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Wednesday, July 7, 2010

सच के पक्ष में आएं पुलिस आयुक्त!

प्रेस, पुलिस, पब्लिक के बीच परस्पर सामंजस्य को कानून-व्यवस्था के लिए आवश्यक मानने वाले आज निराश हैं। दुखी हैं कि इस अवधारणा की बखिया उधेड़ी गई कानून-व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदार पुलिस के द्वारा! ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं मजबूर हूं अपने इस मंतव्य के लिए कि विगत सोमवार 5 जुलाई को भारत बंद के दौरान नागपुर पुलिस ने अमर्यादा का जो नंगा नाच दिखाया उससे पूरा का पूरा पुलिस महकमा विवेकहीन, अनुशासनहीन दिखने लगा है। लगभग दो दशक बाद नागपुर पुलिस का डंडा कर्तव्यनिर्वाह कर रहे पत्रकारों पर पड़ा। भारत बंद के दौरान समाचार संकलन करने वाले पत्रकारों तथा छायाकारों को अपने डंडे का निशाना बना पुलिस ने आखिर क्या साबित करने की कोशिश की? कहीं वे खाकी वर्दी के खौफ को पुनस्र्थापित कर चिन्हित तो नहीं करना चाहते थे?
अगर ऐसा है तब मैं चाहूंगा कि पुलिस महकमे को संचालित करनेवाले उच्च अधिकारी इतिहास के पन्नों को पलट लें। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला की उस टिप्पणी की याद वे कर लें जिसमें उन्होंने कहा था कि, ''खाकी वर्दी में गुंडों का यह संगठित गिरोह है।'' हालांकि बात काफी पुरानी हो गई किंतु यह कड़वा सच आज भी मौजूद है कि समय-समय पर कतिपय पुलिस कर्मियों का आचरण पूरे पुलिस विभाग को शर्मसार कर देता है। अमूमन ऐसी वारदातों को अंजाम कनिष्ठ पुलिस अधिकारी-कर्मचारी ही दिया करते हैं। दोष उनके प्रशिक्षण का है। 'पुलिस' शब्द में निहित पवित्र भावना के प्रति उनकी अज्ञानता का है। वर्दी की पवित्रता और दायित्व से उनकी अनभिज्ञता का है। इस मुकाम पर प्रतियोगी परीक्षाओं से गुजरकर, समुचित प्रशिक्षण प्राप्त उच्च अधिकारियों से अपेक्षा रहती है कि वे पुलिस बल के इस वर्ग को अनुशासित रखेंगे, कर्तव्यपरायण बनाएंगे। लेकिन यह तभी संभव है जब यह अधिकारी वर्ग जनता की सुरक्षा के अपने दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से करे।
लोकतंत्र की राष्ट्रीय संरचना में पुलिस विभाग को कानून-व्यवस्था और जनसुरक्षा की अहम जिम्मेदारी दी है। उनसे समाज न सिर्फ शांतिव्यवस्था बल्कि अपनी सुरक्षा की अपेक्षा रखता है। पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण के दौरान इस जिम्मेदारी से अवगत भी कराया जाता है। बावजूद इसके जब समाज उन्हें विपरीत आचरण में लिप्त देखता है तब वह लोकतंत्र के इस छलावे पर रूदन कर बैठता है। सवाल खड़े होने पर हमेशा दुहाई भ्रष्ट व्यवस्था की दी जाती है। लोग इसे कलियुग निर्धारित नियति मान स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन यह गलत है। नियति निर्धारण कोई युग नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म करते हैं। कोई भी युग दायित्व से भटकने की अनुमति नहीं देता। भ्रष्टाचार में लिप्त वर्ग ही बहाने के रूप में इसका इस्तमाल करता है। नागपुर पुलिस के उच्च अधिकारी इस सचाई को स्वीकार कर लें। कर्तव्य निष्पादन के दौरान पत्रकारों, छायाकारों को निशाने पर लेनेवाले पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए! अगर ऐसा नहीं हुआ तब पुलिस से प्रेस और पब्लिक विमुख हो जाएगी! स्वयं नागपुर के पुलिस आयुक्त इन तीनों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता पर जोर देते रहे हैं। फिर उनकी ओर से तटस्थता क्यों? आम जनता के प्रति संवेदनशीलता के पक्षधर पुलिस आयुक्त से अपेक्षा है कि वे पत्रकारों की जायज मांग को स्वीकार कर दोषियों को कटघरे में खड़ा करेंगे। वैसे विश्वास तो नहीं फिर भी अगर कोई विभागीय 'अहं' उन पर हावी है तब अपने कर्तव्य के पक्ष में उसका त्याग कर दें। ध्यान रहे, पुलिस विभाग की स्वच्छ छवि जीवंत लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण शर्त होती है। इसके पूर्व नागपुर के पत्रकार सन् 1990 में ठीक ऐसी ही पुलिस प्रताडऩा के शिकार बन चुके हैं। सदर क्षेत्र में तत्कालीन पुलिस आयुक्त के आदेश से 'वन वे ट्राफिक' की कुछ ऐसी व्यवस्था की गई थी जिससे यातायात की व्यवस्था तो चरमरा ही गई थी, आम नागरिक भी परेशान हो उठे थे। तब विरोधस्वरूप आहूत बंद के दौरान पुलिस की लाठियों ने अन्य लोगों के अलावा पत्रकारों को भी निशाना बना लिया था। ठीक पांच जुलाई की घटना की तरह तब भी पुलिस आयुक्त ने अपनी पहली घोषणा में पुलिस लाठीचार्ज से साफ इंकार कर दिया था! लेकिन नागपुर शहर के सुप्रसिद्ध छायाकार नानू नेवरे के एक चित्र ने पुलिस के झूठ को बेनकाब कर दिया था। तब पुलिस आयुक्त ने भी सच को स्वीकार कर दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की थी। मुझे पूरा विश्वास है कि ताजा मामले में भी वर्तमान पुलिस आयुक्त सच को स्वीकार कर दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।

2 comments:

Bhavesh (भावेश ) said...

यह बात सर्वविदित है कि देश में नेता या जंगल राज है. आम आदमी का कोई भी जायज काम बिना गिडगिडाए, या बिना रिश्वत दिए नहीं होता. नेता का हर अनैतिक काम केवल एक फोन से हो जाता है. ऐसे में पुलिस, कानून या अन्य किसी भी महकमे से संवेदनशीलता की उम्मींद करना बिल्कुल बेमानी है. देश के हर सरकारी महकमे का मूलमंत्र ही है अनैतिक आचरण, रिश्वत, हरामखोरी और बेईमानी.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

कोई भी अपने अन्दर झांकना नहीं चाहता, जिस दिन झांकने लगेगा उस दिन यह दिक्कते अपने आप खत्म हो जायेंगी. और police की full form मजाहिया किस्म के लोगों ने बना दी है - principal organisation of legislatively incorporated c.. elements...