कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े एक कार्यकर्ता का मुंबई से फोन आया।
उन्होंने पूछा, 'सर! क्या संस्थान की गतिविधियों या कार्यक्रम की खबर के प्रकाशन के लिए समाचार पत्रों को भुगतान करना पड़ता है?' मेरी जिज्ञासा पर उन्होंने बताया कि उनके संस्थान के एक कार्यक्रम से संबंधित खबर और चित्र स्थानीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों को प्रकाशनार्थ भेजे गए थे। एक समाचार संस्थान से प्रकाशन के लिए 70 हजार रुपए की मांग की गई। उसी प्रकार दो अन्य मीडिया संस्थानों से भी क्रमश: तीन लाख और ढ़ाई लाख की मांग की गई थी। इस चौंकानेवाली जानकारी ने 'पेड न्यूज' के खतरनाक विस्तार की जानकारी दी। वैसे भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत शीर्ष संस्थान प्रसार भारती का मुख्यालय एक 'मंडी हाऊस' में ही स्थापित है, 'मीडिया मंडी' ने 'बाजार' अथवा 'बाजारू' को मोटी रेखाओं से चिन्हित कर दिया है। सुविधानुसार राजनेता या अन्य भारतीय मीडिया को बाजारू तो निरूपित करते रहे हैं किंतु जिस रूप में अब सामान्य खबरों के प्रकाशन के लिए धनराशि की मांग की जाने लगी है उससे यह साफ है कि आनेवाले दिनों में समाचार पत्र हों या खबरिया चैनलों के पर्दे, उन पर छपने या आनेवाली खबरें 'धन आधारित' होंगी। ऐसे में खबरों की विश्वसनीयता पर बहसें भी बेमानी हो जाएंगी।
धनराशि के बदले छपनेवाली खबरें, जाहिर है, भुगतान करनेवाले व्यक्ति, संस्थान या राजदल की इच्छाओं के अनुरूप ही होंगी। सचाई व यथार्थ से कोसों दूर। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समाचार पत्र और खबरिया चैनल अब पाठकों या दर्शकों के साथ छल और सिर्फ छल करेंगे। मुद्रित शब्दों को सच मानने वाले पाठकों के साथ एक बड़ा धोखा होगा यह। खबरिया चैनल भी तब ऐसी झूठी खबरों को आधार बना चैनलों पर ताल ठोककर छोटी-बड़ी बहसें कराते रहेंगे। वहां भी दर्शकों के साथ धोखा का अवतरण! फिर, क्या अचरज कि आज खुलेआम मीडिया को 'बाजारू' निरूपित किया जा रहा है।
तो क्या ऐसी स्थिति को स्वीकार कर आज का पत्रकार स्वयं को कोठे पर बिठाने के लिए तैयार रहे? चुनौती है उन्हें कि अगर 'बाजारू' बने रहना है तब कोठे पर बैठना ही होगा। क्या ऐसी अवस्था के लिए तैयार हैं पत्रकार? दबाव और प्रलोभन के वर्तमान युग में झुकते हुए अथवा साष्टांग रेंगनेवाले पत्रकारों का एक वर्ग दृष्टिगोचर अवश्य है किंतु अपवाद स्वरूप ही सही नगण्य संख्या में मौजूद पुराने अनुभवी पत्रकारों के साथ-साथ युवा पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग इस पतित अवस्था को स्वीकार करने तैयार नहीं। अब सवाल यह कि पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांत को स्वीकार कर सत्य मार्ग का वरण करनेवाला यह वर्ग क्या प्रतिरोध कर पाएगा? मीडिया संचालकों की सत्ता के साथ मिलीभगत और स्याह-सफेद में परस्पर पूरक ये सामान्य पत्रकारों पर हमेशा दबाव बनाए रखना चाहते हैं। उनकी मजबूरियों का लाभ उठाकर संचालकगण अपनी मर्जी का करवा लेने में सफल हो जाते हैं। प्रतिरोध करनेवालों को प्रताडि़त करने की अनेक मिसाल सामने हैं। कड़वा सच तो यह है कि साधन-संपन्न संचालक वर्ग अपने साम्राज्य का विस्तार करता हुआ फल-फूल रहा है। ईमानदार पत्रकार हाशिए पर रुदन को विवश है।
फिर विकल्प? उपाय?
है, जरूर है। इस दुस्थिति का सामना कर पराजित कने के लिए पाठकीय जागृति की जरूरत है। जिस प्रकार कुशासन के खिलाफ जब जनता सड़क पर निकलती है तो सत्ता परिवर्तन होता है। उसी प्रकार मीडिया मदहोशों को होश में लाने के लिए पाठक अगर ठान ले तो यह संभव हो सकता है। समाज में अनेक ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो इस हेतु पहल कर सकती हैं। मोहल्ले-मोहल्ले में पाठकीय जागृति मंच संस्था स्थापित कर पाठकों को प्रति दिन प्रकाशित खबरों की 'सचाई' से अवगत कराया जाए। तथ्यों के आलोक में खबरों की प्रामाणिकता पर विशेष चर्चा हो शब्दों, पंक्तियों के बीच छुपे'सच' उजागर किए जाए, प्रायोजकों के चेहरें बेनकाब किए जाएं, राज-राजनीति और 'घरानों' के मंसूबे, हथकंडे चिन्हित किए जाएं, प्रलोभन प्रभावित संपादक और संपादकीय कक्ष को भी नंगा करने में हिचकिचाहट न हों । बे-नकाब किए जाएं सभी, ऐसी मशक्कत न सिर्फ पाठकीय हितकारी होंगे बल्कि राष्ट्र हितकारी होंगे। 'मीडिया मंडी' की विश्वसनीयता भी तब पुर्नस्थापित होगी। समाज पर मीडिया के निर्विवाद प्रभाव के आलोक में ऐसा सफाई अभियान, सच पूछिए तो लोकतंत्र की पुकार हैं।
अब चुनौती 'मीडिया' को, चुनौती उसकी अंतरात्मा को कि वह लोकतंत्र की मूल आत्मा के साथ कदमताल करना चाहेगी अथवा निहित स्वार्थी 'धनपशुओं' की इच्छापूर्तिकर्ता बनना चाहेगी?
देश फैसले के लिए प्रतीक्षारत है।
उन्होंने पूछा, 'सर! क्या संस्थान की गतिविधियों या कार्यक्रम की खबर के प्रकाशन के लिए समाचार पत्रों को भुगतान करना पड़ता है?' मेरी जिज्ञासा पर उन्होंने बताया कि उनके संस्थान के एक कार्यक्रम से संबंधित खबर और चित्र स्थानीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों को प्रकाशनार्थ भेजे गए थे। एक समाचार संस्थान से प्रकाशन के लिए 70 हजार रुपए की मांग की गई। उसी प्रकार दो अन्य मीडिया संस्थानों से भी क्रमश: तीन लाख और ढ़ाई लाख की मांग की गई थी। इस चौंकानेवाली जानकारी ने 'पेड न्यूज' के खतरनाक विस्तार की जानकारी दी। वैसे भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत शीर्ष संस्थान प्रसार भारती का मुख्यालय एक 'मंडी हाऊस' में ही स्थापित है, 'मीडिया मंडी' ने 'बाजार' अथवा 'बाजारू' को मोटी रेखाओं से चिन्हित कर दिया है। सुविधानुसार राजनेता या अन्य भारतीय मीडिया को बाजारू तो निरूपित करते रहे हैं किंतु जिस रूप में अब सामान्य खबरों के प्रकाशन के लिए धनराशि की मांग की जाने लगी है उससे यह साफ है कि आनेवाले दिनों में समाचार पत्र हों या खबरिया चैनलों के पर्दे, उन पर छपने या आनेवाली खबरें 'धन आधारित' होंगी। ऐसे में खबरों की विश्वसनीयता पर बहसें भी बेमानी हो जाएंगी।
धनराशि के बदले छपनेवाली खबरें, जाहिर है, भुगतान करनेवाले व्यक्ति, संस्थान या राजदल की इच्छाओं के अनुरूप ही होंगी। सचाई व यथार्थ से कोसों दूर। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समाचार पत्र और खबरिया चैनल अब पाठकों या दर्शकों के साथ छल और सिर्फ छल करेंगे। मुद्रित शब्दों को सच मानने वाले पाठकों के साथ एक बड़ा धोखा होगा यह। खबरिया चैनल भी तब ऐसी झूठी खबरों को आधार बना चैनलों पर ताल ठोककर छोटी-बड़ी बहसें कराते रहेंगे। वहां भी दर्शकों के साथ धोखा का अवतरण! फिर, क्या अचरज कि आज खुलेआम मीडिया को 'बाजारू' निरूपित किया जा रहा है।
तो क्या ऐसी स्थिति को स्वीकार कर आज का पत्रकार स्वयं को कोठे पर बिठाने के लिए तैयार रहे? चुनौती है उन्हें कि अगर 'बाजारू' बने रहना है तब कोठे पर बैठना ही होगा। क्या ऐसी अवस्था के लिए तैयार हैं पत्रकार? दबाव और प्रलोभन के वर्तमान युग में झुकते हुए अथवा साष्टांग रेंगनेवाले पत्रकारों का एक वर्ग दृष्टिगोचर अवश्य है किंतु अपवाद स्वरूप ही सही नगण्य संख्या में मौजूद पुराने अनुभवी पत्रकारों के साथ-साथ युवा पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग इस पतित अवस्था को स्वीकार करने तैयार नहीं। अब सवाल यह कि पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांत को स्वीकार कर सत्य मार्ग का वरण करनेवाला यह वर्ग क्या प्रतिरोध कर पाएगा? मीडिया संचालकों की सत्ता के साथ मिलीभगत और स्याह-सफेद में परस्पर पूरक ये सामान्य पत्रकारों पर हमेशा दबाव बनाए रखना चाहते हैं। उनकी मजबूरियों का लाभ उठाकर संचालकगण अपनी मर्जी का करवा लेने में सफल हो जाते हैं। प्रतिरोध करनेवालों को प्रताडि़त करने की अनेक मिसाल सामने हैं। कड़वा सच तो यह है कि साधन-संपन्न संचालक वर्ग अपने साम्राज्य का विस्तार करता हुआ फल-फूल रहा है। ईमानदार पत्रकार हाशिए पर रुदन को विवश है।
फिर विकल्प? उपाय?
है, जरूर है। इस दुस्थिति का सामना कर पराजित कने के लिए पाठकीय जागृति की जरूरत है। जिस प्रकार कुशासन के खिलाफ जब जनता सड़क पर निकलती है तो सत्ता परिवर्तन होता है। उसी प्रकार मीडिया मदहोशों को होश में लाने के लिए पाठक अगर ठान ले तो यह संभव हो सकता है। समाज में अनेक ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो इस हेतु पहल कर सकती हैं। मोहल्ले-मोहल्ले में पाठकीय जागृति मंच संस्था स्थापित कर पाठकों को प्रति दिन प्रकाशित खबरों की 'सचाई' से अवगत कराया जाए। तथ्यों के आलोक में खबरों की प्रामाणिकता पर विशेष चर्चा हो शब्दों, पंक्तियों के बीच छुपे'सच' उजागर किए जाए, प्रायोजकों के चेहरें बेनकाब किए जाएं, राज-राजनीति और 'घरानों' के मंसूबे, हथकंडे चिन्हित किए जाएं, प्रलोभन प्रभावित संपादक और संपादकीय कक्ष को भी नंगा करने में हिचकिचाहट न हों । बे-नकाब किए जाएं सभी, ऐसी मशक्कत न सिर्फ पाठकीय हितकारी होंगे बल्कि राष्ट्र हितकारी होंगे। 'मीडिया मंडी' की विश्वसनीयता भी तब पुर्नस्थापित होगी। समाज पर मीडिया के निर्विवाद प्रभाव के आलोक में ऐसा सफाई अभियान, सच पूछिए तो लोकतंत्र की पुकार हैं।
अब चुनौती 'मीडिया' को, चुनौती उसकी अंतरात्मा को कि वह लोकतंत्र की मूल आत्मा के साथ कदमताल करना चाहेगी अथवा निहित स्वार्थी 'धनपशुओं' की इच्छापूर्तिकर्ता बनना चाहेगी?
देश फैसले के लिए प्रतीक्षारत है।
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