सभी खेल रहे हैं।
भाजपा खेल रही है, कांग्रेस खेल रही है, वामपंथी खेल रहे हैं ! तो हम पीछे क्यों रहें? हम भी खेलें ! रोहित वेमूला तो बेवफा निकला। बीच में ही हथियार डाल शरीर त्याग कर दिया। कन्हैया उसे आदर्श बना जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। राजनीति में प्रविष्ट अपराधी भी भला पीछे क्यों रहें? खेल के मैदान में कूद पड़े । कन्हैया की जीभ और सिर काटनेवालों को लाखों के ईनाम घोषित कर डालें। और ऐसे जीभ और सिर काटने के लिए ईनाम घोषित करनेवालों के सिर काटने वालों के सिर काटने पर भी ईनाम घोषित करनेवाले सामने आ गए हैं। हाल में लोकसभा में बहस के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस 'खेल' के लिए जो लकीरें खींची उसके तत्काल बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैयाकुमार ने उस लकीर के नीचे एक बड़ी लकीर खींच दोनों को मात दे दिया। राहुल की तो छोडिय़े,'हाइप' की महत्ता को तब चिन्हित कर चुके प्रधानमंत्री मोदी स्वयं 'कन्हैया हाइप' से चित हो गए। है न विडंबना?
हाँ, यह विडंबना ही तो है कि भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नाम आज जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष 28 वर्षीय कन्हैया कुमार के साथ कोष्ठक में उद्धृत किए जा रहे हैं! मैं तो इसे भारतीय लोकतंत्र का एक स्वर्णिम पक्ष मानकर चलूंगा। और यह भारतीय 'माध्यम' के उस वर्ग की विजय है जो दबाव प्रलोभन से दूर सत्य-निष्ठा के मार्ग पर चलते हुए पाठकों-दर्शकों को सच परोसने की हिम्मत दिखा रहा है। 'कन्हैया' ऐसे ही तो अवतरित होते रहे हैं ! राजनीतिक विचारधारा या दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर चाहे जितना विरोध कर लिया जाए, सच के आईने में प्रतिबिंबित कन्हैया कुमार ने चिंतकों- विचारकों को देश की न केवल राजनीतिक दशा-दिशा बल्कि सामाजिक दशा-दिशा पर भी नए सिरे से मंथन को विवश कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश-विदेश में अपने संबोधनों में जिस युवा शक्ति का आह्वान करते रहे हैं,'कन्हैया शक्ति'उसी का प्रस्फुटन है। वैचारिक मतभेद से इतर ईमानदार विश्लेषक इसे प्रधानमंत्री की आशा-विश्वास की विजय के रूप में भी चिन्हित करेगा। यही तो भारतीय लोकतंत्र की वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। मोदी-गांधी के साथ अगर कुछ दिन पूर्व तक अंजान कन्हैया का नाम जुड़ा है तो इसे सकारात्मक रूप में लिया जाए। युवा खून की उबाल को सही दिशा दे 'निर्माण' की नींव पक्की की जाए,गलत दिशा देंगे तो विध्वंसक साबित होगा। पसंद हमारी -आपकी !
जेएनयू अथवा कन्हैया प्रकरण से एक नई और अरूचिकर बहस छिड़ गई है, देशभक्त बनाम देशद्रोही की! विचारधारा के आधार पर जेएनयू कांड को देशद्रोह और कन्हैया को देशद्रोही निरूपित करने की कोशिश की जा रही है। अंतिम फैसला तो अदालत का होगा किंतु अदालत के बाहर जिस राजनीतिक आधार पर पूरे प्रकरण को प्रचारित किया जा रहा है, वह खतरनाक है। पक्ष-विपक्ष दोनों भारतीय लोकतंत्र के उस मूल तत्व को न भूलें कि अंतिम फैसला जनशक्ति में निहित है। और यह कि वैचारिक आजादी लोकतंत्र की प्राण हैं। इस पर किसी प्रकार का अंकुश लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार होगा। इतिहास गवाह हैं कि जब-जब इस आजादी को नियंत्रित करने की कोशिश की गई सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। वैचारिक आजादी के प्रचारक व समर्थक देशद्रोही नहीं हो सकते। किसी खास घटना या मुद्दे पर विचारधारा के आधार पर मतभेद स्वाभाविक हैं। पक्ष-विपक्ष के अनुकूल-प्रतिकूल भी हो सकते हैं वें, किंतु देशविरोधी नहीं। लोकतंत्र में विभिन्न दलों की अपनी अपनी विचारधाराएं होती हैं। अलग-अलग
आदर्श -सिद्धांत होते हैं। किंतु राष्ट्र अर्थात राष्ट्रीय विचारधारा एक ही होती है,और वह है देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की अक्षुण्णता! इस पर कोई समझौता नहीं! कन्हैया या रोहित की विचारधारा इसके प्रतिकूल कतई नहीं।
राजदल आज 'कन्हैया -रोहित' का खेल खेल रहे हैं तो विशुद्ध राजनीतिक लाभ के हक में। वोट की राजनीति के हक में। चूंकि हाल के दिनों में जाति और धर्म के नाम पर चुनावी जंग के परिणाम लाभ-हानि में बंटते दिखे हैं, आगामी महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों में इनकी नई व्याख्या के साथ देशभक्ति और देशद्रोह को जोड़ दिया गया है। सत्ता-वासना की भूख मिटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार राजदल इस सत्य को विस्मृत कर चुके हैं कि जाति और धर्म की राजनीति से सत्ता देवी को तो हासिल किया जा सकता है किंतु स्वावलंबी,स्वाभिमानी राष्ट्र निर्माण की अभिलाषा की पूर्ति नहीं की जा सकती। वह अभिलाषा जिसकी पूर्ति के पक्ष में न केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,विपक्ष के नेता भी वकालत करते रहते हैं। करनी और कथनी के फर्क को समझने में समर्थ देश की जनता जब सचाई के आलोक में विचलित होती है,तब एक कन्हैया जन्म लेता है।
कन्हैया एक प्रतीक है। 'आजादी' संबंधी असहज आरोप के जवाब में जब वह स्पष्ट करता है कि उन्हें भारत से नहीं बल्कि भारत में आजादी चाहिए, तब निश्चय ही वृहत्तर भारत की सोच प्रस्फुटित होती है। देश के संविधान, देश के कानून और देश की न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास व्यक्त करनेवाला देशद्रोही कैसे हो सकता है? एक विचारधारा की काट उससे अच्छी विचारधारा कर सकती है। देशभक्त को देशद्रोही करार दे किसी विचारधारा को मौत नहीं दी जा सकती!
भाजपा खेल रही है, कांग्रेस खेल रही है, वामपंथी खेल रहे हैं ! तो हम पीछे क्यों रहें? हम भी खेलें ! रोहित वेमूला तो बेवफा निकला। बीच में ही हथियार डाल शरीर त्याग कर दिया। कन्हैया उसे आदर्श बना जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। राजनीति में प्रविष्ट अपराधी भी भला पीछे क्यों रहें? खेल के मैदान में कूद पड़े । कन्हैया की जीभ और सिर काटनेवालों को लाखों के ईनाम घोषित कर डालें। और ऐसे जीभ और सिर काटने के लिए ईनाम घोषित करनेवालों के सिर काटने वालों के सिर काटने पर भी ईनाम घोषित करनेवाले सामने आ गए हैं। हाल में लोकसभा में बहस के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस 'खेल' के लिए जो लकीरें खींची उसके तत्काल बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैयाकुमार ने उस लकीर के नीचे एक बड़ी लकीर खींच दोनों को मात दे दिया। राहुल की तो छोडिय़े,'हाइप' की महत्ता को तब चिन्हित कर चुके प्रधानमंत्री मोदी स्वयं 'कन्हैया हाइप' से चित हो गए। है न विडंबना?
हाँ, यह विडंबना ही तो है कि भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नाम आज जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष 28 वर्षीय कन्हैया कुमार के साथ कोष्ठक में उद्धृत किए जा रहे हैं! मैं तो इसे भारतीय लोकतंत्र का एक स्वर्णिम पक्ष मानकर चलूंगा। और यह भारतीय 'माध्यम' के उस वर्ग की विजय है जो दबाव प्रलोभन से दूर सत्य-निष्ठा के मार्ग पर चलते हुए पाठकों-दर्शकों को सच परोसने की हिम्मत दिखा रहा है। 'कन्हैया' ऐसे ही तो अवतरित होते रहे हैं ! राजनीतिक विचारधारा या दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर चाहे जितना विरोध कर लिया जाए, सच के आईने में प्रतिबिंबित कन्हैया कुमार ने चिंतकों- विचारकों को देश की न केवल राजनीतिक दशा-दिशा बल्कि सामाजिक दशा-दिशा पर भी नए सिरे से मंथन को विवश कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश-विदेश में अपने संबोधनों में जिस युवा शक्ति का आह्वान करते रहे हैं,'कन्हैया शक्ति'उसी का प्रस्फुटन है। वैचारिक मतभेद से इतर ईमानदार विश्लेषक इसे प्रधानमंत्री की आशा-विश्वास की विजय के रूप में भी चिन्हित करेगा। यही तो भारतीय लोकतंत्र की वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। मोदी-गांधी के साथ अगर कुछ दिन पूर्व तक अंजान कन्हैया का नाम जुड़ा है तो इसे सकारात्मक रूप में लिया जाए। युवा खून की उबाल को सही दिशा दे 'निर्माण' की नींव पक्की की जाए,गलत दिशा देंगे तो विध्वंसक साबित होगा। पसंद हमारी -आपकी !
जेएनयू अथवा कन्हैया प्रकरण से एक नई और अरूचिकर बहस छिड़ गई है, देशभक्त बनाम देशद्रोही की! विचारधारा के आधार पर जेएनयू कांड को देशद्रोह और कन्हैया को देशद्रोही निरूपित करने की कोशिश की जा रही है। अंतिम फैसला तो अदालत का होगा किंतु अदालत के बाहर जिस राजनीतिक आधार पर पूरे प्रकरण को प्रचारित किया जा रहा है, वह खतरनाक है। पक्ष-विपक्ष दोनों भारतीय लोकतंत्र के उस मूल तत्व को न भूलें कि अंतिम फैसला जनशक्ति में निहित है। और यह कि वैचारिक आजादी लोकतंत्र की प्राण हैं। इस पर किसी प्रकार का अंकुश लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार होगा। इतिहास गवाह हैं कि जब-जब इस आजादी को नियंत्रित करने की कोशिश की गई सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। वैचारिक आजादी के प्रचारक व समर्थक देशद्रोही नहीं हो सकते। किसी खास घटना या मुद्दे पर विचारधारा के आधार पर मतभेद स्वाभाविक हैं। पक्ष-विपक्ष के अनुकूल-प्रतिकूल भी हो सकते हैं वें, किंतु देशविरोधी नहीं। लोकतंत्र में विभिन्न दलों की अपनी अपनी विचारधाराएं होती हैं। अलग-अलग
आदर्श -सिद्धांत होते हैं। किंतु राष्ट्र अर्थात राष्ट्रीय विचारधारा एक ही होती है,और वह है देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की अक्षुण्णता! इस पर कोई समझौता नहीं! कन्हैया या रोहित की विचारधारा इसके प्रतिकूल कतई नहीं।
राजदल आज 'कन्हैया -रोहित' का खेल खेल रहे हैं तो विशुद्ध राजनीतिक लाभ के हक में। वोट की राजनीति के हक में। चूंकि हाल के दिनों में जाति और धर्म के नाम पर चुनावी जंग के परिणाम लाभ-हानि में बंटते दिखे हैं, आगामी महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों में इनकी नई व्याख्या के साथ देशभक्ति और देशद्रोह को जोड़ दिया गया है। सत्ता-वासना की भूख मिटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार राजदल इस सत्य को विस्मृत कर चुके हैं कि जाति और धर्म की राजनीति से सत्ता देवी को तो हासिल किया जा सकता है किंतु स्वावलंबी,स्वाभिमानी राष्ट्र निर्माण की अभिलाषा की पूर्ति नहीं की जा सकती। वह अभिलाषा जिसकी पूर्ति के पक्ष में न केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,विपक्ष के नेता भी वकालत करते रहते हैं। करनी और कथनी के फर्क को समझने में समर्थ देश की जनता जब सचाई के आलोक में विचलित होती है,तब एक कन्हैया जन्म लेता है।
कन्हैया एक प्रतीक है। 'आजादी' संबंधी असहज आरोप के जवाब में जब वह स्पष्ट करता है कि उन्हें भारत से नहीं बल्कि भारत में आजादी चाहिए, तब निश्चय ही वृहत्तर भारत की सोच प्रस्फुटित होती है। देश के संविधान, देश के कानून और देश की न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास व्यक्त करनेवाला देशद्रोही कैसे हो सकता है? एक विचारधारा की काट उससे अच्छी विचारधारा कर सकती है। देशभक्त को देशद्रोही करार दे किसी विचारधारा को मौत नहीं दी जा सकती!
No comments:
Post a Comment