राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के मुख से ये क्या कहवा डाला भारत सरकार ने! कमरतोड़ महंगाई का महिमा मंडन! यह तो महंगाई की मार से विलाप कर रही देश की जनता का अपमान है, जले पर नमक छिड़कने सदृश कृत्य है यह। बहादुरी से अपनी गलतियों को स्वीकारकर जनता से क्षमा मांगने की जगह संसद में राष्ट्रपति से यह कहलवाना कि महंगाई सर्वांगीण विकास की सूचक है और यह भी कि महंगाई बढ़ी लेकिन किसानों का फायदा हुआ, भला किसी के गले उतरेगा? सरकार की अर्थनीति की विफलता का ऐसा बचाव हास्यास्पद है। देश की विद्या-बुद्धि को चुनौती है। जनता की सोच की अवमानना है। देश के अनेक क्षेत्रों में विकास दृष्टिगोचर तो है किन्तु इसकी आड़ में महंगाई पर परदा कैसे डाला जा सकता है? और फिर यह कैसा विकास कि आम जनता को दो रोटी के लाले पड़ जाएं? खाद्य वस्तुएं आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएं? गृहिणियां रसोईघर में खाली डब्बों को निहार रोने को मजबूर हो जाएं? आम जन महंगी चिकित्सा के कारण बेइलाज मौत को विवश हो जाएं? खाली जेब के कारण पालक अपने बच्चों को अपेक्षित शिक्षा उपलब्ध न करा पाएं? तन ढंकने के कपड़ों के लाले पड़ जाएं? सिर छुपाने के लिए छत पहुंच से बाहर हो जाए? यहां मैं समाज के उस विशिष्ट वर्ग की बात नहीं कर रहा जो सरकार की अर्थनीति के कारण धन बटोरने में मशगूल है। महानगरों की चकाचौंध, सड़कों पर दौड़ती आलिशान गाडिय़ां, सितारेयुक्त होटलों में फैशन परेड, छलकते जाम और अमीरी प्रदर्शन की होड़! ये सब असली भारत की तस्वीरें नहीं हैं। असली भारत के दर्शन छोटे शहरों, कस्बों, दूरदराज की बस्तियों में ही नहीं, एक विडंबना के रूप में महानगरों में भी किए जा सकते हैं- उपर्युक्त विशिष्ट आभा से पृथक। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई की चकाचौंध के बीचोबीच झोपड़पट्टियों में मौजूद भारत के दर्शन कोई भी कर सकता है। खाने के लिए जूठन, तन ढंकने के लिए फटे कपड़े, झोपड़पट्टियों से होकर गुजरते नालों की सड़ांध, रोशनी के नाम पर अंधेरा, ये सब महानगरों की आलिशान इमारतों के साथ-साथ। इन झोपड़पट्टियों में पैदा बच्चों के लिए शिक्षा कोसों दूर। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि ऐसे बच्चे अपराध की दुनिया में जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं? आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी भी एक वर्ग विशेष को ही राहत पहुंचाती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली भारत की जनता की सुध यह विशिष्ट वर्ग सिर्फ आम चुनाव के समय लेता है। शोषित-पीडि़त जनता क्षणिक राहत को आंसुओं के साथ स्वीकार करती है। क्या ये ही सर्वांगीण विकास के नमूने हैं?
सरकार का यह दावा कि महंगाई बढऩे से किसानों का फायदा हुआ है, महंगाई से पीडि़त आम जनता का ही नहीं, स्वयं किसानों का भी अपमान है। अगर किसानों को फायदा पहुंच रहा होता तो फिर देश में किसान आत्महत्या क्यों करते? जिन किसानों ने अपने प्राण गंवाए, उनके परिवार की हालत को देखें। सरकार व कुछ निजी संस्थाओं से मिली सहायता को अगर सरकार 'फायदाÓ समझती है तब ऐसी संवेदनाशून्य सरकार को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि महंगाई से फायदा किसानों को नहीं बल्कि कृषि माफियाओं को हुआ है। उन बड़े, सुखी- संपन्न किसानों को हुआ है जो जमाखोरी व कालाबाजारी के माध्यम से मालामाल होते हैं। कर्ज के बोझ से दबा हुआ आम किसान महंगाई के अतिरिक्त बोझ को सहने में असमर्थ है। किसान आत्महत्या की दर में वृद्धि इसका प्रमाण है। सरकार अगर आम जनता के जले की मरहम पट्टी नहीं कर सकती तो उस पर नमक तो न छिड़के!
2 comments:
क्या कर रहे हैं आप. देश तरक्की की राह पर है और जल रहे हैं आप. किसान लखपती-करोड़पती हो गये और भुन रहे हैं आप. न माने तो अफसर-कम-किसान, नेता-कम-किसान के आयकर रिटर्न देख लें उठाकर. मंहगाई है इसका मतलब है कि हम मंहगा खाने के काबिल हैं, खरीदने के काबिल हैं, इसका मतलब क्रय शक्ति बढ़ी है. इसका मतलब हम अमीर हो गये. किसानों देखो, एक दिन में अमीर कैसे हुआ जाता है, सीखो.
vinod ji, aaj achanak aapke blog par nazar gai. sahasa yakeen hi nahi hua. khai, behad khushi hui. fauran aapke blog ka anusaran kar liya. aapke vicharo ko parhataa rahoonga ub..badhai..
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