भारत के अटार्नी जनरल रह चुके सुविख्यात विधिवेत्ता सोली सोराबजी ने तो सार्वजनिक रूप से कह डाला कि वे रो पड़े थे। लेकिन वास्तव में तब देश का लोकतंत्र रो पड़ा था। गांधी, नेहरू, प्रसाद, पटेल, आंबेडकर, बोस, आजाद, किदवई की आत्माएं रो पड़ी थी। लोकतंत्र को कैद कर न्यायपालिका को 'आज्ञाकारी सेवक ' जो बना डाला गया था। हालांकि सोली सोराबजी ने एक 35 वर्ष पुराने संदर्भ को प्रस्तुत किया है, लेकिन है आज भी प्रासंगिक। न्याय और न्यायपालिका से जुड़े एक अत्यंत ही मार्मिक व गंभीर प्रसंग की याद की गई है। पिछले दिन न्यायिक स्वतंत्रता पर नई दिल्ली में एक व्याख्यान के दौरान सोली सोराबजी ने भावुक होकर बताया कि आपातकाल के दौरान एक अन्य सुविख्यात विधिवेत्ता नानी पालखीवाला के साथ सर्वोच्च न्यायालय में 'हेवियस कार्पस' याचिका (बंदी को अदालत में पेश करने संबंधी याचिका) पर बहस करते हुए जब उन्होंने पाया कि न्यायमूर्ति वाई.वी.चंद्रचुड़ और न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती जैसे विख्यात जजों ने अपनी आत्मा को बेच दिया है, तब वे रो पड़े थे। चंद्रचुड़ और भगवती बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए।
हालांकि यह पहला अवसर है जब सार्वजनिक रूप से भारत के दो न्यायाधीशों के उपर सरकारी दबाव के चलते अपनी आत्मा बेच देने के आरोप लगे हैं, लेकिन इस प्रसंग की चर्चा तब भी हुई थी। आज जब न्याय और न्यायपालिका सीमित रूप में ही सही विश्वसनीयता के संकट के एक दु:खद दौर से गुजर रही है, सोली सोराबजी के रहस्योद्घाटन से बहस का एक नया दौर शुरू हो चुका है। आम जनता घबराहट में है, सशंकित है। न्याय के प्रति उसके मन में एक नया भय पैदा हो गया है। वह भयभीत है कि जब भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर पहुंचे व्यक्ति अपनी आत्मा बेच सकते हैं, तब अन्य पर कैसे विश्वास किया जाए? बात कथनी और करनी का भी है। मुझे आज भी न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती के उन शब्दों की याद आ रही है, जो उन्होंने 26 नवंबर 1985 को विधिदिवस के अवसर पर अपने भाषण के दौरान कहे थे। तब उन्होंने कहा था 'मुझे यह देखकर बहुत पीड़ा हुई है कि न्यायिक प्रणाली करीब- करीब ढहने की कगार पर है। ये बहुत कठोर शब्द हैं जो मैं इस्तेमाल कर रहा हूॅं। लेकिन बहुत ही व्यथित होकर मैंने ऐसा कहा है।' इन शब्दों में कहीं ग्लानि है? ये शब्द तो देश को भुलावे में रखने वाले सरमन मात्र हैं। खुशी होती अगर वे 'अपराध' को स्वीकार कर जनता की अदालत से अपने लिए दंड मांगते। वे ऐसा नहीं कर पाए तो नैतिकता के अभाव के कारण। मेरे ये शब्द कठोर हो सकते हैं, किंतु ये जनता की सोच की अभिव्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार और पक्षपात संबंधी अनेक आरोपों से गुजर रही वर्तमान न्यायपालिका को स्वच्छ-पवित्र करने के उपाय किए जाने चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी दोनों साथ- साथ चलने चाहिए। न्यायिक स्वतंत्रता का अर्थ जवाबदेही से आजादी नहीं हो सकती। सोराबजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे सुनिश्चित कौन करे? संविधान की बात करें तो विधायिका और कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका लोकतंत्र का एक स्तंभ है। इसकी स्वतंत्रता की बातें तो की जाती है, लेकिन व्यवस्था का ताना- बाना ऐसा कि सत्ता के दबाव- प्रलोभन से यह पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। जजों की नियुक्ति और अवकाश प्राप्ति के बाद नए आकर्षक अनुबंध का अधिकार शासकों के हाथों में है। जजों के विरूध्द भ्रष्टाचार के जांच का भी अधिकार कार्यपालिका के पास है। इस व्यवस्था में संशोधन होना चाहिए। भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जिम्मेदारी कार्यपालिका या अधिवक्ताओं के हाथों में न देकर स्वच्छ छवि वाले वर्तमान और पूर्व वैसे जजों को दिया जाना चाहिए, जिन पर जनता का विश्वास हो। सोराबजी ने बिल्ली को थैले से बाहर निकाल लिया है, अब जरूरत है उन हाथों की जो उसके गले में घंटी बांध सके। प्रतीक्षा रहेगी पहल करने वाले हाथों की।
5 comments:
aaam aadmi to nyaya ke liye lagaataar ro hee raha hai khaas log kabhee kabhaar ro bhee le to kya
लोकतंत्र को कैद कर न्यायपालिका को 'आज्ञाकारी सेवक ' जो बना डाला गया थाnice
क्या न्याय अब सुलभ हो गया है? यह ऐसा शब्द है जो शायद वकीलों को ही अधिक अच्छा लगता होगा. हमारे देश में तो न्यायपालिका और इनके कामकाज पर कुछ न कहना ही श्रेयस्कर है.
न्याय पालिका सदैव से सत्ता का अंग रही है। जब तक सत्ता रहेगी वह पूर्ण स्वतंत्र हो ही नहीं सकती। लेकिन अब तो सत्ता ने न्यायपालिका में कतरब्योंत आरंभ कर दी है। हमारी न्यायपालिका की साइज जरूरत की चौथाई भी नहीं रही है। इसी से सत्ता के न्यायपालिका के प्रति आशय स्पष्ट हैं।
kachhri me roj rote dekhte hai.
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