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Friday, August 12, 2016

संविधान संशोधन कर दिल्ली 'जंग’ खत्म करें



संविधान सभा ने भारतीय संविधान के प्रारूप को जब स्वीकृति प्रदान की थी तब कहा गया था कि यह संविधान 'जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा’ तैयार संविधान है। विशुद्ध रूप से लोकतांत्रिक भारत को लोकतंत्र आधारित एक ऐसा पूर्ण संविधान दिया गया जिसमें लोक अर्थात जनता की इच्छा को प्रधानता दी गई थी। भावना साफ थी कि लोकतांत्रिक भारत में 'लोक’ सर्वशक्तिमान रहेगा। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की अवधारणा इसी सोच पर आधारित थी। एक निश्चित अंतराल में देश की जनता अपने प्रतिनिधियों का वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कर उन्हें शासन का अधिकार सौंपती रही है। यह व्यवस्था आजादी के बाद से अब तक सफलतापूर्वक चलती रही है। भारतीय लोकतंत्र की सफलता एक आदर्श के रूप में पूरे विश्व में स्थापित है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे लचीला बनाते हुए समय-समय पर आवश्यकता अनुसार संशोधन के अधिकार भी संसद को दिए हैं। ऐसी ही जरूरतों के अंतर्गत अब तक लगभग सवा सौ संशोधन संविधान में किए जा चुके हैं। देश के संघीय ढांचे को चिन्हित करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आवश्यक समन्वय और उनके अधिकारों को भी स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेखित किया गया है। केंद्र शासित राज्यों के लिए भी आवश्यक दिशा-निर्देश संविधान में मौजूद हैं। किंतु हाल के दिनों में देश की राजधानी दिल्ली को लेकर जो अरुचिकर विवाद खड़े हुए हैं वे ऐसे राज्यों को लेकर संविधान की पुनर्समीक्षा के आग्रही हैं।
चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है, इसका अपना विशेष महत्व है।  पिछले वर्ष 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और पूर्व शासक कांग्रेस का लगभग पूरी तरह सफाया, एक पूर्व सरकारी अधिकारी अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में गठित नई आम आदमी पार्टी ने कर दिया। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा की 67 सीटों पर कब्जा कर 'आप’ ने सरकार बनाई। 'आप’ को ऐतिहासिक विजय तो मिली किंतु सरकार गठन के दिन से ही प्राय: हर कदम पर 'आप’ की सरकार को केंद्र सरकार के प्रतिनिधि उप राज्यपाल नजीब जंग नाम के एक बड़े अवरोधक का सामना कर पड़ा। अनेक अरुचिकर विवाद पैदा हुए। 'आप’ की ओर से बताया जाता रहा कि चुनाव में अपनी हार को नहीं पचा पानेवाली केंद्र की भाजपा सरकार अपने 'एजेंट’ उप राज्यपाल नजीब जंग के माध्यम से निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने की कोशिश कर रही है। उप राज्यपाल अड़ंगे पैदा कर 'आप’ सरकार को जनता की नजरों में विफल सिद्ध करना चाहते हैं। स्वाभाविक रूप से मामला अदालत में पहुंचा।
ताजा अरुचिकर प्रसंग की शुरुआत हुई दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद कि केंद्र शासित दिल्ली सरकार का असली मुखिया उप राज्यपाल ही हैं। विस्तृत आदेश में उच्च न्यायालय ने उप राज्यपाल को न केवल प्रशासकीय प्रमुख घोषित किया बल्कि दिल्ली सरकार को बिलकुल पंगु हालत में लाकर रख दिया। अब स्वाभाविक सवाल यह कि जब एक निर्वाचित सरकार के ऊपर एक नियुक्त उप राज्यपाल ही सर्वेसर्वा है तब फिर आम चुनाव, सरकार का गठन, मुख्यमंत्री, मंत्रियों के शपथ आदि की जरूरत ही क्यों? मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है, विशेष टिप्पणी न करते हुए हम सिर्फ आम जनता की उस भावना को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें  यह प्रकट है कि लोकतंत्र में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की गरिमा कायम रखने के लिए संसद संविधान संशोधन कर 'नियुक्त’ उप राज्यपाल के ऊपर 'निर्वाचित’ सरकार को वरीयता दे। लोकतंत्र की भावना तभी अपनी संपूर्णता में उदयीमान होगी। भला एक नियुक्त उप राज्पापाल निर्वाचित सरकार के आदेश कैसे दे सकता है?

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