केंद्र सरकार और आंध्रप्रदेश की राज्य सरकार तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की भावनाओं के साथ अब इस मुकाम पर पहुंचने के बाद कोई चाल न चले। केंद्र सरकार अच्छी तरह समझ ले कि अब लोगबाग राजनीति की बिसात पर होने वाली हर हरकतों को भलीभांति समझते हैं। गोटियां बिठाने वाले हाथों को भी लोग पहचानते हैं। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की पृथक तेलंगाना राज्य के पक्ष में नीतिगत फैसले की घोषणा के बाद 'किन्तु-परंतु-यदि' का उद्भव अगर रहस्यमय नहीं तो आश्चर्यजनक अवश्य है। आंध्र में कांग्रेस के कतिपय विधायकों और सांसदों का विरोधस्वरूप इस्तीफा दिया जाना कैसे संभव हुआ? केंद्र की घोषणा के बाद वहां के मुख्यमंत्री के. रोसैया ने यह टिप्पणी कैसे कर दी थी कि आम सहमति के बाद ही विधानसभा में तेलंगाना का प्रस्ताव लाया जाएगा? क्या कांग्रेस की संस्कृति-परंपरा में कोई परिवर्तन हुआ है? क्या केंद्र ने बगैर राज्य सरकार को विश्वास में लिए तेलंगाना के निर्माण की घोषणा कर दी? यह संभव नहीं। साफ है कि कोई राजनीतिक चाल चली गई है। यह तो संभव नहीं कि चंद्रशेखर राव के अनशन से विचलित केंद्र ने बगैर कुछ सोचे-समझे आनन-फानन में घोषणा कर दी। फिर विधायकों व सांसदों को इस्तीफा देने के लिए किसने प्रेरित किया? आम सहमति की भावना को कब से सम्मान दिया जाने लगा? अभी पिछले सितंबर में ही जब तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो गई थी, तब उनके उत्तराधिकारी पर बनी आम सहमति को तवज्जो क्यों नहीं दिया गया? तब क्या प्राय: सभी विधायकों, सांसदों व केंद्र में प्रदेश के मंत्रियों ने स्वर्गीय रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की एक स्वर से मांग नहीं की थी? तब तो आम सहमति के सिद्धांत को बला-ए-ताक रख दिया गया था। कांग्रेस नेतृत्व ने विधायक दल में बनी आम सहमति के विरुद्ध के. रोसैया को मुख्यमंत्री बनाए रखा। इसलिए अब अगर पृथक तेलंगाना के लिए आम सहमति की बात उठाई जा रही है, तब लोग चकित तो होंगे ही।
तेलंगाना का उल्लेख मैं यहां विदर्भ के संबंध में कर रहा हूं। तेलंगाना के पक्ष में आरंभिक खबर आने के बाद ही सुखद रूप से सभी राजनीतिक दलों के नेता, सांसद, विधायक मिलकर पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। भय सिर्फ इस बात का है कि कहीं एक बार फिर यह सक्रियता क्षणिक उफान मात्र न सिद्ध हो जाए। पुन: 'किन्तु-परंतु-यदि' के ताने-बाने में यह उलझकर न रह जाए। चेतावनी है उन्हें, इस बार वे विदर्भ की जनभावना का मर्दन करने की कोशिश न करें। विदर्भवासी अब इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्षेत्र में मौजूद नेताओं की लंबी पंक्ति इस तथ्य को अच्छी तरह समझ ले। दलीय दबाव या अन्य प्रलोभन के आगे अगर वे झुक कर अगर पुन: 'विदर्भ की कुर्बानी' देते हैं तब यहां की जनता उन्हें दुत्कार किसी नए नेतृत्व को तलाश लेगी। बेहतर हो, पृथक विदर्भ राज्य के पुराने सपने को साकार करने की दिशा में दलीय प्रतिबद्धता व निज स्वार्थ का त्याग कर सभी एक साथ कदमताल करें। अन्यथा विदर्भवासी उनके कदमों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे।
1 comment:
आपने विदर्भ राज्य के गठन की बात कही है उससे मैं सहमत हूं और यह राज्य बनना चाहिए लेकिन यहां के ज्यादातर नेता मुंबई आकर महानगरी की चकाचौंध में बदल जाते हैं और किसी पद या प्रलोभन में फंसकर विदर्भ की जनता से किया गया वादा कम से कम पांच साल के लिए तो भूल ही जाते हैं। भाजपा मुंबई मंत्रालय में बैठने के सपने के बीच शिवसेना का विरोध नहीं कर पाती भले ही यह कहती फिरे कि वह छोटे राज्यों की पक्षधर है और विदर्भ बनना चाहिए। भाजपा के महानेता लाल कृष्ण आडवाणी भी यह बात कहते हैं कि विदर्भ बनना चाहिए लेकिन आज तक वे शिवसेना को इस मामले पर सुना नहीं पाए।
विदर्भ की जनता को लालची नेताओं का साथ छोडकर जननेता चुनना चाहिए जो इस आंदोलन को सार्थक करें और अलग राज्य के निर्माण के सपने को पूरा करे लेकिन विदर्भ में इस समय जितने भी नेता है और नेता जो पैदा हो रहे हैं वे केवल नव राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लालची हैं। उनकी नजर यहां आबंटित होने वाले धन को हडपने पर है। मैं आज ही यह कह सकता हूं कि अलग विदर्भ राज्य बनने दीजिए आपको कई फकीर नेता अरबपति बने हुए दिख जाएंगे। सही हाथों में जब तक आंदोलन नहीं होगा और नेता सही नहीं होगा विदर्भ का बनना कठिन है और बन भी गया तो इसका विकास नहीं होगा। विकास होगा तो बडे से लेकर छुटभैये नेताओं का।
चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना को लेकर जो आंदोलन किया वह उनकी मजबूरी भी है क्योंकि तेलंगाना के लिए वह यह नहीं करते तो अब उनकी राजनीतिक पार्टी का स्वर्गवास हो जाता। नक्सली उन्हें सौदेबाज मानते हैं जिसने दिल्ली में मंत्री बनना पसंद किया और कई तरह की सौदेबाजी की और तेलंगाना का मामला उन्हें तब याद आया जब वे जान चुके थे कि अब नहीं किया यह तो उनकी पार्टी का रामनाम सत्य होना तय है और हो सकता है नक्सली उनका भी राम बोलो भाई राम कर देते। तेलंगाना के साथ रायलसीमा की भी मांग उठी, मायावती ने तीन राज्य बनाने की मां उठा दी। उधर गोरखालैंड, बोडोंलैंड, राजस्थान में भीलस्तान और भी पता नहीं कहां कहां राज्य बनने की मांग उठेगी। ऐसा न हो कि बाद में हर शहर को अलग राज्य बनने की मांग उठने लगे। केंद्र सरकार कोई खेल ही खेल रही है इस तेलंगाना की आड़ में। अन्यथा चलिए मैं ही आमरण अनशन पर बैठ जाता हूं कि फलां हिस्से को अलग राज्य बनाओं नहीं तो मर जाऊंगा। ऐसे तो हर गांव गांव के लोग आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे तो कितने राज्य बनेंगे। जो सही हो वे ही अलग राज्य बनें बाकी न बने तो ही बेहतर है। सरकार कहीं आम आदमी को महंगाई की पड रही मार की चिल्लाहट में इस अलग राज्य के झुनझुने में फंसाना तो नहीं चाहती। आज हर चीज के भाव आसमान पर है आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। कम पैसे में घर नहीं चल सकता ऐसे में सरकार ने चाल चलकर आम आदमी के मुददे पर से ध्यान हटाने की कोशिश की है। आप यह जरुर लिखें कि आम आदमी की हालत खराब क्यों होती जा रही है। इस महंगाई के लिए जिम्मेदार कौन है। जब तक देश में मौजूदा कृषि मंत्री -कृषि मंत्री है तब तक आम आदमी सस्ती चीजों को भूल जाएं और आत्महत्या की तैयारियां करें क्योंकि यह महंगाई उसे जीने नहीं देगी। अलग राज्य लेकर आम आदमी का क्या भला हो जाएगा बल्कि इन नेताओं के पोते, नाते यहां भी मुख्यमंत्री और मंत्री बन जाएंगे। नए राज्य यानी इन नेताओं के घरवालों को रोजगार। जय हिंद
Post a Comment