गया था। पत्रकारों के लिए कमीशन भी तय किए गए। बड़ी ईमानदारी से संपादकों, पत्रकारों ने संचालकों की योजना को अंजाम दिया। चूंकि शब्दकोश में अपवाद शब्द अभी भी मौजूद है, बिरादरी में कुछ 'अपवाद' सामने तो आए किन्तु निहत्थे। उन्हें साथ देने वालों की संख्या नगण्य। नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गए वे। बेअसर साबित हुई उनकी आवाज। ऐसे में कोई प्रण, कोई संकल्प! जाहिर है ये सभी भी अंततोगत्वा बेअसर ही साबित होंगे। इस संबंध में एक बार मैंने आगे के खतरों के प्रति आशंका प्रकट की थी। उसकी शुरुआत भी हो चुकी है। पीडि़त बता रहे हैं कि अब संचालक-संपादक-पत्रकार अन्य खबरों के लिए भी धन की मांग करने लगे हैं। अखबारों में खबरों के लिए निर्धारित स्थान बेचे जाने लगे हैं। इस रोक का प्रसार अभी सभी जगह नहीं हुआ है। इसे खैरियत न मानिए, तत्काल अंकुश लगाने के उपाय करें। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा जब प्रथम पृष्ठ की प्रथम अर्थात मुख्य खबर भी प्रायोजित होगी। खबर का स्रोत धन होगा। कल की यह तस्वीर भयावह है। पाठक - समाज - देश के साथ ऐसे छल पर रोक के लिए कोई तो पहल करें। निश्चय मानिए, अगर एक भी कदम आगे बढ़ेगा तब अनुकरण करने वाले पग कम नहीं रहेंगे। हां, यह शर्त अवश्य कि पहला कदम ईमानदार हो।
कभी प्रसिद्ध पत्रकार एडविन लाहये ने डंके की चोट पर कहा था कि, 'मैं किसी देश का राष्ट्रपति बनना पसंद नहीं करूंगा। मैं धन का नहीं, शब्दों का कोष तलाशता हं।' तब कहा गया था कि एडविन के इस कथन में प्रत्येक पत्रकार की आत्मा का वास है। पत्रकार आत्मचिंतन करें एडविन के कथन से उभरे विश्वास पर। क्या यह सच नहीं कि आज शब्दों का कोष तलाशने वालों को मूर्ख व अव्यवहारिक घोषित कर दिया जाता है? धन के कोष को तैयार कर निरंतर उसमें वृद्धि के लिए दिन-रात प्रयत्नशील आज का पत्रकार भला तब कलम के साथ ईमानदारी कैसे करें? अपवाद की श्रेणी में शेष पत्रकार उस बड़े वर्ग का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। ये फिर संचालकों के खिलाफ विद्रोह कैसे कर पाएंगे? ये खबरें लिखेंगे, खबरें दिखाएंगे अवश्य, लेकिन संचालकों के इच्छानुरूप। पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत, आदर्श का परित्याग कर।
बावजूद वर्तमान के इस कड़वे सच के मैं आशा त्यागने को तैयार नहीं। मुझे विश्वास है कि पत्रकारों की वर्तमान युवा पीढ़ी की पंक्ति से विरोध-विद्रोह के स्वर एक न एक दिन अवश्य उठेंगे- पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ। तब यह वर्ग सेना, सैनिक और सेनापति की भूमिका निभाएगा। सन् 2010 का संकल्प इस विश्वास से ओत-प्रोत हो यही कामना है।
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