दिल्ली उच्च न्यायालय को लोकतंत्र का सलाम! हाल के दिनों में न्यायपालिका में प्रविष्ट भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर चिंताएं जताई गई हैं। लोकतंत्र के इस दरवाजे में छिद्र भला कैसे स्वीकार किया जाए? न्याय मंदिर और उसमें बैठे 'देवता' अर्थात न्यायाधीश के दामन पर दाग का अर्थ न्याय की मौत है। सभ्यता के विकास के साथ ही सभ्य समाज ने अपने लिए न्याय और न्याय के लिए न्याय मंदिर की कल्पना की। मानव जाति ने इस सत्य को स्वीकार किया कि वह ऐसे अपराध कर सकता है जो समाज के लिए घातक हो, समाज में अराजकता निर्मित हो। वह दूसरे का हक छीन सकता है, दुष्कर्म कर सकता है, चोरी-डकैती कर सकता है और हत्या जैसा संगीन अपराध भी कर सकता है। स्वयं को दंडित करने और न्याय पाने के लिए न्याय मंदिर की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए न्यायपालिका की स्थापना हुई।
लोकतांत्रिक भारत ने सुशासन के लिए अपना संविधान बनाया। आवश्यकतानुसार समय-समय पर इसमें संशोधन किए गए। नए-नए कानून बनते रहे। पारदर्शिता के हक में सूचना का अधिकार कानून भी बना। यह एक क्रांतिकारी कदम था। इसके द्वारा आम लोगों को यह जानने का अधिकार दिया गया कि उनके द्वारा गठित सरकार के विभिन्न अंग अपने दायित्व का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन कर रहे हैं या नहीं। हर दृष्टि से इस कदम ने लोकतंत्र को जनहित में पारदर्शी बना दिया। लेकिन शासन-प्रशासन में मौजूद भ्रष्टाचारियों की फौज ने समय-समय पर इसका विरोध किया। निरंकुश शासन चलाने का आकांक्षी अधिकारी वर्ग तिलमिला उठा था। लेकिन कानून ऐसा कि वे कुछ नहीं कर पाए। सूचना के अधिकार के माध्यम से कुछ ऐसी गंभीर जानकारियां सामने आईं जो लोकतंत्र को घुन की तरह चाट रही थीं। उन पर रोक लगी। लोकतंत्र में जनता के प्रति शासकीय जिम्मेदारी की मूल कल्पना साकार होने लगी।
लेकिन आश्चर्य कि न्यायपालिका के एक वर्ग की ओर से इसका विरोध हुआ। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को इस कानून से अलग रखने की चेष्टा की। लेकिन कतिपयराज्यों में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश खुलकर इस कानून के पक्ष में आए और खुद ही इसके दायरे में होने की घोषणा कर डाली। भारत के मुख्य न्यायाधीश स्वयं को और अपने कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के तहत पारदर्शी बनाने को तत्पर नहीं दिखे। लेकिन देश में सचमुच कानून के ईमानदार रक्षकों की कमी नहीं है। उस दिल्ली उच्च न्यायालय को सलाम कि उसने भारत के मुख्य न्यायाधीश, उनके दफ्तर, जजों की नियुक्ति, शिकायतों, पत्राचार, तबादलों आदि को सूचना के कानून के दायरे में डाल दिया। उसने साफ शब्दों में फैसला दिया कि इनसे संबंधित जानकारी प्राप्त करने का अधिकार नागरिकों का है। इसके पूर्व केंद्रीय सूचना आयोग ने भी इस आशय का फैसला सुनाया था। किन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश सहमत नहीं हुए थे। अब चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुना दिया है, इसका आदर किया जाना चाहिए। कोई इस आदेश को चुनौती न दे। खबर है कि सर्वोच्च न्यायालय अर्थात मुख्य न्यायाधीश ऐसा कुछ कदम उठा सकते हैं। यह संभावित कदम सूचना के अधिकार के उद्देश्य पर कुठाराघात होगा। लोकतंत्र के पक्ष में, न्याय के पक्ष में और पारदर्शी शासन के पक्ष में बेहतर होगा, सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करे। उसे चुनौती न दे।
1 comment:
ok, thanks
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