'अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू'
हालांकि किसी आरोपी को अदालत द्वारा जमानत दिया जाना अंतिम फैसला अर्थात आरोपों से बरी किया जाना नहीं होता, जेएनयू प्रकरण में छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को मिली जमानत में अनेक संदेश निहित हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय की विद्वान न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने कन्हैया को अंतरिम जमानत देते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे न केवल न्याय जगत बल्कि समाज की हर विधा से जुड़े लोगों के लिए विचारणीय है। विद्वान न्यायाधीश ने स्वयं को चौराहे पर खड़ा बताते हुए टिप्पणी की है कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलूहैं।
स्पष्ट है कि उनका संकेत अभिव्यक्ति की आजादी संबंधी संवैधानिक प्रावधान और देश के एक सजग नागरिक के रूप में कर्तव्य की ओर है। आलोच्य प्रसंग में छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी अगर रेखांकित है तो साथ ही छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में कन्हैया के कर्तव्य को भी चिह्नित किया गया है। जेएनयू परिसर में कथित रूप से जो देश विरोधी नारे लगाए गए, देश को खंडित करने की बात कही गई, उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। किंतु जिस वीडियो फुटेज के आधार पर कन्हैया के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप लगाया गया, उस वीडियो 'फुटेज' की प्रामाणिकता संदिग्ध है। यही नहीं, अदालत में जमानत की सुनवाई के दौरान स्वयं दिल्ली पुलिस की ओर से कहा गया कि कन्हैया के खिलाफ कोई भी वीडियो प्रमाण नहीं हैं। अभियोजन पक्ष ने आरोप को दोहराया कि कन्हैया घटनास्थल पर मौजूद था और अफजल से जुड़े कार्यक्रम के आयोजकों में से एक था। ऐसे लचर आरोप पर न्यायाधीश को पूछना पड़ा कि क्या पुलिस को जानकारी भी है कि देशद्रोह क्या होता है? तभी संकेत मिल गया था कि कन्हैया को जमानत मिल जाएगी। न्यायाधीश की यह टिप्पणी भी गौरतलब है कि भारत के संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी के तहत हर नागरिक को अपनी विचारधारा और जुड़ाव के साथ जीने का हक है। किंतु हम अभिव्यक्ति की आजादी इसलिए मना पा रहे हैं, क्योंकि हमारे जवान सरहदों पर तैनात हैं। हमें सुरक्षा देने वाली हमारी सेना दुनिया के सबसे अधिक इलाकों में जैसे कि सियाचिन और कच्छ के रण में तैनात है। उस क्षेत्र में आक्सीजन की इतनी कमी है कि जो लोग अफजल गुरु और मकबूल भट्ट के पोस्टर सीने से लगाकर उनकी शहादत का सम्मान कर रहे हैं और राष्ट्र विरोधी नारेबाजी कर रहे हैं, वे इन कठिन परिस्थितियों का एक घंटे के लिए मुकाबला नहीं कर सकते। जिस तरह की नारेबाजी की गई है, उससे उन शहीदों के परिवार हतोत्सहित हो सकते हैं, जिनके शव तिरंगे में लिपटे ताबूतों में घर लौटे हैं।
कन्हैया पर लगे आरोपों की जांच अभी जारी है। चूंकि स्वयं कन्हैया ने देश-विरोधी गतिविधियों की भत्र्सना की है, क्या हम आशा करें कि वह जेएनयू परिसर में कथित रूप से मौजूद देश विरोधी तत्वों की पहचान कर, कानून के हवाले करेगा। कन्हैया जिस राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित है, वह देशद्रोहियों का साथ देने की इजाजत नहीं देता। अब तक के उपलब्ध प्रमाण से देश आश्वस्त है कि कन्हैया शोषण के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मनुवाद के खिलाफ सामाजिक आजादी तो चाहता है किंतु देश की एकता और अखंडता के साथ समझौता नहीं। अगर यह सच है तो कन्हैया को आगे बढ़कर, छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में अवैध रूप से प्रविष्ट तत्वों को कानून के हवाले करना ही होगा।
वैचारिक आजादी राष्ट्र की मजबूती का आग्रही है, राष्ट्र की संप्रभुता का आग्रही है, राष्ट्र की एकता और अखंडता का आग्रही है, विखंडन का कदापि नहीं। कन्हैया कुमार और उसके मित्र इस शाश्वत अपेक्षा को हृदयस्थ कर लें।
हालांकि किसी आरोपी को अदालत द्वारा जमानत दिया जाना अंतिम फैसला अर्थात आरोपों से बरी किया जाना नहीं होता, जेएनयू प्रकरण में छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को मिली जमानत में अनेक संदेश निहित हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय की विद्वान न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने कन्हैया को अंतरिम जमानत देते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे न केवल न्याय जगत बल्कि समाज की हर विधा से जुड़े लोगों के लिए विचारणीय है। विद्वान न्यायाधीश ने स्वयं को चौराहे पर खड़ा बताते हुए टिप्पणी की है कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलूहैं।
स्पष्ट है कि उनका संकेत अभिव्यक्ति की आजादी संबंधी संवैधानिक प्रावधान और देश के एक सजग नागरिक के रूप में कर्तव्य की ओर है। आलोच्य प्रसंग में छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी अगर रेखांकित है तो साथ ही छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में कन्हैया के कर्तव्य को भी चिह्नित किया गया है। जेएनयू परिसर में कथित रूप से जो देश विरोधी नारे लगाए गए, देश को खंडित करने की बात कही गई, उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। किंतु जिस वीडियो फुटेज के आधार पर कन्हैया के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप लगाया गया, उस वीडियो 'फुटेज' की प्रामाणिकता संदिग्ध है। यही नहीं, अदालत में जमानत की सुनवाई के दौरान स्वयं दिल्ली पुलिस की ओर से कहा गया कि कन्हैया के खिलाफ कोई भी वीडियो प्रमाण नहीं हैं। अभियोजन पक्ष ने आरोप को दोहराया कि कन्हैया घटनास्थल पर मौजूद था और अफजल से जुड़े कार्यक्रम के आयोजकों में से एक था। ऐसे लचर आरोप पर न्यायाधीश को पूछना पड़ा कि क्या पुलिस को जानकारी भी है कि देशद्रोह क्या होता है? तभी संकेत मिल गया था कि कन्हैया को जमानत मिल जाएगी। न्यायाधीश की यह टिप्पणी भी गौरतलब है कि भारत के संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी के तहत हर नागरिक को अपनी विचारधारा और जुड़ाव के साथ जीने का हक है। किंतु हम अभिव्यक्ति की आजादी इसलिए मना पा रहे हैं, क्योंकि हमारे जवान सरहदों पर तैनात हैं। हमें सुरक्षा देने वाली हमारी सेना दुनिया के सबसे अधिक इलाकों में जैसे कि सियाचिन और कच्छ के रण में तैनात है। उस क्षेत्र में आक्सीजन की इतनी कमी है कि जो लोग अफजल गुरु और मकबूल भट्ट के पोस्टर सीने से लगाकर उनकी शहादत का सम्मान कर रहे हैं और राष्ट्र विरोधी नारेबाजी कर रहे हैं, वे इन कठिन परिस्थितियों का एक घंटे के लिए मुकाबला नहीं कर सकते। जिस तरह की नारेबाजी की गई है, उससे उन शहीदों के परिवार हतोत्सहित हो सकते हैं, जिनके शव तिरंगे में लिपटे ताबूतों में घर लौटे हैं।
कन्हैया पर लगे आरोपों की जांच अभी जारी है। चूंकि स्वयं कन्हैया ने देश-विरोधी गतिविधियों की भत्र्सना की है, क्या हम आशा करें कि वह जेएनयू परिसर में कथित रूप से मौजूद देश विरोधी तत्वों की पहचान कर, कानून के हवाले करेगा। कन्हैया जिस राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित है, वह देशद्रोहियों का साथ देने की इजाजत नहीं देता। अब तक के उपलब्ध प्रमाण से देश आश्वस्त है कि कन्हैया शोषण के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मनुवाद के खिलाफ सामाजिक आजादी तो चाहता है किंतु देश की एकता और अखंडता के साथ समझौता नहीं। अगर यह सच है तो कन्हैया को आगे बढ़कर, छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में अवैध रूप से प्रविष्ट तत्वों को कानून के हवाले करना ही होगा।
वैचारिक आजादी राष्ट्र की मजबूती का आग्रही है, राष्ट्र की संप्रभुता का आग्रही है, राष्ट्र की एकता और अखंडता का आग्रही है, विखंडन का कदापि नहीं। कन्हैया कुमार और उसके मित्र इस शाश्वत अपेक्षा को हृदयस्थ कर लें।
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