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Sunday, August 19, 2012

कोयला, कोयला, तू कितना काला?


चलो अब काले कोयला के बाद सीधे प्रधानमंत्री से भी पूछ लें '...मनमोहनजी, मनमोहनजी, आप कितने सफेद? कितने पाक, कितने साफ ? कोयला तो काला है। अब आपको अपनी सफेदी का प्रमाण देना होगा। स्वयं को पाक - साफ साबित करने के लिए प्रधानमंत्री को ही सामने आना पड़ेगा, क्योंकि आरोप देश के मुखिया पर है। मुखिया को हर हाल में स्वच्छ -पवित्र रहना ही होगा। अब देखना है कि प्रधानमंत्री में कितना नैतिक बल है। या तो वे स्वयं को निर्दोष साबित करेंगे या फिर 2जी के आरोपी ए. राजा की पंक्ति में खड़े कर दिए जाएंगे। और तब न्याय जनता करेगी।
मुखिया के संदर्भ में मुझे आपातकाल के दिनों की एक घटना की याद आ रही है। कांग्रेस के एक लेखक-पत्रकार सांसद शंकर दयाल सिंह के गांव देव (औरंगाबाद बिहार) में एक समारोह आयोजित था। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम मुख्य अतिथि के रुप मे मौजूद थे। अपने संबोधन में तब जगजीवन राम ने 'मुखिया' की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा था कि '...मुखिया पूरे गांव का अभिभावक होता है। वह सुबह-शाम गांव का चक्कर लगा सुनिश्चित करता है कि सभी घरों में चुल्हा जला की नही। उसके बाद ही मुखिया मुख में अन्न का दाना डालता है। ....लेकिन अगर मुखिया का मुख ही चोर हो जाए तो तब क्या होगा... मुख अन्न के कुछ दानों को चुराकर दबा लेगा। लेकिन बाद में वे दाने सड़कर दुर्गंध देने लगते हैं। मुखिया का पूरा मुख दुर्गंध देने लगता है। मुखिया चोर साबित हो जाता है। .... आज देश की हालत ऐसी ही हो गई है। मुखिया ही चोर नजर आ रहा है। ' मुखिया से जगजीवन राम का आशय स्पष्ट था। यह दोहराना ही होगा कि जगजीवन राम ने तब कांग्रेस और सरकार छोड़ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को समर्थन दे दिया था। 1977 जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब जगजीवन राम उपप्रधान मंत्री बनाए गये थे। आज जब देश के मुखिया को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी निश्चय ही मुखिया पर ही है।
ऐसे में सवाल यह भी की व्यक्तिगत रूप से ईमानदार अगर किसी व्यक्ति के अधीन, दूसरे शब्दों में उसकी छत्रछाया में, भ्रष्टाचार अपनी जडं़े फैलाता जाए तो क्या उस व्यक्ति को भ्रष्ट मुक्त करार दिया जा सकता है? शायद नहीं! उस व्यक्ति को 'क्लीनचिट' दिये जाने की हालत में भ्रष्टाचार की परिभाषा बदलनी होगी। इस पाश्र्व में 'ईमानदार' प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कोई 'क्लीनचिट' कैसे देगा? कोयला मंत्रायल का अतिरिक्त प्रभार संभालने की अवधि में उनके द्वारा खदानों के आबंटन पर सवालिया निशान लगाते हुए भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अनियमितता और पक्षपात के गंभीर आरोप लगाए हैं। उनकी रिपोर्ट के अनुसार मनमोहन सिंह के फैसलों के कारण सरकार को 1.86 लाख करोड़ की हानि हुई। 'कोयले की दलाली में हाथ काला' की पुरानी कहावत के जानकार पुष्टि करेंगे कि कोयला का पूरा का पूरा व्यापार, खदान आबंटन से लेकर विपणन तक भ्रष्टाचार के साये में होता है। विवादास्पद आबंटन के मामले में साफ-सुथरी प्रक्रिया और पारदर्शिता की दुहाई देने वाले कुतर्क दे रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। खदानों की नीलामी की अनुशंसा को दरकिनार कर सीधे आबंटन की प्रक्रिया वर्तमान व्यवस्था के अंदर भ्रष्टाचार मुक्त हो ही नहीं सकती। सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था ऐसा होने नहीं देगी। कोयला मंत्रालय द्वारा खदानों के आबंटन में जो प्रक्रिया अपनाई गई थी, उसमें अधिकारियों से लेकर आवदेकों तक की चांदी रही। रातों रात करोड़पति-अरबपति बन जाने वाले राजनीतिक भी अपने थैलों को वजनी बनाते गए। जिन दिनों पावर प्लांट, सीमेंट, स्टील उद्योगों के नाम पर कोयला खदानों के आबंटन के लिए कोयला खदानों को लेने की धूम मची थी, राजधानी दिल्ली के पांच सितारा होटलों की लॉबियों में दलालों की बैठकें  आम थी। दलाल कोई टूटपूंजीये नहीं थे। कोल इंडिया व उसकी अनुषंगी कम्पनियों के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष और निदेशक गणों के साथ-साथ बड़े राजनेता भी शामिल थे। उच्चाधिकारियों तक उनकी सीधी पहुंच और आबंटन प्रक्रिया संबंधी पूरी जानकारी होने के कारण ये अपने 'ग्राहकों' के पक्ष में फैसले करवाने में सक्षम थे। जाहिर है सब कुछ 'धन लाभ' के लिए किया जाता था। कोयला खदानों की लूट हुई और खूब हुई- नियमों को ताक पर रख कर या फिर उनमें ढील देकर। खदानों का आबंटन अपने पाले में करवाने वाले अगर मालामाल हो रहे थे तो संबंधित अधिकारियों-नेताओं की भी चांदी थी। फिर क्या आश्चर्य कि सरकारी खजाने को लाखो-करोड़ों से वंचित होना पड़ा। ऐसे में कोयला मंत्री के रुप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिम्मेदारी से बच कैसे सकते है? स्वयं प्रशासनिक अधिकारी रह चुके मनमोहन सिंह को 'लूट' की भनक नहीं लगी हो, इस पर कोई विश्वास कैसे करेगा। एक कुशल अनुभवी प्रशासक तो किसी संचिका में लिखी पहली पंक्ति को पढ़कर ही आशय-नीयत-मंशा को भाप लेता है। फिर मनमोहन सिंह कैसे चूक गए। साफ है कि 'ईमानदार मनमोहन' ने किसी दबाव या मजबूरी में आखें मूंद रखी होगी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अन्य घोटाला प्रधानमंत्री कार्यालय की आपराधिक उदासीनता सामने आ चुकी है। कोयला खदान आबंटन में भी निश्चय ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय कुछ खास लोगों को लाभ पहुंचाने की दिशा में अगर मौन रहा तो कहीं किन्ही अन्य कारणों से।  मनमोहन सिंह के घोर आलोचक भी 'धन लाभ' के बदले किसी को उपकृत करने का आरोप उनपर नहीं लगा सकते। लेकिन जब उनकी छत्रछाया में हजारों लाखों करोड़ का ऐसा घोटाला हुआ है तब प्रधानमंत्री कुछ और नहीं तो नैतिक रूप से जिम्मेदार तो हैं ही। उन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेनी होगी। विपक्ष अगर इस्तीफे की मांग कर रहा है तो इसके गलत क्या है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर अपनी सार्वजनिक छवि को पाक-साफ रखना चाहते हंै तो न केवल वे पद से इस्तीफा दें बल्कि उन अनजान दबावों और मजबूरी का भी खुलासा कर दें, जिनके कारण उनके चेहरे पर कालिख लगी है।

Saturday, August 18, 2012

न्यायपालिका का 'सच', ममता की चुनौती!



सत्य के धरातल पर सही होने के बावजूद ममता बनर्जी की टिप्पणी पर बवाल क्यों? क्या कहा था बंगाल की बाघिन, तेज-तर्रार ममता बनर्जी ने? यही न कि इन दिनों अदालतों में फैसले खरीदे जा सकते हैं! बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि उनका आशय पूरी की पूरी न्यायपालिका और सभी वकीलों से नहीं था। फिर बनर्जी ने गलत क्या कहा? क्या यह सच नहीं है कि अनेक न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं,मामले दायर किये गए हंै, जांच हो रही है? निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक आरोपों के घेरे में है? न्याय की मूल अवधारणा कि 'न्याय न केवल हो, बल्कि होता हुए दिखे भी' के विपरीत फैसले नही आ रहे हंै? और तो और, सर्वोच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने तो एक महत्वपूर्ण मामले में यहां तक टिप्पणी कर डाली कि, 'बुद्धिमान हवा के रूख के साथ चलते हैं'। अर्थात, हवा के बहाव में झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार शामिल हो तो सभी झूठे, बेईमान, भ्रष्ट, अत्याचारी बन जाएं! सर्वोच्च न्यायालय के आसन से आयी  ऐसी टिप्पणी के बाद अगर ममता बनर्जी न्यायपालिका में प्रविष्ट भ्रष्टाचार को रेखांकित करती हंै तो, कोई इसे न्यायपालिका की अवमानना कैसे माने? ममता अपनी जगह गलत नही हंै।
आम लोगों की नजरों में आज न्यायपालिका 'पवित्र' नहीं बल्कि 'संदिग्ध' है। महंगी होती न्याय- व्यवस्था में गरीबों के लिए न्याय की कल्पना करना भी आज बेमानी प्रतीत होने लगा है।  'न्यायिक सक्रियता' और 'लोकहित याचिका' के नये दौर में आशा तो बंधी, लेकिन उसका लाभ भी सीमित रूप में ही सामने आया। अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का मामलों को छोड़ दे, तो इससे एक विशेष वर्ग ही लाभान्वित हुआ। गरीब-अमीर के बीच न्याय बंटा, तो आर्थिक आधार पर ही।
1984 के सिख विरोधी दंगों में हुए कत्ले-आम से संबंधित एक मामले में आदेश देते हुए दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज शिवनारायण धिंगड़ा ने 27 अगस्त 1996 को टिप्पणी की थी कि 'कानून में समानता के जो बुनियादी सिद्धांत हंै, जो संविधान में निरूपित है, वे देश में बेअसर हो चुके हंै। जब पीडि़त शक्तिशाली और धनी हो तो, अदालतें तेजी से काम करती हैं, जब पीडि़त गरीब हो तो व्यवस्था काम करना बंद कर देती है।' एक जज की इस टिप्पणी को कोई चुनौती देने सामने आयेगा? किसी में है इतना नैतिक साहस?
यह तो वर्तमान का कठोर सत्य है।  किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम शाश्वत सत्य मानकर इसे स्वीकार कर लें, तटस्थ बैठ जाएं। विरोध में आवाजें उठानी होंगी। न्यायपालिका की सफाई के लिए कानून-संविधान के दायरे में पहल करनी होगी। यह तो अच्छी बात है कि केंद्र में मंत्री रह चुकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने पहल की है। प्रसंगवश, जरा उन दिनों की याद कर लें, जब कहा जाता था कि  'ङ्खद्धड्डह्ल क्चद्गठ्ठद्दड्डद्य ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशस्रड्ड4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशद्वशह्म्ह्म्श2'.

Wednesday, August 15, 2012

अन्ना के बाद बे-नकाब होते रामदेव!


एक तरफ स्वाधीनता दिवस की खुशी, दूसरी तरफ विलासराव देशमुख के देहावसान का गम! इस खुशी और गम के बीच न चाहते हुए भी देश के साथ गद्दारी और आम जनता के साथ विश्वासघात की गहरी पीड़ा की चर्चा करने के लिए मजबूर हॅंू। पाठक क्षमा करेंगे, प्रसंग ही ऐसा है।
आंदोलन और सत्याग्रह के नाम पर देश और जनता के साथ एक और धोखा! आंदोलन, सत्याग्रह, क्रांति और महाक्रांति जैसे शब्द चौराहे पर नीलाम हुए। पढऩे-सुनने में बुरा तो लगेगा, लेकिन ये सच इतिहास के पन्नों में दर्ज तो हो ही गया कि इन पवित्र शब्दों को अपनी  'हवस' का शिकार बनाया गांधी टोपी धारकों ने,भगवा वस्त्रधारियों ने! हाँ, हवस! राजनीति की हवस, सत्ता की हवस, व्यक्तिगत इच्छापूर्ति की हवस। पहले अन्ना हजारे और अब ढोंगी योग गुरु रामदेव।
कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने जब इन्हें ठग निरूपित किया था, तब अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब उनकी बात सच प्रतीत होने लगी है। कांग्रेस अपनी जगह बिल्कुल ठीक है, जब वह कह रही है कि आंदोलन के नेतृत्व का मुखौटा अब उतरने लगा है। अन्ना हजारे और उनकी गठित टीम ने पिछले वर्ष आंदोलन की शुरूआत में दो टूक घोषणा की थी कि,आंदोलन गैर-राजनीतिक होगा। किसी भी राजनीतिक को मंच पर स्थान नहीं मिलेगा। फिर सहयोगियों को अंधकार में रख अन्ना ने कांग्रेस के एक मंत्री से गुप्त मुलाकात क्यों की? क्या यह आंदोलनकारियों के साथ गद्दारी नहीं? सहयोगियों के साथ धोखा नहीं था? अन्ना तभी पूरी तरह से अविश्वसनीय बन गये थे। उनके आंदोलन के हश्र, बल्कि मौत से यह प्रमाणित हो गया। कथित योग गुरु रामदेव भी हमाम से निकल सीधे सड़क पर आ गए-निर्वस्त्र!  जी हॉं! बिल्कुल निर्वस्त्र! वस्त्र लाएं भी तो कहॉं से? पिछले वर्ष रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई से भयभीत रामदेव एक पतित कायर की तरह, किसी महिला के उतारे 'सलवार सूट' पहन दुबक कर भाग गए थे। स्वंय को संत कहलाने वाले रामदेव को यह जानकारी तो होगी ही कि एक बार भगवा (गेरूवा) वस्त्र धारण कर लेने के बाद कोई साधु-संत अन्य किसी वस्त्र को हाथ नहीं लगाता। रामदेव तब 'नग्र' हो गए थे।
पुन:,उसी रामलीला मैदान से 'मेरा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है' की घोषणा के बाद खुले-आम राजनीति की बातें करते रामदेव विभिन्न दलों के राजनेताओं को गले लगा स्वागत करते दिखे। मुलायम, मायावती, शरद पवार जैसे दागी नेताओं के समर्थन की घोषणा कर अनुयायिओं से इन नेताओं के अभिनंदनार्थ तालियां बजवाते दिखे। रामदेव बताएं कि फिर वे किस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं? निर्णायक और आर-पार की कथित ऐतिहासिक लड़ाई की घोषणा के साथ रामलीला मैदान में बैठने वाले रामदेव ने अपने भक्तों की पीठ में नहीं, बल्कि सीने में तब खंजर घोंप दिया जब उन्होंने न केवल रामलीला मैदान छोड़ा, बल्कि यह भी घोषणा कर डाली कि अगले चुनाव तक अब कोई अनशन नहीं।  'अनशन'  के ऐसे हश्र की कल्पना तो उन्हें पहले ही होगी। अब वह हरिद्वार जा कर चाहे कितनी ही डुबकी लगा लें, उनके झूठ के पाप के दाग छुटने वाले नहीं। ये वहीं रामदेव हैं जिन्होंने पिछले वर्ष अनशन से पूर्व गुप्त रूप से भारत सरकार के एक मंत्री को लिखित आश्वासन दिया था कि वे अपना अनशन व आंदोलन तीन दिनों में समाप्त कर देंगे। भक्तों को अनिश्चित कालिन अनशन पर बैठा, स्वंय सरकार के साथ 'गुप्त समझौता' करने वाले रामदेव तभी पाखंडी सिद्ध हो गए थे। वह तो दिल्ली पुलिस की मूर्खता थी जो कि उसने उसी रात अनशनकारियों पर लाठियाँ बरसा डालीं। वेश बदल भागते रामदेव को धर दबोचा। तब अगर पुलिसिया कार्रवाई नहीं होती तो रामदेव बे-नकाब, नंगे हो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। आज वही रामदेव फिर से बे-नकाब हो गए हैं तब देश यह सोचने को मजबूर हो गया है कि भ्रष्टाचार, कालाधन और कुशासन के खिलाफ वह किस आंदोलन अथवा नेता पर विश्वास करे! अन्ना हजारे व रामदेव के नंगे हो जाने के बाद क्या अब कोई तीसरा चेहरा सामने आएगा?

Tuesday, August 14, 2012

शाबास! देश का प्रधानमंत्री हो तो ऐसा!!


'सर, मेरा क्या होगा?' सन 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर के निवास पर उनके आर्थिक सलाहकार डॉ. मनमोहन सिंह गिड़-गिड़ा रहे थे, चिरौरी कर रहे थे। चंन्द्रशेखर की सरकार का तब पतन हो रहा था। क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी थी। राजीव गांधी का आरोप था कि सरकार उनके घर की जासूसी करवा रही है। जबकि सचाई कुछ और थी। बहरहाल, चर्चा मनमोहन सिंह की। सरकार के संभावित पतन से बेचैन मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर से मिलने उनके निवास पर गए। भीड़ में घंटों प्रतीक्षा के बाद जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री से मिले तब उनके बेचैनी भरे ये शब्द स्वयं के भविष्य को लेकर थे। आदतन बेबाक चंन्द्रशेखर ने तब पूछा था कि 'आप क्या चाहते हो?' मनमोहन ने तब कहा था कि यू.जी.सी. के चेयरमैन का पद खाली है, मुझे उस पर बिठा दें। चंन्द्रशेखर ने तब नियुक्ति प्रक्रिया की जानकारी लेकर उन्हें उपकृत कर दिया था। मनमोहन यू.जी.सी. के चेयरमैन बना दिये गये थे। 1991 चुनाव पश्चात नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व में गठित सरकार में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनाये गये। हालांकि राव की पहली पसंद नहीं थे मनमोहन सिंह। अपनी पहली पसंद के इंकार और फिर अनुशंसा पर राव ने मनमोहन को वित्त मंत्रालय सौंपा था। तब से अब तक की मनमोहन-यात्रा से देश बखूबी परिचित है। प्रधानमंत्री पद पर उनकी आकस्मिक नियुक्ति की घटना इतिहास में दर्ज है। पहली और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक उनकी 'जनपथ वंदना' के किस्से आम हैं। एक नौकरशाह को अपनी नौकरी बचाने के लिए जिन गुरों के ज्ञान की जरूरत होती है, मनमोहन को निश्चिय ही उसमें महारत हासिल है। चाटुकारिता के नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले मनमोहन बगैर चुनाव जीते विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के दो बार प्रधानमंत्री बन अनोखा विश्व रिकॉर्ड कायम कर चुके हैं। पूरे संसार में डॉ. मनमोहन सिंह एक अकेले गैर-निवार्चित प्रधानमंत्री हैं। अब ऐसे प्रधानमंत्री अगर 'वंदना' की मुद्रा में सार्वजनिक रूप से घोषणा करें कि राहुल गांधी का उनके मंत्रिमंडल में स्वागत है, तो आचश्र्य क्या? हां, लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को इस बात की पीड़ा अवश्य होगी कि 'लोकतंत्र' को अंगीकार करने वाले भारत में 'राजतंत्र' सरीखी यह कैसी परम्परा! यह ठीक है कि प्रधानमंत्री को मंत्रियों की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। किन्तु, एक निहायत अनुभवहीन, मंत्रीपद की पात्रता से कोसों दूर, राहुल गांधी को सार्वजनिक आमंत्रण जब प्रधानमंत्री देते हैं तब सवाल तो उठेंगे ही।
कांग्रेस को बार-बार मां-बेटे की पार्टी के रूप में संबोधित करते रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी ताल ठोक रहे होंगे कि '---मैंने कहा था न!' वैसे, इसमें किसी को आश्चर्य नहीं हुआ होगा। यह तो होना ही है। बुजुर्ग मनमोहन सिंह को युवा भरत बन कथित 'अग्रज' राहुल को तो एक दिन गद्दी सौंपनी ही होगी। तुर्रा यह कि सब कुछ होगा 'लोकतंत्र' के नाम पर। लोकतंत्र के साथ ऐसा 'बलात्कार'भारत में ही संभव है। परिवारवाद अथवा वंशवाद की जड़ें केवल कांग्रेस में ही नहीं बल्कि, कुछ अपवाद छोड़, अन्य राजनीतिक दलों में भी मजबूत पैठ बना चुकी है। हां, इस 'रोग' के प्रसार की जिम्मेदारी कांग्रसे के सिर है। शुुरुआत इसी ने जो की है। मजबूर मनमोहन बेचारे करें भी तो क्या! वे प्रसन्न हैं कि उनकी नौकरी फिलहाल बची हुई है। कुर्सी छोड़ेंगे तो अपनी 'आका' की ईच्छा के पक्ष में! उपकृत वे तब भी किये जाएंगे। स्वरूप 'जनपथ' से तय होगा।

Sunday, August 12, 2012

प्रधानमंत्री पद के 'नाजायज' दावेदार आडवाणी!


उगले हुए शब्दों को वापस निगलने की क्रिया को कोई चाहे तो मजबूरी कह ले, चालबाजी कह ले, कूटनीति कह ले, किन्तु उन शब्दों का यथार्थ कायम रहता है। और, जब संदर्भ राजनीति का हो, कारक राजनीतिज्ञ हो तो तय मानिये कि घटना 'बेशर्म राजनीति' की बन जाती है। अपने हालिया बयान के लिए लालाकृष्ण आडवाणी अगर इसी कसौटी पर कसे जा रहे हंै तो आश्चर्य क्या!
एक त्वरित टिप्पणी आई है कि लालकृष्ण आडवाणी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। भारतीय राजनीति व समाज में उनका योगदान, आयु और अनुभव को देखते हुए यह उचित तो नहीं लगता, किंतु राजनीतिक संदर्भ में आडवाणी का ताजा आचरण टिप्पणी की सचाई की चुगली करते हैं। वयोवृद्ध भाजपा नेता आडवाणी अगर अपनी वाणी व लेखनी पर नियंत्रण रखने में विफल हो रहे हैं तब उचित-अनुचित कयास से बचना संभव नहीं। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए 'नाजायज' दावेदारी करने वाले आडवाणी कभी पार्टी का 'चेहरा' रहे हैं। 2009 में प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार रहे आडवाणी जब कहते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ऐसी स्थिति में नहीं होगी कि इसका कोई व्यक्ति प्रधान मंत्री बन सके, तो इस भविष्यवाणी में छुपी 'नीयत' पर बहस तो होगी ही। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व की सरकार को संसद में 'नाजायज' निरूपित करने वाले आडवाणी शोर के आगे घुटने टेक जब अपने उगले शब्दों को वापस निगलते देखे गए तब इस धारणा की ही पुष्टि हुई कि वे 'स्वस्थ' नहीं हैं। उन्हें लौह पुरुष सरदार पटेल के समकक्ष बताने वाले अचानक नदारद हो गए। क्या हो गया है आडवाणी को? पदलोलुपता के लिए भी एक सीमा तो तय होती ही है। राजनीति में लगभग सब कुछ हासिल कर चुके आडवाणी को उनकी अंतिम इच्छा पूर्ति के लिए 2009 में पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था। लेकिन मतदाताओं को वे स्वीकार्य नहीं हुए। बल्कि, कठोर सत्य के रूप में यह दर्ज है कि प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी के कारण ही अनुकूल चुनावी स्थितियों के बावजूद भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। 2004 की तुलना में भाजपा को कम सीटों पर विजय मिली। आडवाणी के आयु वर्ग में पहुंच चुका कोई भी राजनीतिक चुनाव परिणाम में निहित संकेत को भांप राजनीतिक वनवास पर चला जाता।  पदपिपासु आडवाणी ने ऐसा नहीं किया तो इसलिए कि वे 'लालच' का त्याग नहीं कर पा रहे। इस प्रकार भाजपा 2009 में केन्द्रीय सत्ता में आने का एक सुनहरा अवसर गंवाने को मजबूर हुई थी। दोषी आडवाणी ही थे। इसके पूर्व 2004 मेंं जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी तब भी असली कारण आडवाणी ही बने थे। 2002 में गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की इच्छा को दरकिनार कर तब के गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में शांति स्थापना की दिशा में अपेक्षित कदम नहीं उठाये थे। वाजपेयी के 'राजधर्म' को उन्होंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था। तब गुजरात का बदला मतदाताओं ने 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर कर लिया था। आडवाणी की एकल-एकपक्षीय सोच का खामियाजा पूरी पार्टी ने सत्ता गवांकर भुगता। जिद्दी और लालची आडवाणी अब अगर  '....मैं नहीं तो और कोई नहीं' की तर्ज पर चलते हुए पार्टी के लिए कब्र खोद रहे हैं, तो भाजपा की राजनीति और भविष्य पर विलाप कौन करे!

Monday, August 6, 2012

अन्ना की सोच और 'राजनीति' का सच !



अन्ना हजारे न तो ईश्वर हैं, न अल्लाह हैं और न ही क्राइस्ट ! भगतसिंह भी नहीं हैं, चंद्रशेखर आजाद भी नहीं हैं ! मंगल पांडे भी नहीं हैं ! सुभाषचंद्र बोस भी नहीं हैं ! डा. भीमराव आंबेडकर भी नहीं हैं ! न तिलक हैं, न गोखले हैं! न तो पं. जवाहरलाल नेहरू हैं, न डा. राजेंद्र प्रसाद हैं और न ही सरदार पटेल हैं! और न ही जयप्रकाश नारायण हैं ! फिर ये चाल, चेहरा और चरित्र बदलकर अगले तीन वर्षों में भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी, विकेंद्रीकृत सुशासित भारत देश कैसे दे पायेंगे? ऐसा तो किसी 'चमत्कार' से ही संभव हैं!  समर्थक दावा कर सकते हैं कि चमत्कार कर अन्ना हजारे अपने दावे को पूरा कर सबों से कहीं उपर अपने लिए आसन प्राप्त कर लेंगे। बिल्कुल सही। सफलता की हालत में अन्ना हजारे सभी को छोडशीर्ष पर विराजमान हो जाएंगे! ईश्वर से भी उपर, क्योंकि स्वयं देवी-देवता भी भारत देश को भ्रष्टाचार मुक्त सुशासित बनाने में विफल रहे हैं।
अब सवाल यह कि अन्ना हजारे या उनकी टीम अपेक्षित 'चमत्कार' को कैसे  और किसके भरोसे अंजाम देने को सोच रही है? लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता के समथन के बगैर न तो ऐसा कोई 'चमत्कार'  और न ही क्रांति संभव है !
इस बिन्दु पर वास्तविकता चिन्हित है कि 16 माह पूर्व शुरु अन्ना आंदोलन को अब वह जन समर्थन नहीं मिल रहा जो आरंभ में मिला था। अर्थात, अन्ना को आवश्यक जन समर्थन प्राप्त नहीं है। फिर किसके भरोसे आंदोलन से आगे बढ़ 'राजनीतिक विकल्प' देने का वादा कर लिया अन्ना ने ! सीधे चुनावी राजनीति के आखाड़े मे कूद विकल्प देने का उनका दावा किसी भी कोण से व्यवहारिक नहीं दिखता।  अलंकारिक लफ्फाजी को छोड़ दें तो यह दावा घोर भ्रमित मस्तिष्क का प्रलाप साबित होगा। इतिहास गवाह है कि यह दावा बिल्कुल बेतुका है कि भ्रष्ट व्यवस्था की सफाई सत्ता में रह कर ही की जा सकती है। सच तो यह है कि सत्ताधारी-ईमानदार और बेईमान दोनों - अपने -अपने कारणों से ऐसी कोई सफाई चाहते ही नही हैं। उनके स्वार्थो की पूर्ति करने वाली भ्रष्ट व्यवस्था ही उन्हें, सुहाती है। बावजूद इसके इस 'रोग' से निजात संभव है। सत्ता की राजनीति नहीं, बल्कि सड़कों पर जनता की हुॅंकार से यह संभव है।
जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का उदाहरण सामने है। तत्कालीन भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ सड़कों पर जनसैलाब को उतार जयप्रकाश नारायण ने केंद्र में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन कर दिखाया था। लेकिन, जब 'आंदोलनकारी'  स्वयं सत्ता की कुर्सी पर बैठे तब कथित राजनीतिक मजबूरियों के नाम पर जनता द्वारा बनाई गई 'जनता सरकार' के नुमाइंदे उन्हीं राहों पर चल पड़े जिनकेे खिलाफ विद्रोह का बिगुल उन्होंने बजाया था। उसी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था के संरक्षक बन गए थे वे। जनता छली गई, देश छला गया। स्वयं जयप्रकाश नारायण भी विश्वासघात के शिकार हुए। राजनीति के इस कड़वे सच की मौजूदगी के बावजूद अन्ना हजारे राजनीति के द्वारा व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं, तो ईश्वर उनकी रक्षा करें।
भारत के पूर्व अर्टानी जनरल सोली जे. सोराबजी ने एक बार कहा था कि 'जब देवी -देवता किसी को बर्बाद करना चाहते हैं तो पहले उसे पागल बना देते हैं', तब संदर्भ अवश्य दूसरा था । किन्तु दिल्ली के जंतर-मंतर पर जब अन्ना ने घोषित 'आमरण अनशन' का त्याग कर देश को 'राजनीतिक विकल्प' देने की बात कही तब सोली सोराबजी के शब्दों की याद अनयास आ गई। मैं चाहॅूंगा कि अन्ना हजारे सफल हों, उनका स्वप्न पूरा हो। क्योंकि, ये देश की चाहत है। लेकिन संदेह के अनेक कारण विफलता की चुगली कर रहे हैं। सफल होने के लिए उन्हें रास्ता बदलना होगा। क्रांति संभव है। शर्त यह कि वह 'जन क्रांति' हो। अन्ना को एक और परामर्श। हर दृष्टि, हर कोण से जन-जन के हित-चिंतक, गुलाम भारत को आजाद भारत में परिवर्तित कराने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का स्मरण वे कर लें। आजादी के पूर्व ही भ्रष्टाचार से व्यथित महात्मा गांधी ने 24 सितंबर 1934 को 'हरिजन' के अंक में लिखा था कि, ''भ्रष्टाचार तब खत्म होगा जब बड़ी संख्या में लोग यह महसूस करने लगेंगे कि राष्ट्र का उनके लिए कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, लेकिन वे राष्ट्र के लिए हैं। इसके लिए उच्च आदर्शों वाले उन लोगों की ओर से कड़ी निगरानी रखने की जरुरत है, जो भ्रष्टाचार से एकदम मुक्त हों और भ्रष्ट लोगों पर अपना प्रभाव डाल सकें''। कोई आश्चर्य नहीं कि आजादी के पश्चात महात्मा गांधी ने कांग्रेस संगठन को भंग कर देने की ईच्छा जताई थी।

Friday, August 3, 2012

अन्ना का झूठ, कांग्रेस का सच!


एक पूर्णत: गैरराजनीतिक आंदोलन को राजनीति का स्वरूप देने की मंशा जतानेवाले अन्ना हजारे देश व जनता को धोखा दे रहे हैं। आंदोलन की शुरुआत से ही सत्तारूढ कांग्रेस अन्ना व उनकी टीम पर 'राजनीतिक एजेंडा' चलाने का आरोप लगाती रही है। अन्ना टीम आरोप को हमेशा बेबुनियाद बताती रही। अब क्या सफाई देगी टीम? कमाल तो यह कि एक ओर मंच से अन्ना हजारे देश को राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल अनशन स्थल से ही एक वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी को यह बता रहे थे कि 'मैं जिंदगी में कभी राजनीति का हिस्सा नहीं बनूंगा, जो ऐसा कह रहे हैं वे बकवास कर रहे हैं' क्या यह छल नहीं? आज देश निराश है। अन्ना आंदोलन के हश्र को देख कर। भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जन लोकपाल के पक्ष में राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ आम जनता की सहानुभूति-समर्थन बटोरनेवाले अन्ना हजारे और उनकी टीम ने अभी कुछ घंटे पहले ही तो घोषणा की थी कि जब तक लोकपाल नहीं बनेगा तब तक अनशन जारी रहेगा। और यह भी कि अनशन कर वे आत्महत्या नहीं बल्कि बलिदान दे रहे हैं। क्या हुआ ऐसे वादों का? कहां मिला लोकपाल और कहां गया बलिदान?  तो फिर देश यह क्यों न मान ले कि राजनीतिक एजेंडे संबंधी कांग्रेस का आरोप सही था। तो फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अन्ना ने झूठ बोला था, जबकि कांग्रेस ने सच।
अन्ना हजारे यह न भूलें कि अगर उनके आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला तो इसलिए कि आंदोलन को गैरराजनीतिक बताया जा रहा था। वे इस सच को हृदयस्थ कर लें कि राजनीतिक एजेंडे को लेकर बढऩेवाले उनके कदम एक मुकाम पर अकेले रह जाएंगे।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩे का लक्ष्य लेकर राजनीतिक दल बनाने के बाद अन्ना क्या अपने कथित अच्छे ईमानदार उम्मीदवारों को चुनाव में विजयी करवा पाएंगे? पूर्व में अनेक ईमानदार स्वच्छ छवि वाले विद्वान चुनाव लड़ अपनी जमानतें जब्त करवा चुके हैं। वयस्क मताधिकार के नाम पर भ्रष्ट तंत्र हमेशा सफल मनमानी करता आया है। शुरुआत तो प्रथम आम चुनाव से ही हो चुकी है। मुझे याद है 1952 के पहले आम चुनाव में देश के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. ज्ञानचंद 'सोशलिस्ट पार्टी' के उम्मीदवार के रुप में पटना से चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की ओर से एक अशिक्षित किराणा व्यापारी राम (शरण/प्रसाद) साहू उनके विरूद्ध खड़े थे। इमानदार-विद्वान डॉ. ज्ञानचंद अशिक्षित व्यापारी साहू के हाथों चुनाव हार गए। संभवत: उनकी जमानत भी जब्त हो गई थी। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष मालवंकर के सर्वथा ईमानदार व शिक्षित पुत्र को इसी प्रकार गुजरात में पराजय का सामना करना पड़ा था। उनके पास चुनाव लडऩे के लिए आवश्यक धन उपलब्ध नहीं था। पोस्ट कार्ड पर पत्र लिखकर मतदाताओं से उन्होंने अपने लिए वोट मांगा था। जमानत जब्त हो गई। भारतीय चुनाव आयोग को  सुर्खियों में लाने वाले भारत के तत्कालिन चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने भी चुनाव लड़ा, हार गए।
भारतीय सेना के तत्कालिन उप मुख्य सेनापति लेफ्ट. जनरल एस. के. सिन्हा की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की कसमें खाई जाती है। तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी वरियता को नजरअंदाज कर मुख्य सेनापति नहीं बनने दिया। सेना छोड़ जनरल सिन्हा ने लोकसभा चुनाव लड़ा -अपनी ईमानदारी, सुपात्रता और स्वच्छ छवि को सामने कर। वह भी चुनाव हार गए।
अच्छे योग्य लोगों को राजनीति में आने की वकालत करने वाले क्या बताएंगे कि ऐसे सुयोग्य उम्मीदवारों की हार कैसे होती रही? निश्चय ही भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट तंत्र के साथ-साथ मतदाता पर दबाव और प्रलोभन के हथकंडों के कारण चुनावों का मजाक बनता रहा। अच्छे लोगों का चयन कर राजनीतिक विकल्प देने की बात करने वाले अन्ना हजारे बेहतर हो पहले चुनावी इतिहास का अध्ययन कर लें। आम मतदाता की मानसिकता और मजबूरी को पहचानें। यह ठीक है कि वर्तमान भ्रष्ट शासन व्यवस्था ऐसी ही मानसिकता और मजबूरियों की देन है, किंतु इनसे निजात पाने का रास्ता राजनीति ही नहीं हो सकती। विकल्प तो जनता ही देगी। कोई भ्रमित आंदोलन या नेतृत्व तो कदापि नहीं।

Thursday, August 2, 2012

शिंदे 'दलित' पहचान के मोहताज क्यों?


देश का गृहमंत्री जब 'जातीय पहचान' का मोहताज दिखे तब कोई शांत - सुरक्षित समाज की कल्पना भी कैसे कर सकता है? देश के नए गृहमंत्री की ऐसी पहल से सभी हतप्रभ हैं।
'जातीय पहचान' के साथ नार्थ ब्लाक अर्थात गृह मंत्रालय में प्रवेश करने वाले सुशीलकुमार शिंदे ने जब स्वयम् को कटघरे में खड़ा कर लिया है, तब उनके साथ  'न्याय' कौन करेगा? 1990 में जब लालूप्रसाद यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने जातीयता का न केवल पोषण किया, उसे सींचित भी किया था। तब उन्होंने बिहार प्रदेश में पूरे समाज को जातीय आधार पर विभाजित कर डाला था। स्कूली बच्चों से लेकर शासन-प्रशासन की सर्वोच्च कुर्सियों तक से 'जातीय बदबू' आने लगी थी। लालू-राबड़ी को पंद्रह वर्षो की जातीय-शासन से त्रस्त जनता ने अंतत: उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। अब देश अपने गृहमंत्री शिंदे का क्या करे? एक साधारण चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के रूप में अपने जीवन की यात्रा शुरू कर राज्य में मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और केंद्रीय मंत्री के पद तक पहुंचने वाले शिंदे की जीवन यात्रा को एक आदर्श के रूप में ग्रहण करने वाले इस देश में अनेक अनुयायी हैं। उनकी सफल संघर्ष-यात्रा का प्रशंसक मैं भी हूं। किंतु, आज देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी निराश हूं। जिम्मेदारियों के प्रति उनकी कर्मठता, कार्य कुशलता और अनुभव के पाश्र्व में केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में उनके चयन से एक आशा बंधी थी। लेकिन बुधवार 1 अगस्त को गृहमंत्री का कार्यभार संभालने के साथ ही जब उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कहकर आभार प्रकट किया कि सरदार बूटासिंह के बाद वे दूसरे  'दलित' हंै, जिन्हें महत्वपूर्ण गृहमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई, तब पूरे देश में निराशा फैल गई। इतने अनुभवी शिंदे से ऐसी चूक कैसे हो गई? सभी को समान अवसर दिए जाने की संकल्पना के साथ विकास की ओर कदमताल करता भारतीय समाज तो अब  'जातीय पहचान' से दूर एक 'भारतीयता' को सामने रखता है। और तो और, अब तो जातीय पहचान वाले उपनामों से निजात पाने की मांग भी उठने लगी है। 'दलित' अथवा 'हरिजन' जैसे शब्दों को भारतीय समाज अब अपनी जुबां पर नहीं लाना चाहता। सभी सिर्फ एक  'भारतीय' के रूप में पहचान चाहते हंै। शोषित-प्रताडि़त सूचक कोई शब्द अब स्वीकार नहीं। दलित शब्द में निहित नकारात्मक संदेश लोकतांत्रिक भारत के लिए निश्चय ही अपमान सूचक है। स्कूलों में जाएं, हर जाति-हर वर्ग के बच्चों को बगैर किसी भेदभाव से टिफिन शेयर करते आप देख सकेंगे। ऐसे में देश का गृहमंत्री एक 'दलित' के रूप में अपनी पहचान देते हुए आसन ग्रहण करे और अपने नेताओं के प्रति आभार प्रकट करे कि उन्होंने एक दलित पर विश्वास प्रकट किया, तब हर भारतीय मन अवसाद से तो भर ही जाएगा। आजादी के साढ़े छह दशक बाद सत्ता शीर्ष की दीर्घा से  'दलित' शब्द की गूंज ने आजाद भारत की उपलब्धियों को निश्चय ही हाशिये पर डाल दिया है। सुशीलकुमार शिंदे को ऐसा नहीं करना चाहिए था।

Tuesday, July 31, 2012

झूठ बोल रहे हैं नरेंद्र मोदी!


गुजरात और बिहार के बीच कथित अटूट संबंध को हवा में उछालने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत और नीति पर सवाल तो खड़े होंगे ही।  मोदी कुछ बोलने के पूर्व हानि-लाभ को तौल लेते हंै। इतिहास खंगालने की आदत भी है उनमें। कहते है कि वे सावधानी बरतते हैं, ताकि कुछ निरर्थक न बोल जाएं। किंतु इस बार चूक गये। गुजरात और बिहार के बीच ऐतिहासिक संबंध को रेखांकित करते हुए मोदी जब कहते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति गुजरात के सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया था, और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बिहार के जयप्रकाश नारायण ने बनवाया था तब तथ्य और मंशा को लेकर समीक्षकों की ललाटों पर पैदा सिकुडऩ स्वाभाविक है।
पहले चर्चा तथ्य की। यह सच है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू कभी नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें। कारण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अतुलनीय विद्वत्ता थी। विद्वत्ता के मामले में डॉ. प्रसाद हर क्षेत्र में नेहरू पर भारी पड़ते थे। इस बिंदु पर घोर कुंठा के शिकार नेहरूजी चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बनें। किंतु, संविधान सभा के सभापति के रूप में ऐतिहासिक व अतुलनीय योगदान देने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद की न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि विपक्ष सहित राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन की व्यापक स्वीकृति के समक्ष नेहरूजी की नहीं चली। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान स्वीकार किए जाने के बाद डॉ. प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया गया। प्राय: हर महत्वपूर्ण राजनीतिक, गैर राजनीतिक मामलों में नेहरूजी को चुनौती देने वाले सरदार पटेल ने भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद का साथ दिया था, यह ठीक है। किंतु, यह कहना गलत होगा कि डॉ. प्रसाद की नियुक्ति में पटेल की भूमिका निर्णायक थी। 1950 में ही 15 दिसंबर को सरदार पटेल का निधन हो गया। भारत के नए संविधान के अंतर्गत 1952 में संपन्न प्रथम आम चुनाव के बाद पुन: राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति चुन लिया गया। जानकार पुष्टि करेंगे कि तब भी नेेहरू ने राधाकृष्णन के लिए मन बना रखा था। किंतु राजेंद्र प्रसाद को मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण नेहरू सफल नहीं हो पाए। नेहरू को सबसे बड़ा झटका तो 1957 के राष्ट्रपति चुनाव में लगा। नेहरू ने तब राधाकृष्णन के पक्ष में सहमति बनाने कीकोशिश की थी। उन्होंने दक्षिण के चारों प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर दक्षिण के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने की इच्छा जाहिर की थी। जाहिर है कि उनका ईशारा राधाकृष्णन की ओर था। नेहरूजी की इच्छा की अनदेखी करते हुए चारों मुख्यमंत्रियों ने जवाब दिया कि जब तक डॉ. राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, उन्हें ही दोबारा राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। राजेंद्र बाबू की ऐसी व्यापक स्वीकृति के आगे नतमस्तक, हताश नेहरू कुछ नहीं कर पाए। डॉ. प्रसाद 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। इन ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में नरेंद्र मोदी का दावा निश्चय ही खोखला लगता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बने थे तो अपनी योग्यता के कारण-किसी व्यक्ति विशेष के कारण नहीं।
नरेंद्र मोदी का दूसरा दावा भी सच से कोसों दूर है। उनका यह दावा बिल्कुल गलत है कि जयप्रकाश नारायण ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि 1977 में कें द्र में  कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बन रही थी तब जयप्रकाश नारायण प्रधानमंत्री के रूप में जगजीवन राम को देखना चाहते थे। जनता पार्टी के तत्कालिन अध्यक्ष चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे। किंतु जगजीवन राम और चंद्रशेखर के नामों पर आम सहमति नहीं बन पाने के कारण तीसरे मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया।
इस सचाई से अच्छी तरह अवगत होने के बावजूद नरेंद्र मोदी अगर इतिहास को झूठला रहे हैं तो निश्चय ही उनकी मंशा संदिग्ध हो उठती है। ये वही नरेंद्र मोदी हैं और वही बिहार है जिसके मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ने बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार आने से वंचित कर दिया था। अभी हाल ही में नीतीशकुमार ने नरेंद्र मोदी को तगड़ा झटका देते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी का प्रबल विरोध किया था।  ऐसे में बिहार के साथ गुजरात का कथित रूप से पुराना संबंध रेखांकित करने वाले नरेंद्र मोदी की मंशा साफ है। गुजरात से बाहर निकल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की कोशिश करने वाले मोदी बिहार के महत्व से अच्छी तरह परिचित हंै। उनके ऐसे प्रयास पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति तो इस बात पर है कि मोदी ने बिहार के साथ संबंध स्थापित करने के लिए लचर क्षेत्रीयता का सहारा लिया। बेहतर हो मोदी ऐसे हथकंड़ों का सहारा न लें। सुकर्मों के द्वारा पहले अपनी छवि को राष्ट्रीय स्वीकृति दिलवाएं।

Monday, July 30, 2012

राहुल पर न्यौछावर लोकतंत्र!


'...विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र...! गौरवशाली लोकतंत्र...!! सफल लोकतंत्र !!!
देश-विदेश में गर्व के साथ इन शब्दों को प्रचारित - प्रसारित किया जाता है। सीना तान कर बताया जाता है कि भारत वह देश है, जहां पिछले छह दशक से अधिक समय से संसदीय लोकतंत्र सफलता पूर्वक चल रहा हैं। व्यस्क मताधिकार द्वारा जनता के द्वारा चुने हुए प्रतीनिधि सत्ता संचालित करते हैं। नि:संदेह ऐसा ही होता हैं। किंतु, यह सब कुछ कागजों पर। व्यवहार के स्तर पर ,लोकतंत्र की आड़ में  छल और सिर्फ छल होता है। विशेषकर जब शीर्ष पद अर्थात प्रधानमंत्री के चयन की बात आती है। तब लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचन नहीं बल्कि नेतृत्व द्वारा 'नामित' किए जाने की परंपरा चल पड़ी है। राजतंत्र में जारी वंशवाद की परंपरा के अनुरूप लोकतंत्र के साथ छल और बलात्कार की बेशर्म गाथा है यह। छल इसलिए कि सब कुछ लोकतंत्र के आवरण में, बलात्कार इसलिए कि परिवार विशेष में तैयार किसी 'खास' की तयशुदा ताजपोशी! बानगी देखना है, तो देख लें- '.....राहुल गांधी को इसलिए केंद्रीय मंत्रि मंडल में शामिल हो जाना चाहिए ताकि वे सरकारी कामकाज के अनुभव प्राप्त कर भविष्य में प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल सके'। नेहरू-गांधी परिवार के खुशामदी कांग्रेसी नेता मंत्री खुलेआम ऐसा बयान दे रहे हैं। क्या यह लोकतंत्र क ी अवधारणा के साथ बलात्कार नहीं? लोकतांत्रिक देश के साथ छल नहीं। बिल्कुल ऐसा ही है। देश के अभिभावक दल के रूप में परिचित कांगे्रस दल की ओर से ऐसे छल पर देश का लोकतंत्र हमेशा शर्मिंदा होता आया है। चाहे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चयन का मामला हो, उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के चयन का मामला हो या फिर इंदिरा-पुत्र राजीव गांधी की प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति का मामला हो, हर बार देश के लोकतंत्र के साथ छल किया गया-कपट-खेल खेला गया। और अब वंशवाद के ताजा प्रतीक राहुल गांधी के लिए भी ऐसे ही 'नाटक' के मंचन की तैयारी शुरू हो गई है। बिल्कुल एक 'युवराज' की ताजपोशी की है यह तैयारी! क्या यह लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं? दु:ख और शर्म इस बात का कि यह सब कुछ होगा लाकेतंत्र के नाम पर। जब कभी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया जाएगा, लोगों की आंखों में धूल झोंकते हुए 'लोकतंत्र' का खेल खेला जाएगा। संसदीय दल की बैठक होगी, राहुल का नाम प्रस्तावित होगा और सर्व सम्मान से कथित 'निर्वाचन' की प्रक्रिया पूरी की जाएगी। राष्ट्रपति को अग्रसारित अनुशंसा पत्र में कहा जाएगा कि सर्व सम्मति से प्रधानमंत्री के लिए राहुल गांधी के नाम मुहर लगाई गई है। लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद को सींचित करने की ऐसी परंपरा पर क्या कभी विराम लग पाएगा? यह आश्चर्यजनक है कि लगभग सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश में देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस को नेतृत्व के लिए सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के आंगन में जाना पड़ता है। अगर परिवार की ओर से कोई अदभूत क्षमता या अतुलनीय नेतृत्व वाला कोई सुपात्र सामने लाया जाता है तब किसी को भी आपत्ति नहीं होगी। वंश के नाम पर भी किसी को आपत्ति नहीं होगी। वंश के नाम पर किसी योग्य पात्र को अस्वीकार करना गलत होगा। लेकिन यहां तो 'पात्र' ही लचर है, कमजोर है। कतिपय कांग्रेस नेताओं की ओर से राहुल के पक्ष में उठाई जाने वाली आवाज असुरक्षा की बुनियाद पर चाटुकारिता की अति है। समझ में नहीं आता कि विशाल कांग्रेस के अंदर इन्हें कोई और 'सुयोग्य' पात्र क्यों नहीं मिल रहा। अगर कांग्रेस दल सचमुच लोकतांत्रिक है तब वह 'वंश' के वाड़े से बाहर निकल कुशल, योग्य पात्र की तलाश करे । कांग्रेस के पतन को रोकने का यह एक तरीका होगा।
सिर्फ नेता के चयन में ही कांग्रेस लोकतंत्र को नहीं रौंद रही। अन्य मामलों में भी उसने तानाशाही अलोकतांत्रिक रवैया अपना रखा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध और लोकपाल की नियुक्ति को लेकर चलाए जा रहे अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति कांग्रेस का रवैया हर दृष्टि से अहंकार व तानाशाही की श्रेणी का है। एक केंद्रीय मंत्री का वक्तव्य कि, '.....अन्ना टीम अपनी मांगों की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र में जाए', देश के लोकतंत्र का अपमान है। टिप्पणीकार मंत्री इस सचाई को कैसे भूल गए कि वे संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त मंत्री नहीं बल्कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नियुक्त मंत्री हैं।
मंत्री का बोल ठीक वैसा ही है जैसा 70 के दशक में आपात काल के पूर्व जयप्रकाश आंदोलन को लेकर कांग्रेस के मंत्री बोला करते थे। तब कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री ने आंदोलन के प्रणेता जयप्रकाश नारायण के लिए टिप्पणी की थी कि 'उन्हें (जेपी) असली 'मुकाम' पहुंचा दिया जायेगा।' देश जानता है, तथ्य इतिहास में दर्ज हो चुका है कि जनता ने तब कांगे्रस को ही असली 'मुकाम' पर पहूॅंचा दिया था। ऐतिहासिक सबक दी थी। क्या कांग्रेस इतिहास की पुनरावृत्ति चाहती है?

Thursday, July 19, 2012

पश्चिम की नई खतरनाक साजिश !


अब तो हद हो गई! पहले अमेरिकी पत्रिका 'टाइम', फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और अब इग्लैंड का दैनिक अखबार 'द इंडिपेंडेंट'! ये सभी हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दिशाहीन, भ्रष्ट मंत्रियों के समूह का मुखिया  और 'सोनिया का गुड्डा' निरूपित कर रहे हंै।  भारत की बढ़ती ताकत व प्रगति से ईष्र्या करने वाले पश्चिमी देशों की ऐसी टिप्पणियों को हमने रद्दी की टोकरियों में फेंक दिया है। हमें अपने प्रधानमंत्री की योग्यता, ईमानदारी और कार्य कुशलता पर इनके प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। पश्चिम के शासक और उनके पिठ्ठू पत्रकार यह न भूलें कि भारत, वह भारत नहीं जिसकी उदारता का फायदा उठा छल-कपट से उन्होंने लगभग 200 वर्षो तक गुलाम बना रखा था। वह तो भोला 'भारतीय मन' था जिसे  गुमराह करने में अंग्रेज सफल हुए थे। लेकिन असलियत सामने आने पर उठी विद्रोह की ज्वाला में झुलस  अंग्रेजों को सात समंदर पार वापस जाने को मजबूर होना पड़ा था। संभवत: उन दिनों की 'कसक' के वशीभूत, स्वयं को सर्व शक्तिमान मानने वाले पश्चिम के देश हमारे शासकों पर अश्लील टिप्पणि कर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।  इन भड़ासों की तह में छुपे हैं इनके वे स्वार्थ जो अब भारत पूरा नहीं कर पा रहा। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को अनुमति नहीं दिए जाने से तिलमिलाए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अभी हाल में हमारी आर्थिक नीति की आलोचना की थी। अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा लांघ हमारे  आंतरिक मामलों में दखल देने वाले ओबामा भूल गए कि  हमारे इसी प्रधानमंत्री मनमोहन ने सन 2008 में परमाणु उर्जा पर अमेरिका के साथ करार के पक्ष में भारत सरकार के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया था। तब देश में मनमोहन सिंह पर अमेरिका परस्त होने के आरोप लगे थे। आज वही मनमोहन अमेरिका-इग्लैंड की नजरों में दिशाहीन हो गए। यह तो भारत का मजबूत लोकतंत्र है, जो किसी को भी मनमानी करने की छूट नहीं देता। चाहे वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या कांग्रेस अध्यक्ष व सप्रंग प्रमुख सोनिया गांधी ही क्यूं ना हो! अमेरिका-इग्लैंड की पत्रिका, समाचार पत्र व अमेरिकी राष्ट्रपति की टिप्पणियों पर सप्रंग सरकार व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आलोचक तथा विपक्ष खुश न हों। हमारे प्रधानमंत्री नकारा हैं, दिशाहीन हैं, कठपुतली हैं, गुड्डा हैं या भ्रष्ट मंत्री परिषद के मुखिया, इसका फैसला तो समय आने पर देशवासी स्वंय करेंगे।  विचारणीय यह है कि पश्चिमी देशों से अचानक ऐसे आक्रमण क्यों हो रहे हैं। ध्यान रहे, ऐसे सभी आक्रमणों के केंद्र बिंदु एक अकेले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। वह मनमेाहन सिंह जिनका अपना कोई राजनीतिक आधार नहीं है। अगर वे प्रधानमंत्री पद पर बने हुए हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कृपा से। यह कड़वा और दु:खद तथ्य भारत के राजनीतिक इतिहास में  मोटी रेखा से  चिंहित है। भारत का बच्चा-बच्चा इस तथ्य से परिचित है। कांग्रेस नेतृत्व की सप्रंग सरकार के घटक दल हों या विपक्षी दल, सुविधानुसार सभी इसे बहस का मुद्दा बनाते रहे हैं। इस खुली सचाई के बावजूद पश्चिमी मीडिया द्वारा इसे तूल दिए जाने का अर्थ है कि कहीं कोई गहरी साजिश रची जा रही है। ऐसी साजिश जिसकी परिणति उनके मनोनुकूल सत्ता परिवर्तन के रूप में हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा ।  इस शंका की गहरी छानबीन के बाद पता चलेगा कि षडयंत्र में हमारे कुछ 'अपने' शामिल हैं। यह संभव है। देश के इतिहास में जयचंदों और मीरजाफरों की उपस्थिति हमेशा दर्ज रही है। अनजाने में ही सही, पश्चिमी मीडिया ने जमीर को जगाने के लिए हर भारतीय का आह््वान कर डाला है। हमारा आग्रह है कि इस मुकाम पर पक्ष-विपक्ष एक हो जाएं। आजादी की लड़ाई के लक्ष्य और इसके लिए प्राणों की आहुति देने वालों को भूल देश के साथ गद्दारी न करंे। हजारों-लाखों कुर्बानियों के बाद हमने लक्ष्य हासिल किया। आज वही पश्चिमी कौम भारत को आर्थिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ अपरोक्ष में उस पर शासन करना चाहते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री के खिलाफ पश्चिम की ताजा सुगबुगाहट से साफ संकेत मिल रहे हैं कि उन्होंने साजिश को अंजाम तक पहुंचाने के लिए गति बढ़ा दी है। यह एक ऐसा संकट है जिसका मुकाबला दलगत राजनीति का त्याग कर एकजुट हो एक 'भारतीय परिवार' के रूप में करना होगा। यह साजिश अथवा संकट कोई कोरी कल्पना नहीं। इस संभावना के पुख्ता आधार स्पष्टता से दृष्टिगोचर हैं। सत्ता परिवर्तन तो लोकतंात्रिक पद्धति की स्वाभाविक प्रक्रिया है।  किंतु, किसी परिवार विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के पक्ष में अगर अंजाम की कोशिश होती है तो इसे सफल नहीं होने दिया जाना चाहिए। चुनौती है सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को और चुनौती है मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और अन्य विपक्षी दलों को भी। और हां, कोई यह न भूले कि इस संघर्ष में उनके योगदान को अंतत: देश की जनता अपनी कसौटी पर कस अंतिम निष्कर्ष निकालेगी।

Sunday, July 15, 2012

शर्मसार तो मीडिया बिरादरी हुई !


क्षमा करेंगे, शर्मसार तो हमारी मीडिया बिरादरी ने भी किया। गुवाहाटी की सड़क पर सरेआम एक किशोरी को बे-आबरू करने वाले मनचलों को उम्रकैद क्या,फांसी दे दो! कोई उफ नहीं करेगा। कानून-व्यवस्था की रखवाली पुलिस के महानिदेशक जयंत चौधरी को भी इस टिप्पणी के लिए दंडित किया जाए कि 'पुलिस कोई 'एटीएम' मशीन नहीं है', तो किसी को गम नहीं होगा। असम सरकार को भी बर्खास्त कर दिया जाए, लोग खुश होंगे। किंतु, इन सबों के साथ घटना-स्थल पर मौजूद, चश्मदीद मीडिया कर्मियों के खिलाफ भी अन्य लोगों के सदृश कड़ी कार्रवाई क्यों न हो? क्या कोई बताएगा कि किसी भी कोने से ऐसी मांग क्यों नहीं उठी? नागरिक अधिकारों की मांग करने वालों को नागरिक कर्तव्य और दायित्व की जानकारी भी होनी चाहिए। लोकतंत्र में जान-माल, आबरू की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की तो है, किंतु नागरिक कर्तव्य भी चिंहित हैं।
इससे मुंह मोडऩे वालों को अपराधी क्यों न घोषित किया जाए? गुवाहाटी की सड़क पर जब उस किशोरी को एक दर्जन से अधिक दरिंदे नोच-खसोट रहे थे, निर्वस्त्र कर रहे थे,तब मीडिया कर्मियों सहित वहां मौजूद भीड़ ने उसे बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बने मीडिया कर्मी यह तर्क दे नहीं बच सकते कि वो अपनी 'ड्यूटी' कर रहे थे। जब लड़की को नोचा जा रहा था , पीटा जा रहा था, लड़की चीख-चिल्ला रही थी तब घटना को कैमरे में कैद करने की 'ड्यूटी' की सराहना नहीं की जा सकती ।  पीडि़त युवती ने भी आरोप लगाया है कि मिन्नत-चिरौरी करने के बावजूद घटना स्थल पर मौजूद मीडिया कर्मियों ने उसकी मदद नहीं की ।
नागरिक कर्तव्य का निष्पादन करते हुए उन्हें आगे बढ़ उस युवती को दरिंदों के हाथों से छुड़ाना चाहिए था। घटना की जो विडियो किल्पिंग सार्वजनिक हुई उस से साफ पता चलता है कि मीडिया कर्मियों की दिलचस्पी युवती को बचाने में नहीं बल्कि मनचलों की अश्लील हरकतों को कैमरे में कैद करने में थी। कैमरे की आंखें प्रतीक्षा कर रही थीं कि वह युवती कब और कैसे निर्वस्त्र की जाती है।
क्या यह 'ड्यूटी' हुई? बिल्कुल नहीं ! यह तो एक अश्लील कृत्य में भागीदार बनना हुआ। प्रतिदिन हर पल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार की दुहाई देने वाले मीडिया कर्मियों से गुवाहाटी ही नहीं बल्कि पूरा देश जानना चहेगा कि क्या आंखों के सामने हो रहे अपराध को रोकना उनका कर्तव्य नहीं है। अगर मीडिया कर्मियों को अपने नागरिक कर्तव्य का एहसास होता तो वे पहल करते -भीड़ भी उनका साथ देती-और तब निश्चय ही गुंडे युवती के साथ मनमानी नहीं कर पाते। मनचले-गुंडे घटना स्थल पर ही दबोच लिए जाते। मीडिया कर्मियों को 'खबर' तब भी मिल जाती। खेद है कि उन्होंने नपुंसक भीड़ का हिस्सा बनना पसंद किया। सन्  2002 में सूरत दंगों के दौरान भी मीडिया कर्मियों ने पूरी बिरादरी को शर्मशार कर दिया था। तब गुंडों के हाथों निर्वस्त्र हुई युवतियां सड़कों पर भाग रही थीं, गुंडे पीछा कर रहे थे। मीडिया कर्मी तब भी युवतियों को बचाने की जगह निर्वस्त्र युवतियों को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। हो सकता है कि ऐसे मीडिया कर्मी कानून के अपराधी न हों, लेकिन समाज के अपराधी तो वे बन ही जाते हैं। गुवाहाटी की घटना पर तो हमारा सिर शर्म से झुक गया, मीडिया कर्मियों की 'नपुंसकता' पर तो हम बेजुबां बन बैठे हैं। अघोषित विशेषाधिकार से लैस मीडिया जगत क्या इस पर आत्मचिंतन करेगा?

Sunday, July 8, 2012

न्यायपालिका भी हवा के 'रुख' के साथ !


हालांकि टिप्पणि अरुचिकर होगी, संभवत: न्यायालय की अवमानना भी, परंतु, आम लोगों की स्वस्फूर्त पहली प्रतिक्रिया देश के सामने आनी चाहिए। अपने लिए यह कर्तव्य भी है और दायित्व भी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को लोग पचा नहीं पा रहे। केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) द्वारा मायावती के खिलाफ दायर एफआईआर को रद्द कर सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर भले ही न्याय किया हो, किंतु न्याय होता हुआ नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में लोग  'राजनीतिक हस्तक्षेप' की झलक देख रहे हैं। दबी जुबान से नहीं, बल्कि लोग खुलकर कह रहे हैं कि केंद्र, विशेषकर कांग्रेस, के साथ किसी 'समझौते' की ऐवज में मायावती को अदालती राहत मिली है। सत्ता के ईशारे पर नाचने वाली सीबीआई ने भले ही अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर मायावती के खिलाफ मामला दर्ज किया हो, परंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में सीबीआई  जांच की अनदेखी क्यों की गई। जबकि, जांच एजेंसी जांच की अद्यतन स्थिति से अदालत को हमेशा अवगत कराती रही। तब अदालत का मौन और अब मायावती को राहत से सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय की भूमिका पर भी संदेह पैदा होना स्वाभविक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आदेश देने वाले विद्वान न्यायधीशों ने अपने एक सहयोगी न्यायधीश की उस टिप्पणी को 'आदर्श' मान लिया जिसमें कहा गया था कि 'बुद्धिमान हमेशा हवा के रुख के साथ चलते हैं'। कांग्रेस को केंद्र में अपनी सत्ता बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ मायावती की भी जरूरत है, इसे सभी जानते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसी जरूरतें सौदेबाजी से ही पूरी की जाती रही हंै। राजदलों की जरूरतों की पूर्ति में न्यायपालिका की सहभागिता दुखद है । देशभर में न्यायपालिका के खिलाफ व्याप्त ऐसी कुशंका का निराकरण स्वयं न्यायपालिका को करना होगा। अब तो चर्चा यहां तक होने लगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद मुंबई का कुख्यात आदर्श घोटाला कांड भी कहीं दफन ना हो जाए। सीबीआई की ओर से महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और कतिपय अन्य प्रभावशाली राजनीतिकों तथा अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सीबीआई अधिकारी का 24 घंटे के अंदर तबादले में निहित संदेश साफ है। कांग्रेस शासित राज्य सरकार की ओर से अदालत में पहले ही चुनौती दी जा चुकी है कि मामले की जांच सीबीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। एफआईआर दर्ज कराने के बाद  सीबीआई अधिकारी ने संकेत दिया था कि दो अन्य मुख्यमंत्री, जो अब केंद्र में मंत्री हैं, के खिलाफ भी कार्रवाई  हो सकती है। उक्त अधिकारी के तबादले से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि सीबीआई के जो अधिकारी निष्पक्षता, निडरता और ईमानदारी से काम करेंगे उन्हें दंडित होना होगा। कुछ दशक पूर्व बिहार में कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के घर सीबीआई के छापे पडऩे के बाद सीबीआई के संबंधित अधिकारी अरूल को तत्काल वापस उनके कैडर तमिलनाडू भेज दिया गया था। बोफोर्स कांड, सेंड किट्स मामला, एयर बस, हवाला मामले में जैन बंधुओं की डायरी का रहस्योद्घाटन, झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, पॉंडेचेरी लायसेन्स घोटाला, लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड आदि ऐसे अनेक मामले सीबीआई पर 'राजनीतिक प्रभाव' की चुगली करते हंै।  सीबीआई तो खैर एक सरकार नियंत्रित जांच एजेंसी है, चिंता न्यायपालिका को लेकर है। अगर न्यायपालिका भी सत्ता पक्ष के राजनीतिक हित साधने का माध्यम बन जाए तब लोकतंत्र के स्वरूप और भविष्य को लेकर बहस तो छिड़ेगी ही। कहते हंै कि कांग्रेस पर मायावती का दबाव था कि राष्ट्रपति चुनाव के पहले उनके खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामले को खत्म किया जाए। हो सकता है ऐसा नहीं हो, किंतु अदालती फैसले का समय अर्थात 'टाइमिंग' संदेह पैदा करने वाला है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई के इस्तेमाल से आगे बढ़ते हैं। जब राजनीतिक विरोधियों के समर्थन के लिए सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय का 'उपयोग' होने लगे तब सरकार व न्यायपालिका दोनों अविश्वसनीय बन जाएंगी। चंूकि, लोकतंत्र में सत्ता पर एकाधिकार संभव नहीं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखने के साथ-साथ निष्पक्षता को भी चिन्हित करना होगा। 

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का सच, डॉ. कलाम का झूठ!


भारतीय राजनीत और समाज का यह कैसा विद्रूप चेहरा जो डॉ. कलाम जैसे सर्वमान्य व्यक्तित्व को कटघरे में खड़ा कर दे! डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम न केवल देश के पूर्व राष्ट्रपति हैं बल्कि, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक भी हैं। राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल को विवादों से दूर स्वच्छ-निर्मल निरूपित किया जाता रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश का बहुमत उन्हें फिर राष्ट्रपति के रूप में देखने का इच्छुक था। वही डॉ. कलाम आज अगर विवादों के घेरे में हैं तो क्यों ? दु:खद तो यह कि इस दु:स्थिति के लिए स्वयं डॉ. कलाम जिम्मेदार हैं। ताजा तथ्य, जो स्वयं डॉ. कलाम ने उपलब्ध करवाये हैं,  इसी बात की चुगली कर रहे हैं।
डॉ. कलाम का यह कहना कि सन् 2005 में जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा भंग करने के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया था, तब उन्होंने स्व-विवेक की जगह देश हित को तरजीह दी थी। ऐसा उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 'गिड़गिड़ाने' पर किया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से विचलित राष्ट्रपति कलाम ने तब राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था। अपना त्याग पत्र भी लिख चुके थे। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 'मिन्नत' की कि अगर वे इस्तीफा देंगे तब सरकार गिर जाएगी। राष्ट्रपति कलाम मान गए । क्या कलाम का वह कदम सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का अनादर नहीं था? जब सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा भंग करने की कार्रवाई असंवैधानिक बताया था तो विधानसभा भंग करने के आदेश पर विदेश की धरती पर अर्धरात्रि में हस्ताक्षर करने वाले कलाम को पद पर बने रहने का कोई हक नहीं था। कम से कम नैतिकता की तो यही मांग थी। सरकार गिरती, तो गिरती। बहुमत होने के कारण सरकार तो कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की ही बनती। हां, प्रधानमंत्री बदल जाता । लेकिन, तब डॉ. कलाम अपनी ख्याति के अनुकूल आदर्श पुरुष बन जाते। डॉ. कलाम वहां चूक गए । अपनी पुस्तक में उक्त घटना का वर्णन कर डॉ. कलाम 'नायक' नहीं 'खलनायक' बन गए।
डॉ. कलाम अपनी ताजा पुस्तक 'टर्निंग प्वाइंट्स' में यह भी खुलासा करते हैं कि सन 2004 में उन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोका था। राजनीतिक दलों के भारी दबाव के बावजूद वे सोनिया को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। ध्यान रहे, तब यह बात सामने आई थी कि कलाम के विरोध के कारण सोनिया ने 'त्याग' करते हुए मनमोहनसिंह को प्रधानमंत्री बनाया था। हमेशा विवादस्पद मुद्दों को उठा चर्चा में रहने वाले सुब्रमह्ण्यम स्वामी के अनुसार कलाम ने गलतबयानी की है। स्वामी का दावा है कि कलाम ने ही सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोका था। स्वामी ने कलाम को चुनौती दी है कि वे17 मई 2004 को सोनिया को लिखी चिट्ठी को सार्वजनिक करें, जिसमें उन्होंने सोनिया के साथ पूर्व निर्धारित मुलाकात को रद्द करते हुए बाद में प्रधानमंत्री के मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलाया था। स्वामी यहां तक दावा करते है कि उस दिन स्वयं कलाम ने उन्हें बताया था कि सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने में कानूनी अड़चन है। अब, या तो डॉ. कलाम झूठ बोल रहे हैं या फिर डॉ. सुब्रमह्ण्यम स्वामी। एक ओर देश के पूर्व राष्ट्रपति, दूसरी ओर प्रतिष्ठित हार्वर्ड यूनिर्वसिटी के पूर्व प्रोफेसर! झूठ और सच के इस भंवर जाल में कौन झूठा और कौन सच्चा? इसका फैसला एक न एक दिन जनता कर ही देगी।

Sunday, July 1, 2012

वरुण के दो टूक पर यह कैसा राष्ट्रीय मौन?


यह कैसा देश, कैसा लोकतंत्र जहां एक निर्वाचित सांसद सार्वजनिक रुप से यह कहता है कि सांसद और विधायक की उम्मीदवारी के लिए 'बैंक बैलेंस' देखा जाता है, पारिवारिक पाश्र्व को अहमियत दी जाती है! क्या सचमुच 'धन' और 'वंश' ने पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपने मजबूत आगोश में जकड़ रखा है? अगर यह सच है तो तय मानिए कि आदर्श लोकतंत्र की मौत निकट है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और युवा भाजपा सांसद वरुण गांधी दो टूक शब्दों में जब इन बातों की पुष्टि करते हैं, तब इस पर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस होनी ही चाहिए थी। आश्चर्य है कि वरुण के शब्दों को मीडिया ने भी एक सामान्य खबर की तरह छोटा स्थान दिया। क्यों? पड़ताल और बहस इसपर भी होनी चाहिए। कुछ दिनों पूर्व भारत के सर्वाेच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने जब भारत के मुख्य सेनापती एक मामले की सुनवाई करते हुए सुझाव दिया था कि 'बुद्धिमान वही होता है, जो हवा के रुख के साथ चलता है', तब भी मीडिया की भूमिका कुछ ऐसी ही थी। जबकि उस पर राष्ट्रीय बहस शुरु कर तार्किक परिणति पर पहुंचा जाना चाहिए था। अभी कुछ दिनों पूर्व निजी बातचीत में एक सांसद ने स्वीकार किया कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने लगभग 10 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें से 2 करोड़ रुपए मीडिया पर खर्च करने पड़े थे। बता दूं, अपनी व्यापक लोकप्रियता के बावजूद उपसांसद को चुनाव में इतनी बड़ी राशि खर्च करनी पडी थी। बहरहाल, बातें वरुण के शब्दों की। 
वरुण शायद गलत नहीं है। उन्होंने तो सांसद के रुप में स्वयं की पात्रता को भी बहस का मुद्दा बना डाला है। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि वे सांसद बने तो सिर्फ इसलिए कि वह नेहरु-गांधी परिवार के वंशज हैं। इस साफगोई के बाद कम से कम उनके शब्दों में निहित किसी अन्य मंशा की बात तो नहीं ही उठाई जा सकती। न केवल बड़े राष्ट्रीय दलों, बल्कि क्षेत्रीय दलों के विधायकों, सांसदों की सूचियों के अध्ययन से वरूण आरोप सही साबित होंगे। आजादी के बाद आरंभिक काल में शुरु इस रोग ने अब विकराल रुप धारण कर लिया है। हाल कि दिनों में संपन्न चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की भरमार रही। अपवाद स्वरूप कुछ नामों को छोड़ दें तो अधिकांश ऐसे ही पाश्र्व के उम्मीदवार देखने को मिलेंगे। राज्यसभा और विधानपरिषद के लिए तो शायद धन और वंश ही पात्रता की पहली शर्त रही। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में क्षेत्रीय और जातीय मजबूरी को छोड़ दें तो उम्मीदवारी के लिए 'धन' और 'वंश' की योग्यता अनिवार्य रहती है। निश्चय ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने ऐसी शर्मनाक अवस्था की कल्पना नहीं की होगी। क्या कोई लोकतंत्र के लिए कलंक और राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरनाक इस 'रोग' के खिलाफ उठी आवाज को बल प्रदान करेगा? चूकि वरूण गांधी मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, हमारी पहली अपेक्षा भाजपा नेतृत्व से है। दूसरे राजनीतिक दलों से पृथक चाल-चरित्र का दावा करनेवाली भाजपा के नेतृत्व के लिए यह न केवल चुनौती है बल्कि उसकी परीक्षा भी है। देश की युवा पीढी चूकि भाजपा को राष्ट्रीय विकल्प के रुप में देख रही है, उसे इस कसौटी पर खरा उतरना होगा। विफलता की हालत में वह देश की अपराधी बन जाएगी। सत्ता पक्ष के रुप में कांग्रेस को भी आगे आकर वरूण के आरोंपों का जवाब देना होगा। हाल में संपन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी नेतृत्व पर धन लेकर टिकट बांटने के आरोप लगे थे। चुनाव में शर्मनाक हार के बाद ऐसे उम्मीदवारों को एक कारण बताया गया था। वंशवाद की तो जनक ही कांग्रेस है। आज अगर प्राय: सभी दलों में यह रोग व्याप्त है तो इसके प्रणेता के रुप में कांग्रेस को ही मुख्य अपराधी माना जाएगा।
इस अति गंभीर बहस को किसी एक दल में सीमित कर महत्व को घटाया नहीं जाना चाहिए। अपराधी सभी दल हैं। ऐसे में चुनौती है उन सभी को कि अगर वे सचमुच लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं तब दलगत प्रतिबद्धता से पृथक हो इस रोग के विरोध में सामने आएं। अन्यथा, सभी राजदल राष्टीय आक्रोश का सामना करने को तैयार रहें।  देश की युवा पीढ़ी ऐसे राष्ट्रीय शर्म पर 'राष्ट्रीय मौन'\ कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी।

Tuesday, June 26, 2012

दिग्विजय और शिवानंद की राह न चलें बलवीर!


पता नहीं आज के नेताओं को क्या हो गया है! मतिभ्रम के शिकार ये नेता 'छपास' की भूख से आगे बढ़ 'बकवास' के रोग से ग्रसित दिखने लगे हैं। जद यू अध्यक्ष शरद यादव ने अपने दल के प्रवक्ताओं को बकवास करने से तो रोका, किंतु स्वयं दो कदम आगे बढ़ बकवास करने लगे। अपने दल के लिए कायदे-कानून या फिर नीति बनाने के लिए अध्यक्ष के रूप में उन्हें अधिकार प्राप्त हो सकता है। किंतु किसी दूसरे दल के लिए ऐसे फैसले लेने का अधिकार उन्हें किसने दिया। भाजपा अगला लोकसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ेगी और प्रधानमंत्री पद के लिए किसे नामित करेगी, इसका फैसला तो पार्टी नेतृत्व ही कर सकता है। राजग अध्यक्ष होने के बावजूद शरद यादव को ये अधिकार नहीं मिल जाता कि वे भाजपा के आंतरिक मामलों में दखल दें। कुछ दिनों पूर्व जदयू के कद्दावर नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके सहयोगी प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने भी ऐसी गलती की थी। स्वयं शरद यादव को यह नागवार लगा थाौर  उन्होंने अनावश्यक टिप्पणी करने से पार्टी नेताओं को परहेज बरतने का निर्देश दिया था। तब वे सही भी थे। किंतु, अब जब भाजपा के एक प्रवक्ता बलवीर पुंज ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कुछ बातें कहीं तब, शरद यादव को मिर्ची कैसे लग गई। हांलाकि 2014 अभी दूर है। भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद की उम्मीद्वारी को लेकर उठा बवंडर निश्वय ही अनावश्यक है। नरेंद्र मोदी को लक्ष्य बनाकर समर्थन  और विरोध में आ रहे बयान किसी भी कोण से राजनीतिक परिपक्वता को रेखांकित नहीं करते। लोकतंत्र की मूल भावना को भी ऐसे विचार चुनौती देते हैं। चुनावी राजनीति में जब रातों-रात मतदाता अपने विचार बदल लेता है, तब दो साल बाद के संभावित परिणाम पर कोई आज प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने लगे, क्या हास्यास्पद नहीं? वैसे, राजनीतिक समीक्षक बलवीर पुंज की बातों पर भी संदेह प्रकट कर रहे हैं। पुंज ने जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा आगामी चुनाव लड़े जाने की बात कही और मोदी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीद्वार घोषित कर डाला, निश्चय ही ये पार्टी नेतृत्व द्वारा लिए गए निर्णय नहीं हैं। पेशे से पत्रकार बलवीर पुंज को भी संयम से काम लेना चाहिए। अपनी टिप्पणी के पूर्व उन्होंने पाटी नेतृत्व से अनुमति ली होगी या नेतृत्व को विश्वास में लिया होगा, ऐसा नहीं लगता। पार्टी नेतृत्व पहले ही घोषणा कर चुका है कि उचित समय पर इस संबंध में दल के नेता मिल-जुलकर फैसला लेंगे। इस पाश्र्व में बलवीर पुंज को दिग्विजय सिंह और शिवानंद तिवारी के मार्ग पर चलते देख आश्चर्य तो होगा ही!

Sunday, June 24, 2012

'नीयत' साफ नहीं है नीतीश की!

भाजपा नेतृत्व सावधान हो जाए! कभी बिहार को पूरे संसार की नजरों में 'कुख्यात' बना डालने वाले लालू प्रसाद यादव के पुराने सहयोगी और अब  जदयू के 'लाडले' बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी उसी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं जिसकी रूपरेखा उन्होंने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही तैयार कर ली थी। तब विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में नहीं आने देने की शर्त नीतीश ने यूं ही नहीं रखी थी। वे वस्तुत: भाजपा नेतृत्व को भड़का उसकी परीक्षा ले रहे थे। तब की राजनीतिक जरूरत के कारण भाजपा ने नीतीश की शर्त को मान लिया था। ना की हालत में नीतीश कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने वाले थे। अगर चुनाव परिणाम अप्रत्याशित नहीं होते, भाजपा को 91 सीटों के साथ बड़ी सफलता नहीं मिलती, तब नीतीश अपना रंग उसी समय दिखा देते। तब नरेंद्र मोदी को बिहार-प्रवेश से वंचित रखने में सफल नीतीश अब अगर राष्ट्रीय परिदृश्य से मोदी को अलग रखने का मंसूबा पाल रहे हैं, तो अपनी संकुचित अवसरवादी सोच के कारण ही।
दबाव का यह नया खेल क्षेत्रीय राजनीति का कोई तुक्का मात्र नहीं है। राष्ट्रीय दलों को एक सोची-समझी योजना के तहत ये गंभीर चुनौतियां हैं। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्रीय सरकार की हर मोर्चे पर विफलता के कारण देश की जनता भाजपा को विकल्प के रूप में देख रही है। चूंकि अनेक राज्यों में जनाधार की कमी के कारण भाजपा अकेले दम पर केंद्र में सरकार का गठन नहीं कर सकती, क्षेत्रीय दलों का सहयोग-समर्थन अपरिहार्य है। भाजपा की इस जरूरत को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी जदयू और शिवसेना ने भाजपा पर अपने दबाव बढ़ा दिए हैं। अब इसे भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) कहें या राजनीतिक अवसरवादिता, दोनों दलों ने विशेषकर जदयू ने आक्रामक रूप अपना लिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इन दोनों ने आक्रमण को प्रहसन भी बना डाला है। जरा गौर करें। जदयू के एकमात्र मुख्यमंत्री बिहार के नीतीश कुमार और उनके प्रवक्ता शिवानंद तिवारी अब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की न केवल नई परिभाषा गढऩे लगे हैं, बल्कि राजग के सबसे बड़े घटक भाजपा को परामर्श देने लगे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार कैसा हो। एक ताजा सर्वे के अनुसार, भारतीय नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदूवादी नेता निरूपित कर नीतीश और तिवारी ने यहां तक चेतावनी दे डाली थी कि अगर मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाता है, तब वे राजग से अलग हो जाएंगे। आरोप और चेतावनी दोनों हास्यास्पद हैं। अव्वल तो यह कि भाजपा ने किसी को भी अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया  है। लोकसभा चुनाव में अभी दो वर्ष बाकी हैं। दूसरा यह कि 'हिंदूवादी नेता' से नीतीश-तिवारी का आशय क्या है? तीसरा यह कि ऐन राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर ऐसे विवादास्पद बयान क्यों आए? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढऩे से पहले नीतीश कुमार और शिवानंद तिवारी के अतीत के संबंध में जान लेना जरूरी है। ये दोनों कभी बिहार में कुख्यात हो चुके लालूप्रसाद यादव के सहयोगी रहे हैं- बल्कि बिहार में लालू मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके हैं। सच तो यह है कि 1990 में लालू जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब मंत्री नीतीश कुमार लालू के 'फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। लालू तब कोई भी फैसला बगैर नीतीश को विश्वास में लिये नहीं करते थे। नीतीश की स्वच्छ छवि का पूरा फायदा लालू ने तब उठाया था। ईमानदार और बेबाक नीतीश ने अंतत: स्वयं को लालू से अलग कर लिया। जदयू में गए, केंद्र में राजग सरकार में मंत्री बने, लालू के भ्रष्ट शासन के खिलाफ अभियान छेड़ा और भाजपा का सहयोग ले बिहार में मुख्यमंत्री बने।
अब बात शिवानंद तिवारी की। ब्रिटिश शासनकाल में एक सिपाही (कांस्टेबल), फिर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, कृपलानी और डा. राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी के सदस्य, बिहार की पहली गैरकांग्रेसी सरकार (1967) के गृहमंत्री, हर दृष्टि से ईमानदार रामानंद तिवारी के पुत्र हैं शिवानंद तिवारी। छात्र जीवन में उनकी गतिविधियों की अनेक रोचक गाथाएं आज भी पटना के गली-मोहल्लों में अक्सर चर्चा का विषय बनती हैं। नीतीश की तरह लालू को छोड़ जदयू में शामिल शिवानंद जब कहते हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सेक्युलर हो और यह कि जिस प्रकार प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के रूप में महंगाई पर काबू पाया, सत्ता में रहकर भाजपा नहीं कर सकती थी, तब निश्चय ही हास्य-प्रसंग बनता है। राष्ट्रपति के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन की घोषणा करने वाले जदयू के नेता ने प्रणब का हास्यास्पद गुणगान कर दल की नीयत पर सवालिया निशान जड़ दिया है। हर दिन बढ़ रही कमरतोड़ महंगाई पर नियंत्रण का प्रमाणपत्र देकर प्रणब को हीरो बनाने वाले शिवानंद क्या जनता को बताएंगे कि देश के किस भाग में, किस मोहल्ले में, किस गली में, किस नुक्कड़ पर प्रणब ने महंगाई को थाम लिया है! देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर देने वाली सरकार के अर्थ मंत्री प्रणब मुखर्जी स्वयं भी अपने लिये ऐसे महिमामंडन पर हंस रहे होंगे। रही बात सेक्युलर प्रधानमंत्री की, तो पहले शिवानंद यह बताएं कि सन 2002 में जिस गुजरात दंगे के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हुए जदयू मोदी का विरोध कर रहा है, उस समय भाजपा के अटल बिहारी मंत्रिमंडल में शामिल नीतीश कुमार ने विरोध स्वरूप मंत्री पद का त्याग क्यों नहीं कर दिया था? तब तो नीतीश ने एक शब्द भी मोदी के खिलाफ नहीं बोले थे। अगर बात दंगों की ही की जाए तब गुजरात से कहीं अधिक भयावह 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब का समर्थन नीतीश और शिवानंद क्यों कर रहे हैं। ये दोनों क्या भूल गए हैं कि कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में हुए सिख विरोधी दंगे में अकेले दिल्ली में 3000 से अधिक सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दुहाई देने वाले ये दोनों नेता आज जब कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, तब समय आने पर जनता इनसे जवाब मांगेगी। नीतीश और शिवानंद अभी अपने अभियान के क्रम में लोकतंत्र की दुहाई देने से भी नहीं चूके हैं। जानबूझ कर इतिहास से मुंह मोड़ लेने वाले इन नेताओं  को याद दिलाया जाना चाहिए कि वे उसी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं जिसने लोकतंत्र को रौंदते हुए देश पर आपातकाल थोपा था और आम जनता को उसके मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल के जरिये और फिर 1988 में 'प्रेस अधिनियम' के जरिये प्रेस का मुंह बंद कर संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने की कोशिशें की थी। तब स्वयं नीतीश और शिवानंद ने कांग्रेस सरकार के इन कदमों का चिल्ला-चिल्ला कर विरोध किया था। जाहिर है कि आज जब ये दोनों न केवल राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस का गुणगान कर रहे हैं, तब इनकी नीयत संदिग्ध है। कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना की तर्ज पर ये गठबंधन की राजनीति के फायदे को अपने हित में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।

Tuesday, June 19, 2012

'सौदेबाजी' तो हुई ही है, मुलायम जी!


मुलायम सिंह यादव के इन्कार पर भला कोई विश्वास करे तो कैसे? उनकी सफाई कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन के पीछे कोई 'सौदेबाजी' नहीं की गई है, अविश्वसनीय है। कोई और क्या, स्वयं मुलायम सिंह की आत्मा जानती होगी कि वे झूठ बोल रहे हैं। घोर अवसरवादी और वंशवादी राजनीति के प्रेरक-पोषक मुलायम यादव बगैर स्वार्थ के ऐसा कोई कदम उठा ही नहीं सकते। स्वार्थपूर्ति चाहे व्यक्तिगत हो, परिवार की हो या पार्टी की। सौदेबाज मुलायम स्वहित से ही प्रेरित होते हैं।  अब चाहे इनके गुरु स्व. राम मनोहर लोहिया स्वर्ग में बैठे जितना भी आंसू बहा लें, मुलायम-परिवार का 'सुख-सागर' भरता ही जाएगा। ऐसी सौदेबाजी से मुलायम व उनका परिवार सदा लाभान्वित होता रहा है। ताजा राष्ट्रपति चुनाव तो उनके लिए अनेक अवसर लेकर आया है। शत-प्रतिशत अनुभवहीन पुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा स्वयं केंद्र की राजनीति करने वाले मुलायम जानते हैं कि नदी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता। आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी का हश्र उनके सामने है। जगन ने कांग्रेस को चुनौती दी। आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में आनन-फानन में सीबीआई ने उन्हें जेल में डाल दिया। मुलायम के ऊपर ऐसे अनेक मामले वर्षों से लंबित हैं। लेकिन वे न केवल जेल के बाहर हैं बल्कि हर सत्ता सुख को भोग रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार के मामले में पहले ममता बनर्जी के कंधे पर हाथ रखा, बाद में ठेंगा दिखा दिया। आशावान ममता को न केवल अकेला छोड़ दिया बल्कि उन्हें 'मेरा' और 'हमारा' के बीच फर्क का पाठ पढ़ाया गया। क्या यह कांग्रेस के साथ हुई सौदेबाजी का अंश नहीं? अखिलेश को उत्तर प्रदेश चलाने के लिए केंद्र का समर्थन चाहिए तो महत्वाकांक्षी मुलायम को ब-रास्ता दिल्ली राष्ट्रीय राजनीति में पैर फैलाने का अवसर। संप्रग और सरकार से ममता के अलग होने पर रिक्त रेल मंत्रालय सहित मंत्रिपरिषद के पांच पदों पर मुलायम की नजरें टिकी हैं। दोनों हाथों से मलाई खाने की इच्छा रखने वाले मुलायम जानते हैं कि फिलहाल सोनिया गांधी का साथ देकर ही वे जेल से बाहर रह सत्ता सुख भोग सकते हैं। अपनी अवसरवादी सौदेबाजी से मुलायम पहले भी लाभान्वित होते रहे हैं। 1995 के जून महीने में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तब बहुजन समाज पार्टी की मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेनी थी। शपथ के एक दिन पूर्व 2 जून 1995 की शाम मुलायम सिंह यादव के समर्थकों ने बसपा के कई विधायकों पर कथित रूप से हमले किए और कुछ विधायकों का अपहरण कर लिया। इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष को घटना संबंधी जांच का जिम्मा सौंपा। एक महीने बाद जांच रिपोर्ट सौंपी गई। रिपोर्ट में यह कहा गया था कि घटना में मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा शामिल थे। नैतिकता का तकाजा था कि मुलायम को मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ध्यान रहे, तब मुलायम केंद्र में रक्षा मंत्री बन गए थे। लोगों को आज भी याद होगा कि उसी दौरान किस प्रकार देश के रक्षा मंत्री मुलायम ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा तथा अन्य नेताओं के साथ न केवल विरोधियों को ललकारा और धमकी दी, बल्कि प्रेस को भी नहीं बख्शा। उन्होंने एक लाल दस्ता (रेड ब्रिगेड) के गठन की घोषणा करते हुए ऐलान किया था कि इसके सदस्यों के हाथों में लाठियां होंगी। मुलायम तब केंद्रीय स्तर पर बाहुबल की राजनीति के प्रेरक बने थे। बाद में मामला अदालत में भी गया। रक्षा मंत्री देश की 10 लाख सशस्त्र सेनाओं का नेतृत्व करता है जो देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए जिम्मेदार है। किन्तु तब रक्षा मंत्री मुलायम यादव नैतिकता से दूर इस्तीफे से इन्कार करते हुए अपनी जिद पर अड़े रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी समाजवादी पार्टी की आशातीत सफलता से उनकी महत्वाकांक्षाएं और भी बलवती हो गई हैं। केंद्र में संप्रग सरकार की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हुए मुलायम यादव सौदेबाजी करने लगे हैं। सरकार को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव की जरूरत के मद्देनजर केंद्र सरकार भी उन्हें चारा डालने को मजबूर है। दोनों पक्षों की जरूरतें ही हैं कि इस ताजा मामले में सौदेबाजी को मूर्त रूप दिया गया। मुलायम चाहे जितना इन्कार कर लें, देश जानता है कि उन्होंने अपने और अपने परिवार के निजी फायदे के लिए ऐसी सौदेबाजी की है। 

''.... मैं देख लूंगी'' से ''.... मैं नहीं डरूंगी'' तक


''.... मैं देख लूंगी!'' ये शब्द हैं तब की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के। लगभग 43 वर्ष पूर्व 1969 में इंदिरा गांधी ने ऐसी शाब्दिक चेतावनी अपनी ही कांग्रेस पार्टी की कार्यकारिणी समिति को दी थी। आज चार दशक बाद केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की गठबंधन सरकार की एक सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दहाड़ रही हैं कि ''.... मैं किसी से नहीं डरती, मैं किसी के आगे नहीं झुकूंगी।'' विडंबना यह कि ये चेतावनियां दोनों महिला राजनेताओं ने राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच दी। भारत की आजादी की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ''हम पुराने से नए में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त होता है और लंबे समय से दबी हुई एक देश की आत्मा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है।'' नेहरू की आत्मा आज निश्चय ही विलाप कर रही होगी, यह देख-सुन कर कि आज 'अभिव्यक्ति' को अवसरवादी संतुलन का हथियार बना दिया गया है। 
सुविधानुसार नैतिकता और मर्यादा की बेडिय़ों से इसे बांध दिया जाता है। सत्तारूढ़ संप्रग द्वारा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया में ममता बनर्जी कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलती हैं। बैठक पश्चात जब वह मीडिया को सोनिया की पसंद बताती हैं, तब कांग्रेस की ओर से उन पर मर्यादा भंग करने का आरोप लगता है। कहा गया कि उन्होंने विचाराधीन नामों को सार्वजनिक कर मर्यादा भंग की। ममता की ओर से स्पष्टीकरण आया कि सोनिया की सहमति से ही नाम सार्वजनिक किए गए। कांग्रेस मौन हो गई। साफ है कि आरोप गलत थे। मर्यादा और नैतिकता की बातें ममता के विरुद्ध वातावरण तैयार कर उन्हें नीचा दिखाने के लिए की गई थीं। मर्यादा की दुहाई देने वाले कांग्रेसी नेताओं को 1969 की याद कर लेनी चाहिए थी। आज तो मामला जटिल गठबंधन का है। तब केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार थी। अति महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस संगठन की इच्छा को ठेंगे पर रखते हुए पार्टी द्वारा चयनित राष्ट्रपति उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ अपनी पसंद वी.वी. गिरी को खड़ा कर दिया था। दलीय अनुशासन और नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए इंदिरा गांधी ने तब अपनी ही कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ कथित 'अंतरात्मा की आवाज' पर मतदाता सांसदों और विधायकों से वोट डालने की अपील कर डाली। कांग्रेस इतिहास का वह एक सर्वाधिक काला अध्याय बन गया। सो, कम-अ•ा-कम कांग्रेस नैतिकता और मर्यादा की दुहाई तो न ही दे। पार्टी अनुशासन तोड़ कर मर्यादा का उल्लंघन कर तब इंदिरा गांधी अपने अभियान में सफल रही थीं- अपनी ही कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को पराजित कर।
आज जब कांग्रेस बल्कि संप्रग के पास अपने उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को जिताने के लिए आवश्यक बहुमत नहीं है, पार्टी और गठबंधन क्या अवसरवादी खेल नहीं खेल रहा? ज्ञात श्रोतों से अधिक आय और संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रहे मुलायम सिंह यादव, ऐसे ही आरोप से जूझ रहीं मायावती और कुख्यात चारा घोटाले के महानायक लालू प्रसाद यादव के सहयोग से अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति भवन में आसीन कराने की कवायद क्या अवसरवादिता और अनैतिक साठगांठ को चिन्हित नहीं करता? निश्चय ही छल-कपट आधारित इस कवायद की परिणति किसी सुखद पवित्रता के रूप में तो नहीं ही होगी। बंगाल की शेरनी के रूप में परिचित ममता बनर्जी जब अपनी 'निडरता' को रेखांकित कर रही हैं, तब यहां भी किसी सुखद अंजाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। संप्रग की ओर से बंगाल के प्रणब मुखर्जी को आगे करना अगर अवसरवादी राजनीति की एक चाल है तो बंगाल की ममता बनर्जी द्वारा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को सामने करना भी सियासी चाल ही है। इस पूरे प्रकरण का सर्वाधिक दुखद पहलू है राष्ट्रपति पद की गरिमा को तार-तार करना। भारत जैसे गणराज्य का राष्ट्रपति तो सर्वमान्य होना चाहिए। इस पद और व्यक्ति को लेकर अवसरवादी सोच और सियासी चाल को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए। डा. राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन की परंपरा को तोड़ व्यक्तिगत पसंद और नापसंद को महत्व दिये जाने का दुष्परिणाम ही है यह। दुखद रूप से देश ने फखरुद्दीन अली अहमद के रूप में ऐसा राष्ट्रपति भी देखा है जिसने संवैधानिक आवश्यकता को दरकिनार कर देश पर आपातकाल थोपने संबंधी आदेश पर आधी रात को हस्ताक्षर कर दिए थे। तब राष्ट्रपति भूल गए थे कि उनके हस्ताक्षर से आजाद भारत के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। तब आजादी की लड़ाई के लाडले जेलों में बंद कर दिए गए थे। जन अभिव्यक्ति का माध्यम 'प्रेस' की जुबान पर ताले जड़ दिए गये थे। यही नहीं, ज्ञानी जैल सिंह के रूप में भी देश ने एक ऐसे राष्ट्रपति को देखा जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ''अगर इंदिरा गांधी उन्हें राष्ट्रपति भवन में झाड़ू लगाने का काम देतीं तो उसे भी स्वीकार कर लेते।'' राष्ट्रपति और राष्ट्रपति पद की मर्यादा को तब रौंदा गया था।
हम अतीत की याद वर्तमान और भविष्य को सुधारने के लिए करते हैं। मर्यादा और नैतिकता की बातें करने वाले इतिहास के पन्नों को उलट सचाई को जान लें। अभी भी समय है। राष्ट्रपति पद को विवादों से दूर रखने के लिए आम सहमति बनाएं। किसी व्यक्ति विशेष को निशाने पर लेकर राजनीतिक लाभ साधने की कवायद का त्याग करें। और अंत में, महत्वपूर्ण यह भी कि देश फैसला करे कि हमें एक महान राष्ट्र का महान नागरिक बनना है, न कि एक महान राष्ट्र में तुच्छ नागरिक बन कर रहना है।

Monday, June 18, 2012

ममता की व्यथा, राजनीति का सच!


''... राजनीति में नीति और नैतिकता खत्म हो गई है... सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है... पैसा, पावर, घोटाले का बोलबाला है। '' पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की इस व्यथा को क्या कोई चुनौती दे सकता है? संभव ही नहीं! ममता ने वर्तमान राजनीति के कड़वे सच को चिन्हित किया है। ममता की व्यक्तिगत ईमानदारी संदेह से परे है। समाज के प्रति उनका समर्पण और आमजन की सुख-समृद्धि की उनकी चाहत स्पष्टत: दृष्टिगोचर है। लंबे राजनीतिक संघर्ष के दिनों में भी पसीना बहा सड़कों पर आम कार्यकर्ता के साथ जनहित में मोर्चा संभालने वाली ममता पहले केंद्रीय मंत्री और अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बगैर किसी अहंकार के एक सामान्य महिला के रूप में शासन की बागडोर संभाल रही हैं। आलोचक उन्हें भले ही अक्खड़ कह लें, लेकिन ऐसा अक्खड़पन कोई ईमानदार व्यक्ति ही दिखा सकता है। हमेशा दोटूक बोलने वाली ममता ने जब वर्तमान राजनीति के सच को उकेरा है तब निश्चय ही अपने अनुभव के आधार पर ही। बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। आजादी के बाद शासन के आरंभिक दौर को छोड़ दें तब ऐसे आरोप लगाने में कोई भी नहीं हिचकेगा कि वर्तमान राजनीति नैतिकता की पुरानी नींव की जगह अनैतिकता की नई नींव पर खड़ी है। निजी बैठकों में या फिर सार्वजनिक मंच से नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता मन ही मन स्वयं पर हंसते हैं। चूंकि वे सचाई से अवगत होते हैं, अपने 'अभिनय' की सराहना में मुदित तो होंगे ही। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी सुविधानुसार नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ लेते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि नैतिकता के 'छूत' से बचने के लिए आज प्राय: सभी राजदल छद्म धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण विचारधारा को ढाल बना लेते हैं। सत्ता वासना के इस खेल में सभी शामिल हैं। किसी एक दल का कोई व्यक्ति विशेष आज किसी दूसरे दल की दृष्टि में अछूत हो सकता है, किन्तु वही व्यक्ति विशेष जब पाला बदल उनके दल में शामिल हो जाता है तब वह पवित्र बन जाता है। निश्चय ही ये सब पैसा, पावर और घोटाले के खेल के ही अंग हैं। देश ने वह काल भी देखा है जब 1996 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में विजय पाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार तो बनाई किन्तु प्रधानमंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति के होने के बावजूद सरकार 13 दिन में ही गिर गई। तब 'सांप्रदायिक भाजपा' को समर्थन देने कोई दल सामने नहीं आया। किन्तु कुछ महीने बाद ही जब पुन: भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, तब लगभग दो दर्जन दल उसके सहयोगी बने। भाजपा अछूत से पवित्र बन गई। उसी काल में देश ने देखा कि कैसे सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की सरकार को इसलिए गिरा दिया कि उनके मंत्रिमंडल में द्रमुक भी शामिल थी। सोनिया गांधी के अनुसार, द्रमुक उनके पति राजीव गांधी की हत्या के लिए दोषी थी। लेकिन वही द्रमुक सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित संप्रग सरकार में आज भी शामिल है। ममता बिल्कुल सही हैं। नीति और नैतिकता को सभी दलों ने कूड़ेदान में डाल दिया है।
ममता यहां भी बिल्कुल सही हैं जब वे कहती हैं कि राजनीति में आज सिर्फ पैसे का खेल चल रहा है। लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद के लिए चयनित महानुभावों की सूचियों पर गौर करें। कुछ अपवाद छोड़ दें तो यही तथ्य उभर कर सामने आएगा कि इनके चयन के पीछे पैसा और सिर्फ पैसा का ही खेल रहा है। लोकसभा की तो छोड़ दें, विधान परिषद के चुनावों में भी करोड़ों का खेल होता है। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसे धन का स्रोत कालाधन ही होता है? क्या यह भी बताने की जरूरत है कि ऐसे कालाधन भ्रष्टाचार द्वारा ही अर्जित किए जाते हैं? फिर ऐसे महान निर्वाचित प्रतिनिधियों से पवित्र लोकतंत्र की सुरक्षा अपेक्षा कोई करे तो कैसे? आज अगर पूरी की पूरी व्यवस्था सड़ कर बदबू पैदा कर रही है तो इसके लिए जिम्मेदार निश्चय ही हमारे ऐसे तथाकथित निर्वाचित प्रतिनिधि ही हैं। वे नाराज होंगे, खफा होंगे, उबलेंगे लेकिन यह कड़वा सच मोटी रेखाओं से चिन्हित रहेगा। और हां, अंत में ऐसे सच को एक सत्ता पक्ष की ओर से रेखांकित करने के लिए ममता बनर्जी को सलाम!