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Thursday, January 21, 2010

शिष्टाचार के सोनिया मायने!

वामपंथियों के साथ कांग्रेस और नेहरू परिवार का संबंध आरंभ से ही प्रेम और शत्रुता का रहा है। जब जरूरत पड़ी, मधुर संबंध को सामने रख कांगेस ने वामपंथियों का और वामपंथियों ने कांग्रेस का इस्तेमाल किया। और जब परिस्थितियों के दबाव बने तब दोनों दुश्मन के रूप में आमने-सामने खड़े भी हो गए। लेकिन जब अवसर संवेदना-शिष्टाचार का हो तब दुश्मनी को बीच में नहीं आने देना चाहिए। यह एक स्थापित परंपरा है। खेद है कि नेहरू-गांधी परिवार इस बिंदू पर कभी-कभी परंपरा से पृथक क्रूर बन जाता है। मानवीय संवेदना और शिष्टाचार के अंग-भंग को भारतीय संस्कृति स्वीकार नहीं करती। क्या यह किसी को समझाने की जरूरत है?
दिवंगत ज्योति बसु को श्रद्धांजलि देने कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी कोलकाता पहुंचीं। वहां ऐसा शिष्टाचार भूल गईं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री प्रकाश करात और उनकी पत्नी पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात को सोनिया ने पहचानने से इंकार कर दिया। उनके अभिवादन का उत्तर तो दूर, उनकी ओर देखा भी नहीं। कुछ बेशर्म बन बृंदा बार-बार उनके सामने आईं। किन्तु सोनिया ने उनके अस्तित्व से ही स्वयं को अनजान दिखाया। किसी व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद का मामला बता खारिज नहीं किया जा सकता। सोनिया गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की भी अध्यक्ष हैं। प्रकाश करात व बृंदा करात माक्र्सवादी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। संप्रग की पिछली सरकार वामपंथियों के सहयोग-समर्थन से ही चली। उसके कार्यकाल के अंतिम कुछ माह को छोड़ दें तो बगैर वामपंथियों के समर्थन के संप्रग सरकार नहीं चली सकती थी। हालांकि समर्थन के एवज में वामपंथियों ने सरकार का भरपूर दोहन-भयादोहन किया। विनिवेश के मुद्दे पर वामपंथियों ने सरकार को बार-बार झुकाया। कतिपय महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों को भी तब वामपंथियों ने प्रभावित किया था। वामपंथी सार्वजनिक रूप से ऐसा दावा करने से नहीं चूकते थे कि कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार उनकी दया की मोहताज है। लेकिन रिश्ते तब टूटे जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार का विरोध करते हुए वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार को वामदल समर्थित अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था। सरकार गिर भी जाती अगर समाजवादी पार्टी ने समर्थन नहीं दिया होता। कांग्रेस और वामदलों के बीच खटास बढ़ी और खूब बढ़ी। किन्तु क्या इस कारण सार्वजनिक रूप से शोक के अवसर पर किसी का अपमान किया जाना चाहिए? सोनिया निश्चय ही यहां अशिष्टता की अपराधी बन जाती हैं।
प्रसंगवश ऐसी अशिष्टता और घातक परिणति की एक घटना की याद मुझे आज आ रही है। 80 के दशक के आरंभिक काल की घटना है यह। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1977 की परायज के बाद 1980 की जीत ने उनमें अहंकार के साथ-साथ क्रूरता भी भर दिया था। अपने ही मंत्रियों के साथ उनका व्यवहार आपत्तिजनक हो चला था। एक बार दो कैबिनेट मंत्रियों भीष्मनारायण सिंह और केदार पांडेय ने उनसे मिलने का समय मांगा। समय दिया गया किन्तु अलग से नहीं, जनता दरबार में शामिल होकर मिलने को कहा गया। निश्चित दिन दोनों मंत्री जनता दरबार में पंक्ति में खड़े थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पंक्ति में खड़े सभी से एक-एक कर मिल रही थीं। भीष्मनारायण सिंह के अभिवादन का हाथ जोड़ कर उत्तर तो दिया लेकिन कोई बात नहीं की। बात यहीं खत्म नहीं हुई। बगल में खड़े केदार पांडेय के अभिवादन का उत्तर तो दूर उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ गईं। पांडेय को गहरा आघात लगा। कुछ-दिनों बाद हृदयाघात से उनकी मृत्यु भी हो गई। यह सवाल तब अनुत्तरित रह गया था कि अपने कैबिनेट मंत्रियों से मिलने के लिए जनता दरबार में क्यों बुलाया गया? और जब बुलाया तो फिर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित क्यों किया गया। क्या सिर्फ मानवीय क्रूरता के भौंडे प्रदर्शन के लिए?
व्यक्ति महान अपने अनुकरणीय कर्मों से बनता है। त्याग से बनता है। परस्पर प्रेम, सद्भाव से बनता है। इसके विपरीत आचरण को इतिहास कभी माफ नहीं करता।

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