कोई पूर्वाग्रह नहीं। कोई दुराग्रह नहीं। कोई आक्षेप नहीं। एक स्वाभाविक जिज्ञासा। बावजूद इसके इस यक्ष प्रश्र का जवाब तो देना ही होगा कि आज पूरा संसार इस्लामी राजनीतिक आक्रामकता से आहत है तो क्यों? सवाल यह भी कि ऐसा क्यों है कि इस्लामी विचारधारा राष्ट्रीय एकता के प्रत्येक पग पर बड़ी बाधा के रूप में खड़ी हो जाती है? इन प्रश्रों के उत्तर ढूंढऩा आज प्रत्येक तटस्थ चिंतकों-विचारकों की बाध्यता है। इसकी उपेक्षा कहीं समाज के लिए आत्मघाती न बन जाए इसलिए भी जवाब चाहिए। ताजा अवसर केरल की घटना ने दिया है।
केरल के एक प्रोफेसर टी.जे. जोसेफ का हाथ काटकर अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों ने बहस का यह अवसर दिया है। देश के कानून को मुंह चिढ़ाते हुए अर्थात्ï चुनौती देते हुए धार्मिक कट्टरवाद को चिन्हित करते हुए इस घटना को अंजाम देकर अल्पसंख्यक आक्रामकता की जीवंतता सिद्ध करने की इस कोशिश को क्या कहा जाए? प्रोफेसर जोसेफ ने मलयाली भाषा के कालेज स्तर के प्रश्रपत्र में एक ऐसा प्रश्र पूछ लिया था जिसे अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों ने मोहम्मद साहब के अपमान के रूप में लिया। इन लोगों ने मामले को सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की। राजनीतिक भी। जमाते इस्लामी सहित अनेक मुस्लिम संगठनों ने प्रतिकार किया। केरल के थोरूपूजा क्षेत्र में हिंसक घटनाएं भी हुईं। प्रोफेसर जोसेफ ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। उनकी गिरफ्तारी हुई थी। विश्वविद्यालय ने भी उनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए उन्हें एक वर्ष के लिए निलंबित कर दिया था। घटना मार्च महीने की थी। फिर अब प्रोफेसर का हाथ क्यों काट लिया गया? पूरे घटनाक्रम में कानून ने अपना काम किया था। गिरफ्तार प्रोफेसर जमानत पर छूटे थे। संबंधित विश्वविद्यालय ने भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए प्रोफेसर के खिलाफ कदम उठाया था। इसके बाद जब कट्टरपंथियों ने कानून को ताक पर रख प्रोफेसर का हाथ काट लिया तब निश्चय ही इन्होंने देश की सांप्रदायिक सौहार्द्रता को चुनौती दी है। इनका मकसद पवित्र कदापि नहीं हो सकता। इनकी कार्रवाई समाज में सांप्रदायिक उन्माद फैलाना ही है। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि इन कट्टरपंथियों की कार्रवाई को अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन प्राप्त होगा। प्रोफेसर का हाथ काटने वाले निश्चय ही असामाजिक तत्व होंगे। या फिर धर्म के नाम पर समाज में वैमनस्य फैलाने वालों ने इनका सहारा लिया होगा। ये तत्व भूल जाते हैं कि उनकी ऐसी कार्रवाई से उनका धर्म, उनका संप्रदाय कलुषित होता है। लोकतंत्र और संविधान अपमानित होता है। पीड़ा तो इस बात की होती है कि ये तत्व धर्म, संप्रदाय व देश विरोधी हरकतें धर्म के ही नाम पर करते हैं। निश्चय ही धार्मिक आधार पर इन लोगों को भ्रमित किया जाता है। इनके दिल और दिमाग में धर्म और संप्रदाय के नाम पर घृणा के बीज बो दिए गए हैं। भारत जैसा विशाल बहुधर्मी देश इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। दुख तो इस बात का है कि हमारे देश के कथित बुद्धिजीवी ऐसे वक्त सामने आ न तो प्रतिरोध करते हैं और न ही उनका मार्गदर्शन। निश्चय ही यह अवस्था अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की उपज है। अत्यंत ही खतरनाक है यह अवस्था। पूरे समाज के लिए अर्थात्ï दोनों संप्रदाय के लिए। केरल की उपर्युक्त हृदय विदारक घटना का वैसा विरोध नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा थी। विरोध से मेरा आशय सांप्रदायिक सोच की भत्र्सना से है। समाज में आम लोग ऐसे वक्त पूछ बैठते हैं कि जब ऐसी कार्रवाई किसी बहुसंख्यक वर्ग से होती है तब तो बवाल खड़ा हो जाता है? बहुसंख्यक वर्ग के ही कथित मनीषी, चिंतक, विचारक, बुद्धिजीवी शोर मचाने लगते हैं। बुद्धिजीवियों की ऐसी एकमार्गी सोच तुष्टीकरण की राजनीतिक नीति को बल प्रदान करती है। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि कतिपय राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति को भी इस सोच से मदद मिलती है? ऐसा नहीं होना चाहिए। केरल की घटना की सिर्फ निंदा ही न हो, अल्पसंख्यक समुदाय को यह समझाने की भी जरूरत है कि धर्म का तमगा लगा उनके बीच रह रहे कट्टरवादी उनके शुभचिंतक नहीं बल्कि दुश्मन हैं।
4 comments:
इब्दिताये इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिये होता है क्या....
कट्टर मुस्लिमों को गोद में बिठाने का जो काम सेकुलर पार्टियों ने किया है उनकी औलादों को जल्द ही फल भुगतना पड़ेगा...
"मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि इन कट्टरपंथियों की कार्रवाई को अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन प्राप्त होगा।"
भले न हो,पर वक्त आ गया है,कट्टरपंथियों की कार्रवाई पर पुरे अल्पसंख्यक समुदाय की भर्त्सना की जाय,तभी इन्हे ज्ञात होगा कि हमने कौम का बुरा किया।
ये सब छद्म् सेकुलरता का परीणाम है
अत्यन्त निन्दनीय कृत्य! जघन्य!
सजग और अच्छी पोस्ट । धन्यवाद!
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