दिल्ली में बैठे कांग्रेस के शीर्ष नेता 'तेलंगाना की आग' से विचलित नहीं बल्कि चकित हैं। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि पार्टी के रणनीतिकारों ने पूरे मामले को राष्ट्रीय मुद्दा कैसे बन जाने दिया। उनके कदम से इतनी 'भद्द' हो रही है कि लोग-बाग मजाक उड़ाने लगे हैं। लगता ही नहीं कि सरकार और संगठन के स्तर पर कोई स्थिर नेतृत्व सक्रिय है। पहले पृथक तेलंगाना के निर्माण के पक्ष में आधिकारिक घोषणा, फिर प्रधानमंत्री द्वारा टालमटोल सरीखे शब्द! आखिर कहां हुई चूक?
पूरे मामले पर संजीदगी के साथ गौर करें। स्पष्ट नजर आएगा कि वस्तुत: कांग्रेस नेतृत्व इस सचाई को भूल गया है कि केंद्र में एक अकेली कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं बल्कि गठबंधन की खिचड़ी सरकार है। वह यह भी भूल जाती है कि अनेक राज्यों में अब गैरकांग्रेसी सरकारें स्थापित हैं। ऐसे में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जब हकीकत से परे स्वयं को जवाहर-इंदिरा के जमाने की अवस्था में पहुंचा निर्णय लेने लगता है, तब दुर्घटनाएं तो होंगी ही। वह जमाना और था जब केंद्रीय नेतृत्व ने निर्णय लिया और पार्टी के लोगों ने मान लिया। आंध्र की ताजा घटना प्रमाण है कि केंद्रीय नेतृत्व का अब राष्ट्रव्यापी दबदबा नहीं रहा। पार्टी इस तथ्य को भूल रही है कि ताजा घटना विकासक्रम वस्तुत: स्व. राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के विरु द्ध पार्टी नेतृत्व के निर्णय की परिणति है। आलाकमान का वह निर्णय अब प्रतिउत्पादक सिद्ध हो रहा है। बहुमत बल्कि एकमत की राय को रद्दी की टोकरी में फेंक कांग्रेस आलाकमान ने जगन को रोक दिया था। तब नवनिर्वाचित सांसद जगन शांत तो हो गए थे किन्तु उनके समर्थकों में बेचैनी बरकरार रही। ऐसा नहीं है कि जगन अपने प्रदेश में बहुत लोकप्रिय हैं। वह तो राजशेखर रेड्डी का आभामंडल था, क्षेत्र में प्रभाव था, उनके प्रति लोगों के दिलों में अप्रतिम आदर था, जिस कारण न केवल पार्टी के विधायक-सांसद बल्कि आंध्र की आम जनता भी जगन को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी। यहां बता दूं कि अगर राजशेखर रेड्डी जीवित रहते, तब आने वाले दिनों में उनका नाम आंध्रप्रदेश के पर्याय के रूप में स्थापित होता। उनकी लोकप्रियता और नेतृत्व की छाप काफी गहरी थी। उनके बगैर कांग्रेस का आंध्र में नेतृत्व संभवत: गौण हो जाता। ठीक उसी तरह जैसे आज तमिलनाडु में डीएमके और एआईडीएमके के समक्ष कांग्रेस तुच्छ की स्थिति में है। कांग्रेस नेतृत्व इस परिप्रेक्ष्य में तेलंगाना की ताजा स्थिति का मूल्यांकन करे। अपनी हैसियत को पहचाने। वर्तमान नेतृत्व इंदिरा गांधी सदृश किसी 'आयरन लेडी' के हाथों में नहीं है। तेलंगाना की आग फैले, इसके पूर्व पार्टी और शासन के स्तर पर सकारात्मक निर्णय ले लिया जाए। आंध्रप्रदेश के लोग अभी यह भूले नहीं हैं कि स्वयं आंध्रप्रदेश के लिए पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनशन पर बैठ अपनी प्राणाहुति दे चुके हैं। चंद्रशेखर राव संभवत: उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनशन पर बैठे थे। तब पोट्टी की मांग मरणोपरांत ही सही, पंडित नेहरू ने मान ली थी। आज अनशनकारी राव की मांग जब सिद्धांत रूप में मान ली गई है, तब किसी भी कारणवश पीछे हटना आत्मघाती सिद्ध होगा।
2 comments:
राज्यों को बांटते जाने की परंपरा का अंत होना चाहिए। आखिर कितने राज्यों का निर्माण होगा। बेहतर प्रबंधन की परंपरा की बजाय राजनीतिक स्वार्थों के लिए गलत फैसले की परंपरा कायम रखना गलत है। ये कांग्रेस या अन्य जो भी दल हों, उन्हें समझ लेना चाहिए।
चंद्रशेखर राव कहीं शहीद न हो जाए और तगड़ा बवाल न मच जाए इस वजह से कांग्रेस ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की घोषणा कर दी लेकिन अब कांग्रेस को समझ में आ रहा है कि यह तो गलत हो गया। मायावती ने तो इससे बढ़कर दांव खेल दिया कि कर दो हमारे तीन टुकड़े और वहां कोई बवाल न मचा सका। यूपी में कांग्रेस यदि इस मसले पर बवाल मचा दे तो राहुल भैया की कर कराई मेहनत पर पानी फिर सकता है। गोरखालैंड, बोडोलैंड और विदर्भ के नेताओं में अभी इतना दम नहीं है कि वे अलग राज्य बनवा लें। तेलंगाना का मसला इन सभी अलग राज्यों की मांग से ज्यादा गहरा और संवेदनशील है। मैने अपनी पिछली टिप्पणी में भी लिखा था उसी अनुसार विदर्भ का तो हर नेता मुंबई या दिल्ली में एक अदद कुर्सी का लालची है, सो वे क्या करेंगे आंदोलन। बातें दुनिया भर की कर डालेंगे लेकिन अलग विदर्भ के लिए बलिदान देने की ताकत मौजूदा नेताओं में नहीं है। सभी को कुर्सी दिखाई दे रही है। पैसे दिखाई दे रहे हैं...अलग राज्य बने तो पैसे खाएं, जमीनें अपनी और अपने बाप की बनें। बेटों,पोतों, नातियों और चाटुकारों को मंत्री बना डालें। आप विनोद जी इस पर जरुर लिखें कि विदर्भ का कौन नेता है ऐसा जिसकी बात एक स्वर से विदर्भ की जनता मान लेती है। नहीं मानेगी इन कुर्सी लालचियों की बातें यह आप जान लें। विदर्भ में इस समय न तो कोई महात्मा गांधी है और न ही सुभाष बोस, न ही लोकमान्य तिलक और न ही केसीआर।
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