राजनीतिक समीक्षक हतप्रभ हैं कि जिस तेजी के साथ अभी -अभी, लगभग दो वर्ष, पूर्व नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शीर्ष पर चमक रहे थे उसी तेजी से उनकी लोकप्रियता नीचे कैसे गिरी?
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
यह आकलन किसी और का नहीं स्वयं भारतीय जनता पार्टी का है। महाराष्ट्र भाजपा द्वारा कराए गए एक आंतरिक सर्वेक्षण के अनुसार महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जहां 2013-14 में 40 प्रतिशत थी वह अब गिरकर 25 प्रश पर आ गई है।
सर्वेक्षण का दूसरा चौंकानेवाला तथ्य यह कि महाराष्ट्र प्रदेश में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस की लोकप्रियता भी मोदी के समानांतर 25 प्रतिशत ही है। हालांकि सर्वे में दोनों के बीच तुलना नहीं की गई है। लेकिन परिणाम से स्वयं प्रदेश भाजपा के अंदर असहज स्थिति पैदा हो गई है।
प्रसंगवश 1980 का एक वाकया। तब आपातकाल के बाद बिहार में इंदिरा गांधी की पसंद डॉ. जगन्नाथ मिश्र पुन: मुख्यमंत्री बने थे। एक बार वे प्रदेश के अनेक क्षेत्रों का दौरा कर लौटे थे। इस 'समीक्षक' से बातचीत के दौरान, दौरे में मिले भारी प्रतिसाद से उत्साहित डॉ. मिश्र ने बताया कि हर सभा में इंदिरा गांधी से ज्यादा लोग उन्हे सुनने को एकत्रित हुए। बधाई देते हुए 'समीक्षक' ने कहा कि इस तथ्य को अपनी रिपोर्ट द्वारा जनता तक पहुंचा देता हूं। पहले तो डॉक्टर मिश्र उत्साह में हां बोल गए किंतु तत्काल संशोधन कर लिया कि 'अरे... अरे, नहीं... नहीं, ऐसा करेंगे तो मेरी नौकरी चली जायेगी?' बात हंसी में खत्म हो गई।
महाराष्ट्र भाजपा के ताजा सर्वे में जब यह तथ्य उभर कर सामने आया कि प्रदेश में लोकप्रियता के मापदंड पर प्रधानमंत्री मोदी व मुख्यमंत्री फडणवीस बराबरी पर हैं तब असहज पार्टी नेता इस पर कोई भी टिपण्णी करने से कतरा गए। दूसरी ओर स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस की ओर से कहा गया कि इस 'व्यायाम' को सर्वे निरुपित नहीं किया जा सकता। सिर्फ यह प्रमाणित होता है कि लोकसभा एवं स्थानीय चुनाव में अंतर होता है, बात ठीक भी है। लेकिन, ठीक यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ हालिया दिनों में तेजी से नीचे गिरा है और गिरता जा रहा है। सच तो यह है कि गिरावट की यह प्रवृत्ति न केवल महाराष्ट्र प्रदेश में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित है। पार्टी के लिए यह चिंता का विषय है।
चिंता पूरे देश को भी है। क्योंकि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में, कांग्रेस नेतृत्व के यूपीए कुशासन से त्रस्त देश के बहुमत ने मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी। लोगों ने यह मान लिया था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन, राष्ट्रीय परिवर्तन होगा और एक नया भारत अवतरित होगा। यही कारण था कि लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एक लहर नहीं, ज्वार उठा। नतीजतन, देश की सबसे बड़ी पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक बौने का आकार ले सिकुडऩे को मजबूर हो गई।
नवनियुक्त प्रधानमंत्री मोदी को देश का पूरा समर्थन मिला। आधार अथवा नींव उनके प्रति राष्ट्रीय विश्वास था।
लेकिन, कड़वा सच अब यह है कि पिछले दो वर्ष के मोदी शासनकाल के बाद प्रधानमंत्री की छवि व लोकप्रियता पर अमावस्या का ग्रहण लगता दिखने लगा है। लोगों का विश्वास और सपने चूर-चूर!
महाराष्ट्र प्रदेश से आगे बढ़ें तो राष्ट्रीय स्तर पर भी 2014 में मोदी के पक्ष में लोकप्रियता का ग्राफ जहां 70 प्रतिशत था वह 2015 के आरंभ में दिल्ली प्रदेश चुनाव के बाद गिरकर 50 प्रश पर आ गया था और ताजा कड़वा सच यह है कि पिछले बिहार चुनाव के बाद वह ग्राफ 40 फीसदी पर सिकुड़ गया। इस पाश्र्व में महाराष्ट्र का ताजा सर्वेक्षण स्वयं भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है। राजनीतिक समीक्षक हतप्रभ हैं कि जिस तेजी के साथ अभी -अभी, लगभग दो वर्ष, पूर्व नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शीर्ष पर चमक रहे थे उसी तेजी से उनकी लोकप्रियता नीचे कैसे गिरी?
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
सूक्ष्म पड़ताल के बाद यह तथ्य सामने उभर कर सामने आया है कि देश स्वयं को छला हुआ महसूस करने लगा है। परिवर्तन की जगह यथावत की मौजूदगी से देशवासी दुखी हैं। वादों की पूर्र्ति नहीं होने से देशवासी भयभीत हैं। महंगाई में अप्रत्याशित वृद्धि और रोजगार की मृग मरीचिका छल को चिन्हित कर रहा है। कृषि क्षेत्र में किसानों की दुर्दशा और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, निर्यात में गिरावट, भारतीय करेंसी (रुपये) की दीन-हीन अवस्था, एक अंधकारमय भविष्य को सामने खड़ा करता है। काला धन एवं भ्रष्टाचार पर रोक व कड़ी कारवाई के वादे से दूरी सरकार की निष्क्रियता की चुगली कर रही है। शिक्षण संस्थाओं में अफरा-तफरी और छात्रों के बीच असंतोष देश के भावी कर्णधारों के भविष्य पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं। विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी पड़ोसी नेपाल भी हमें आंखें दिखाने लगा है। चीन अपनी इच्छानुसार हमारे गालों पर तमाचा जड़ देता है। अदना पाकिस्तान हमें मूर्ख समझने लगा है। फुसफुसाहट है कि अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश हमारे प्रधानमंत्री मोदी को 'इमोशनल फूल' (भावनात्मक मूर्ख) निरुपित कर उपहास उड़ाने लगे हैं। इस स्थिति में विदेश नीति को सफल अथवा कारगर तो नहीं कह सकते। जाने-अनजाने विकास से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को हाशिए पर रख बिल्कुल अनावश्यक गैर मुद्दों को हवा देने की नई परंपरा से देश का सामान्य वर्ग आतंकित है। प्राय हर क्षेत्र, हर विधा में एक असहज अंसतोष व्याप्त है। हर कोई तनावग्रस्त है, निराश है, भयभीत है।
क्या यह सब अनायास है? एक व्यक्ति नरेन्द्र दामोदरदास मोदी में क्या देश ने विश्वास व्यक्त कर गलती की थी? इस पर फैसला करना जल्दबाजी होगी किंतु हम यह बताने की स्थिति में हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ईमानदारी और नीयत पर फिलहाल संदेह नहीं किया जा सकता। वर्तमान असहज स्थिति के लिए दोषी वह व्यवस्था है, जिसके नकारात्मक पक्ष की पहचान तो नरेन्द्र मोदी ने की, किंतु निराकरण की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाने से उन्हें रोक दिया गया। गलत सलाह और गलत सलाहाकार दोषी हैं। इस अवस्था के लिए आकड़ों की बाजीगरी में कुशल ये तत्व मोदी के सामने आंकड़ा-आधारित 'स्वर्णयुग' प्रस्तुत करते रहे हैं। आम लोगों के बीच व्याप्त निराशा क्षोभ एवं उनकी आकांक्षा पर पर्दा डाल कृत्रिम खुशहाली व विकास के दर्शन प्रधानमंत्री को कराये जाते रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे कभी सलाहकार इंदिरा गांधी को वास्तविकता से दूर रख कल्पनालोक के कृत्रिम स्वर्णिम संसार को उनके सामने पेश किया करते थे। इंदिरा गांधी के पतन का कारण उनके अयोग्य -अवसरवादी सलाहकार ही बने थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी वैसी ही स्थिति में, कल्पनालोक के वैसे ही संसार में शनै:-शनै: वैसे ही धकेला जा रहा है। विश्व इतिहास गवाह है कि लोकप्रियता के चरम पर पहुंचनेवाले शासक के पैर उनके कथित अपने ही खींचते रहे हैं। जो शासक चापलूसी, खुशामद को पहचान वास्तविकता से रुबरु हुए वे संभल गए, किंतु शेष पतन के गर्त में गिरते चले गए।
विकास की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में विश्वगुरु बनने की अकूत संभावना लिए भारत आगे बढ़ रहा है तो अपनी नैसर्गिक क्षमता के कारण। अंतिम सफलता की शर्त ईमानदार, कुशल नेतृत्व है। देश आज भी इस मुकाम पर प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी को लेकर आशान्वित है। क्या नरेन्द्र मोदी उन्हें निराश करेंगे? आंशिक अथवा क्षणिक अलोकप्रियता को संपूर्ण सफलता में परिवर्तित करने की क्षमता रखनेवाले नरेन्द्र मोदी चेतें, जागें। आलोच्य असफलताएं पुन: सफलता में परिवर्तित हो जाएंगी।
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
यह आकलन किसी और का नहीं स्वयं भारतीय जनता पार्टी का है। महाराष्ट्र भाजपा द्वारा कराए गए एक आंतरिक सर्वेक्षण के अनुसार महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जहां 2013-14 में 40 प्रतिशत थी वह अब गिरकर 25 प्रश पर आ गई है।
सर्वेक्षण का दूसरा चौंकानेवाला तथ्य यह कि महाराष्ट्र प्रदेश में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस की लोकप्रियता भी मोदी के समानांतर 25 प्रतिशत ही है। हालांकि सर्वे में दोनों के बीच तुलना नहीं की गई है। लेकिन परिणाम से स्वयं प्रदेश भाजपा के अंदर असहज स्थिति पैदा हो गई है।
प्रसंगवश 1980 का एक वाकया। तब आपातकाल के बाद बिहार में इंदिरा गांधी की पसंद डॉ. जगन्नाथ मिश्र पुन: मुख्यमंत्री बने थे। एक बार वे प्रदेश के अनेक क्षेत्रों का दौरा कर लौटे थे। इस 'समीक्षक' से बातचीत के दौरान, दौरे में मिले भारी प्रतिसाद से उत्साहित डॉ. मिश्र ने बताया कि हर सभा में इंदिरा गांधी से ज्यादा लोग उन्हे सुनने को एकत्रित हुए। बधाई देते हुए 'समीक्षक' ने कहा कि इस तथ्य को अपनी रिपोर्ट द्वारा जनता तक पहुंचा देता हूं। पहले तो डॉक्टर मिश्र उत्साह में हां बोल गए किंतु तत्काल संशोधन कर लिया कि 'अरे... अरे, नहीं... नहीं, ऐसा करेंगे तो मेरी नौकरी चली जायेगी?' बात हंसी में खत्म हो गई।
महाराष्ट्र भाजपा के ताजा सर्वे में जब यह तथ्य उभर कर सामने आया कि प्रदेश में लोकप्रियता के मापदंड पर प्रधानमंत्री मोदी व मुख्यमंत्री फडणवीस बराबरी पर हैं तब असहज पार्टी नेता इस पर कोई भी टिपण्णी करने से कतरा गए। दूसरी ओर स्वयं मुख्यमंत्री फड़णवीस की ओर से कहा गया कि इस 'व्यायाम' को सर्वे निरुपित नहीं किया जा सकता। सिर्फ यह प्रमाणित होता है कि लोकसभा एवं स्थानीय चुनाव में अंतर होता है, बात ठीक भी है। लेकिन, ठीक यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ हालिया दिनों में तेजी से नीचे गिरा है और गिरता जा रहा है। सच तो यह है कि गिरावट की यह प्रवृत्ति न केवल महाराष्ट्र प्रदेश में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित है। पार्टी के लिए यह चिंता का विषय है।
चिंता पूरे देश को भी है। क्योंकि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में, कांग्रेस नेतृत्व के यूपीए कुशासन से त्रस्त देश के बहुमत ने मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी। लोगों ने यह मान लिया था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन, राष्ट्रीय परिवर्तन होगा और एक नया भारत अवतरित होगा। यही कारण था कि लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एक लहर नहीं, ज्वार उठा। नतीजतन, देश की सबसे बड़ी पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक बौने का आकार ले सिकुडऩे को मजबूर हो गई।
नवनियुक्त प्रधानमंत्री मोदी को देश का पूरा समर्थन मिला। आधार अथवा नींव उनके प्रति राष्ट्रीय विश्वास था।
लेकिन, कड़वा सच अब यह है कि पिछले दो वर्ष के मोदी शासनकाल के बाद प्रधानमंत्री की छवि व लोकप्रियता पर अमावस्या का ग्रहण लगता दिखने लगा है। लोगों का विश्वास और सपने चूर-चूर!
महाराष्ट्र प्रदेश से आगे बढ़ें तो राष्ट्रीय स्तर पर भी 2014 में मोदी के पक्ष में लोकप्रियता का ग्राफ जहां 70 प्रतिशत था वह 2015 के आरंभ में दिल्ली प्रदेश चुनाव के बाद गिरकर 50 प्रश पर आ गया था और ताजा कड़वा सच यह है कि पिछले बिहार चुनाव के बाद वह ग्राफ 40 फीसदी पर सिकुड़ गया। इस पाश्र्व में महाराष्ट्र का ताजा सर्वेक्षण स्वयं भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है। राजनीतिक समीक्षक हतप्रभ हैं कि जिस तेजी के साथ अभी -अभी, लगभग दो वर्ष, पूर्व नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शीर्ष पर चमक रहे थे उसी तेजी से उनकी लोकप्रियता नीचे कैसे गिरी?
सेंट्रल ऑब्जर्वर ''दुश्मन नही आईना'' की तर्ज पर कतिपय स्पष्ट कारणों को सामने रख आईना दिखाना चाहता है। कोई पूर्वाग्रह नहीं, सिर्फ सच और वास्तविकता!
सूक्ष्म पड़ताल के बाद यह तथ्य सामने उभर कर सामने आया है कि देश स्वयं को छला हुआ महसूस करने लगा है। परिवर्तन की जगह यथावत की मौजूदगी से देशवासी दुखी हैं। वादों की पूर्र्ति नहीं होने से देशवासी भयभीत हैं। महंगाई में अप्रत्याशित वृद्धि और रोजगार की मृग मरीचिका छल को चिन्हित कर रहा है। कृषि क्षेत्र में किसानों की दुर्दशा और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, निर्यात में गिरावट, भारतीय करेंसी (रुपये) की दीन-हीन अवस्था, एक अंधकारमय भविष्य को सामने खड़ा करता है। काला धन एवं भ्रष्टाचार पर रोक व कड़ी कारवाई के वादे से दूरी सरकार की निष्क्रियता की चुगली कर रही है। शिक्षण संस्थाओं में अफरा-तफरी और छात्रों के बीच असंतोष देश के भावी कर्णधारों के भविष्य पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं। विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी पड़ोसी नेपाल भी हमें आंखें दिखाने लगा है। चीन अपनी इच्छानुसार हमारे गालों पर तमाचा जड़ देता है। अदना पाकिस्तान हमें मूर्ख समझने लगा है। फुसफुसाहट है कि अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश हमारे प्रधानमंत्री मोदी को 'इमोशनल फूल' (भावनात्मक मूर्ख) निरुपित कर उपहास उड़ाने लगे हैं। इस स्थिति में विदेश नीति को सफल अथवा कारगर तो नहीं कह सकते। जाने-अनजाने विकास से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को हाशिए पर रख बिल्कुल अनावश्यक गैर मुद्दों को हवा देने की नई परंपरा से देश का सामान्य वर्ग आतंकित है। प्राय हर क्षेत्र, हर विधा में एक असहज अंसतोष व्याप्त है। हर कोई तनावग्रस्त है, निराश है, भयभीत है।
क्या यह सब अनायास है? एक व्यक्ति नरेन्द्र दामोदरदास मोदी में क्या देश ने विश्वास व्यक्त कर गलती की थी? इस पर फैसला करना जल्दबाजी होगी किंतु हम यह बताने की स्थिति में हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ईमानदारी और नीयत पर फिलहाल संदेह नहीं किया जा सकता। वर्तमान असहज स्थिति के लिए दोषी वह व्यवस्था है, जिसके नकारात्मक पक्ष की पहचान तो नरेन्द्र मोदी ने की, किंतु निराकरण की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाने से उन्हें रोक दिया गया। गलत सलाह और गलत सलाहाकार दोषी हैं। इस अवस्था के लिए आकड़ों की बाजीगरी में कुशल ये तत्व मोदी के सामने आंकड़ा-आधारित 'स्वर्णयुग' प्रस्तुत करते रहे हैं। आम लोगों के बीच व्याप्त निराशा क्षोभ एवं उनकी आकांक्षा पर पर्दा डाल कृत्रिम खुशहाली व विकास के दर्शन प्रधानमंत्री को कराये जाते रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे कभी सलाहकार इंदिरा गांधी को वास्तविकता से दूर रख कल्पनालोक के कृत्रिम स्वर्णिम संसार को उनके सामने पेश किया करते थे। इंदिरा गांधी के पतन का कारण उनके अयोग्य -अवसरवादी सलाहकार ही बने थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी वैसी ही स्थिति में, कल्पनालोक के वैसे ही संसार में शनै:-शनै: वैसे ही धकेला जा रहा है। विश्व इतिहास गवाह है कि लोकप्रियता के चरम पर पहुंचनेवाले शासक के पैर उनके कथित अपने ही खींचते रहे हैं। जो शासक चापलूसी, खुशामद को पहचान वास्तविकता से रुबरु हुए वे संभल गए, किंतु शेष पतन के गर्त में गिरते चले गए।
विकास की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में विश्वगुरु बनने की अकूत संभावना लिए भारत आगे बढ़ रहा है तो अपनी नैसर्गिक क्षमता के कारण। अंतिम सफलता की शर्त ईमानदार, कुशल नेतृत्व है। देश आज भी इस मुकाम पर प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी को लेकर आशान्वित है। क्या नरेन्द्र मोदी उन्हें निराश करेंगे? आंशिक अथवा क्षणिक अलोकप्रियता को संपूर्ण सफलता में परिवर्तित करने की क्षमता रखनेवाले नरेन्द्र मोदी चेतें, जागें। आलोच्य असफलताएं पुन: सफलता में परिवर्तित हो जाएंगी।
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