कभी 'मातोश्री' (ठाकरे आवास) के लिए 'व्यवस्था' करने-देखने वाले नारायण राणे अब जब यह कह रहे हैं कि आज मुंबई में जो हंगामा मचाया जा रहा है वह सिर्फ 'मातोश्री' में 'ब्रेड-बटर' के इंतजाम के लिए, तब क्या इस रहस्योद्ïघाटन को कोई चुनौती दे सकता है? राणे महाराष्ट्र के 'शिवसैनिक मुख्यमंत्री' रह चुके हैं। बाल ठाकरे के विश्वस्त थे, दाहिने हाथ माने जाते थे। उनके शब्दों को झुठलाया नहीं जा सकता। साफ है, यही मुंबई कोहराम का सच है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि एक ठाकरे परिवार अपनी दुकानदारी चलाने के लिए मुंबई में आतंक का पर्याय बन बैठा है! मुखौटा उसने राजनीति का, हिन्दुत्व का और मराठी माणुस का लगा रखा है। मध्यप्रदेश से मुंबई आकर बसे इस ठाकरे परिवार ने कुछ स्थानीय बेरोजगारों-हुड़दंगबाजों को बरगलाकर दहशत और गुंडागर्दी का साम्राज्य कायम कर लिया। हिन्दुत्व के नाम पर आदर्श-सिद्धांत दिखावे के। 'ब्रेड-बटर' के जुगाड़ के लिए सब कुछ अवसरवादी। बिल्कुल हिन्दी फिल्मों की पटकथाओं का अनुसरण करते हुए मुंबई को 'गैंगलैण्ड' में बदल डाला है। डेमोक्रेसी का अर्थ इन्होंने 'दे मोको राशि' बना डाला है। नारायण राणे ने इसी की पुष्टि की है। अब चुनौती यह कि क्या मुंबई को इनके रहमोकरम पर छोड़ दिया जाना चाहिए?
चूंकि मामला 'ब्रेड-बटर' अर्थात्ï 'वसूली' का है, अपने हिस्से की राशि में इजाफे के लिए भतीजे राज ठाकरे ने बाल ठाकरे को नंगा करना शुरू कर दिया तो क्या आश्चर्य। हिन्दी फिल्मों के 'गैंगस्टर' परिवार में यही सबकुछ तो होता है। अपने लाभ के लिए भाई भाई को, बाप बेटा को, बेटा बाप को नंगा करता है, पीठ में छुरा घोंपता है। परिवार से अलग होकर राज ठाकरे ऐसा ही करते रहे हैं। शाहरुख खान को लेकर उभरे ताजा हंगामे में बाल ठाकरे की शिवसेना को लाभान्वित होते देख भला राज ठाकरे चुप कैसे बैठते? जयचंद व विभीषण की भूमिका में आ गए। बाल ठाकरे को नंगा कर डाला। उन्होंने बिल्कुल ठीक ही सवाल किया है कि जब शाहरुख खान के पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के बारे में बोलने पर शिवसेना हिंसक विरोध कर रही है, माफी मांगने की मांग कर रही है, तब अमिताभ बच्चन को क्यों बख्शा गया? अभी कुछ दिनों पूर्व ही तो अमिताभ बच्चन मुंबई में एक कार्यक्रम में मंच पर पाकिस्तानी कलाकारों के साथ शिरकत कर रहे थे! शिवसेना ने उन पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध क्यों नहीं किया? अमिताभ बच्चन से माफी क्यों नहीं मंगवाई गई? जबकि वे पाकिस्तानी कलाकारों के साथ गलबहिया कर रहे थे? राज के अनुसार शिवसेना का शाहरुख विरोध एक स्टंट मात्र है। क्या बाल ठाकरे इस आरोप को गलत साबित कर पाएंगे? तर्क के सहारे तो कदापि नहीं। ये वही बाल ठाकरे हैं जिन्होंने 90 के दशक में नरगिस पुत्र संजय दत्त की फिल्मों का विरोध किया था। शिवसैनिकों ने उनकी फिल्मों के पोस्टर-बैनर फाड़ डाले थे। सिर्फ इसलिए तो नहीं कि संजय की मां नरगिस एक मुस्लिम थीं? बाद में एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता-नेता के हस्तक्षेप करने पर ठाकरे ने संजय को बख्श दिया था। तथापि ठाकरे की सांप्रदायिक सोच तो प्रकट हो ही चुकी थी। ठाकरे ने फिर इतिहास को दोहराया है। लेकिन इस मुकाम पर कानून-व्यवस्था की जिम्मेदार महाराष्ट्र सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा कि उसके शासन में समानांतर गुंडा राज कैसे चल रहा है? क्यों और कैसे पनपने दिया गया ऐसे 'राज' को? शाहरुख संबंधी ताजे मामले में शासन की विफलता से अनेक संदेह जन्म ले रहे हैं। जब सरकार की ओर से आम जनता को भरोसा दिलाया गया था कि शाहरुख की फिल्म रिलीज होगी और आम जनता को पूरी सुरक्षा दी जाएगी तब अब सरकार असहाय क्यों दिख रही है? शरद पवार की तरह झुकते हुए अब सरकार यह क्यों कह रही है कि शाहरुख और ठाकरे परिवार मिलकर मामले को सुलझा लें? क्या यह समानांतर गुंडा राज की शासकीय स्वीकृति नहीं है? लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिसिया बंदोबस्त तो तगड़ा किया गया किन्तु थिएटर के मालिकों को आश्वस्त सरकार क्यों नहीं कर पाई? उनमें से अधिकांश ने फिल्म के प्रदर्शन से स्वयं को अलग कैसे कर लिया? लोगों के मन से खौफ दूर क्यों नहीं हुआ? क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? गुंडाराज के सामने सरकार का आत्मसमर्पण है यह। यह अवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। अगर तत्काल इस पर अंकुश नहीं लगा तब आने वाले दिनों में स्वयं लोकतंत्र अपनी पहचान के लिए हाथ-पांव मारता दिखेगा।
चूंकि मामला 'ब्रेड-बटर' अर्थात्ï 'वसूली' का है, अपने हिस्से की राशि में इजाफे के लिए भतीजे राज ठाकरे ने बाल ठाकरे को नंगा करना शुरू कर दिया तो क्या आश्चर्य। हिन्दी फिल्मों के 'गैंगस्टर' परिवार में यही सबकुछ तो होता है। अपने लाभ के लिए भाई भाई को, बाप बेटा को, बेटा बाप को नंगा करता है, पीठ में छुरा घोंपता है। परिवार से अलग होकर राज ठाकरे ऐसा ही करते रहे हैं। शाहरुख खान को लेकर उभरे ताजा हंगामे में बाल ठाकरे की शिवसेना को लाभान्वित होते देख भला राज ठाकरे चुप कैसे बैठते? जयचंद व विभीषण की भूमिका में आ गए। बाल ठाकरे को नंगा कर डाला। उन्होंने बिल्कुल ठीक ही सवाल किया है कि जब शाहरुख खान के पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के बारे में बोलने पर शिवसेना हिंसक विरोध कर रही है, माफी मांगने की मांग कर रही है, तब अमिताभ बच्चन को क्यों बख्शा गया? अभी कुछ दिनों पूर्व ही तो अमिताभ बच्चन मुंबई में एक कार्यक्रम में मंच पर पाकिस्तानी कलाकारों के साथ शिरकत कर रहे थे! शिवसेना ने उन पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध क्यों नहीं किया? अमिताभ बच्चन से माफी क्यों नहीं मंगवाई गई? जबकि वे पाकिस्तानी कलाकारों के साथ गलबहिया कर रहे थे? राज के अनुसार शिवसेना का शाहरुख विरोध एक स्टंट मात्र है। क्या बाल ठाकरे इस आरोप को गलत साबित कर पाएंगे? तर्क के सहारे तो कदापि नहीं। ये वही बाल ठाकरे हैं जिन्होंने 90 के दशक में नरगिस पुत्र संजय दत्त की फिल्मों का विरोध किया था। शिवसैनिकों ने उनकी फिल्मों के पोस्टर-बैनर फाड़ डाले थे। सिर्फ इसलिए तो नहीं कि संजय की मां नरगिस एक मुस्लिम थीं? बाद में एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता-नेता के हस्तक्षेप करने पर ठाकरे ने संजय को बख्श दिया था। तथापि ठाकरे की सांप्रदायिक सोच तो प्रकट हो ही चुकी थी। ठाकरे ने फिर इतिहास को दोहराया है। लेकिन इस मुकाम पर कानून-व्यवस्था की जिम्मेदार महाराष्ट्र सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा कि उसके शासन में समानांतर गुंडा राज कैसे चल रहा है? क्यों और कैसे पनपने दिया गया ऐसे 'राज' को? शाहरुख संबंधी ताजे मामले में शासन की विफलता से अनेक संदेह जन्म ले रहे हैं। जब सरकार की ओर से आम जनता को भरोसा दिलाया गया था कि शाहरुख की फिल्म रिलीज होगी और आम जनता को पूरी सुरक्षा दी जाएगी तब अब सरकार असहाय क्यों दिख रही है? शरद पवार की तरह झुकते हुए अब सरकार यह क्यों कह रही है कि शाहरुख और ठाकरे परिवार मिलकर मामले को सुलझा लें? क्या यह समानांतर गुंडा राज की शासकीय स्वीकृति नहीं है? लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिसिया बंदोबस्त तो तगड़ा किया गया किन्तु थिएटर के मालिकों को आश्वस्त सरकार क्यों नहीं कर पाई? उनमें से अधिकांश ने फिल्म के प्रदर्शन से स्वयं को अलग कैसे कर लिया? लोगों के मन से खौफ दूर क्यों नहीं हुआ? क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? गुंडाराज के सामने सरकार का आत्मसमर्पण है यह। यह अवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। अगर तत्काल इस पर अंकुश नहीं लगा तब आने वाले दिनों में स्वयं लोकतंत्र अपनी पहचान के लिए हाथ-पांव मारता दिखेगा।
3 comments:
आपकी बात ठीक है. लेकिन वोट बैंक के लिये जायज-नाजायज सारे काम तो कांग्रेस भी करती है और अन्य पार्टियां भी. बस उनका उतना मुखर विरोध नहीं होता. और हिन्दी तथा हिन्दी भाषियों के साथ यह दुर्गति तो दक्षिण में भी हो चुकी है. हर कोई अपनी सत्ता की दुकान बढ़िया ढ़ंग से चलाना चाहता है जिसके लिये हर एक फार्मूला अपनाता है. लेकिन इस सब के बीच मूल मुद्दा वही है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के हमदर्द बनकर शाहरुख क्या जतलाना चाहते थे और पिछले तिरेसठ सालों से क्रिकेट खेलकर कौन सी शांति भारत में आ गयी जो न खेलने से चली जायेगी.
भारतीय नागरिक से सहमत हूं… जब तक आलोचना का पैटर्न दोमुहां रहेगा… तब तक ऐसे मामलों में संदेह की सुई पत्रकारों और सेकुलरों पर टिकी रहेगी…। राज ठाकरे भले ही कितनी भी बकवास करते हों अमिताभ बच्चन वाली बात सही कही है… कि टाइम्स समूह की "अमन की आशा" नौटंकी में शामिल हुए अमिताभ बच्चन को शिवसेना द्वारा क्यों बख्शा गया? मीडिया ने सेना विरोधी आंधी में यह मूल मुद्दा दबा दिया कि शाहरुख ने पाकिस्तान के खिलाड़ियों को क्यों नहीं खरीदा? मीडिया के इस दोगले रुख की क्या वजह है? शाहरुख खान से मिला हुआ पैसा, या 5M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, मार्केट) का दबाव??
अच्छा और सही लिखा है. शेष चिपलुनकरजी ने अपनी टिप्पणी में लिख दिया है. वास्तव में लड़ाई सेना बनाम सेना व खान बनाम खान की है.
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