और अब, देश के उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी..!
मीडिया को नसीहत दी, लेकिन शालीनता के साथ। सत्य के धरातल पर, सचाई की कसौटी पर कसते हुए।
तब, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी! 2015 के दिल्ली चुनाव में मीडिया द्वारा केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को भाजपा के मुकाबले काफी आगे बताए जाने पर बरस पड़े थे। सार्वजनिक सभा में मीडिया को 'बाजारू' निरुपित कर डाला था।
आश्चर्य या दु:ख की बात नहीं। राजनेता अपनी सुविधानुसार मीडिया- मंडन करते रहते हैं। वैसे जूते खाने की हालत के लिए मीडिया अवसर भी स्वयं प्रदान करता रहा है।
उप-राष्ट्रपति अंसारी की पीड़ा, अपेक्षा और हिदायत हमें चिंतन को विवश करता है। ईमानदार चिंतन करें, स्वच्छता प्रतीक्षारत मिलेगी। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय प्रकरण में वीडियो के फर्जीवाड़े से चिंतित उप-राष्ट्रपति ने बिल्कुल सही दर्द व्यक्त किया कि आज पत्रकारिता में निडर संपादकीय, उच्च पेशेवर और नैतिक मानक दुर्लभ हो गए हैं। उपराष्ट्रपति द्वारा व्यक्त इस भावना को कोई चुनौती दे सकता है? कदापि नहीं! हां, यह जोड़ा जा सकता है कि दुर्लभ हैं, लुप्त नहीं हुए। संख्या में कम सही, निडर लेखिनी के धारक अभी हैं। यह स्थिति वर्तमान पत्रकारिता का यथार्थ है। उप-राष्ट्रपति ने इससे आगे बढ़ते हुए सीधे-सीधे आरोप लगाया है कि हाल के दिनों में ऐसा देखा गया कि बगैर तथ्यों की प्रामाणिकता की जांच किए समाचार प्रसारित कर दिए गए। निश्चय ही उनका इशारा जेएनयू प्रकरण की तरफ ही था। अंसारी ने आगे टिप्पणी की कि ऐसी खबरों से चैनलों के दर्शकों की संख्या में अस्थाई वृद्धि हो सकती है या चैनलों के राजनीतिक संरक्षकों के हित सध सकते हैं। किंतु, इससे उनकी विश्वसनीयता कम होती है और नागरिक अधिकार का क्षरण होता है। अंसारी ने मालिक और संपादक के बीच जिम्मेदारी के भाव में कमी और एक स्वतंत्र विचार-आधारित संपादक के प्रति मालिकों की उदासीनता पर पीड़ा व्यक्त करते हुए यह भी कहा कि, संपादकीय और विज्ञापन के बीच विभाजन की एक मोटी रेखा खींची जानी चाहिए।
स्याह आवरण के बावजूद मैं विश्वास व अपेक्षा के पूर्ण-त्याग के पक्ष में नहीं हूं। अंधकार और फिर उजाला, प्रकृति के नियम हैं। रात होगी तो भोर भी होगी। मीडिया में पतितों के बहुमत के बावजूद अल्पसंख्या में ही सही ईमानदार भी मौजूद हैं। वे निश्चय ही हामिद अंसारी के शब्दों में निहित संदेश और अपेक्षा को समझेंगे। निराकरण का प्रयास करेंगे, मार्ग ढूंढेंगे।
अंसारी ने मीडिया मालिक, संपादक और विज्ञापन की चर्चा की है। यह ठीक है कि मीडिया घरानों को राजस्व देनेवाले विज्ञापन की चिंता रहती है। संस्थान चलाने के लिए यह आवश्यक भी है। किंतु, जब इसकी कीमत पर पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत और चरित्र के साथ समझौते होने लगें, मानक बिखरने लगें तब चिंता होती है। सच तो यह है कि आज सिर्फ भारतीय ही नहीं, वैश्विक मीडिया भी इस संकट से त्रस्त है। ऐसे में सही मार्गदर्शक के रूप में एक स्वतंत्र, ईमानदार और निडर संपादक की मौजूदगी अपेक्षित है। संपादकीय कक्ष में मीडिया मालिकों के बढ़ते प्रभाव-दबाव के बीच निडर संपादकरूपी जीव की उपस्थिति स्वयं में एक खबर बनती है। क्योंकि कुछ अपवाद छोड़ अधिकांश संपादक मालिकों की इच्छा के सामने नतमस्तक ही दिखते हैं। शायद यह वैश्वीकरण का प्रभाव भी हो। पूरे संसार में 'मीडिया मुगल' के रूप में विख्यात 'रुपर्ट मर्डोक' के विषय में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे अपने सभी समाचार पत्रों और टी.वी चैनलों में संपादक के पद पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करते हैं जो समाचार कक्ष में 'मालिक की आवाज' माने जाते हैं। ये संपादक सुनिश्चित करते हैं कि पत्रकारों की स्वतंत्रता, मालिकों की संपादकीय सोच में निहित हो। इसी पर एक बार प्रसिद्ध अमेरिकी व्यंग्यकार ए.जे.लिबलिंग ने टिप्पणी की थी कि,'The freedom of the press is guaranteed only to those who one!' व्यंग्य में की गई यह टिप्पणी निराधार तो कतई नहीं।
आज भारत में भी मीडिया मालिकों के बीच 'रुपर्ट मर्डोक' एक आदर्श हैं। सभी उनका अनुसरण करना चाहते हैं। हामिद अंसारी ने जिस राजनीतिक संरक्षण की ओर इशारा किया है, उस पर पत्रकार बिरादरी गौर करे। भौतिक सुख-सुविधा और तेजस्वी आभामंडल क्या राजनीतिक संरक्षण के बगैर प्राप्त नहीं हो सकता? बिल्कुल हो सकता है- जरूरतों को सीमित कर। यही बात मालिकों पर भी लागू होती है। निडर होकर पत्रकारीय मूल्य और दायित्व का निर्वहन करते हुए अपने संस्थान की विश्वसनीयता को मजबूत करें। संपादक और संपादकीय कक्ष को स्वतंत्रता प्रदान करें, उनमें आत्मविश्वास पैदा करें, उनकी जरूरतों का उचित ख्याल रखें। तय मानिए, राजनेता और राजदल आपके चरणों में होंगे। यहां मैं फिर उद्धृत करना चाहूंगा 'रुपर्ट मर्डोक' के साम्राज्य का। एक बार ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने मर्डोक के एक अखबार 'द सन' के संपादक मॅकएन्जी को फोन कर जानना चाहा कि 'हाऊस ऑफ कामन्स' में उनके द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण भाषण को वे किस रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं? संपादक ने जवाब दिया 'प्रधानमंत्री जी, मेरे टेबल पर 'गंदगी' से भरी हुई टोकरी पड़ी है। कल सुबह वो सभी आपके सिर पर उड़ेलने जा रहा हूं।' किसी प्रधानमंत्री को मर्डोक जैसा ही कोई संपादक ऐसा जवाब देकर आसानी से निकल जा सकता था। ऐसा ताकतवर था मर्डोक का मीडिया साम्राज्य। तब उनका साम्राज्य सत्ता के नीचे नहीं, सत्ता के ऊपर हुआ करता था।
केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के साथ पत्रकारों सहित मीडिया घरानों में परिवर्तन का एक अनोखा किंतु, विचलित कर देनेवाला दौर चल पड़ा है। अब तक के परिणाम नकारात्मक हैं, लक्षण अशुभ हैं। संक्रमण के इस नए काल में पूरी की पूरी पत्रकारीय बिरादरी, चाल-चरित्र-चेहरा सभी कसौटी पर हैं। फैसला करना है कि हम पाठकों-दर्शकों की नजरों में 'हीरो' बनना चाहेंगे या राजनेताओं, बड़े व्यावसायिक घरानों के चरणों के दास? पूरा देश उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।
मीडिया को नसीहत दी, लेकिन शालीनता के साथ। सत्य के धरातल पर, सचाई की कसौटी पर कसते हुए।
तब, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी! 2015 के दिल्ली चुनाव में मीडिया द्वारा केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को भाजपा के मुकाबले काफी आगे बताए जाने पर बरस पड़े थे। सार्वजनिक सभा में मीडिया को 'बाजारू' निरुपित कर डाला था।
आश्चर्य या दु:ख की बात नहीं। राजनेता अपनी सुविधानुसार मीडिया- मंडन करते रहते हैं। वैसे जूते खाने की हालत के लिए मीडिया अवसर भी स्वयं प्रदान करता रहा है।
उप-राष्ट्रपति अंसारी की पीड़ा, अपेक्षा और हिदायत हमें चिंतन को विवश करता है। ईमानदार चिंतन करें, स्वच्छता प्रतीक्षारत मिलेगी। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय प्रकरण में वीडियो के फर्जीवाड़े से चिंतित उप-राष्ट्रपति ने बिल्कुल सही दर्द व्यक्त किया कि आज पत्रकारिता में निडर संपादकीय, उच्च पेशेवर और नैतिक मानक दुर्लभ हो गए हैं। उपराष्ट्रपति द्वारा व्यक्त इस भावना को कोई चुनौती दे सकता है? कदापि नहीं! हां, यह जोड़ा जा सकता है कि दुर्लभ हैं, लुप्त नहीं हुए। संख्या में कम सही, निडर लेखिनी के धारक अभी हैं। यह स्थिति वर्तमान पत्रकारिता का यथार्थ है। उप-राष्ट्रपति ने इससे आगे बढ़ते हुए सीधे-सीधे आरोप लगाया है कि हाल के दिनों में ऐसा देखा गया कि बगैर तथ्यों की प्रामाणिकता की जांच किए समाचार प्रसारित कर दिए गए। निश्चय ही उनका इशारा जेएनयू प्रकरण की तरफ ही था। अंसारी ने आगे टिप्पणी की कि ऐसी खबरों से चैनलों के दर्शकों की संख्या में अस्थाई वृद्धि हो सकती है या चैनलों के राजनीतिक संरक्षकों के हित सध सकते हैं। किंतु, इससे उनकी विश्वसनीयता कम होती है और नागरिक अधिकार का क्षरण होता है। अंसारी ने मालिक और संपादक के बीच जिम्मेदारी के भाव में कमी और एक स्वतंत्र विचार-आधारित संपादक के प्रति मालिकों की उदासीनता पर पीड़ा व्यक्त करते हुए यह भी कहा कि, संपादकीय और विज्ञापन के बीच विभाजन की एक मोटी रेखा खींची जानी चाहिए।
स्याह आवरण के बावजूद मैं विश्वास व अपेक्षा के पूर्ण-त्याग के पक्ष में नहीं हूं। अंधकार और फिर उजाला, प्रकृति के नियम हैं। रात होगी तो भोर भी होगी। मीडिया में पतितों के बहुमत के बावजूद अल्पसंख्या में ही सही ईमानदार भी मौजूद हैं। वे निश्चय ही हामिद अंसारी के शब्दों में निहित संदेश और अपेक्षा को समझेंगे। निराकरण का प्रयास करेंगे, मार्ग ढूंढेंगे।
अंसारी ने मीडिया मालिक, संपादक और विज्ञापन की चर्चा की है। यह ठीक है कि मीडिया घरानों को राजस्व देनेवाले विज्ञापन की चिंता रहती है। संस्थान चलाने के लिए यह आवश्यक भी है। किंतु, जब इसकी कीमत पर पत्रकारीय मूल्य, सिद्धांत और चरित्र के साथ समझौते होने लगें, मानक बिखरने लगें तब चिंता होती है। सच तो यह है कि आज सिर्फ भारतीय ही नहीं, वैश्विक मीडिया भी इस संकट से त्रस्त है। ऐसे में सही मार्गदर्शक के रूप में एक स्वतंत्र, ईमानदार और निडर संपादक की मौजूदगी अपेक्षित है। संपादकीय कक्ष में मीडिया मालिकों के बढ़ते प्रभाव-दबाव के बीच निडर संपादकरूपी जीव की उपस्थिति स्वयं में एक खबर बनती है। क्योंकि कुछ अपवाद छोड़ अधिकांश संपादक मालिकों की इच्छा के सामने नतमस्तक ही दिखते हैं। शायद यह वैश्वीकरण का प्रभाव भी हो। पूरे संसार में 'मीडिया मुगल' के रूप में विख्यात 'रुपर्ट मर्डोक' के विषय में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे अपने सभी समाचार पत्रों और टी.वी चैनलों में संपादक के पद पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करते हैं जो समाचार कक्ष में 'मालिक की आवाज' माने जाते हैं। ये संपादक सुनिश्चित करते हैं कि पत्रकारों की स्वतंत्रता, मालिकों की संपादकीय सोच में निहित हो। इसी पर एक बार प्रसिद्ध अमेरिकी व्यंग्यकार ए.जे.लिबलिंग ने टिप्पणी की थी कि,'The freedom of the press is guaranteed only to those who one!' व्यंग्य में की गई यह टिप्पणी निराधार तो कतई नहीं।
आज भारत में भी मीडिया मालिकों के बीच 'रुपर्ट मर्डोक' एक आदर्श हैं। सभी उनका अनुसरण करना चाहते हैं। हामिद अंसारी ने जिस राजनीतिक संरक्षण की ओर इशारा किया है, उस पर पत्रकार बिरादरी गौर करे। भौतिक सुख-सुविधा और तेजस्वी आभामंडल क्या राजनीतिक संरक्षण के बगैर प्राप्त नहीं हो सकता? बिल्कुल हो सकता है- जरूरतों को सीमित कर। यही बात मालिकों पर भी लागू होती है। निडर होकर पत्रकारीय मूल्य और दायित्व का निर्वहन करते हुए अपने संस्थान की विश्वसनीयता को मजबूत करें। संपादक और संपादकीय कक्ष को स्वतंत्रता प्रदान करें, उनमें आत्मविश्वास पैदा करें, उनकी जरूरतों का उचित ख्याल रखें। तय मानिए, राजनेता और राजदल आपके चरणों में होंगे। यहां मैं फिर उद्धृत करना चाहूंगा 'रुपर्ट मर्डोक' के साम्राज्य का। एक बार ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने मर्डोक के एक अखबार 'द सन' के संपादक मॅकएन्जी को फोन कर जानना चाहा कि 'हाऊस ऑफ कामन्स' में उनके द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण भाषण को वे किस रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं? संपादक ने जवाब दिया 'प्रधानमंत्री जी, मेरे टेबल पर 'गंदगी' से भरी हुई टोकरी पड़ी है। कल सुबह वो सभी आपके सिर पर उड़ेलने जा रहा हूं।' किसी प्रधानमंत्री को मर्डोक जैसा ही कोई संपादक ऐसा जवाब देकर आसानी से निकल जा सकता था। ऐसा ताकतवर था मर्डोक का मीडिया साम्राज्य। तब उनका साम्राज्य सत्ता के नीचे नहीं, सत्ता के ऊपर हुआ करता था।
केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के साथ पत्रकारों सहित मीडिया घरानों में परिवर्तन का एक अनोखा किंतु, विचलित कर देनेवाला दौर चल पड़ा है। अब तक के परिणाम नकारात्मक हैं, लक्षण अशुभ हैं। संक्रमण के इस नए काल में पूरी की पूरी पत्रकारीय बिरादरी, चाल-चरित्र-चेहरा सभी कसौटी पर हैं। फैसला करना है कि हम पाठकों-दर्शकों की नजरों में 'हीरो' बनना चाहेंगे या राजनेताओं, बड़े व्यावसायिक घरानों के चरणों के दास? पूरा देश उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।
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