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Sunday, May 2, 2010

गडकरी के लिए निर्णय की घड़ी

क्या सचमुच नैतिकता, ईमानदारी, मूल्य, सरोकार, रिश्ते, धर्म, सचाई, संवेदना, विश्वास, समर्पण, प्रतिबद्धता, त्याग, मित्रता, सौहाद्र्र जैसे शब्द और इनके निहितार्थ बेमानी हो गए हैं? पूरे समाज-देश पर इनके विपरीतार्थ शब्दों के कब्जे को देखते हुए मस्तिष्क में यह सवाल हथौड़े की चोट सरीखा प्रहार कर रहा है। मेरी इस वेदना का समाधान मेरे एक मित्र अपने ढंग से किया करते हैं। वे तर्क देते हैं धर्मशास्त्र में वर्णित कलियुग का। कहते हैं, जो कुछ समाज में घट रहा है वह सब कलियुग के लिए निर्धारित है। ऐसा होना था सो हो रहा है। शास्त्रों में साफ-साफ लिखा है कि कलियुग में झूठ-छल-कपट-अनाचार का बोलबाला होगा। चारों ओर पाप ही पाप नजर आएगा। यहां तक कि सारे पवित्र रिश्ते भी तार-तार हो जाएंगे। जब इनकी अति हो जाएगी तब पाप का घड़ा पूरा भर फूट जाएगा। इसके साथ ही कलियुग का अर्थात् ऐसे पापों का अंत होगा। तो क्या इसे पूर्व निर्धारित नियति मानकर हम मौन रहें, तटस्थ बने रहें? मुझे यह स्वीकार्य नहीं। जब ईश्वर ने मानव योनि में जन्म दिया है तब मानवीय संवेदना, सभ्यता और इनसे जुड़ी अपेक्षाओं का आदर तो करूंगा ही। मित्र का तर्क है कि अगर ऐसा किया तब दुर्घटनाग्रस्त हो जाऊंगा! चिंता नहीं। मैं इसके लिए तैयार हूं।
पिछले दिन दिल्ली में था। झारखंड के राजनीतिक संग्राम में खिंची तलवारों को देखकर विस्मित रह गया। महाभारत के पांडव-कौरव के सामने तो लक्ष्य निर्धारित थे। इस महासंग्राम में अपने ही पक्ष के लोगों पर छुपा वार होते देखा। अहं और निज स्वार्थ के लिए पार्टी, देश और लोकतंत्र के हित के विरुद्ध व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पार्टी की छवि को दागदार बनाते देखा, लोकतंत्र को कलंकित करते देखा। यहां मैं बात भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा की कर रहा हूं। दोनों का गठबंधन झारखंड प्रदेश में सत्तारूढ़ है। मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन मुख्यमंत्री हैं। पारिवारिक और राजनीतिक कारणों से 'अस्वस्थ' शिबू सोरेन अर्थात् गुरुजी से एक भूल हुई। भाजपा को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। गुरुजी ने न केवल क्षमा मांगी बल्कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर डाली। यह पेशकश भी कर दी कि भाजपा चाहे तो मुख्यमंत्री पद भी ले ले। स्थिति की नाजुकता को भांप भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी प्रदेश में सोरेन सरकार से समर्थन वापसी के निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए मामले को सुलझाने में जुट गए। पल-पल परिवर्तित घटना विकासक्रम से पाठक परिचित होंगे। मेरी पीड़ा कुछ और है। भाजपा के कद्दावर नेताओं को अपने-अपने अहं की तुष्टि के लिए पार्टी की छवि की चिंता से निर्लिप्त देखा। कांग्रेस के मुकाबले राष्ट्रीय विकल्प के रूप में तेजी से स्थापित हो रही भाजपा के मार्ग में इन नेताओं को अवरोधक खड़े करते देखा। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ये सभी पार्टी के भविष्य को लेकर चिंतित नहीं बल्कि चिंता इस बात की कि आक्रामक गडकरी का लक्ष्य 2014 सफल न हो। और यह भी कि पार्टी की कोई भी उपलब्धि गडकरी के खाते में न जाए और विफलताओं के लिए सारा की सारा देाष गडकरी के सिर पर हो। अगर यह सब भी कलियुग के पूर्व निर्धारित नियति के अंश हैं तब भी गडकरी को मुकाबले के लिए आगे आना ही होगा। दिल्ली की दलदली राजनीति से अब तक वे बखूबी परिचित हो चुके होंगे। अगर वे इस दलदल को पीछे छोड़ अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो कठोर निर्णय लेने ही होंगे। उदार समन्वय-सहयोग तो ठीक है किन्तु सफलता के लिए 'स्व-निर्णय' को चिन्हित करना ही होगा। गडकरीजी, अब और विलंब नहीं। अब कठोर निर्णय ही आपको पार्टी अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक सफलता दे पाएंगे। अब घड़ी निर्णय की है, चूके नहीं।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

aap sahi likh rahe hain... gadkari ji ko kade kadam uthaane hi honge..