क्या वाकई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुनाव में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी को लेकर चिंतित हैं? आम जन इस पर विश्वास नहीं कर सकता। इसलिए नहीं कि राजनीतिक भाषणों से लोगों का विश्वास उठ गया है, बल्कि इसलिए कि इन दोनों ने एक बार फिर आम लोगों की स्मरण शक्ति को कमजोर मान लिया है। सचमुच देश के शासक यही मानकर चलते हैं कि जनता की स्मरणशक्ति कमजोर होती है। वे मूर्ख होते हैं। शासकों की ऐसी सोच पूरे देश के लिए अपमानजनक है। निर्वाचन आयोग की हीरक जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इन दोनों 'बल' के विस्तार पर चिंता प्रकट करते हुए ऐसे लोगों को चुनाव लडऩे से रोकने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि इस पर सर्वानुमति बनाई जानी चाहिए।
सोनिया जी! इस पर सर्वानुमति बनी थी और वह भी संसद के अंदर। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर दोनों सदनों के विशेष सत्र में धनबल और बाहुबल की मौजूदगी पर पक्ष-विपक्ष सभी ने चिंता जताई थी। तभी इन पर अंकुश लगाए जाने संबंधी उपायों पर भी चर्चा हुई थी। सर्वानुमति से ऐसा संकल्प पारित हुआ था कि राजनीतिक दल चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करते समय यह सुनिश्चित करेंगे कि आपराधिक पाश्र्व वाले किसी व्यक्ति को टिकट न मिले। किंतु भारतीय संसद के अंदर पारित संकल्प कार्यवाही पुस्तिका में बंद होकर रह गया। आज संसद के बाहर सोनिया गांधी जब इसी मुद्दे पर सर्वानुमति बनाने की बात कह रही हैं तब उनसे अनुरोध है कि वे उसे पढ़ें और भारतीय गणतंत्र की इस व्याधि से मुक्ति की पहल करें। यह ठीक है कि बगैर सर्वानुमति के यह संभव नहीं है। संसद में तब सर्वानुमति बनी थी लेकिन कमजोर इच्छाशक्ति के कारण न तो कोई प्रभावी कानून बन सका और न ही राजदलों ने उनका पालन किया। निर्वाचन आयोग ने कुछ कदम उठाए अवश्य किन्तु कानूनी मकडज़ाल ने उन्हें निरस्त कर दिया। अब यह तथ्य रेखाकिंत हो चुका है कि वर्तमान कानून के अंतर्गत ऐसे तत्व चुनाव लड़ते रहेंगे और अपनी 'शक्ति' के बल पर जीतते भी रहेंगे। इनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, संसद में पारित संकल्प के अनुसार राजनीतिक दल चुनाव में ऐसे तत्वों को उम्मीदवार ही न बनाएं। इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं। जरूरत है तो दृढ़ इच्छाशक्ति की और ईमानदार, स्वच्छ राजनीति की। संसद सहित पूरे देश की विधानसभाओं में बड़ी संख्या में मौजूद आपराधिक पाश्र्व वाले सांसदों, विधायकों के कारण लोकतंत्र की मूल अवधारणा लांछित हुई है। यह एक ऐसा रोग है जिससे मुक्ति की बातें तो सभी दल करते हैं किन्तु जब बात रोकथाम की आती है, मुंह फेर लेते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र को कलंकित करने वाली इस व्याधि से स्थायी मुक्ति जरूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनीति में देश के सर्वोत्तम और उत्कृष्ट लोगों को शामिल किए जाने को बड़ी चुनौती मानते हैं तो बिल्कुल ठीक ही। धनबली और बाहुबली जब तक राजनीति के आखाड़े में गदा भांजते रहेंगे, तब तक सर्वोत्तम व उत्कृष्ट इसमें प्रवेश नहीं कर पाएंगे। चुनौती है प्रधानमंत्री को और सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी को। अगर उन्होंने ईमानदारी से इन शब्दों को उगला है, वे गंभीर हैं अपनी बातों के प्रति, तब पहले अपनी पार्टी की ओर से आदर्श प्रस्तुत करें। आज के बाद जो पहला चुनाव हो उसमें वे किसी भी धनबली, बाहुबली को उम्मीदवार न बनाएं। क्या वे इसके लिए तैयार हैं? देश तब तक प्रतीक्षा करेगा और उसी समय कथनी और करनी में फर्क की पुरानी मान्यता को वास्तविकता की कसौटी पर कसेगा।
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