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Saturday, August 20, 2016

न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका: दुखद टकराव !



कोई विध्वंसकारी आशंका जब यथार्थ में परिवर्तित होते दिखे तो समाज सहम जाता है। एक भयावह सन्नाटा छा जाता है। वर्तमान का सहमा-सहमा समाज ऐसी ही अवधारणा के उदय को चिन्हित कर रहा है। हां! आज समाज-देश सहमा हुआ है, न्यायपालिका और कार्यपालिक के मध्य उत्पन्न खतरनाक तनाव, टकराव को देख। विकासपथ पर तेजी से अग्रसर भारत में ऐसी असहज स्थिति का उत्पन्न होना दुर्भाग्यपूर्ण है, ऐसा नहीं होना चाहिए।
तीन दशक पूर्व, 26 नवंबर 1985 को  भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने विधि दिवस के अवसर पर अपने उद्बोधन में टिप्पणी की थी कि भारत की न्यायिक प्रणाली  करीब-करीब ढहने की कगार पर है। और आज भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर ने जब सार्वजनिक रूप से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिए गए भाषण पर निराशा व्यक्त करते हुए कतिपय आलोचनात्मक टिप्पणियां की तो देश बेचैन हो उठा। जब देश के मुख्य न्यायाधीश अदालत के कमरे से बाहर  सत्ता - व्यवस्था के खिलाफ सार्वजनिक असंतोष व्यक्त करने लगें तब देश स्वाभाविक रूप  से इस नतीजे पर पहुंचेगा कि न्यायपालिका-कार्यपालिका के बीच सबकुछ ठीकठाक नहीं है। हालांकि, मुख्य न्यायाधीश की सार्वजनिक टिप्पणी जजों की नियुक्तियों में विलंब को लेकर थी किंतु , उनका तंज कसना कि अंग्रेजों के जमाने में भी 10 साल में न्याय मिल जाता था लेकिन अब बरसों लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है, स्वयं में अनेक सवाल खड़े कर रहा है। मुख्य न्यायाधीश दुखी हुए कि अपने डेढ़ घंटे के भाषण में प्रधानमंत्री ने जजों की नियुक्ति के बारे में कुछ नहीं बोला। सवाल सीधे मुख्य न्यायाधीश से ही किए जाना चाहिए कि क्या ऐसे मामलों के निपटारे के लिए सार्वजनिक मंच जायज होंगे? एक प्रधानमंत्री से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे जजों की नियुक्ति संबंधी विषय को अपने स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय संबोधन में शामिल करेंगे? मुख्य न्यायाधीश की ऐसी अपेक्षा के औचित्य को चुनौती मिलेगी ही। जजों की निुयक्तियों में विलंब बल्कि, अतिशय विलंब से न्यायिक प्रक्रिया बाधित हो रही है, लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा है और विलंबित न्याय से अन्याय हो रहे हैं, इन पर कोई दो मत नहीं। पुरानी अवधारणा कि 'न्याय में विलंब का अर्थ है न्याय से वंचित करना’, की भी ऐसे विलंब से पुष्टि हो रही है। बावजूद इसके क्या ये बेहतर नहीं होता कि मुख्य न्यायाधीश और सरकार इस मुद्दे का निपटारा आमने-सामने बैठकर कर लेते? सरकार की ओर से नियुक्तियों में हो रहे विलंब बल्कि, इस मुद्दे पर सरकार की उदासीनता चिंताजनक है। न्यायपालिका की ओर से बार-बार तद्संबंधी अनुरोध सरकार से किए जाते रहे हैं। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक तरह से सरकार को चेतावनी भी दे दी थी कि अगर अब और विलंब हुए तो न्यायापालिका सीधे इस मामले में दखल देने को मजबूर हो जाएगी। अदालत के अंदर की गई टिप्पणी को पूरे देश ने पूरी गंभीरता के साथ लिया था। देश की सहानुभूति भी न्यायपालिका के साथ थी।  न्याय में विलंब के लिए जजों की कमी  के कारण को स्वीकार करते हुए देश ने न्यायापालिका की भावना का साथ दिया।  सरकार को भी तत्काल न्यायापालिका की भावना का संज्ञान लेते हुए नियुक्ति संबंधी लंबित संचिकाओं का निपटारा कर देना चाहिए। ये सब एक सामान्य प्रक्रिया के अंतर्गत हों, इन पर सार्वजनिक बहस लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होंगे। इस सच को सरकार के साथ-साथ स्वयं न्यायापालिक भी समझ ले।

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