Wednesday, December 1, 2010
तब विदर्भ 'भिखारी' नहीं रहेगा!
हर दृष्टि से, जी हां, हर दृष्टि से समृद्ध, सक्षम विदर्भ भिखारी क्यों बना रहे? चुनौती है विदर्भवीरों को कि वे विदर्भ को सदैव भिखारी बना रखने की चाल को निरस्त्र कर दें। हमें 'भिखारी' का विशेषण स्वीकार्य नहीं। अगर 'अखंड महाराष्ट्र' किसी का धर्म है तो स्वाभिमान विदर्भ की अस्मिता। इस पर कोई समझौता नहीं। मैं यहां न तो अलगाववाद को हवा दे रहा हूं, और न ही पृथक विदर्भ की जायज मांग को उठा रहा हूं। मैं चर्चा कर रहा हूं उस राजनीति की जिसने छल-प्रपंच से विदर्भ को पराश्रित बना रखा है। अपेक्षित विकास से इस क्षेत्र को दूर कर रखा है। किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। और प्रत्येक वर्ष सर्दियों में विधानमंडल के मंच से विदर्भ को आश्वासनों का झुनझुना थमाया जाता रहा है। क्या कभी इन व्याधियों की निरंतरता पर पूर्णविराम लग सकेगा? भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार युवा विधायक देवेन्द्र फडणवीस ने जब विधानसभा में टिप्पणी की थी कि विदर्भवासियों के साथ महाराष्ट्र में भिखारियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, तब निरीह विदर्भ रो पड़ा था। प्रतिक्रियास्वरूप पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में सभी एकमत हुए थे। अपवादस्वरूप कुछ को छोड़ पक्ष-विपक्ष दोनों के तरफ से स्वतंत्र विदर्भ राज्य के पक्ष में आवाजें उठी थीं। विकास के क्षेत्र में उपेक्षा और अन्याय से क्षुब्ध विदर्भवासी पूछने लगे कि तब हम महाराष्ट्र के साथ रहें तो क्यों? रेखांकित कर दूं कि पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में इस सोच को हवा मिली तो विदर्भ के प्रति राज्य सरकार की सौतेजी नीति के कारण! आज भी ऐसा ही हो रहा है। हवा रुकी नहीं, चल ही रही है! जब नागपुर करार के तहत विधानमंडल के नागपुर अधिवेशन की चर्चा करते हैं तब मजबूरी और छलावा जैसे शब्द अधिवेशन का मजाक उड़ाते दिखते हैं। मुंबई से नागपुर पहुंची सरकार आगमन के साथ ही प्रस्थान की तैयारियों में जुट जाती है। अधिवेशन की औपचारिकता को मजबूरी माननेवाले असहज विधायक, मंत्री व सरकारी कर्मचारी अधिवेशन के प्रति अपनी अगंभीरता छुपाने की कोशिश भी नहीं करते। विदर्भ के विधायकों की मांगों पर सहानुभूति प्रदर्शित कर सरकार आश्वासनों की झड़ी तो लगा देती है, किंतु दस्तावेज गवाह हैं कि व्यवहार के स्तर पर न तो घोषित आश्वासनों की पूर्ति हो पाती है और न ही विकास के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति! विदर्भ विकास के प्रति यह सरकारी उदासीनता ही है जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही है। ऐसी आत्महत्याओं में निहीत कारणों की जानकारी के बावजूद सरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है। राज्य के बाहर स्तंभित समीक्षक इस सवाल का हल ढूंढते रहते हैं कि आर्थिक रूप से दमित उत्तर भारत के किसान तो आत्महत्या नहीं करते फिर मजबूत आर्थिक आधार वाले महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या के लिए मजबूर क्यों हो जाते हैं? महाराष्ट्र सरकार के नीति नियामकों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। क्योंकि किसान आत्महत्या के संदर्भ में विदर्भ की जमीनी सचाई से ये अच्छी तरह परिचित हैं। सिंचाई सुविधा, नगदी फसल की प्राथमिकता, इनके लिए आवश्यक जलस्रोतों का पिछले कुछ दशकों में क्षरण, वैकल्पिक फसलों के प्रति उदासीनता, अर्थव्यवस्था में किसानों की भूमिका का अभाव, वेतनभोगी वर्ग का प्रादुर्भाव और क्षेत्र का जीवनस्तर आदि पहलुओं का ईमानदार विश्लेषण वास्तविकता को सामने ला देगा। क्षेत्र के लिए कृषि संबंधी योजना बनाते वक्त अगर इन बातों का ध्यान रखा जाए तब क्षेत्र का न केवल अपेक्षित उल्लेखनीय विकास होगा बल्कि किसान आत्महत्या पर भी पूर्णविराम लग जाएगा। शर्त यह कि राज्य सरकार ईमानदारी से विदर्भ विकास के पक्ष में योजनाएं बनाये, धनराशि मुहैया कराए और कड़ाई से उन्हें क्रियान्वित करे। क्या विदर्भवासी अपेक्षा करें कि चालू विधानमंडल अधिवेशन के दौरान सरकार की ओर से ऐसी पहल की जाएगी? 'हां' की हालत में तब डंके की चोट पर ऐसी मुनादी की जा सकेगी कि विदर्भ कभी भिखारी नहीं बनेगा।
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1 comment:
सब अपने ही प्रति गम्भीर हैं..
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