राहुल गांधी को सेल्यूट। सेल्यूट इस बात के लिए कि उन्होंने साफगोई से यह सत्य स्वीकार कर लिया है कि वे राजनीति में आए हैं तो वंशवाद के सहारे। अगर उनके पिता, दादा-दादी या मां राजनीति में नहीं होतीं तो वे इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते। और यह भी कि कांग्रेस में (अन्यदलों की तरह) लोकतंत्र शेष नहीं रह गया है।
राहुल गांधी इस स्वीकारोक्ति के द्वारा अपनी पार्टी कांग्रेस को और देश को आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर वे सिर्फ प्रचार पाने के लिए या स्वंय को अपने पिता राजीव गांधी की तरह 'मिस्टर क्लीन' साबित करने के लिए ऐसी बातों का सहारा ले रहें हैं तब हम उन्हें महत्व देना नहीं चाहेंगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद 1985 में कांग्रेस के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए राजीव गांधी ने विकास के लिए आबंटित राशि में घपले की बात को स्वीकार किया था, प्रधानमंत्री कार्यालय से दागियों को निकाल बाहर किया था। तब देश ने उनकी ओर आशा भरी निगाहें डाल उन्हें 'मिस्टर क्लीन' की उपमा प्रदान की। लेकिन कुछ समय बाद ही 'बोफोर्स कांड' के कारण वे संदिग्ध बन गए थे। मिस्टर क्लीन की छवि खत्म हो गई। क्रोधित देश ने तब 1989 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था। आज जब राहुल गांधी कुछ कड़वे सच स्वीकार कर रहे हैं तब उनकी प्रंशसा स्वाभाविक तो है किन्तु स्वाभाविक रूप से पूछा यह भी जाएगा कि इनमें सुधार - संशोधन के कौन से कदम वे उठाने वाले हैं? जहां तक वंशवाद का सवाल है कांग्रेस ने इसे परंपरा के रूप में स्वीकार कर लिया है। जाने-अनजाने पार्टी में ऐसे कदम उठाए जाते रहें हैं कि राष्ट्रीय स्तर का कोई भी सर्वमान्य नेता नहीं रह गया या पनपने नहीं दिया गया।
नेहरु-गांधी परिवार को कुछ इस रूप में पेश किया जाता रहा मानो 'परिवार' और कांगे्रस एक दूसरे के पर्याय हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांगे्रस का जनाधार घटते जाने के बावजूद पार्टी ने इस परिवार को ही अपना मुखिया बनाए रखा। राहुल इसी प्रक्रिया की उपज हैं। उन्होंने इस सचाई को स्वीकार कर विवाद पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की है। तथापि उन्हें मुखिया की पात्रता-योग्यता को प्रमाणित तो करना ही होगा।
उनकी असली परीक्षा 'लोकतंत्र' के मुद्दे पर होगी। यह एक गंभीर मसला है। जब राजदलों में लोकतंत्र समाप्त हो गया है तब संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का क्या होगा? इस प्रणाली को जीवित व मजबूत रखने की जिम्मेदारी राजदलों पर है। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का 'भविष्य' यह स्वीकार कर रहा है कि पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया है तब वह लोकतांत्रिक प्रणाली का अंग कैसे बना रहेगा? राहुल ने जब यह स्वीकार किया है तब उन्हें पार्टी में लोकतंत्र को पुनर्जीवित करना होगा। उनकी यह बात भी सही है कि अन्य दलों में भी लोकतंत्र समाप्त हो गया है। राजनीतिक दल चाहे जो दावा करें इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र लुप्त है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक अवस्था है। अगर देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को जीवित रखना है तब प्रत्येक राजनीतिक दल पूरी ईमानदारी से अपने-अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्र को पुनर्जीवित ही न करें उसे अमरत्व प्रदान करें। मुद्दा राहुल ने उठाया है, पहल वे करें।
हां, राहुल यह भी जानना चाहते हैं कि क्या वे भ्रष्ट अथवा मूल्यविहीन राजनीतिक दिखते हैं? सवाल उन्होंने उस युवा वर्ग से किया जो अभी उत्तर देने की स्थिति में नहीं है। बोफोर्स कांड में उनके पिता राजीव और माता सोनिया गांधी दोनों कटघरे में खड़े किए गए थे। यह तब हुआ था जब राजीव सत्ता में थे। राहुल अभी सिर्फ संगठन में हैं। देश उनकी जिज्ञासा को फिलहाल सुरक्षित रखेगा।
3 comments:
विनोद जी,
आपको अक्सर पढ़ता हूं...बहुत सटीक मार होती है आपके शब्दों में...राहुल ने देश की किसी भी पार्टी में लोकतंत्र न
होने की बात पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले भी कही थी...मैं समझता हूं राहुल के पास बहुत अच्छा मौका है जननायक बनने का...बशर्ते कि वो खुद कभी भी प्रधानमंत्री न बनने का ऐलान कर दें...सत्ता से दूर रह कर जन-जन के दिल में ही रहने वाले जननायक बनते हैं...
जय हिंद...
चलो किसी ने तो सच क़बूला, मगर अब लोग इस मे भी कोई ना कोई बुराई निकल ही लेंगे.
विनोद जी, हमारे लोकतंत्र को किसी कवि ने क्या खूब परिभाषित किया है कि, "कोई फर्क नहीं पड़ता है हम किसको जितवाते है, संसद तक जाते जाते ये सब डाकू बन जाते है"
मुझे लगता है कि चूँकि, राहुल ने अभी तक कुर्सी नहीं ली है इसलिए उसे अभी कुछ समझदारी भरे कडवे सत्य स्वीकारीय है. एक बार कुर्सी से चिपकने के बाद इस जर्जर हुए भ्रष्ट तंत्र में सर्वप्रथम तो कुछ करने की चाह ही नहीं होगी और अगर कोई चाह कर भी कुछ सार्थक करना भी चाहे , तो इस तंत्र में घुन की तरह लगे हुए परजीवी कीड़े जिन्हें आप और हम अफसर और बाबु की जात के नाम से जानते है वो कुछ सार्थक होने ही नहीं देंगे.
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