'मीडिया मंडी' के सदस्यों अर्थात घरानों के बीच पिछले कुछ वर्षों से 'कपड़ा उतार' की जो स्पर्धा शुरु हुई है उसके दर्दनाक व वीभत्स परिणाम सामने आने शुरू हो गये हैं। पाठक परेशान कि वह विश्वास करें तो किस पर करें। उसके सामने जब समाचार की जगह 'उपहार' परोस दिया जाता है तब वह असमंसज में पड़़ जाता है। हालांकि पाठकों को तभी समझ जाना चाहिए कि ऐसे अखबार के मालिकों, संपादकों की प्राथमिकता सूची में 'समाचार' अब नहीं रहा। ध्यान बंटाने के लिए ही उन्होंने 'उपहार' की परिपाटी चलाई है । ऐसे में काहे का समाचार और काहे की पत्रकारीय विश्वसनीयता। 'उपहार' लो अखबार खरीदो । अब अगर 'प्रहरी' नया नारा देता है कि 'उपहार नहीं समाचार' तो उसकी बला से। अब देखना दिलचस्प होगा कि पाठक की नजर 'उपहार'पर टिकती है या समाचार पर।
इसी कड़ी में इन दिनों कुछ अखबार 'उपहार' से अलग 'अवार्ड' अर्थात पुरस्कार की होड़ में शामिल हो गये हैं। उपक्रम की मंशा तो ठीक है किंतु इसमें स्वार्थ व पसंद की घुसपैठ का नंगापन अच्छी मंशा को कंलकित कर देता है। ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों नागपुर में हुई।
'दैनिक भास्कर' की पहचान देश में हिन्दी के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक के रुप में है। पाठकों के बीच इसका एक विशिष्ट स्थान है। इसमें प्रकाशित खबरों व विचारों का उल्लेख पाठक विश्वास के साथ करते हैं। ऐसे में जब इस पर महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने और नारी सम्मान की जगह नारी अपमान का आरोप लगे तो पाठक और प्रशंसक निराश तो होंगे ही।
पिछले दिनों 'दैनिक भास्कर नागपुर' का 'वुमेन अवार्ड' उपक्रम प्रारम्भ से लेकर अंत तक संदेह और स्तरहीनता का शिकार रहा। यह कहा जाए कि इन पुरस्कारों का उपयोग दरअसल महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने के लिए किया गया तो गलत नहीं होगा.
सात श्रेणियों के अंतर्गत अंतिम पांच का चयन निर्णायक मंडल द्वारा किया गया। निर्णायकों की योग्यता पर तब प्रश्नचिन्ह लगता है और उन्हें नियुक्त करने वालों की समझ पर भी कि जो महिलाएं श्रेणी में नामांकन की पात्रता भी नहीं रखती थीं उन्हें अंतिम पांच में प्रतिष्ठित कर दिया गया, कला-संस्कृति श्रेणी में यह विशेषरूप से हुआ।
इसके बाद 'एसएमएस' द्वारा 'वोटिंग' का दौर शुरू हुआ। आज भला कौन इस तथ्य से परिचित नहीं कि यह व्यवस्था, टेलीफोन कम्पनियों से परस्पर सांठगांठ कर आर्थिक लाभ कमाने के लिए की जाती है।
पंचसितारा होटल में आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह का मुख्य उद्देश्य समूह की व्यावसायिक क्षमता का अहमपूर्ण प्रदर्शन था। जहां तक पुरस्कारों का सवाल है उन्हें पर्याप्त अहमियत भी नहीं दी गई। विजेताओं के गलत और अप्रत्याशित निर्णय पत्र की नीयत को कटघरे में खड़ा करते हैं। उचित पात्र को पुरस्कार से वंचित करना अर्थात कला, संस्कृति, क्रीडा, समाजसेवा में सच्चे मन से जुटे साधकों को हतोत्साहित करना है।
आलोचना का दूसरा बड़ा मुद्दा महिला गौरव पुरस्कार समारोह में अत्यल्प वस्त्रों वाली माडलों का प्रयोग करना है जिन्हें देख उपस्थित महिलाओं ने असहजता महसूस की और जिसने पुरुषवर्ग को भद्दे फिकरे कसने के लिए प्रेरित किया। यह प्रश्न अवश्य पूछा जाना चाहिए कि इस भोंडे प्रदर्शन द्वारा संस्कृति को किस तरह महिमामंडित किया जा रहा था।
इस तरह के कार्यक्रमों से पत्र की साख को बट्टा ही लगता है। विश्वसनीयता खो चुके इन पुरस्कारों से आने वाले वर्षों में भला कौन जुडऩा चाहेगा !!
अगर उनकी सोच स्वस्थ और नीयत नेक है तो अभी भी अपनी चूकों को न सिर्फ स्वीकारा जाना चाहिए बल्कि सुधारा भी जाना चाहिए। बावजूद इस चूक के 'दैनिक भास्कर' (नागपुर) के पाठक व प्रशंसक संस्थान को संदेह का लाभ देते हुए आश्वस्त हैं कि अपनी गलती का सुधार कर संस्थान भविष्य में कला, साहित्य, संस्कृति का सम्मान करेगा, अपमान नहीं। बाजार की जरूरतों की पूर्ति हो, इस पर प्रहरी को आपत्ति नहीं, लेकिन बाजार के सामने मीडिया कमजोर अथवा अपाहिज दिखे, स्वीकार ये भी नहीं।
इसी कड़ी में इन दिनों कुछ अखबार 'उपहार' से अलग 'अवार्ड' अर्थात पुरस्कार की होड़ में शामिल हो गये हैं। उपक्रम की मंशा तो ठीक है किंतु इसमें स्वार्थ व पसंद की घुसपैठ का नंगापन अच्छी मंशा को कंलकित कर देता है। ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों नागपुर में हुई।
'दैनिक भास्कर' की पहचान देश में हिन्दी के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक के रुप में है। पाठकों के बीच इसका एक विशिष्ट स्थान है। इसमें प्रकाशित खबरों व विचारों का उल्लेख पाठक विश्वास के साथ करते हैं। ऐसे में जब इस पर महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने और नारी सम्मान की जगह नारी अपमान का आरोप लगे तो पाठक और प्रशंसक निराश तो होंगे ही।
पिछले दिनों 'दैनिक भास्कर नागपुर' का 'वुमेन अवार्ड' उपक्रम प्रारम्भ से लेकर अंत तक संदेह और स्तरहीनता का शिकार रहा। यह कहा जाए कि इन पुरस्कारों का उपयोग दरअसल महिलाओं की प्रतिभा का मजाक बनाने के लिए किया गया तो गलत नहीं होगा.
सात श्रेणियों के अंतर्गत अंतिम पांच का चयन निर्णायक मंडल द्वारा किया गया। निर्णायकों की योग्यता पर तब प्रश्नचिन्ह लगता है और उन्हें नियुक्त करने वालों की समझ पर भी कि जो महिलाएं श्रेणी में नामांकन की पात्रता भी नहीं रखती थीं उन्हें अंतिम पांच में प्रतिष्ठित कर दिया गया, कला-संस्कृति श्रेणी में यह विशेषरूप से हुआ।
इसके बाद 'एसएमएस' द्वारा 'वोटिंग' का दौर शुरू हुआ। आज भला कौन इस तथ्य से परिचित नहीं कि यह व्यवस्था, टेलीफोन कम्पनियों से परस्पर सांठगांठ कर आर्थिक लाभ कमाने के लिए की जाती है।
पंचसितारा होटल में आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह का मुख्य उद्देश्य समूह की व्यावसायिक क्षमता का अहमपूर्ण प्रदर्शन था। जहां तक पुरस्कारों का सवाल है उन्हें पर्याप्त अहमियत भी नहीं दी गई। विजेताओं के गलत और अप्रत्याशित निर्णय पत्र की नीयत को कटघरे में खड़ा करते हैं। उचित पात्र को पुरस्कार से वंचित करना अर्थात कला, संस्कृति, क्रीडा, समाजसेवा में सच्चे मन से जुटे साधकों को हतोत्साहित करना है।
आलोचना का दूसरा बड़ा मुद्दा महिला गौरव पुरस्कार समारोह में अत्यल्प वस्त्रों वाली माडलों का प्रयोग करना है जिन्हें देख उपस्थित महिलाओं ने असहजता महसूस की और जिसने पुरुषवर्ग को भद्दे फिकरे कसने के लिए प्रेरित किया। यह प्रश्न अवश्य पूछा जाना चाहिए कि इस भोंडे प्रदर्शन द्वारा संस्कृति को किस तरह महिमामंडित किया जा रहा था।
इस तरह के कार्यक्रमों से पत्र की साख को बट्टा ही लगता है। विश्वसनीयता खो चुके इन पुरस्कारों से आने वाले वर्षों में भला कौन जुडऩा चाहेगा !!
अगर उनकी सोच स्वस्थ और नीयत नेक है तो अभी भी अपनी चूकों को न सिर्फ स्वीकारा जाना चाहिए बल्कि सुधारा भी जाना चाहिए। बावजूद इस चूक के 'दैनिक भास्कर' (नागपुर) के पाठक व प्रशंसक संस्थान को संदेह का लाभ देते हुए आश्वस्त हैं कि अपनी गलती का सुधार कर संस्थान भविष्य में कला, साहित्य, संस्कृति का सम्मान करेगा, अपमान नहीं। बाजार की जरूरतों की पूर्ति हो, इस पर प्रहरी को आपत्ति नहीं, लेकिन बाजार के सामने मीडिया कमजोर अथवा अपाहिज दिखे, स्वीकार ये भी नहीं।
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