मैं बेचैन हूं!
सारा देश बेचैनै कि क्या हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था अक्षुण्ण रह पाएगी? बेचैनी इस बात की कि लोकतंत्र के तीनों पाये विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका क्या अपने वजूद खो देंगे? कोई कोरी कल्पना नहीं। इस चिंता-बेचैनी के आधार मौजूद हैं।
अभी पिछले दिनों मेरी एक जिज्ञासा पर दिल्ली में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी मेरी ताजा चिंता का कारण बनी है। श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम को लेकर मैंने कुछ जानकारी चाही थी। उक्त पत्रकार का सपाट जवाब था कि, '....आनेवाले दिनों में न्यायपालिका बेमानी हो जाएगी.... अवहेलना... अवमानना आम बात हो जाएगी।' क्या सचमुच? लोकतंत्र में सर्वोच्च विधायिका और नियम-कानून तथा शासकीय आदेश के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार कार्यपालिका के क्रियाकलापों की समीक्षा के लिए संवैधानिक रूप से अधिकृत न्यायपालिका की अवहेलना या अवमानना की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। इस संस्था के ध्वस्त होने की परिणति लोकतंत्र के विध्वंस के साथ होगी। चूंकि, अभी चिंगारी दिखी है तत्काल इसे मौत दे दी जाए। विलंब का खतरा कोई न उठाए।
कोई वितंडावाद नहीं, एक सवाल जिसका सही जवाब ढूंढना ही होगा। इस प्रक्रिया में राष्ट्रभक्ति से लेकर राष्ट्रद्रोह तक पर मंथन स्वाभाविक है। मंथन का निष्कर्ष हर भारतवासी के दिल में उठ रहे सवालों के जवाब देने में सक्षम होगा। राष्ट्रभक्ति और पाकिस्तान को लेकर उत्पन्न नया घृणास्पद राष्ट्रीय वातावरण भारत, भारती और भारतीयता की सोच को प्रतिकूल रूप में प्रभावित कर रहा है। इस पर पूर्ण विराम लगना ही चाहिए। अंगीकृत भारतीयता सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ विचारवानों के 'निष्कर्ष' पर पहुंचने को लालायित है। समाधान में विलंब प्रदूषण के फैलने में सहायक सिद्ध होगा। ऐसा ना हो इसलिए त्वरित मंथन व त्वरित निष्कर्ष जरूरी है।
सवाल श्री श्री रविशंकर का ही है 'आखिर एक साथ जयहिंद और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते'?
जवाब देने के पहले सवाल के भावार्थ की मीमांसा जरूरी है। श्री श्री रविशंकर की 'नीयत' पर संदेह नहीं किया जा सकता। विश्व शांति की सोच के धारक, वसुधैव कुटुंबकम का भावार्थ और वैश्विक सौहार्द्र की ताजा भारतीय पहल को संकुचित एक पक्षीय राजनीतिक सोच से अलग रखना होगा। श्री श्री रविशंकर के सवाल को साम्प्रदायिक कोष्ठक में डाल सही उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सकता। हर शब्द, हर मंच, हर अवसर को राजनीतिक चश्मे से देखने के आदी राजनीतिक व समीक्षक संभवत: स्वार्थसिद्धि के लिए इस सवाल को भी राजनीतिक रंग में रंग डालेंगे। किंतु शाब्दिक अर्थावली से इतर 'नीयत' की मीमांसा ही बहस को सही दिशा दे सकती है। जाहिर है तब हम एक सार्थक निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे।
श्री श्री रविशंकर की संस्था 'आर्ट आफ लिविंग' द्वारा पिछले दिनों दिल्ली से सटे यमुना के तट पर आयोजित विश्व शांति समारोह की शुरुआत चूंकि विवाद अथवा कड़वाहट के साथ हुई राजनीतिक सोच व विचारधारा के अनुरुप समर्थन व विरोध के स्वर उठे। चूक आयोजकों की ओर से भी हुई। कानून के शासन में स्थापित नियमों के अनुरुप ही सभी को चलना होता है। तकनीकी आरोप और सफाई को छोड़ दें तो यह सत्य रेखांकित हो चुका है कि नियमों का उल्लंघन करते हुए आयोजनकर्ता समारोह की तैयारियां करते रहे। आम प्रचलन की भाषा में कहें तो आयोजक यह मानकर चल रहे थे कि उनकी संस्था को चूंकि शीर्ष सत्ता का आशीर्वाद प्राप्त है, प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। प्रशासन की ओर से आश्वस्त आयोजक नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए तैयारियां करते रहे। शिकायतें दर्ज कराई गई और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने पर्यावरण को कथित रूप से पहुंचाए गये नुकसान के मुआवजे के रुप में पांच करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। सच पूछा जाए तो संभावित नुकसान के आलोक में पांच करोड़ की राशि अत्यंत तुच्छ मानी जाएगी। बावजूद इसके स्वयं श्री श्री रविशंकर ने मुआवजा देने से इंकार कर दिया।
निश्चय ही श्री श्री रविशंकर यहां कानून व न्यायपालिका की अवहेलना के दोषी बन जाते हैं। न्यायाधिकरण का आदेश न्यायिक आदेश ही होता है। अगर श्री श्री रविशंकर सरीखा कोई सम्मानित व्यक्ति ऐसा करता है तो कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में इसका अनुसरण करनेवालों की लंबी पंक्ति तैयार हो जाए। और तब क्या पत्रकार मित्र का आकलन सही साबित नहीं हो जाएगा? न्यायपालिका की अवहेलना का सीधा अर्थ होगा समाज में अराजकता को आमंत्रण! और इतिहास गवाह है ऐसी अराजक स्थितियां गृहयुद्ध को आमंत्रित करती रही हैं। भारतीय लोकतंत्र में जनादेश के आधार पर शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। कभी कोई विरोध नहीं। जनता की अदालत का फैसला सर्वमान्य रहा है। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार इनसे जुड़े किसी भी संदेह या विवाद पर अंतिम निर्णय न्यायपालिका का ही होता है। इस पाश्र्व में न्यायपालिका के अस्तित्व को अगर चुनौती मिलती है तो निश्चय ही तत्काल समाधान ढूंढना होगा। चूंकि आलोच्य प्रसंग की शुरुआत श्री श्री रविशंकर आयोजित विश्व सांस्कृतिक समारोह के साथ हुई है उससे जुड़े तमाम विवादों पर न्यायाधिकरण के आदेश का पालन किया जाए। फैसलों पर असंतोष या आपत्तियां पहले भी प्रकट की जाती रही हैं। फैसलों पर ऊपरी अदालतों में पुनर्विचार याचिका दायर करने का प्रावधान है। आपत्ति दर्ज कर न्याय का इंतजार करना चाहिए न कि आदेश नहीं मानने का ऐलान। यह स्वयं में एक गंभीर अपराध है। श्री श्री रविशंकर अगर सचमुच भारतीय लोकतंत्र और संविधान में विश्वास रखते हैं तो वह कानून के राज के पक्ष में न्यायाधिकरण का आदेश मानते हुए मुआवजे की राशि तत्काल जमा कर दें। अपनी आपत्ति के लिए वे ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाने को स्वतंत्र हैं। श्री श्री रविशंकर यह न भूलें कि यहां मुद्दा उनके एक सांस्कृतिक आयोजन या पांच करोड़ रुपए की राशि का नहीं है बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था और कानून के राज के अस्तित्व का है। इसके विरुद्ध जानेवाला हर शख्स, संस्था अपराधी है। कानून के राज को अंगूठा दिखाने की हिमाकत करने वाले को मुक्त विचरने की छूट नहीं दी जा सकती।
अब अंतिम परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात 'पाकिस्तान जिंदाबाद' की। मंच से 'पाकिस्तान जिंदाबादÓ नारा लगाया गया यह निर्विवाद है। निर्विवाद यह भी कि हमारे देश भारत में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारे लगानेवाले को देशद्रोही निरुपित किया जाता है। नारे से संबंधित आशय या भावार्थ आम लोगों के गले नहीं उतरने वाले। हाल के दिनों में कथित रूप से नारे लगानेवाले को देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा जा चुका है। जबकि उसके द्वारा 'पाकिस्तान जिंदाबाद' नारा लगाया जाना प्रमाणित नहीं हो पाया है। श्री श्री रविशंकर के मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा यह प्रमाणित है। रविशंकर की सफाई कि एक साथ 'जय हिंद' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते एक अलग बहस का मुद्दा बन सकता है। किंतु इस मामले में यह तर्क स्वीकार नहीं। संदेह का लाभ देते हुए यह कहा जा सकता है कि पूरा मामला जुबान फिसलने अथवा अज्ञानता का है। अगर ऐसा है तो रविशंकर को यह स्वीकार कर लेना चाहिए। जनता माफ कर देगी। हां, तब भी यह सवाल कायम रहेगा कि भारत की भूमि पर पाकिस्तानी प्रतिनिधि को 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा बुलंद करने के लिए श्री श्री रविशंकर का मंच उपलब्ध क्यों कराया गया?
सारा देश बेचैनै कि क्या हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था अक्षुण्ण रह पाएगी? बेचैनी इस बात की कि लोकतंत्र के तीनों पाये विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका क्या अपने वजूद खो देंगे? कोई कोरी कल्पना नहीं। इस चिंता-बेचैनी के आधार मौजूद हैं।
अभी पिछले दिनों मेरी एक जिज्ञासा पर दिल्ली में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी मेरी ताजा चिंता का कारण बनी है। श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम को लेकर मैंने कुछ जानकारी चाही थी। उक्त पत्रकार का सपाट जवाब था कि, '....आनेवाले दिनों में न्यायपालिका बेमानी हो जाएगी.... अवहेलना... अवमानना आम बात हो जाएगी।' क्या सचमुच? लोकतंत्र में सर्वोच्च विधायिका और नियम-कानून तथा शासकीय आदेश के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार कार्यपालिका के क्रियाकलापों की समीक्षा के लिए संवैधानिक रूप से अधिकृत न्यायपालिका की अवहेलना या अवमानना की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। इस संस्था के ध्वस्त होने की परिणति लोकतंत्र के विध्वंस के साथ होगी। चूंकि, अभी चिंगारी दिखी है तत्काल इसे मौत दे दी जाए। विलंब का खतरा कोई न उठाए।
कोई वितंडावाद नहीं, एक सवाल जिसका सही जवाब ढूंढना ही होगा। इस प्रक्रिया में राष्ट्रभक्ति से लेकर राष्ट्रद्रोह तक पर मंथन स्वाभाविक है। मंथन का निष्कर्ष हर भारतवासी के दिल में उठ रहे सवालों के जवाब देने में सक्षम होगा। राष्ट्रभक्ति और पाकिस्तान को लेकर उत्पन्न नया घृणास्पद राष्ट्रीय वातावरण भारत, भारती और भारतीयता की सोच को प्रतिकूल रूप में प्रभावित कर रहा है। इस पर पूर्ण विराम लगना ही चाहिए। अंगीकृत भारतीयता सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ विचारवानों के 'निष्कर्ष' पर पहुंचने को लालायित है। समाधान में विलंब प्रदूषण के फैलने में सहायक सिद्ध होगा। ऐसा ना हो इसलिए त्वरित मंथन व त्वरित निष्कर्ष जरूरी है।
सवाल श्री श्री रविशंकर का ही है 'आखिर एक साथ जयहिंद और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते'?
जवाब देने के पहले सवाल के भावार्थ की मीमांसा जरूरी है। श्री श्री रविशंकर की 'नीयत' पर संदेह नहीं किया जा सकता। विश्व शांति की सोच के धारक, वसुधैव कुटुंबकम का भावार्थ और वैश्विक सौहार्द्र की ताजा भारतीय पहल को संकुचित एक पक्षीय राजनीतिक सोच से अलग रखना होगा। श्री श्री रविशंकर के सवाल को साम्प्रदायिक कोष्ठक में डाल सही उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सकता। हर शब्द, हर मंच, हर अवसर को राजनीतिक चश्मे से देखने के आदी राजनीतिक व समीक्षक संभवत: स्वार्थसिद्धि के लिए इस सवाल को भी राजनीतिक रंग में रंग डालेंगे। किंतु शाब्दिक अर्थावली से इतर 'नीयत' की मीमांसा ही बहस को सही दिशा दे सकती है। जाहिर है तब हम एक सार्थक निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे।
श्री श्री रविशंकर की संस्था 'आर्ट आफ लिविंग' द्वारा पिछले दिनों दिल्ली से सटे यमुना के तट पर आयोजित विश्व शांति समारोह की शुरुआत चूंकि विवाद अथवा कड़वाहट के साथ हुई राजनीतिक सोच व विचारधारा के अनुरुप समर्थन व विरोध के स्वर उठे। चूक आयोजकों की ओर से भी हुई। कानून के शासन में स्थापित नियमों के अनुरुप ही सभी को चलना होता है। तकनीकी आरोप और सफाई को छोड़ दें तो यह सत्य रेखांकित हो चुका है कि नियमों का उल्लंघन करते हुए आयोजनकर्ता समारोह की तैयारियां करते रहे। आम प्रचलन की भाषा में कहें तो आयोजक यह मानकर चल रहे थे कि उनकी संस्था को चूंकि शीर्ष सत्ता का आशीर्वाद प्राप्त है, प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। प्रशासन की ओर से आश्वस्त आयोजक नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए तैयारियां करते रहे। शिकायतें दर्ज कराई गई और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने पर्यावरण को कथित रूप से पहुंचाए गये नुकसान के मुआवजे के रुप में पांच करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। सच पूछा जाए तो संभावित नुकसान के आलोक में पांच करोड़ की राशि अत्यंत तुच्छ मानी जाएगी। बावजूद इसके स्वयं श्री श्री रविशंकर ने मुआवजा देने से इंकार कर दिया।
निश्चय ही श्री श्री रविशंकर यहां कानून व न्यायपालिका की अवहेलना के दोषी बन जाते हैं। न्यायाधिकरण का आदेश न्यायिक आदेश ही होता है। अगर श्री श्री रविशंकर सरीखा कोई सम्मानित व्यक्ति ऐसा करता है तो कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में इसका अनुसरण करनेवालों की लंबी पंक्ति तैयार हो जाए। और तब क्या पत्रकार मित्र का आकलन सही साबित नहीं हो जाएगा? न्यायपालिका की अवहेलना का सीधा अर्थ होगा समाज में अराजकता को आमंत्रण! और इतिहास गवाह है ऐसी अराजक स्थितियां गृहयुद्ध को आमंत्रित करती रही हैं। भारतीय लोकतंत्र में जनादेश के आधार पर शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। कभी कोई विरोध नहीं। जनता की अदालत का फैसला सर्वमान्य रहा है। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार इनसे जुड़े किसी भी संदेह या विवाद पर अंतिम निर्णय न्यायपालिका का ही होता है। इस पाश्र्व में न्यायपालिका के अस्तित्व को अगर चुनौती मिलती है तो निश्चय ही तत्काल समाधान ढूंढना होगा। चूंकि आलोच्य प्रसंग की शुरुआत श्री श्री रविशंकर आयोजित विश्व सांस्कृतिक समारोह के साथ हुई है उससे जुड़े तमाम विवादों पर न्यायाधिकरण के आदेश का पालन किया जाए। फैसलों पर असंतोष या आपत्तियां पहले भी प्रकट की जाती रही हैं। फैसलों पर ऊपरी अदालतों में पुनर्विचार याचिका दायर करने का प्रावधान है। आपत्ति दर्ज कर न्याय का इंतजार करना चाहिए न कि आदेश नहीं मानने का ऐलान। यह स्वयं में एक गंभीर अपराध है। श्री श्री रविशंकर अगर सचमुच भारतीय लोकतंत्र और संविधान में विश्वास रखते हैं तो वह कानून के राज के पक्ष में न्यायाधिकरण का आदेश मानते हुए मुआवजे की राशि तत्काल जमा कर दें। अपनी आपत्ति के लिए वे ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाने को स्वतंत्र हैं। श्री श्री रविशंकर यह न भूलें कि यहां मुद्दा उनके एक सांस्कृतिक आयोजन या पांच करोड़ रुपए की राशि का नहीं है बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था और कानून के राज के अस्तित्व का है। इसके विरुद्ध जानेवाला हर शख्स, संस्था अपराधी है। कानून के राज को अंगूठा दिखाने की हिमाकत करने वाले को मुक्त विचरने की छूट नहीं दी जा सकती।
अब अंतिम परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात 'पाकिस्तान जिंदाबाद' की। मंच से 'पाकिस्तान जिंदाबादÓ नारा लगाया गया यह निर्विवाद है। निर्विवाद यह भी कि हमारे देश भारत में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारे लगानेवाले को देशद्रोही निरुपित किया जाता है। नारे से संबंधित आशय या भावार्थ आम लोगों के गले नहीं उतरने वाले। हाल के दिनों में कथित रूप से नारे लगानेवाले को देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा जा चुका है। जबकि उसके द्वारा 'पाकिस्तान जिंदाबाद' नारा लगाया जाना प्रमाणित नहीं हो पाया है। श्री श्री रविशंकर के मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा यह प्रमाणित है। रविशंकर की सफाई कि एक साथ 'जय हिंद' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे क्यों नहीं लग सकते एक अलग बहस का मुद्दा बन सकता है। किंतु इस मामले में यह तर्क स्वीकार नहीं। संदेह का लाभ देते हुए यह कहा जा सकता है कि पूरा मामला जुबान फिसलने अथवा अज्ञानता का है। अगर ऐसा है तो रविशंकर को यह स्वीकार कर लेना चाहिए। जनता माफ कर देगी। हां, तब भी यह सवाल कायम रहेगा कि भारत की भूमि पर पाकिस्तानी प्रतिनिधि को 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा बुलंद करने के लिए श्री श्री रविशंकर का मंच उपलब्ध क्यों कराया गया?
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