ऐसा तो बहुत पहले ही होना चाहिए था। पर चलो देर से ही सही आयकर विभाग वालों की आंखें तो खुलीं। बीसीसीआई के नाम से प्रसिद्ध भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को 120 करोड़ रुपए का टैक्स और जुर्माना अदा करने का आदेश देकर आयकर विभाग ने अपने कर्तव्यबोध का परिचय दिया है। हालांकि इसमें विलंब बहुत हुआ। सचमुच यह अनेक लोगों के लिए पहले से ही यह चिंता का सबब था कि एक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर्ड बीसीसीआई को आयकर की छूट कैसे मिली हुई है। यह तो कोई आंख का अंधा भी देख सकता था कि बीसीसीआई विशुद्ध रूप से एक मुनाफा कमानेवाले व्यावसायिक संगठन के रूप में काम करता रहा है। क्रिकेट मैच का आयोजन करना, इसके लिए पैसे लेकर प्रायोजक ढूंढना, विज्ञापन से धन अर्जित करना, टेलीविजन पर प्रसार का अधिकार देकर मुनाफा कमाना, खेल मैदान के अंदर भी विज्ञापन प्रदर्शित कर धन लेना और यहां तक कि खिलाडिय़ों की पोशाक को भी विज्ञापन का माध्यम बनाकर धन अर्जित करना, धर्मार्थ अर्थात 'चैरिटी' का काम कैसे हो गया? खिलाड़ी बेचे-खरीदे जाते हैं। अद्र्धनग्न सुंदरियां मैदान में आकर खिलाडिय़ों और दर्शकों का मनोरंजन करती हैं। अब तक आयकर विभाग बीसीसीआई की चैरिटी के दर्जे को स्वीकार कैसे करता रहा? अब इतने वर्षों बाद आयकर विभाग इस नतीजे पर पहुंचा कि बीसीसीआई की गतिविधियां विशुद्ध रूप से व्यावसायिक हैं? उसने इसके चैरिटेबल दर्जे को समाप्त कर दिया। इसके लिए निश्चय ही पहल करने वाले आयकर अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। और इस बात की विभागीय जांच हो कि अब तक इस पर विभाग आंखें क्यों मूंदे रखा। कहीं कोई प्रलोभन या प्रभाव तो काम नहीं कर रहा था? दोषियों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए। और हां, अगर कानूनी रूप से संभव हो तो बीसीसीआई से टैक्स की वसूली आरंभ से ही की जाए। क्योंकि वह आरंभ से ही उसकी गतिविधियां व्यावसायिक ही रही हैं। फिर कोई छूट क्यों?
बीसीसीआई एक निजी चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में तमिलनाडु में निबंधित संस्था है। तब क्या यह आश्चर्य नहीं कि इसने भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे प्राप्त कर लिया? क्या सरकार ने इसके लिए बोर्ड को कोई अधिकार दिया है? जब इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) और बीसीसीआई का विवाद अदालत पहुंचा था तब बोर्ड की ओर से शपथ पत्र दाखिल कर यह कहा गया था कि वह एक निजी ट्रस्ट है। अदालत ने भी उसका संज्ञान लिया था। ऐसे में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार कैसे मिल सकता है? हमारी सरकार के पास एक पूर्णकालिक खेल मंत्रालय है। लेकिन उसका भी कोई नियंत्रण इस बोर्ड पर नहीं है। बोर्ड के संविधान के अनुसार विभिन्न राज्यों के क्रिकेट संघ बोर्ड के पदाधिकारियों का निर्वाचन करते हैं। बोर्ड उन्हें आर्थिक मदद भी करता है। पूरे देश में क्रिकेट पर बोर्ड का एकाधिकार है। शायद इसलिए कि बोर्ड ने किसी भी समानांतर संस्था को पनपने नहीं दिया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड संसार का सबसे धनी और रुतबे वाला बोर्ड माना जाता है। इसी से आकर्षित होकर बोर्ड के महत्वपूर्ण पदों पर राजनीतिकों या अन्य प्रभावशाली लोगों ने कब्जा जमा रखा है। धन पर नियंत्रण के लिए धन बल के सहारे से। बीसीसीआई के हाल तक अध्यक्ष रहे शरद पवार हों या दिल्ली क्रिकेट संघ के अरुण जेटली या फिर बिहार के लालू यादव या केंद्रीय मंत्री राजस्थान के सी.पी. जोशी हों, दूर-दूर तक इनका क्रिकेट से कोई संबंध नहीं। लेकिन भारतीय क्रिकेट के भाग्य का निर्णय इन लोगों ने अपने हाथ में रखा। अनेक मशहूर खिलाड़ी इस बात की मांग कर चुके हैं कि भारतीय क्रिकेट पर क्रिकेट खिलाडिय़ों का नियंत्रण हो। ऐसा नहीं हो पाया तो इसलिए कि ऐसी मांग करने वालों के पीछे धनशक्ति नहीं थी। लेकिन यह विडंबना तो है ही। आज भी भारतीय क्रिकेट और क्रिकेट खिलाडिय़ों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार गैर क्रिकेट खिलाडिय़ों के हाथों में है। अब चूंकि आयकर विभाग के ताजा कदम से बोर्ड का एक मुखौटा उतर चुका है, बेहतर हो कि या तो बोर्ड को सरकार अपने अधीन कर ले, या फिर नियम-कानून बनाकर पूर्व खिलाडिय़ों या क्रिकेट से जुड़ी हस्तियों के हाथों में बोर्ड का संचालन सौंप दिया जाए।
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