चलो अब काले कोयला के बाद सीधे प्रधानमंत्री से भी पूछ लें '...मनमोहनजी, मनमोहनजी, आप कितने सफेद? कितने पाक, कितने साफ ? कोयला तो काला है। अब आपको अपनी सफेदी का प्रमाण देना होगा। स्वयं को पाक - साफ साबित करने के लिए प्रधानमंत्री को ही सामने आना पड़ेगा, क्योंकि आरोप देश के मुखिया पर है। मुखिया को हर हाल में स्वच्छ -पवित्र रहना ही होगा। अब देखना है कि प्रधानमंत्री में कितना नैतिक बल है। या तो वे स्वयं को निर्दोष साबित करेंगे या फिर 2जी के आरोपी ए. राजा की पंक्ति में खड़े कर दिए जाएंगे। और तब न्याय जनता करेगी।
मुखिया के संदर्भ में मुझे आपातकाल के दिनों की एक घटना की याद आ रही है। कांग्रेस के एक लेखक-पत्रकार सांसद शंकर दयाल सिंह के गांव देव (औरंगाबाद बिहार) में एक समारोह आयोजित था। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम मुख्य अतिथि के रुप मे मौजूद थे। अपने संबोधन में तब जगजीवन राम ने 'मुखिया' की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा था कि '...मुखिया पूरे गांव का अभिभावक होता है। वह सुबह-शाम गांव का चक्कर लगा सुनिश्चित करता है कि सभी घरों में चुल्हा जला की नही। उसके बाद ही मुखिया मुख में अन्न का दाना डालता है। ....लेकिन अगर मुखिया का मुख ही चोर हो जाए तो तब क्या होगा... मुख अन्न के कुछ दानों को चुराकर दबा लेगा। लेकिन बाद में वे दाने सड़कर दुर्गंध देने लगते हैं। मुखिया का पूरा मुख दुर्गंध देने लगता है। मुखिया चोर साबित हो जाता है। .... आज देश की हालत ऐसी ही हो गई है। मुखिया ही चोर नजर आ रहा है। ' मुखिया से जगजीवन राम का आशय स्पष्ट था। यह दोहराना ही होगा कि जगजीवन राम ने तब कांग्रेस और सरकार छोड़ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को समर्थन दे दिया था। 1977 जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब जगजीवन राम उपप्रधान मंत्री बनाए गये थे। आज जब देश के मुखिया को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी निश्चय ही मुखिया पर ही है।
ऐसे में सवाल यह भी की व्यक्तिगत रूप से ईमानदार अगर किसी व्यक्ति के अधीन, दूसरे शब्दों में उसकी छत्रछाया में, भ्रष्टाचार अपनी जडं़े फैलाता जाए तो क्या उस व्यक्ति को भ्रष्ट मुक्त करार दिया जा सकता है? शायद नहीं! उस व्यक्ति को 'क्लीनचिट' दिये जाने की हालत में भ्रष्टाचार की परिभाषा बदलनी होगी। इस पाश्र्व में 'ईमानदार' प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कोई 'क्लीनचिट' कैसे देगा? कोयला मंत्रायल का अतिरिक्त प्रभार संभालने की अवधि में उनके द्वारा खदानों के आबंटन पर सवालिया निशान लगाते हुए भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अनियमितता और पक्षपात के गंभीर आरोप लगाए हैं। उनकी रिपोर्ट के अनुसार मनमोहन सिंह के फैसलों के कारण सरकार को 1.86 लाख करोड़ की हानि हुई। 'कोयले की दलाली में हाथ काला' की पुरानी कहावत के जानकार पुष्टि करेंगे कि कोयला का पूरा का पूरा व्यापार, खदान आबंटन से लेकर विपणन तक भ्रष्टाचार के साये में होता है। विवादास्पद आबंटन के मामले में साफ-सुथरी प्रक्रिया और पारदर्शिता की दुहाई देने वाले कुतर्क दे रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। खदानों की नीलामी की अनुशंसा को दरकिनार कर सीधे आबंटन की प्रक्रिया वर्तमान व्यवस्था के अंदर भ्रष्टाचार मुक्त हो ही नहीं सकती। सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था ऐसा होने नहीं देगी। कोयला मंत्रालय द्वारा खदानों के आबंटन में जो प्रक्रिया अपनाई गई थी, उसमें अधिकारियों से लेकर आवदेकों तक की चांदी रही। रातों रात करोड़पति-अरबपति बन जाने वाले राजनीतिक भी अपने थैलों को वजनी बनाते गए। जिन दिनों पावर प्लांट, सीमेंट, स्टील उद्योगों के नाम पर कोयला खदानों के आबंटन के लिए कोयला खदानों को लेने की धूम मची थी, राजधानी दिल्ली के पांच सितारा होटलों की लॉबियों में दलालों की बैठकें आम थी। दलाल कोई टूटपूंजीये नहीं थे। कोल इंडिया व उसकी अनुषंगी कम्पनियों के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष और निदेशक गणों के साथ-साथ बड़े राजनेता भी शामिल थे। उच्चाधिकारियों तक उनकी सीधी पहुंच और आबंटन प्रक्रिया संबंधी पूरी जानकारी होने के कारण ये अपने 'ग्राहकों' के पक्ष में फैसले करवाने में सक्षम थे। जाहिर है सब कुछ 'धन लाभ' के लिए किया जाता था। कोयला खदानों की लूट हुई और खूब हुई- नियमों को ताक पर रख कर या फिर उनमें ढील देकर। खदानों का आबंटन अपने पाले में करवाने वाले अगर मालामाल हो रहे थे तो संबंधित अधिकारियों-नेताओं की भी चांदी थी। फिर क्या आश्चर्य कि सरकारी खजाने को लाखो-करोड़ों से वंचित होना पड़ा। ऐसे में कोयला मंत्री के रुप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिम्मेदारी से बच कैसे सकते है? स्वयं प्रशासनिक अधिकारी रह चुके मनमोहन सिंह को 'लूट' की भनक नहीं लगी हो, इस पर कोई विश्वास कैसे करेगा। एक कुशल अनुभवी प्रशासक तो किसी संचिका में लिखी पहली पंक्ति को पढ़कर ही आशय-नीयत-मंशा को भाप लेता है। फिर मनमोहन सिंह कैसे चूक गए। साफ है कि 'ईमानदार मनमोहन' ने किसी दबाव या मजबूरी में आखें मूंद रखी होगी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अन्य घोटाला प्रधानमंत्री कार्यालय की आपराधिक उदासीनता सामने आ चुकी है। कोयला खदान आबंटन में भी निश्चय ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय कुछ खास लोगों को लाभ पहुंचाने की दिशा में अगर मौन रहा तो कहीं किन्ही अन्य कारणों से। मनमोहन सिंह के घोर आलोचक भी 'धन लाभ' के बदले किसी को उपकृत करने का आरोप उनपर नहीं लगा सकते। लेकिन जब उनकी छत्रछाया में हजारों लाखों करोड़ का ऐसा घोटाला हुआ है तब प्रधानमंत्री कुछ और नहीं तो नैतिक रूप से जिम्मेदार तो हैं ही। उन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेनी होगी। विपक्ष अगर इस्तीफे की मांग कर रहा है तो इसके गलत क्या है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर अपनी सार्वजनिक छवि को पाक-साफ रखना चाहते हंै तो न केवल वे पद से इस्तीफा दें बल्कि उन अनजान दबावों और मजबूरी का भी खुलासा कर दें, जिनके कारण उनके चेहरे पर कालिख लगी है।