संसदीय स्थायी समिति की इस अनुशंसा का स्वागत कि समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों (सेलिब्रिटी) द्वारा विभिन्न उत्पादनों के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञापनों में सहभागी बन गलत दावे पेश करने पर उन्हें आर्थिक दंड के अलावा कारावास की भी सजा दी जाए। हांलाकि, गलत विज्ञापनों का यह सिलसिला बहुत पहले से जारी है किंतु हाल के दिनों में लोगों का ध्यान इस ओर गया और इन पर रोक लगाने की मांग मजबूत हुई।
किसी भी शिक्षित-सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है कि व्यावसायिक उत्पादों को महिमामंडित कर उपयोगिता संबंधी बड़े-बड़े किंतु गलत दावे किए जाएं। इससे न केवल समाज में भ्रम फैलता है, बल्कि गलत दावों के कारण, विशेषकर खाद्य पदार्थों को लेकर, उपभोक्ता के स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ किया जाता रहा है। उत्पादकों द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अनाप-शनाप धनराशि की पेशकश कर उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व का अपने आर्थिक लाभ के लिए दुरुपयोग करना एक आम प्रचलन बन गया है। इसका सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह है कि भारत रत्न से लेकर अन्य पद्म पुरस्कारों से सम्मानित 'प्रतिष्ठित' भी धन के लालच में उत्पादकों के जाल में फंस जाते हैं। उत्पादों को उनके द्वारा विज्ञापित कर गलत दावे पेश कर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जाता है। जरा कल्पना करें कि अमिताभ बच्चन सरीखा 'महानायक' जब एक तेल को मालिश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त करार दे उपभोक्ताओं को इस्तेमाल की सलाह दें तब बगैर गुणवत्ता की जांच किए उसका उपयोग शुरु कर देता है। क्या यह उपभोक्ता के साथ छल नहीं? साफ है कि उत्पाद की गुणवत्ता की जांच स्वयं अमिताभ बच्चन ने नहीं की होगी। उन्हें तो मतलब अगर रहा होगा तो सिर्फ विज्ञापन के एवज में मिलनेवाली धनराशि से। ऐसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जब प्रतिष्ठित व्यक्ति गलत उत्पादों के पक्ष में विज्ञापन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करते रहे हैं। चाहे फिल्म अभिनेता हों, अभिनेत्रियां हों या फिर ख्यातिनाम खिलाड़ी ही क्यों न हो, सभी उत्पादकों के इस जाल में फंसते रहे हैं। जब मामला प्रकाश में आता है तब ये 'प्रतिष्ठित' स्वयं को विज्ञापन से अलग कर लेते हैं। ऐसा कर वे खुद को बचा भी लेते हैं। ऐसे में संसदीय स्थायी समिति की अनुशंसा का स्वागत किया जाना चाहिए। यह न केवल समाजहित में होगा बल्कि उपभोक्ताओं के साथ क्रूर मजाक में सहभागी बने प्रतिष्ठितों को दंडित कर सही मार्ग पर भी लाया जा सकेगा। संसदीय समिति की अनुशंसा के अनुसार आर्थिक दंड और कारावास का भय प्रतिष्ठितों को रोकेगा। जरूरी है कि इस अनुशंसा को तत्काल कानूनी जामा पहना लागू किया जाए।
इसी से जुड़ा एक ओर ज्वलंत मुद्दा । विज्ञापनों द्वारा गलत दावे प्रस्तुत करने पर जेल जाने तक की सजा के प्रस्तावित प्रावधान के साथ ही सभी के जेहन में तत्काल एक और सवाल उठता है कि गलत 'वादों' के आधार पर चुनाव जीतनेवालों के खिलाफ भी इसी तरह के दंड की व्यवस्था क्यों न की जाए। वादे कर चुनाव जीतने के बाद, बल्कि सत्ता में पहुंच जाने के बाद भी वादों से मुकरने के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। वादों पर भरोसा कर मत देनेवाला मतदाता तब छला महसूस करता है जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि वादों की पूर्ति तो दूर ठीक उसके विपरीत कार्य करते दिखते हैं। क्या ऐसी वादाखिलाफी समाज के साथ विश्वासघात नहीं? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा के अनुरूप ऐसे 'छल' को भी दंडनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। जिन वादों के सहारे जनप्रतिनिधि सत्ता की कुर्सी पर बैठते हैं उन वादों को पूरा करना कानूनी रूप से भी अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए। क्योंकि जनता ने वादों पर भरोसा कर ही उन्हें सत्ता सौंपी होती है।
यह कोई विषयांतर नहीं, समान न्याय का तकाजा है। अगर प्रतिष्ठित व्यक्तियों को विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं को गलत भरोसा देने के लिए दंडित किया जाता है तब मतदाता को भी गलत भरोसा देने के अपराध में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दंडित किया जाना चाहिए। तभी लोकतांत्रिक भारत सभी के लिए समान न्याय संबंधी अपनी महिमांडित न्याय व्यवस्था के पक्ष में अंगड़ाई ले सकता है। आलोच्य प्रसंग में 'प्रतिष्ठित' कलाकार भी हैं,खिलाड़ी भी हैं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी।
किसी भी शिक्षित-सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है कि व्यावसायिक उत्पादों को महिमामंडित कर उपयोगिता संबंधी बड़े-बड़े किंतु गलत दावे किए जाएं। इससे न केवल समाज में भ्रम फैलता है, बल्कि गलत दावों के कारण, विशेषकर खाद्य पदार्थों को लेकर, उपभोक्ता के स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ किया जाता रहा है। उत्पादकों द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अनाप-शनाप धनराशि की पेशकश कर उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व का अपने आर्थिक लाभ के लिए दुरुपयोग करना एक आम प्रचलन बन गया है। इसका सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह है कि भारत रत्न से लेकर अन्य पद्म पुरस्कारों से सम्मानित 'प्रतिष्ठित' भी धन के लालच में उत्पादकों के जाल में फंस जाते हैं। उत्पादों को उनके द्वारा विज्ञापित कर गलत दावे पेश कर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जाता है। जरा कल्पना करें कि अमिताभ बच्चन सरीखा 'महानायक' जब एक तेल को मालिश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त करार दे उपभोक्ताओं को इस्तेमाल की सलाह दें तब बगैर गुणवत्ता की जांच किए उसका उपयोग शुरु कर देता है। क्या यह उपभोक्ता के साथ छल नहीं? साफ है कि उत्पाद की गुणवत्ता की जांच स्वयं अमिताभ बच्चन ने नहीं की होगी। उन्हें तो मतलब अगर रहा होगा तो सिर्फ विज्ञापन के एवज में मिलनेवाली धनराशि से। ऐसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जब प्रतिष्ठित व्यक्ति गलत उत्पादों के पक्ष में विज्ञापन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करते रहे हैं। चाहे फिल्म अभिनेता हों, अभिनेत्रियां हों या फिर ख्यातिनाम खिलाड़ी ही क्यों न हो, सभी उत्पादकों के इस जाल में फंसते रहे हैं। जब मामला प्रकाश में आता है तब ये 'प्रतिष्ठित' स्वयं को विज्ञापन से अलग कर लेते हैं। ऐसा कर वे खुद को बचा भी लेते हैं। ऐसे में संसदीय स्थायी समिति की अनुशंसा का स्वागत किया जाना चाहिए। यह न केवल समाजहित में होगा बल्कि उपभोक्ताओं के साथ क्रूर मजाक में सहभागी बने प्रतिष्ठितों को दंडित कर सही मार्ग पर भी लाया जा सकेगा। संसदीय समिति की अनुशंसा के अनुसार आर्थिक दंड और कारावास का भय प्रतिष्ठितों को रोकेगा। जरूरी है कि इस अनुशंसा को तत्काल कानूनी जामा पहना लागू किया जाए।
इसी से जुड़ा एक ओर ज्वलंत मुद्दा । विज्ञापनों द्वारा गलत दावे प्रस्तुत करने पर जेल जाने तक की सजा के प्रस्तावित प्रावधान के साथ ही सभी के जेहन में तत्काल एक और सवाल उठता है कि गलत 'वादों' के आधार पर चुनाव जीतनेवालों के खिलाफ भी इसी तरह के दंड की व्यवस्था क्यों न की जाए। वादे कर चुनाव जीतने के बाद, बल्कि सत्ता में पहुंच जाने के बाद भी वादों से मुकरने के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। वादों पर भरोसा कर मत देनेवाला मतदाता तब छला महसूस करता है जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि वादों की पूर्ति तो दूर ठीक उसके विपरीत कार्य करते दिखते हैं। क्या ऐसी वादाखिलाफी समाज के साथ विश्वासघात नहीं? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा के अनुरूप ऐसे 'छल' को भी दंडनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। जिन वादों के सहारे जनप्रतिनिधि सत्ता की कुर्सी पर बैठते हैं उन वादों को पूरा करना कानूनी रूप से भी अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए। क्योंकि जनता ने वादों पर भरोसा कर ही उन्हें सत्ता सौंपी होती है।
यह कोई विषयांतर नहीं, समान न्याय का तकाजा है। अगर प्रतिष्ठित व्यक्तियों को विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं को गलत भरोसा देने के लिए दंडित किया जाता है तब मतदाता को भी गलत भरोसा देने के अपराध में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दंडित किया जाना चाहिए। तभी लोकतांत्रिक भारत सभी के लिए समान न्याय संबंधी अपनी महिमांडित न्याय व्यवस्था के पक्ष में अंगड़ाई ले सकता है। आलोच्य प्रसंग में 'प्रतिष्ठित' कलाकार भी हैं,खिलाड़ी भी हैं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी।
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