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Thursday, March 31, 2016

फिलहाल कारगर 'कम दाग, अधिक स्वच्छता !



नितिन गडकरी
एक केन्द्रीय मंत्री...!
पुण्यप्रसून वाजपेयी
एक पत्रकार...!
गडकरी कहते हैं 'आज कोई भी 'परफेक्ट' नहीं। न तो समाज, न लीडर, न पत्रकार'।
प्रसून कहते हैं, 'आज पत्रकार की प्राथमिकता सत्ता नहीं, बल्कि कार्पोरेट घराने हैं।
साफ है कि दोनों ने साफगोई से काम लिया है। इनके शब्द और इनमें निहित संकेत-संदेश चुनौती से परे हैं। दलीय अथवा गुटीय आधार पर छद्म पेशेवर चुनौती देने सामने आएंगे किंतु, व्यापक समाज उनकी चुनौतियों को गंभीरता से नहीं लेगा। गडकरी एक राजनेता के रूप में और प्रसून एक पत्रकार के रूप में अपने लंबे अनुभवों के आधार पर अगर कड़वे सच को चिन्हित करते हैं तब उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। बल्कि, इससे भी आगे बढ़ते हुए संबंधित बिरादरी अर्थात राजदल और पत्रकार इनके शब्दों पर चिंतन-मनन करें। चिन्हित सच आज की राजनीति और पत्रकारिता का सच है।
भला इससे कौन इनकार कर सकता है कि आज सकारात्मक राजनीति अथवा सकारात्मक पत्रकारिता के लिए एक-दूसरे का पूरक बनने की जगह निज-स्वार्थ सिद्धि के लिए ये दोनों परस्पर पूरक बन गए हैं? राजनीतिकों को गालियां तो बहुत पहले से ही पडऩी शुरू हो चुकी है। राजनेता इसके आदी हो गए हैं। बल्कि उनकी चमड़ी मोटी हो गई है। पिछले कुछ वर्षों से पत्रकारों को भी ऐसी दु:स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पूरी की पूरी बिरादरी तो नहीं किंतु, उनका बहुसंख्यक इस वर्ग में शामिल है। शनै:-शनै: यह वर्ग भी बेशर्म होता जा रहा है। दु:स्थिति के लिए जिम्मेदार वे स्वयं हैं। उन्होंने स्वयं ऐसी स्थिति को आमंत्रित किया है-अपने संदिग्ध आचरण से, लांछन-योग्य कर्मों से ।
  अभी कुछ वर्ष पूर्व नीरा राडिया प्रकरण ने पत्रकारिता क्षेत्र के कुछ बड़े हस्ताक्षरों, यथा  बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला के चेहरों से नकाब उतार दिया था। बड़े व्यावसायिक घराने के बिचौलिए के रूप में इनके नाम दर्ज हो गए थे। युवा पत्रकारों के लिए आदर्श के रूप में स्थापित इन लोगों ने तब पूरी की पूरी पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा कर दिया था। परंतु, परिणाम? शून्य! कोई आत्मचिंतन नहीं, कोई संशोधन नहीं और कोई पछतावा नहीं !
कोई आश्चर्य नहीं कि वे एक अन्य रूप में 'मार्गदर्शक व प्रेरक' बन गए। प्रसून ने इसे विस्तारित कर दिया कि आज के पत्रकार सत्ता से जुडऩे की बजाय व्यवसायिक घरानों से जुडऩा ज्यादा पसंद करने लगे हैं।  
कारण अथवा लोभ बताने की जरुरत नहीं। साफ-साफ सामने हैं- अर्थलाभ। और इससे जुड़ा वैभव-ऐश्वर्य। फिर क्या आश्चर्य कि, बकौल प्रसून, 'आज दिल्ली में सौ से अधिक पत्रकार कार्पोरेट घरानों के लिए काम कर रहे हैं।' यहां स्पष्ट कर दूं कि 'कार्पोरेट घरानों के लिए काम करना और कार्पोरेट घरानों में काम करना' में फर्क है। किसी कार्पोरेट घराने द्वारा संचालित मीडिया संस्थान से जुड़ अपने दायित्व का निर्वाह करना एक बात है और मीडिया घरानों के हित के लिए पत्रकारिता से इतर स्याह-सफेद  करना दूसरी बात। प्रसून का आशय इस दूसरे पक्ष से है। और यह सच भी है। पाठक व दर्शक पत्रकारों से अपेक्षा करता है तथ्याधारित सच्ची खबर की और तटस्थ-निष्पक्ष विश्लेषण की।  इस अपेक्षा की पूर्ति एक पत्रकार तभी कर सकता है जब वह सत्ता और कार्पोरेट घरानों से पृथक रहकर कलम उठाए। राज्यसभा की सदस्यता की चाहत या कार्पोरेट घरानों के 'ऐश्वर्य' की चाहत रखनेवाले पाठकीय अपेक्षा की पूर्ति कदापि नहीं कर सकते।
गडकरी जब कहते हैं कि आज समाज, नेता, पत्रकार कोई भी 'परफेक्ट' अर्थात परिपूर्ण नहीं है, तो इसे मात्र एक कड़वे सच का रेखांकन न मान, इनके शब्दों में निहित पीड़ा पर विमर्श किया जाना चाहिए। जिंदगी के लिए आवश्यक संसाधनों व उनकी पूर्ति की आपा-धापी के बीच 'परिपूर्णता' अगर है तो वह अपवाद के खांचे में रूदन करती खड़ी मिलेगी। गडकरी सही हैं कि आज कोई भी परिपूर्ण नहीं है। लेकिन इसकी चाहत रखनेवाला, इसकी तलाश करनेवाला अगर परिपूर्णता के निकट पहुंच इसके दरवाजे पर दस्तक भी देता है तब, देश-समाज इसे उपलब्धि मान मुदित हो सकता है। नेता, पत्रकार और समाज इस हेतु प्रयास तो करें! एक पूर्णत: अ-परिपूर्ण व्यक्ति चाहे वह नेता हो या पत्रकार या फिर संपूर्णता में समाज ही क्यों न हो, अपेक्षित की आपूर्ति नहीं कर सकता। ऐसे में प्रयास कर इसके निकट पहुंचनेवाला अवश्य, अगर पूरा नहीं तो एक संतोषजनक मात्रा में, आपूर्ति कर सकता है। देश और समाज इससे संतुष्ट होगा। पूरी सफेद कमीज के किसी एक कोने में दाग को समाज स्वीकार कर लेगा किंतु, पूरी की पूरी दागदार कमीज को नहीं। चूंकि गडकरी की गिनती सामान्य राजनेता से पृथक एक स्पष्टवादी व व्यावहारिक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में होती है, उन्होंने बगैर शब्दों को चबाए सचाई को उगल दिया। बेहतर हो, राजनेता भी यहां से सूत्र पकड़ राजकर्म में एक-दो... दागदार बूंदों की परवाह न कर शेष स्वच्छता की चिंता करें। कोई उन्हें दागी नहीं कहेगा।  यह व्यवहारिक स्वीकृति होगी।  बाद में ऐसे दाग आसानी से साफ किए जा सकेंगे। और तब पूरी की पूरी कमीज बेदाग, साफ सामने होगी।
राजनेता और पत्रकार 'कम-दाग, अधिक-स्वच्छता'  को सफलता का मंत्र मान एक दूसरे के पूरक बन कदमताल करें, पेशेवर क्रांति आ जाएगी। 

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