Friday, September 24, 2010
पंडित-मौलवी की भूमिका में राजनीतिक?
संभवत: सुप्रीम कोर्ट ने नैसर्गिक न्याय के पक्ष में रमेशचंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई का फैसला कर लिया। परंतु लोग यह जानना चाहेंगे कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पूर्व बुधवार को याचिका खारिज करते हुए यह कैसे कहा था कि सुनवाई उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है? 24 घंटे के अंदर याचिका उनके अधिकार क्षेत्र में कैसे आ गई? हाल के दिनों में संदेहों के काले बादलों से घिरी न्यायपालिका को अपनी निष्पक्षता का प्रमाण देना होगा। उसे यह प्रमाणित करना ही होगा कि गुरुवार का निर्णय उसका अपना निर्णय है, वह सत्ता या किसी अन्य के दबाव में नहीं है। न्याय की यह अवधारणा कि न्याय सिर्फ हो नहीं बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, लांछित न हो! आखिर कुछ दिनों तक अयोध्या की विवादित जमीन पर फैसले को स्थगित करने का आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट न्याय के पक्ष में क्या हासिल कर लेगा? छह दशक पुराने इस मामले पर अदालती फैसले का इंतजार सभी कर रहे हैं। संबंधित पक्ष और पूरा देश चाहता है कि अदालती फैसला शीघ्र हो। हाईकोर्ट ने तो फैसले के लिए 24 सितंबर तारीख भी निर्धारित कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाले त्रिपाठी चाहते हैं कि विवाद का निपटारा सभी पक्ष आपसी बातचीत से अदालत के बाहर कर दें। याचिकाकर्ता के अपने तर्क हो सकते हैं किंतु यह सत्य तो अपनी जगह मौजूद है कि भूतकाल में परस्पर बातचीत के सभी प्रयास विफल साबित हुए हैं। विवाद का राजनीतिकरण हो जाना इसका मुख्य कारण है। ईश्वर और अल्लाह के प्रति आस्था वस्तुत: सिर्फ दिखावे के लिए है। मंदिर-मस्जिद मुद्दे को सीधे-सीधे वोट की राजनीति से जोड़ दिया गया है। दु:खद रूप से इसी आधार पर हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की दरार पैदा कर दी गई है। सत्तालोलुप राजदल और राजनेता सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा को लतियाकर मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेलते रहे हैं। परस्पर सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत करने की जगह सांप्रदायिक घृणा को हवा दी गई है। धर्म के नाम पर देश-समाज को बंाटने का षडय़ंत्र भी रच दिया गया है। दोनों समुदायों में मौजूद कट्टरपंथी धार्मिक आस्था की कोमल व पवित्र भावनाओं का दोहन करते रहे! धार्मिक आस्था संबंधित कमजोरी का लाभ उठाया गया- देश की एकता एवं अखंडता की कीमत पर! जबकि हकीकत में दोनों संप्रदाय के लोग एक-दूसरे की धार्मिक आस्था का सम्मान करते हुए मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं! यह तो राजनीतिकों और सत्ता के हाथों बिक चुके कट्टरपंथी हैं जो लोगों को बरगलाते रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अदालत के बाहर दोनों पक्षों के बीच मतैक्य नहीं हो पाया। समय-समय पर दंगे भड़के, दोनों संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे बन गए। लेकिन यह भी सच है कि अदालती फैसले का सम्मान करने का आश्वासन दोनों पक्ष दे चुके हैं। फिर अदालती विलंब क्यों? 60 साल का अरसा एक लंबा अरसा है। हाईकोर्ट के तीनों न्यायाधीश फैसला सुनाने को तैयार बैठे हैं। इसमें कोई व्यवधान पैदा न किया जाये। यह तो स्वाभाविक है कि फैसले से कोई एक पक्ष असंतुष्ट बना रहेगा। उस पक्ष का इस्तेमाल कट्टरपंथी करना चाहेंगे। प्रयास यह हो कि अदालती फैसले का सम्मान दोनों पक्ष करें। मंदिर और मस्जिद के नाम पर किसी भी सभ्य समाज में खून-खराबा अनुचित है। ऐसे तत्वों के साथ कड़ाई बरती जाए। सिर्फ शासन के लिये यह संभव नहीं। समाज में आम लोगों को सामने आना होगा। सरकार की ओर से दिया जा रहा तर्क कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुला रहेगा, समस्या के हल में मददगार नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस बात की क्या गारंटी है कि असंतुष्ट पक्ष फैसले को स्वीकार कर ही लेगा? फिर क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट के बाद तो अन्य कोई कोर्ट है नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि हाईकोर्ट के फैसले को सम्मान देने के लिए दोनों पक्षों को प्रेरित किया जाए। यह संभव है, शर्त यह कि राजदल और राजनीतिज्ञ, पंडित और मौलवी की भूमिका में न आएं।
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1 comment:
आर या पार होना ही चाहिये. लेकिन डर कांग्रेस से है, यदि फैसला मन्दिर के पक्ष में आया तो संविधान संशोधन भी कर सकती है..
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