सांसद विलास मुत्तेमवार, मंत्रिद्वय नितिन राऊत और शिवाजीराव मोघे, कभी विदर्भ वीर के रूप में ख्यातनाम जामवंतराव धोटे का 'सशर्त अभिनंदन कि इन्होंने विदर्भ राज्य के निर्माण के पक्ष में दहाड़ लगाई। 'सशर्त इसलिए कि आंदोलन के प्रति इनकी गंभीरता को लेकर विदर्भवासी आश्वस्त नहीं हो पाए। इस शर्त को आंदोलनकारी नेतागण चेतावनी भी समझ लें। अगर यह ताजा आंदोलन पुन: मौसमी साबित हुआ तो छल मानते हुए विदर्भवासी नेताओं को कभी क्षमा नहीं करेंगे।
विदर्भवासी गलत नहीं हैं। पूर्व के उदाहरण चुगली करते मिलेंगे कि आंदोलन के साथ दगा बार-बार नेताओं ने ही की है। फिर क्या आश्चर्य कि मोहमंग की अवस्था में पहुंचे विदर्भवासी नेताओं की गंभीरता के प्रति संदिग्ध हैं। एक समय था जब जामवंतराव धोटे की दहाड़ पर विदर्भवासी सड़कों पर निकल आया करते थे। धोटे कीनेतृत्व क्षमता और ईमानदार आंदोलन पर उन्हें विश्वास था। लेकिन कारण जो भी हो, वे भी मांद में चले गए थे। शेर की दहाड़ तो दूर बिल्ली सदृश म्याऊं भी उनके मुंह से नहीं निकली। लोग निराश हो गए। विदर्भवासियों की निराशा यह देख-सुन गहरी होती चली गई कि पृथक विदर्भ की मांग, एक अवसरवादी मांग के रूप में बदल गई। आंदोलन का मजमा तो दूर, आंदोलन शब्द ही लुप्त हो गया। नतीजतन, पृथक विदर्भ के विरोधी सक्रिय हो गए। दलील दी जाने लगी कि पृथक विदर्भ राज्य आर्थिक दृष्टि से मजबूत साबित नहीं होगा। महाराष्ट्र से अलग होकर क्षेत्र, वांछित विकास हासिल नहीं कर पाएगा। ये सारे तर्क उन लोगों द्वारा दिए गए जिनके आर्थिक हित मुंबई व पश्चिम महाराष्ट्र से जुड़े हैं। नेतृत्वविहीन आंदोलन का लाभ इन तत्वों ने पृथक विदर्भ के विरोध में भरपूर उठाया।
तथापि, यह उत्साहवर्धक है कि तेलंगाना प्रकरण के बाद विदर्भ के नेता ईमानदारी से पृथक विदर्भ के पक्ष में सक्रिय दिख रहे हैं। पक्ष-विपक्ष दोनों ने विदर्भ का मुद्दा उठा लिया है। सर्वाधिक प्रशंसनीय कदम कांग्रेस की ओर से उठे हैं। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की 'ना के बावजूद सांसद मुत्तेमवार समेत दो कैबिनेट मंत्रियों नितिन राऊत और शिवाजीराव मोघे न केवल धरना-प्रदर्शन में शामिल हुए बल्कि जरूरत पडऩे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफे की भी पेशकश कर डाली। विदर्भवासी उत्साहित हुए। लेकिन पूर्व का अनुभव 'किंतु-परंतु को समाप्त नहीं कर पा रहा है। शंका और चेतावनी कीउत्पत्ति का कारण यही है। अगर सांसद समेत क्षेत्र के मंत्रिगण अपनी घोषणा पर कायम रहते हैं, तब आज यह लिखकर दिया जा सकता है कि विदर्भ राज्य को अस्तित्व में आने से कोई नहीं रोक सकता। विदर्भवासी अब प्रतीक्षा करेंगे, अपने नेताओं के अगले कदम की। वादे को निभाने की।
4 comments:
सर, आप ठीक कह रहे कि, विदर्भ को क्रांतिकारी नेतृत्व की जरूरत हैं। लेकिन साथ मे इस नेतृत्व में नि:स्वार्थी भावना भी उतनी ही अनिवार्य है जितनी क्रांतिकारिता की। नहीं तो यह आंदोलन की दशा भी किसान आंदोलन जैसी हो जाएगी। आंदोलन शुरू हुआ, उसकी तीव्रता भी परिणामकारक थी। लेकिन सरकार की तरफ से मिले तत्कालिन 'पैकेज' ने मलहम की तरह इस किसान आंदोलन की तीव्रता को कम कर दिया। और कुछ स्वार्थी नेतृत्व, प्रलोभन, गुटबाजी, महत्त: पाने की लालसा ने इस आंदोलन की तीव्रता कम कर दी। वैसी दशा पृथक विदर्भ आंदोलन की ना हो।
मैंने आज के 'दैनिक 1857' के मुखपृष्ठ पर पृथक विदर्भ आंदोलन के बैठक में एकजूट हुए इन सब नेताओं का छायाचित्र देखा। मन में एक विचार स्पर्श कर गया कि यह नेता सही में, विदर्भ के जनता के लिए पृथक विदर्भ की मांग कर रहें, या इसमें भी इनका स्वार्थ है। क्योंकि इनकी ऐसी एकजूटता विदर्भ में सबसे अन्यायग्रस्त किसानों के आंदोलन में कभी दिखी नहीं।
अगर इन्होंने ऐसे ही एकजूट हो के किसान आंदोलन में एकजूट हो के किसान आंदोलन की तीव्रता बढ़ाई होती, तो आज किसानों के आत्महत्याओं के मामले में विदर्भ का सबसे उपर ना होता!
Prashant ne thik kaha. vidharbh k netawo ki yah akjutata kisan aatmhataya ko mudde ko lekar nahi dhikhi. ab jab telangan aandolan ki aag lagi hain to ushi aag me ye v prithak vidharbh ko bhunana chahate hain.
sanjay
Prashant ne thik kaha. vidharbh k netawo ki yah akjutata kisan aatmhataya ko mudde ko lekar nahi dhikhi. ab jab telangan aandolan ki aag lagi hain to ushi aag me ye v prithak vidharbh ko bhunana chahate hain.
sanjay
प्रशांतजी,
आपका कहना एकदम सही है। विदर्भ राज्य अब तक अगर नहीं बन पाया है तो उसका एक मात्र कारण हमारे राजनीतिकों का स्वार्थीपन है। इस बार अगर इन लोगों ने गड़बड़ी की तो देखियेगा, इनकी क्या हालत होती है।
अंजीव
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