शर्म, शर्म और शर्म ....! लोग-बाग क्षमा करेंगे। आज जब देश राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराकर अपने गणतांत्रिक स्वरूप पर गौरवान्वित होगा, मेरे जैसे करोड़ों लोग शर्मसार हो रहे हैं, इस बात पर कि देश के एक उच्च न्यायालय (गुजरात हाईकोर्ट) ने यह व्यवस्था दी है कि वस्तुत: भारत की कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं। तकनीकि दृष्टि से यह बात बिल्कुल सही है। अतएव भारतीय संविधान के अंतर्गत घोषित गणतंत्र की स्थापना के दिन मैं सर्वप्रथम देश के राष्ट्रपति और देश के कर्णधारों से पूछना चाहता हूं कि ऐसा क्यों? विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र भारत की कोई अपनी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है? अपना राष्ट्र ध्वज है, राष्ट्रगीत है तो फिर राष्ट्रभाषा क्यों नहीं? इस एहसास से ही कि हमारी कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है, पूरा शरीर कंपनमय हो जाता है।
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की बात कह हम गौरवान्वित तो होते हैं, किंतु राष्ट्रभाषा की अनुपस्थिति इस गर्व पर काला परदा डाल देती है।
गुजरात उच्च न्यायालय की यह व्यवस्था तो अब आई है, किंतु इस आशय का भय लोगों को बहुत पहले से सता रही थी। वस्तुत: सन 1949 में संविधान की स्वीकृति के साथ ही संविधान सभा के सदस्यों के बीच मतैक्य का अभाव और शीर्ष नेतृत्व में दृढ़ संकल्प की कमी के कारण राष्ट्रभाषा शब्द ही संविधान से गायब हो गया। यह ठीक है कि संविधान के अनुच्छेद 343 में राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को स्थान मिला। दृढ़इच्छा शक्ति के अभाव के कारण 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की प्रावधान संविधान में जोड़ दिया गया। तब घोषणा की गई कि इन 15 वर्षों की अवधि में हिंदी का सर्वांगीण विकास, प्रचार-प्रसार कर उसे पूर्ण रूप में राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। अर्थात, उन 15 वर्षों में व्यवहार के स्तर पर हिंदी, अंग्रेजी का स्थान ले लेगी। लेकिन देश में भाषा की ऐसी राजनीति शुरू हुई कि संविधान के अनुच्छेद 343 के ही खंड (3) में इस आशय का उपबंध जोड़ दिया गया, जिसमें संसद को अधिकृत कर दिया गया कि वह चाहे तो संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को जारी रख सकती है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को दर्जा दिलाए जाने के खिलाफ षडयंत्र की तब एक दीवार खड़ी कर दी गई थी। षडयंत्रकारी देश की मान-प्रतिष्ठा को दांव पर लगाते रहे और आज स्थिति यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने भाषा अर्थात हिंदी विरोध को ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया है। अंग्रेजी को अधिकार की भाषा समझने वाले अधिकारियों की फौज ने भी हिंदी के मार्ग में अवरोधक खड़े कर दिए हैं। प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी का शासकीय दंभ की अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल करते हंै। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के अपने पूर्वग्रह है। हालांकि सच यह है कि यह वर्ग घोर हीन मनोग्रंथि का शिकार है। और कड़वा सच यह है कि अंगे्रजी का पक्षधर यह वर्ग अंगे्रजी भाषा का अल्पज्ञान ही रखता है। मानक अंगे्रजी से पृथक यह वर्ग लिखने और बोलने में भी गलत अंगे्रजी का इस्तेमाल करता है। इनमें सिर्फ ढ़ाई-तीन प्रतिशत लोग ही सही अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अफसोस कि यही वर्ग सत्ता का निर्णायक वर्ग माना गया है। सरकार का नीतिगत निर्णय यही वर्ग लेेता है। इससे भी कड़वा सच यह कि हमारे राजनेता राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर इस अधिकारी वर्ग के आगे नतमस्तक हैं। इन नेताओं के अल्पज्ञान पर अंग्रेजीदां अधिकारी हावी होकर अपनी मनमानी करते हैं। यह अधिकारी वर्ग तो बेशर्म है ही, लेकिन हमारे राजनेता? देश-विदेश में भारतीय गणतंत्र का डंका पीटने वाले ये नेता यह भूल जाते हैं कि भारत संसार का संभवत: एक अकेला देश है, जिसकी अपनी राष्ट्रीय जुबां अर्थात राष्ट्रभाषा नहीं है। संसद के अंदर अंग्रेजी में अपनी बातें करने वाले इन राजनेताओं को शर्म आए भी तो कैसे? क्योंकि इतका संबोधन देश की जनता के लिए नहीं होता, विदेशों में बैठे उन गोरी चमड़ी वालों के लिए होता है, जिनके रहमो-करम पर ये भारत का भाग्य निर्धारित करना चाहते हैं। एक ओर तो वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में हम भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का ख्वाब देखते हैं, दूसरी ओर हमारे ये कथित जन-प्रतिनिधि बेशर्मों की तरह हिंदी को, जिसे संविधान में राजभाषा का दर्जा तो दिया ही गया है, अंग्रेजी की जूठन खाने को मजबूर करते हैं। क्या आज गणतंत्र दिवस के दिन हमारे राजनेता इस दु:खद स्थिति के खिलाफ कोई संकल्प लेंगे? क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि राष्ट्रभाषा के बगैर देश गूंगा है। महात्मा गांधी का स्वप्न था-
''एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो
एक ह्रदय हो भारत-जननी''!
और कुछ नहीं तो महात्मा गांधी के प्रति ऋणी भारत कम से कम उनके स्वप्न को तो पूरा कर दिखाए। गुजरात उच्च न्यायालय ने बहस और फिर निर्णय का द्वार तो खोल ही दिया है।
4 comments:
कोर्ट की अपनी सीमा है. वह संविधान को व्याख्यायित करता है, लेकिन हिंदी प्रेमियों की कोई सीमा नहीं है. यहां कुछ समय पहले तक यह सीमा हुआ करती थी. लेकिन कंप्यूटर पर हिंदी आने से ये सीमा खत्म हुआ चाहती है. गैर-हिंदी भाषी भी हिंदी सीख रहे हैं. बड़े चाव से.
राष्ट्रभाषा के बगैर देश गूंगा है....मात्र गूंगा? सा'ब हम तो गुलाम है-गुलाम. गुलाम क्या बोले? क्या सुने? आप समझ ही सकते है.
सच्चाई यह है कि दुनिया के बहुत कम देशों में 'राष्ट्रभाषा' घोषित है। अंग्रेजी, यूएसए या यूके की राष्ट्रभाषा नहीं है। इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि हिन्दी का प्रयोग दवा के पैकेटों पर नहीं कराया जा सकता। यह सर्वसाधारण की सुविधा से जुड़ा हुआ प्रश्न है और इसमें किसी को कोई शक नहीं कि हिन्दी भारत की बहुसंख्यक जनता से जुड़ी हुई है और जनता हिन्दी से।
इस कुतर्क को बड़े बुरे तरह से पेश किया जा रहा है। यह निर्णय इस मामले में गलत है कि हिन्दी में लिखने/लिखवाने के लिये हिन्दी का 'राष्ट्रभाषा' घोषित होना जरूरी कैसे है? क्या उसका 'जनभाषा', 'राजभाषा', 'सम्पर्कभाषा', भारत में 'सर्वाधिक प्रचलित भाषा', 'स्वतंत्रता की लड़ाई की भाषा' आदि होना काफी नहीं है?
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