भाजपा-शिवसेना के बीच जारी टकराव को खत्म करने के लिए स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस ने पहल की है। पार्टी के नेताओं व मंत्रियों को शिवसेना सहयोग की अपरिहार्यता बताकर उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर शिवसेना कथित रुप से भाजपा के गिरते ग्राफ का लाभ उठाकर प्रदेश में स्वयं को 'नंबर वन' की अवस्था में पुन: लाने के लिए बेचैन है। शिवसेना की इस योजना को बल मिल रहा है, उद्दव ठाकरे की आक्रामकता के कारण।
शिवसेना से 'उत्तराधिकारी' के मुद्दे पर राज ठाकरे से अलग होने के बाद उद्धव ठाकरे की क्षमता को लेकर सवाल उठाने वाले आलोचक भी आज 'आक्रामक' उद्धव को देख अचंभित हैं। आक्रामकता ऐसी कि महाराष्ट्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार में भागीदार होने के बावजूद शिवसेना आज वस्तुत: एक अति आक्रामक विपक्ष की भूमिका में दिख रही है। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय मुद्दों पर राज्य व केंद्र सरकार के खिलाफ तीखी टिप्पणी करने में भी आगे रहने वाली शिवसेना ने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। शिवसेना ने मुख्यमंत्री को दो टूक कह दिया है कि वे भाजपा नेताओं पर लगाम लगाएं अन्यथा सरकार से समर्थन वापस ले लिया जायेगा।
चूंकि फड़णवीस सरकार शिवसेना के सहयोग पर टिकी हुई है। मुख्यमंत्री असमंजस में हैं। शिवसेना को साथ लेकर चलना उनकी राजनीतिक मजबूरी है।
संभवत: इसी स्थिति को अपने पक्ष में भुनाने के लिए शिवसेना लगातार सरकार को कटघरे में खड़ी कर अपने जनाधार को विस्तार दे रही है। भाजपा की नजर आगामी मुंबई महानगर पालिका के चुनाव पर टिकी हुई है। भाजपा के स्थानीय नेता सेना को पछाड़ महानगर पालिका पर कब्जा करना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर वर्षों से कब्जा जमाए शिवसेना भाजपा को हाशिए पर भेजने को आतुर हैं। मुंबई भाजपा अध्यक्ष आशीष शेलार और तेज-तर्रार सांसद किरिट सोमैया अपने खास अंदाज में सेना को पटकनी देने की तैयारी में जुटे हैं। इनकी गतिविधियों से क्षुब्ध होकर ही उद्धव ठाकरे ने पिछले दिनों आरोप लगाया था कि भाजपा राज्य में शिवसेना को खत्म करने की साजिश रच रही है। उद्धव ने अपने विश्वस्तों से सलाह कर सेना के विस्तार की योजना तैयार की है। इसी प्रक्रिया में अनिल परब को विदर्भ का प्रभारी बनाया गया है। मालूम हो कि विदर्भ में भाजपा की गहरी पैठ है। लगातार स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श कर अनिल परब ने विदर्भ में पार्टी के लिए अच्छी जमीन तैयार कर दी है। मालूम हो कि विदर्भ में भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। विदर्भ के ही देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनने के बाद विदर्भ विकास की अनेक योजनाओं, विशेषकर कृषि और किसानों के हित में कल्याणकारी कार्यक्रमों को अंजाम दे धीरे-धीरे अपनी पैठ भी मजबूत कर रहे हैं। अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि अंतिम बाजी कौन मारता है।
भाजपा-शिवसेना के बीच जारी टकराव को खत्म करने के लिए स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस ने पहल की है। पार्टी के नेताओं व मंत्रियों को शिवसेना सहयोग की अपरिहार्यता बताकर उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर शिवसेना कथित रुप से भाजपा के गिरते ग्राफ का लाभ उठाकर प्रदेश में स्वयं को 'नंबर वन' की अवस्था में पुन: लाने के लिए बेचैन है। शिवसेना की इस योजना को बल मिल रहा है, उद्दव ठाकरे की आक्रामकता के कारण। उद्धव के आलोचक भी अब इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक परिपक्वता व उग्रता को पूरी तरह आत्मसात कर चुके उद्धव ठाकरे अब शिवेसेना को नई ऊंचाई पर पहुंचाने में सक्षम हो चुके हैं। पिछले विधान सभा चुनाव में पार्टी को पहले से ज्यादा सीटें जीताकर दिलाने वाले उद्धव अब और अधिक परिपक्व हो गये हैं। यही कारण है कि स्वयं को बालासाहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी मानने वाले राज ठाकरे अब हाशिए पर चले गये हैं।
इस नये परिवर्तित राजनीतिक परिदृश्य में मुख्यमंत्री फड़णवीस व भाजपा नेतृत्व की साख दांव पर लग गई है। प्रदेश का मतदाता भाजपा-शिवसेना गठबंधन को मजबूत देखना चाहता है। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को पुनर्जीवित होने से रोकने की क्षमता भाजपा-सेना के संयुक्त गठबंधन में ही है। दोनों में बिखराव का अर्थ होगा, कांग्रेस-एनसीपी की वापसी। अब फैसला भाजपा नेतृत्व पर है कि वह शिवसेना की नाराजगी को दूर कर कांग्रेस-एनसीपी को हाशिए पर रखती है अथवा अतिआत्मविश्वास के तहत 'एकला चलो' की जोखिमभरी रणनीति को अपनाती है।
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