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Monday, January 11, 2010

सच को स्वीकारें, परिणाम सकारात्मक मिलेंगे !

पत्रकार, चिंतक अरुण शौरी कहते हैं कि जब तक हम सच को स्वीकार नहीं करेंगे, संशोधन कैसे कर पाएंगे? शौरी यह भी कहते हैं कि अगर 'ब्यूरोक्रैट्स' और 'प्रोफेशनल्स ' एक हो जाएं, आपस में संवाद करते रहें, तब राजनीतिक और राजनीतिक व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा सकता है।
पत्रकारिता में अमूल्य योगदान कर महानायक के अवस्था में पहुंच चुके शौरी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। खोजी पत्रकारिता को सम्मानजनक स्थान दिलाने को श्रेय अरुण शौरी के खाते में हैं। मैंने हमेशा उन्हें सच और साहस की प्रतिमूर्ति के रूप में देखा है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शौरी पर तब कुछ आरोप भी लगे थे। लेकिन सत्ता की काली कोठरी में शौरी सरीखे स्पष्टवादी को राजनीति के खिलाड़ी भला बेदाग कैसे छोड़ देते! आरोप के लिए आरोप तो लगाए गए किंतु आरोपकत्र्ता कभी उन्हें प्रमाणित नहीं कर पाए। सत्ता की राजनीति को करीब से नंगा देखने वाले शौरी अब अगर राज और राजनीति पर अंकुश संबंधी सुभाव दे रहे हैं, तब उन्हें गंभीरता से लेना होगा। हां! यह दीगर है कि सच को स्वीकार कर सकने योग्य 'लुप्त प्राणी ' को कहां ढूंढा जाए? वर्तमान में सच बोलने वाले तो दो-चार मिल जाएंगे, किंतु यह विडंबना तो स्वत: रेखांकित होती है कि सच सुनने का साहस दिखाने वाला कोई सामने नहीं आता। शौरी रायसीना की जिन पहाडिय़ों के बीच बैठे हैं, वहां तो हर दिन-हर पल सच को षड्यंत्र रच बेरहमी से कुचला जाता है। सच के साथ बलात्कार की ऐसी घटनाओं की कोई शिकायत किसी थाने में दर्ज नहीं होती। उन्हें सिसकने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। और 'सच ' यह है कि ऐसे सच को दबाने के अपराधी वही 'ब्यूरोक्रैट्स ' और 'प्रोफेशनल्स ' हैं, जिन्हें एकजुट होने का आह्वान अरुण शौैरी कर रहे हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यह दोनों वर्ग भ्रष्ट हो चुका है- 'ब्यूरोक्रैट्स ' लगभग पूरी तरह और 'प्रोफेशनल्स ' आंशिक। यह सच तो सामने है। लेकिन क्या यह दोनों वर्ग संशोधन-सुधार के लिए तैयार हैं। उत्तर में तो 'ना' आएगा किंतु मुझे विश्वास है कि गुमराह के रास्ते पर कदमताल करता यह शिक्षित वर्ग संशोधन-सुधार के नाम पर ना कदापि नहीं करेगा। यह तो हमारी वह सड़ी-गली व्यवस्था है, जिसने इन्हें स्वार्थी बना भ्रष्टाचार की खाई में उतार दिया है। लेकिन इनके दिलों में मौजूद संवेदनशीलता की अनुभूति खत्म नहीं हुई है। जरूरत है इन्हें झकझोरने की। यह अहम दायित्व लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों व समाजसेवियों के उपर है। चूंकि समाज इनकी बातों पर गौर करता है, चिंतन-मनन करता है, ये आगे आएं। ये आह्वान करें अरुण शौरी द्वारा चिह्नित दोनों वर्ग का। जागृत करें उन्हें। देशद्रोही नहीं हैं वे। समाज के आह्वान को सुन वे एक दिन निश्चय ही जागृत होंगे। और जिस दिन इन दोनों में परस्पर विश्वासयुक्त संवाद स्थापित हुए, चमत्कार हो जाएगा। सभी रोगों की जड़, सड़ी-गली व्यवस्था को निरोग करने की क्षमता इसी वर्ग में है। इसलिए मैं आशावादी हूं। एक ही तो शर्त है-हमारी बिरादरी और सहयोगी ईमानदारी से संसोधन-सुधार के पक्ष में अभियान चलाएं। परिणाम शत-प्रतिशत सकारात्मक मिलेंगे। चाहें तो शर्त लगा लें।

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