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Thursday, February 11, 2010

लोकतंत्र को धमकी तंत्र की खतरनाक चुनौती!

मुंबई को आग में झुलसाने से बचाना है तो अशोक चव्हाण जन हितैषी, राष्ट्र हितैषी और प्रदेश हितैषी मुख्यमंत्री बन जाएं। अवसर उनके सामने खड़ा है। चूके तो अनेक नकारात्मक, असहज विशेषणों के साथ इतिहास के कुछ काले पन्नों में वे कैद कर दिए जाएंगे। फैसला कर लें- इस पार या उस पार।
धमकी से आगे बढ़ मुंबई में कोहराम मचाने के षडय़ंत्र को शिवसेना ने अंजाम देना शुरू कर दिया है। एक अत्यंत ही खतरनाक षडय़ंत्र। जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता के जहर से बुझे तीर चलाने का षडय़ंत्र रचा गया है। अगर ये षडय़ंत्रकारी सफल हो गए तब मुंबई सिर्फ आग में झुलसेगी ही नहीं, खून से नहा भी जाएगी। षडय़ंत्र में शामिल होने से भारतीय जनता पार्टी के इन्कार के बाद बाल ठाकरे एवं उनके साथी चोट खाए नाग की तरह फुफकार रहे हैं। दूध के नए कटोरों की तलाश भी कर रहे हैं। इसके पहले कि यह फन काढ़ कर मुंबई एवं आसपास की सड़कों पर डसने के लिए निकलें, इनके फन को कुचल दिया जाए। यह जिम्मेदारी अशोक चव्हाण पर है। पढऩे-सुनने में शायद यह अभी असहज लगे लेकिन निश्चय मानिए, ये राष्ट्रहित विरोधी तत्व मुंबई में 1992-93 के दंगों की पुनरावृत्ति चाहते हैं। इस पर बहाना इन्होंने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को बनाया है।
बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे ने आखिर यह क्यों कहा कि शासकीय सुरक्षा की जरूरत उन्हें नहीं, गिरफ्तार आतंकवादी कसाब को है। एक मजहब विशेष को निशाने पर लेकर शिवसेना का नया अभियान कसाब से शुरू होकर शाहरुख खान पर क्यों खत्म हो रहा है? न तो मैं बाल की खाल निकाल रहा हूं और न ही तिल का ताड़ बना रहा हूं। महाराष्ट्र को राष्ट्र से अलग करने की साजिशकर्ताओं के मुख से शब्द ही ऐसे निकल रहे हैं। क्रोध में, आवेश में उगले शब्द वस्तुत: व्यक्ति के अंदर छुपा सच ही होता है। संजय राऊत शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' के संपादक हैं, राज्यसभा के सदस्य हैं और बाल ठाकरे के प्रवक्ता भी हैं। शाहरुख खान पर प्रहार करते हुए संजय राऊत जब यह ऐलान करते हैं कि 'कोहराम तो अब मचेगा', तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। पिछले कुछ दिनों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में शिवसैनिकों द्वारा जारी तोडफ़ोड़ क्या राऊत घोषित 'कोहराम' का अभ्यास नहीं? 1992-93 में भी तो कोहराम ही मचा था। उस समय तो मुद्दा एक बाबरी मस्जिद विध्वंस का था। 1992-93 के उत्पातियों ने इस बार तो क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को मुद्दा बना लिया है। सभी के सभी मुद्दे राष्ट्र विरोधी! हित किसी का नहीं, सिर्फ अहित ही अहित। स्वयं मुंबई और महान महाराष्ट्र का अहित। क्या इसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए? फैसला जनता को करना है, मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को करना है।
मुख्यमंत्री जागें। संविधान से इतर समानांतर सत्ता चलाने वालों को उनकी औकात बताना शासन का धर्म है। शिवसेना तो अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लुप्त हो रहे बाल ठाकरे के आभा मंडल में शेष चमक के द्वारा लोकतंत्र के मुकाबले धमकी तंत्र को खड़ा किया जा रहा है। पागल हैं ये षडय़ंत्रकारी! उन्होंने यह कैसे समझ लिया कि लोकतंत्र के 200 करोड़ हाथों को कुछ सौ-हजार दागदार हाथ चुनौती दे पाएंगे? भारत के लोकतंत्र की नींव अत्यंत ही मजबूत है। और लोकतंत्र की बुनियाद को रेखांकित 1942 में इसी मुंबई शहर में किया गया था जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 'अंगे्रजों भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया था। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करा लोकतंत्र स्थापना की पहल करने वाले मुंबई को अलगाववाद के सहारे आग में झोंकने की कोशिश कोई न करे। अनेक मायनों में मुंबई भारत का सिरमौर है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने बिल्कुल ठीक कहा है कि मुंबई की रक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। मुख्यमंत्री चव्हाण देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र के पक्ष में नीडर हो कानून का डंडा चलाएं। वे पाएंगे कि सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश की जनता उनके पीछे खड़ी है।

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

जब राजनिति अपने फायदे या नुकसान के आधार पर की जाती हो तो किसी प्रकार की उम्मीद बाँधना नासमझी है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

लेख हमेशा की तरह अच्छा और प्रभावशाली. आपत्ति बाबरी मस्जिद शब्द के प्रयोग पर. हमारे घर में कोई जबरदस्ती कब्जा कर उसे तोड़ कर अपना निर्माण कर ले तो उसे हटाना हमारा फर्ज है.

Anonymous said...

RAJNITI KI EK BAAT JAROOR HAI KE USUALLY YAH ANTI SOCIAL ELEMENTS KE SATH GATHBANDHAN JAROOR HAI ISI KO ATANK VAD KAHTE HAIN