स्वयं के 'उपयोग' से बचें मीडिया घराने
जेएनयू प्रकरण मे उजागर 'फर्जी वीडीयो' के बाद उत्तराखंड में 'फर्जी स्टिंग' प्रकरण ने मीडिया मंडी को नहीं नेताओं को नंगा किया है। हां, 'मंडी' का आंगन उपलब्ध कराने का अपराधी मीडिया अवश्य बना है। दोनों मामलों में। ताजा उत्तराखंड में। साथ ही मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का भी है, जिसके परिसर में मीडिया प्रवेश पर बंदिश है।
जेएनयू कांड में कुछ चैनलों पर प्रसारित फर्जी वीडियो को आधार बना दिल्ली पुलिस ने राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर कुछ गिरफ्तारियां की। जांच हुई, प्रमाणित हुआ कि वीडियो फर्जी था। आरोपियों को जमानत मिल गई। उत्तराखंड में एक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच एक खबरिया चैनल समाचार प्लस ने मुख्यमंत्री हरीश रावत का एक 'स्टिंग' प्रसारित कर केंद्र सरकार को एक हथियार उपलब्ध करा दिया। आनन-फानन में उच्च स्तर पर चर्चा हुई, फैसला लिया गया और प्रदेश में सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। स्टिंग से लेकर राष्ट्रपति शासन लगाने तक के घटनाक्रम पर गौर करें। 26 मार्च को हरीश रावत की सीडी बनाई गई। 26 को ही वो सीडी दिल्ली पहुंच गई। 26 को ही वहां से सेंट्रल फॉरेंसिक लैब, चंडीगढ़ भी पहुंच गई। लैब सरकारी है और लैब ने हरीश रावत के वॉइस सैंपल लेकर उसका सीडी से मिलान भी करा दिया। वो भी 26 को ही। 26 को ही जांच की रिपोर्ट भी आ गई, और फारेंसिक लैब की जांच रिपोर्ट में सीडी असली घोषित। और रिपोर्ट 26 को ही राष्ट्रपति तक पहुंच गई। 26 को ही प्रधानमंत्री मोदी आनन-फानन में असम से दिल्ली पहुंचे और 27 की सुबह राष्ट्रपति शासन लागू। अब कोई भी इसे संदेह की नजरों से तो देखेगा ही। हां, यह जरूर है कि इस घटना या साजिश में खबरिया चैनल का स्टिंग ऑपरेशन गलत नहीं है। स्टिंग बिलकुल सही है। चैनल के ऊपर यह आरोप लगाया जा सकता है कि, कतिपय राजनेताओं अथवा राजदल विशेष ने खबरिया चैनल समाचार प्लस का 'उपयोग' कर लिया। अब मंडी यह पूछ सकता है कि चैनल का उपयोग अनायास हो गया या चैनल ने स्वयं को उपयोग के लिए उपलब्ध कराया। यहां शंका या बहस चैनल की 'नीयत' को लेकर। आरोप लग रहे हैं कि चैनल के मालिक के एक बागी कांग्रेस नेता के साथ अच्छे संबंध हैं। आवश्यकतानुसार एक मित्र दूसरे मित्र की मदद करते हैं। संभवत: यहां भी वही हुआ, किंतु मामला यहां चैनल से इतर राजनीतिक साजिश का है। उपर दिए गए 26/3 के घटनाक्रम से साफ है कि मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ बागी कांग्रेसी नेता ने समाचार प्लस का भरपूर उपयोग किया। जेएनयू प्रकरण के उलट। उस प्रकरण में कुछ खबरिया चैनल पूरी तरह साजिशकर्ताओं के साथ थे। उन्होंने मिलकर साजिश रची थी। फर्जी वीडियो तैयार किया गया, जिसके आधार पर दिल्ली पुलिस ने कुछ छात्रों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह जैसा संगीन मामला तैयार कर लिया था। इस मुकाम पर 'मीडिया मंडी' को सतर्क रहना होगा। राजनेता अथवा राजदल अपने स्वार्थपूर्ति हेतु मीडिया का उपयोग ही नहीं करेंगे बल्कि आवश्यकता पडऩे पर उसके साथ छल भी कर डालेंगे।
दूसरा मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का। वहां की एक छात्रा ने राष्ट्रिय मीडिया के नाम पर एक खुला पत्र लिखकर 'मीडिया ट्रायल' पर विरोध जताया है। उसने मीडिया पर सीधे-सीधे आरोप लगाया था कि ब्रेकिंग न्यूज के भूखे चैनल हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर रोक के बावजूद 'करिश्मा' क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। छात्रा का इशारा मीडिया के पास उपलब्ध उन संसाधनों,यंत्रणा से है, जिनका उपयोग कर वह प्रतिबंधित विश्वविद्यालय परिसर के अंदर हो रहे अत्याचारों का पर्दाफाश कर सकता है। छात्रा को दुख है कि आरंभ में राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा को सनसनी बना प्रसारित करनेवाला भारतीय मीडिया आज 'फॉलोअप' से दूर सचाई को उजागर करने में असमर्थ क्यों है?
छात्रा का सवाल या शंका अनुचित तो कदापि नहीं। हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर पुलिस ने छात्रों के खिलाफ जिस वहशीपन का प्रदर्शन किया था उसे पूरे देश ने मीडिया के माध्यम से देखा था। बिलकुल तानाशाही अंदाज में प्रतिक्रिया कार्रवाई की गई थी। उसके बाद परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। आश्चर्य इस बात का कि इस नाजायज पाबंदी का विरोध मीडिया की ओर से उस रूप में सामने नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी। क्या मीडिया और सत्ता-प्रशासन के बीच कोई समझौता हो गया? इस बिंदू पर मीडिया का ताजा मौन संदेह को बल तो देता ही है। जब विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों पर लाठियां बरसाईं जा रही थी, उन्हें पीटा जा रहा था, चुनिंदा गालियों से नवाजा जा रहा था। छात्राओं को पकड़कर यातना दी गई, उन पर नस्ली और भद्दी टिप्पणियां की गई। उसके बाद यह अपेक्षा तो वाजिब थी की राष्ट्रीय मीडिया जेएनयू से कहीं अधिक हैदराबाद विश्वविद्यालय कि घटनाओं को सार्वजनिक करेगा, बहस करेगा। कार्रवाई के लिए संबंधित पक्ष को मजबूर करेगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ। हैदराबाद विश्वविद्यालय की शोधार्थी प्रीति का यही दर्द है।
मीडिया मंडी हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर की घटना से अगर इसी तरह अप्रभावित रहा, तो तय मानिए विश्वसनीयता का ग्राफ एक बार फिर शर्मनाक निम्न स्तर पर चला जाएगा। क्या मंडी के पैरोकार ऐसा चाहेंगे?
जेएनयू प्रकरण मे उजागर 'फर्जी वीडीयो' के बाद उत्तराखंड में 'फर्जी स्टिंग' प्रकरण ने मीडिया मंडी को नहीं नेताओं को नंगा किया है। हां, 'मंडी' का आंगन उपलब्ध कराने का अपराधी मीडिया अवश्य बना है। दोनों मामलों में। ताजा उत्तराखंड में। साथ ही मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का भी है, जिसके परिसर में मीडिया प्रवेश पर बंदिश है।
जेएनयू कांड में कुछ चैनलों पर प्रसारित फर्जी वीडियो को आधार बना दिल्ली पुलिस ने राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर कुछ गिरफ्तारियां की। जांच हुई, प्रमाणित हुआ कि वीडियो फर्जी था। आरोपियों को जमानत मिल गई। उत्तराखंड में एक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच एक खबरिया चैनल समाचार प्लस ने मुख्यमंत्री हरीश रावत का एक 'स्टिंग' प्रसारित कर केंद्र सरकार को एक हथियार उपलब्ध करा दिया। आनन-फानन में उच्च स्तर पर चर्चा हुई, फैसला लिया गया और प्रदेश में सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। स्टिंग से लेकर राष्ट्रपति शासन लगाने तक के घटनाक्रम पर गौर करें। 26 मार्च को हरीश रावत की सीडी बनाई गई। 26 को ही वो सीडी दिल्ली पहुंच गई। 26 को ही वहां से सेंट्रल फॉरेंसिक लैब, चंडीगढ़ भी पहुंच गई। लैब सरकारी है और लैब ने हरीश रावत के वॉइस सैंपल लेकर उसका सीडी से मिलान भी करा दिया। वो भी 26 को ही। 26 को ही जांच की रिपोर्ट भी आ गई, और फारेंसिक लैब की जांच रिपोर्ट में सीडी असली घोषित। और रिपोर्ट 26 को ही राष्ट्रपति तक पहुंच गई। 26 को ही प्रधानमंत्री मोदी आनन-फानन में असम से दिल्ली पहुंचे और 27 की सुबह राष्ट्रपति शासन लागू। अब कोई भी इसे संदेह की नजरों से तो देखेगा ही। हां, यह जरूर है कि इस घटना या साजिश में खबरिया चैनल का स्टिंग ऑपरेशन गलत नहीं है। स्टिंग बिलकुल सही है। चैनल के ऊपर यह आरोप लगाया जा सकता है कि, कतिपय राजनेताओं अथवा राजदल विशेष ने खबरिया चैनल समाचार प्लस का 'उपयोग' कर लिया। अब मंडी यह पूछ सकता है कि चैनल का उपयोग अनायास हो गया या चैनल ने स्वयं को उपयोग के लिए उपलब्ध कराया। यहां शंका या बहस चैनल की 'नीयत' को लेकर। आरोप लग रहे हैं कि चैनल के मालिक के एक बागी कांग्रेस नेता के साथ अच्छे संबंध हैं। आवश्यकतानुसार एक मित्र दूसरे मित्र की मदद करते हैं। संभवत: यहां भी वही हुआ, किंतु मामला यहां चैनल से इतर राजनीतिक साजिश का है। उपर दिए गए 26/3 के घटनाक्रम से साफ है कि मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ बागी कांग्रेसी नेता ने समाचार प्लस का भरपूर उपयोग किया। जेएनयू प्रकरण के उलट। उस प्रकरण में कुछ खबरिया चैनल पूरी तरह साजिशकर्ताओं के साथ थे। उन्होंने मिलकर साजिश रची थी। फर्जी वीडियो तैयार किया गया, जिसके आधार पर दिल्ली पुलिस ने कुछ छात्रों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह जैसा संगीन मामला तैयार कर लिया था। इस मुकाम पर 'मीडिया मंडी' को सतर्क रहना होगा। राजनेता अथवा राजदल अपने स्वार्थपूर्ति हेतु मीडिया का उपयोग ही नहीं करेंगे बल्कि आवश्यकता पडऩे पर उसके साथ छल भी कर डालेंगे।
दूसरा मामला हैदराबाद विश्वविद्यालय का। वहां की एक छात्रा ने राष्ट्रिय मीडिया के नाम पर एक खुला पत्र लिखकर 'मीडिया ट्रायल' पर विरोध जताया है। उसने मीडिया पर सीधे-सीधे आरोप लगाया था कि ब्रेकिंग न्यूज के भूखे चैनल हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर रोक के बावजूद 'करिश्मा' क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। छात्रा का इशारा मीडिया के पास उपलब्ध उन संसाधनों,यंत्रणा से है, जिनका उपयोग कर वह प्रतिबंधित विश्वविद्यालय परिसर के अंदर हो रहे अत्याचारों का पर्दाफाश कर सकता है। छात्रा को दुख है कि आरंभ में राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा को सनसनी बना प्रसारित करनेवाला भारतीय मीडिया आज 'फॉलोअप' से दूर सचाई को उजागर करने में असमर्थ क्यों है?
छात्रा का सवाल या शंका अनुचित तो कदापि नहीं। हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर के अंदर पुलिस ने छात्रों के खिलाफ जिस वहशीपन का प्रदर्शन किया था उसे पूरे देश ने मीडिया के माध्यम से देखा था। बिलकुल तानाशाही अंदाज में प्रतिक्रिया कार्रवाई की गई थी। उसके बाद परिसर के अंदर मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। आश्चर्य इस बात का कि इस नाजायज पाबंदी का विरोध मीडिया की ओर से उस रूप में सामने नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी। क्या मीडिया और सत्ता-प्रशासन के बीच कोई समझौता हो गया? इस बिंदू पर मीडिया का ताजा मौन संदेह को बल तो देता ही है। जब विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों पर लाठियां बरसाईं जा रही थी, उन्हें पीटा जा रहा था, चुनिंदा गालियों से नवाजा जा रहा था। छात्राओं को पकड़कर यातना दी गई, उन पर नस्ली और भद्दी टिप्पणियां की गई। उसके बाद यह अपेक्षा तो वाजिब थी की राष्ट्रीय मीडिया जेएनयू से कहीं अधिक हैदराबाद विश्वविद्यालय कि घटनाओं को सार्वजनिक करेगा, बहस करेगा। कार्रवाई के लिए संबंधित पक्ष को मजबूर करेगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ। हैदराबाद विश्वविद्यालय की शोधार्थी प्रीति का यही दर्द है।
मीडिया मंडी हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर की घटना से अगर इसी तरह अप्रभावित रहा, तो तय मानिए विश्वसनीयता का ग्राफ एक बार फिर शर्मनाक निम्न स्तर पर चला जाएगा। क्या मंडी के पैरोकार ऐसा चाहेंगे?
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