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Wednesday, July 14, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे! [3 ]

नई दुनिया के आलोक मेहता की आशावादिता और दैनिक भास्कर के श्रवण गर्ग का सवाल चिन्हित किया जाना आवश्यक है। आलोक मेहता का यह कथन कि 'पेड न्यूज' कोई नई बात नहीं है, लेकिन इससे दुनिया नष्ट नहीं हो जाएगी, युवा पत्रकारों के लिए शोध का विषय है। निराशाजनक है। उन्हें तो यह बताया गया है और वे देख भी रहे हैं कि 'पेड न्यूज' की शुरुआत नई है। हाल के वर्षों में, विशेषत: चुनावों के दौरान, इसकी मौजूदगी देखी गई है। पहले ऐसा नहीं होता था। आश्चर्य है कि एक ओर जब मीडिया घरानों के इस पतन पर अंकुश के उपाय ढूंढऩे के गंभीर प्रयास हो रहे हैं, पत्रकारीय मूल्यों और विश्वसनीयता के रक्षार्थ संघर्षरत पत्रकार और इससे जुड़े लोग आंदोलन की तैयारी में हैं, आलोक मेहता कह रहे हैं कि इससे दुनिया नहीं नष्ट हो जाएगी। विस्मयकारी है उनका यह कथन। दुनिया नष्ट होगी या नहीं इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती किन्तु अगर 'पेड न्यूज' का सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मीडिया की पवित्र दुनिया अवश्य नष्ट हो जाएगी। पत्रकारीय ईमानदारी, मूल्य, सिद्धांत व सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण की आभा से युक्त चेहरे गुम हो जाएंगे, नजर आएंगे तो सीने पर कलंक का तमगा लगाए दागदार स्याह चेहरे। इनकी गिनती मीडिया की दुनिया के नुमाइंदों के रूप में नहीं होगी। ये पहचाने जाएंगे रिश्वतखोर के रूप में, दलाल के रूप में और समाज-देशद्रोही के रूप में। निश्चय ही तब पत्रकारीय दुनिया नष्ट हो जाएगी। वैसे आलोक मेहता समाज पर भरोसा रखने की बात अवश्य कहते हैं लेकिन जब सामाजिक सरोकारों से दूर पत्रकार धन के बदले खबर बनाने लगें, अखबार 'मास्ट हेड' से लेकर 'प्रिन्ट लाइन' तक के स्थान बेचने लगें, बल्कि नीलाम करने लगें, संपादक पत्रकारीय दायित्व से इतर निज स्वार्थ पूर्ति करने लगें, मालिक 'देश पहले' की भावना को रौंद कर सिर्फ स्वहित की चिंता करने लगें तब समाज हम पर भरोसा क्यों और कैसे करेगा? सभी के साथ गुड़ी-गुड़ी और खबरों में बने रहने के लिए सार्वजनिक मंचों से अच्छे-अच्छे शब्दों का इस्तेमाल समाज के साथ छल है। पेशे के साथ छल है। कर्तव्य और अपेक्षित कर्म के विपरीत ऐसा आचरण पवित्र पत्रकारिता के साथ बलात्कार है। कम से कम पत्रकार, वरिष्ठ पत्रकार, कर्म और वचन में समान तो दिखें।
'दैनिक भास्कर' के श्रवण गर्ग ने आशंका व्यक्त की है कि 'पेड न्यूज' का मामला उठाकर कुछ दबाने की कोशिश की जा रही है। पूरे मीडिया जगत पर यह एक अत्यंत ही गंभीर आरोप है। इसका खुलासा जरूरी है। बेहतर हो गर्ग स्वयं खुलकर बताएं कि 'पेड न्यूज' की आड़ में मीडिया क्या दबा रहा है। श्रवण गर्ग ने एक विस्मयकारी सवाल यह उठाया है कि अगर आज देश में आपातकाल लग जाए तो हमारी भूमिका क्या रहेगी। विचित्र सवाल है यह। निश्चय ही गर्ग का आशय इंदिरा गांधी के आंतरिक आपातकाल से है। आश्चर्य है कि उन्हें यह कैसे नहीं मालूम कि संविधान में संशोधन के बाद 1975 सरीखा कुख्यात आपातकाल लगाया जाना अब लगभग असंभव है। थोड़ी देर के लिए गर्ग के इस काल्पनिक सवाल को स्वीकार भी कर लिया जाए तो मैं जानना चाहूंगा कि वे पत्रकारों की भूमिका को लेकर शंका जाहिर कर रहे हैं तो क्यों? अगर गर्ग का इशारा उस कड़वे सच की ओर है जिसने तब के आपातकाल के दौरान अधिकांश पत्रकारों को रेंगते हुए देखा है, तब मैं चाहूंगा कि गर्ग उन पत्रकारों की याद कर लें जिन्होंने खुलकर आपातकाल का विरोध किया था, रेंगना तो दूर तब की शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता को सड़कों-चौराहों तक पर चुनौती दी थी और 19 महीने तक जेलों में बंद रहे। संख्या में कम होने के बावजूद उन पत्रकारों ने पत्रकारीय दायित्व और मूल्यों को मोटी रेखा से चिन्हित कर दिया था। उनमें से अनेक आज भी सक्रिय हैं। गर्ग उनसे मिल लें, उनके सवाल का जवाब मिल जाएगा। उनकी एक अन्य जिज्ञासा तो और भी विस्मयकारी है। समझ में नहीं आता कि श्रवण ने यह कैसे पूछ लिया कि हम आज आपातकाल में नहीं जी रहे हैं क्या? पत्रकारिता के विद्यार्थी निश्चय ही अचंभित होंगे। किस आपातकाल की ओर इशारा कर रहे हैं गर्ग? सीधा-सपाट उत्तर तो यही होगा कि आपातकाल की स्थिति में न तो वाणी, न ही कलम गर्ग की तरह बोलने व लिखने के लिए आजाद होती। एक अवसर पर श्रवण गर्ग, अप्रत्यक्ष ही सही, 'पेड न्यूज' का समर्थन कर चुके हैं। कुछ दिनों पूर्व दिल्ली में युवा पत्रकारों के एक समूह को संबोधन के दौरान उन्होंने 'पेड न्यूज' के पक्ष में सफाई देते हुए कहा था कि आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया घरानों ने इसका सहारा लिया था। अपने तर्क के पक्ष में उन्होंने शाकाहारी उस व्यक्ति का उदाहरण दिया था जो राह भटक जाने के बाद भूख की हालत में उपलब्ध मांस खाने को तैयार हो जाता है। इससे बड़ा कुतर्क और क्या हो सकता है। सभी जानते हैं कि 'पेड न्यूज' की शुरुआत तब हुई थी जब देश में आर्थिक मंदी जैसा कुछ भी नहीं था। अखबारों ने निर्वाचन आयोग द्वारा उम्मीदवारों के लिए निर्धारित चुनावी खर्च की सीमा को चकमा देने के लिए उम्मीदवारों के साथ मिलकर 'पेड न्यूज' का रास्ता निकाला था। जाहिर है कि इसका सारा लेन-देन 'नंबर दो' अर्थात् कालेधन से हुआ। दो नंबर की कमाई से अपना घर भरने वाले राजनीतिकों की चर्चा व्यर्थ होगी, ऐसे काले धन के लेन-देन को प्रोत्साहित करने वाले पत्र और पत्रकारों को इस पवित्र पेशे में रहने का कोई हक नहीं। स्वयं नैतिकता बेच दूसरों को नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती। यह तो ऐलानिया बेईमानों को संरक्षण-प्रश्रय देना हुआ। निश्चय ही यह पत्रकारिता नहीं है। ईमानदार, पवित्र पत्रकारिता तो कतई नहीं!
(कल जारी)

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बिल्कुल बिक रहे हैं और छोटी से छोटी चीज के लिये बिक रहे हैं. एक बड़े स्वनामधन्य टीवी चैनल के नुमाइन्दे को पार्टी के लिये ठन्डे की व्यवस्था कराने के लिये एक अफसर से विनती/धमकाने जो भी समझें, देख चुका हूं.