सुबह जब कार्यालय आ रहा था रास्ते में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की एक प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना-वंदना का कार्यक्रम चल रहा था। आज वे डॉ. आम्बेडकर की 125 वीं जयंती पर श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे। सम्मान में मस्तक स्वत: झुक गया। ठीक उसी तरह जैसे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारा के सामने सिर झुकाता रहा हूं।
यह आदर-सम्मान, भक्ति या अवस्था उस 'आस्था' के प्रतीक हैं जो प्राय: हर मनुष्य को नैसर्गिक रूप से प्राप्त है। चेतन और अवचेतन में सभी के अंदर मौजूद है यह 'आस्था'। आडम्बरयुक्त भौतिकवादी युग में चाहे कोई समर्थन या विरोध में कितने भी तर्क-कुतर्क दे दे उसकी अंतरात्मा इनकार नहीं करेगी कि किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के प्रति आस्था उसके निहायत निजी विश्वास का प्रतीक है- जाति, धर्म, संप्रदाय से बिल्कुल पृथक। यह आस्था ही है जो कहती है 'मानो तो भगवान, नहीं तो पत्थर'! फिर इस आस्था पर संघर्ष क्यों?
सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करनेवाले द्वारका-शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने फिर ये क्यूं कहा कि महाराष्ट्र राज्य में जारी सूखे का कारण साई बाबा की पूजा करना है। इससे भी आगे बढ़ते हुए शंकराचार्य यहां तक कह गए कि चूंकि महाराष्ट्र स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं ने प्रवेश कर पूजा -अर्चना की है, शनि देवता कुपित हुए हैं और इस कारण महिलाओं पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी। हिन्दू धर्म में भगवान के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित एक शंकराचार्य अगर इस तरह की बेतुकी बातें करते हैं तो तय मानिए कि अनेक हिन्दू धर्मावलम्बी 'हिन्दू धर्म' को लेकर शंकायुक्त सवाल खड़े करेंगे। साई बाबा को भगवान मान पूजा -अर्चना करनेवालों की संख्या भारत में करोड़ों है। सिर्फ महाराष्ट्र नहीं पूरे देश में साई मंदिर और साई भक्त मौजूद हैं। यहां मामला शत प्रतिशत आस्था का है। साई बाबा के भक्तों या अनुयायियों में हिन्दुओं की मौजूदगी सर्वाधिक है। बल्कि यूं कहें कि, कुछ अपवाद छोड़ हिन्दू ही हैं, तो गलत नहीं होगा। लोग अगर साई बाबा के प्रति आस्था प्रकट करते हुए उनकी पूजा करते हैं तो किसी को आपत्ति क्यों? आपत्तिजनक तो यह है कि शंकराचार्य ने महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश पर आपत्ति-विरोध जताया है। सिर्फविरोध ही नहीं, ईश्वरीय कोप का भय दिखाकर पूरे नारी समाज में आतंक फैलाने की चेष्टा भी शंकराचार्य ने की है। मैं समझता हूं हमारे देश का वर्तमान कानून किसी को भी ऐसे दुस्साहस की अनुमति नहीं देता। फिर शंकराचार्य के खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं?
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध या जैन आदि सभी अपने-अपने विश्वास के अनुरूप आस्थापूर्वक अपनी-अपनी विधि के अनुसार पूजा-अर्चना करते हैं। यह सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं पूरे संसार के हर वर्ग-सम्प्रदाय में प्रचलित है। इस मुद्दे को लेकर चाहे शंकराचार्य हों या कोई अन्य धर्मावलम्बी अगर वे समाज में परस्पर दुर्भावना पैदा करने की चेष्टा करते हैं तो उन्हें समाज व कानून का अपराधी माना जाना चाहिए। शंकराचार्य अपवाद नहीं हो सकते।
मैंने शुरुआत में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की चर्चा की है। डॉ. आम्बेडकर भी ईश्वरीय अवतार के रूप में स्थापित हो चुके हैं। प्राचीन मान्यता भी है कि पृथ्वी पर समाज सुधार के लिए समय-समय पर 'अवतार' पैदा होते रहे हैं। उस काल की याद कीजिए जब गुलाम भारत आजादी के संग्राम के बीच 'स्वतंत्र भारत' के भविष्य पर चिंतन-मनन कर रहा था। तब के दौर के नेतृत्व में विभिन्न विचारधारा के लोगों का समावेश था। अलग-अलग विचारकों के बीच स्वाभाविक मतभेद उजागर थे, मनभेद भी थे। किंतु सुरक्षित 'भारत भविष्य' पर सभी एकमत थे । राजनीतिक कारणों से आजाद भारत में 'नेता' के रूप में उभरे उन हस्ताक्षरों की चर्चा मैं यहां नहीं करना चाहता जो सत्ता वासना से अभिभूत- समझौते दर समझौते कर रहे थे। मैं यहां चर्चा सिर्फ डॉ. भीमराव आम्बेडकर की करुंगा जो राजनीति के वर्तमान कालखंड में अपने पुराने आलोचक वर्ग के भी 'प्रिय ' बन गए हैं। उन्हें अपनाने की एक अजीब होड़ सी मची है। कांग्रेस हो, भारतीय जनता पार्टी हो, समाजवादी पार्टियां हो, बहुजन समाज पार्टी हो या फिर आश्चर्यजनक रूप से वामपंथी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही क्यों न हो सभी आज डॉ. आम्बेडकर को 'अपना' कहते हुए बढ़-चढ़ कर महिमामंडित कर रहे हैं। लक्ष्य राजनीतिक लाभ जो है।
मेरे शब्द सीमित हैं आम्बेडकर के यथार्थ पर। और यथार्थ यह कि आज भारतीय लोकतंत्र अगर पूरे संसार में सफलतम लोकतंत्र के रूप में अनुकरणीय है तो उस भारतीय संविधान के कारण जिसके प्रमुख रचनाकार डॉ. भीमराव आम्बेडकर हैं। स्वतंत्र भारत को डॉ. आम्बेडकर की यह एक अतुलनीय पवित्र भेंट है। इस पर कृपया कोई राजनीति नहीं हो, इसे कोई चुनौती न दे। आम्बेडकर सभी के अपने ही तो हैं।
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