आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है !
है तो यह पुरानी कहावत, किन्तु इसकी प्रासंगिकता समाज के हर क्षेत्र में आज भी मौजूद है। इसी कड़ी में अद्भुत व्यवहारिक दृष्टिकोण के धारक केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का उल्लेख समचीनी होगा। अपने विशेष अंदाज में सम-सामयिक मुद्दों पर दो टूक राय रखने वाले गडकरी जब कहते हैं कि, अदालतों को अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और यह कि भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) निजी और शासकीय चिकित्सा महाविद्यालयों को बंद करने का प्रयास कर रही है, तो यह एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाता है।
जहां तक अदालतों की मर्यादा का सवाल है, उनकी कथित 'अति सक्रियता' के आलोक में समाज के अनेक तबकों में आचोलनाएं-समालोचनाएं होती रही हैं। न्यायपालिका के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद अनेक फैसलों पर चिंतक अपनी प्रतिकूल राय देते रहे हैं। उद्देश्य न्यायपालिका की अवमानना न होकर ध्यानाकर्षण होते हैं। कभी-कभी संभावित प्रतिकूल राष्ट्रीय प्रभाव को लेकर चेतावनियां भी।
नितिन गडकरी ने कोई नई बात नहीं कही। इसके पूर्व देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने संविधान संशोधन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के एक प्रतिकूल निर्णय पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, न्याय पालिका को अपनी सीमा नहीं भूलनी चाहिए। नेहरु के शब्द और तेवर तल्ख थे। दो टूक शब्दों में उन्होंने कहा था कि ''सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका संसद की सार्वभौम इच्छा आधारित फैसलों के मार्ग में नहीं आ सकती। संसद सभी समुदायों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। अगर हम यहां-वहां कुछ गलती करते हैं तो वे ध्यान आकर्षित कर सकते हैं किंतु, जहां समुदाय के भविष्य का सवाल है, कोई न्याय पालिका मार्ग में नहीं आ सकती। पूरा का पूरा संविधान संसद की देन है... कोई अदालत, न्यायपालिका की कोई व्यवस्था किसी तीसरे संसद की तरह काम नहीं कर सकती......अत: न्यायपालिका को इस सीमा के अंदर ही काम करना चाहिए......। '' नेहरु की चेतावनी तब एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनी थी। न्यायपालिक से इतर पूरे देश में नेहरु की भावना को आदर मिला था।
गडकरी ने भी न्याय पालिका को उसकी सीमा की याद दिलाते हुए यह बताने की कोशिश की है कि अदालती फैसले जमीनी हकीकत के आलोक में होने चाहिए। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिस पर राजनीतिक रुप से भिन्न-मतधारक भी गडकरी का साथ देंगे।
देश-समाज आज एक बिलकुल भिन्न न्यायायिक वातावरण का अहसास कर रहा है। स्कूल-कालेजों में दाखिले से लेकर अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था साफ-सफाई, मोहल्ले-टोलों में बिजली आपूर्ति की उपलब्धता, पेयजल संकट, रोजगार, नारी-सुरक्षा सम्मान आदि-आदि में भी प्रतिदिन अदालती हस्तक्षेप के उदाहरण सामने आ रहे हैं। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, नियुक्तियां आदि अन्य मामले तो आम हैं ही। एक धारणा सी बन गई है कि लोकतंत्र के अन्य दो स्तंभ विधायिका और कार्यपालिका की विफलता के कारण न्यायपालिका को सामने आकर हस्तक्षेप करना पड़ता है। इस तर्क में दम तो है किंतु सच यह भी है कि समय-समय पर कुछ ऐसे अदालती फैसले सामने आए हैं जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर के होते हैं।
गडकरी ने जिस संदर्भ में न्याय पालिका पर टिप्पणी की है वह गौरतलब है। राज्य में चिकित्सा महाविद्यालयों व चिकित्सकों को लेकर कई बार ऐसे अदालती आदेश आते हैं जिस कारण चिकित्सा महाविद्यालयों में ना केवल दाखिले प्रभावित होते हैं बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सक उपलब्ध नहीं हो पाते। क्या उन क्षेत्रों के रहवासी मनुष्य नहीं हैं ? उन्हें वैद्यकीय चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती? किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह विषमता एक प्रशासकीय कलंक मानी जाएगी। कानूनी दावंपेच या और साफगोई से काम लिया जाये तो यह कहने में कतई संकोच नहीं कि अपने प्रभाव का उपयोग कर चिकित्सक न केवल ऐसे पदास्थापना पर अदालती रोक का आदेश प्राप्त कर लेते हैं, बल्कि मनपसंद पदास्थापन भी प्राप्त कर लेते हैं। दाखिला संबंधी परीक्षाओं और उनमें आरक्षण को लेकर अदालती आदेशों से भी व्यवधान पैदा होते रहे हैं। अनेक प्रशासकीय निर्णय पर अंतरिम अदालती रोक एक प्रचलन बन गया है। चिकित्सा महाविद्यालयों एवं चिकित्सा केंद्रों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति तब दीर्घकालिक बन जाती है जब अदालती हस्तक्षेप शुरू हो जाते हैं। कानून की पुस्तकों से जटिल पेचीदगियां निकाल अधिवक्ता अदालत को जमीनी हकीकत से दूर रखने में सफल हो जाते हैं। नतीजतन कानूनी प्रावधानों से बंधी अदालतें अपने फैसलों के कारण समय-समय पर अव्यवहारिक निर्णय की दोषी बन जाती हैं, शिकार बनता है समाज, जिस न्याय मंदिर से समाज न्याय की अपेक्षा करता है वह इस मंदिर के न्यायिक घंटों के शोर में अपनी आवाज को दबा देख सिसकने को मजबूर हो जाता है।
आज पूरे देश में परिवर्तन की एक लहर सी चल रही है, वाजिब ही नहीं देश हित में होगा कि वर्तमान न्याय प्रणाली की आमूलचूल समीक्षा कर एक नई परिवर्तित न्यायपालिका को निखारा जाये। ध्यान रहे कल्याणकारी भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता और लचीलापन अनिवार्य है। इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। संसद की सर्वोच्चता के बावजूद उसके द्वारा बनाए गये नियम-कानूनों की संवैधानिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को तो है किंतु, फैसलों को व्यवहारिक बनाने के लिए जमीनी हकीकत को हमेशा ध्यान में रखना होगा। भारतीय लोकतंत्र, समानता और विकास का आग्रही है। विषमता और पक्षपात लोकतंत्र के लिए घातक हैं। न्यायपालिक इन जरुरतों को नजरअंदाज ना करें। अन्यथा, इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा गलियों-सड़कों पर होने लगेगी और तब 'नियंत्रण' को लेकर एक नई खतरनाक बहस शुरु हो जाएगी। अत: सावधान न्यायपालिका, सावधान कार्यपालिका और सावधान संसद !
है तो यह पुरानी कहावत, किन्तु इसकी प्रासंगिकता समाज के हर क्षेत्र में आज भी मौजूद है। इसी कड़ी में अद्भुत व्यवहारिक दृष्टिकोण के धारक केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का उल्लेख समचीनी होगा। अपने विशेष अंदाज में सम-सामयिक मुद्दों पर दो टूक राय रखने वाले गडकरी जब कहते हैं कि, अदालतों को अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और यह कि भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) निजी और शासकीय चिकित्सा महाविद्यालयों को बंद करने का प्रयास कर रही है, तो यह एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाता है।
जहां तक अदालतों की मर्यादा का सवाल है, उनकी कथित 'अति सक्रियता' के आलोक में समाज के अनेक तबकों में आचोलनाएं-समालोचनाएं होती रही हैं। न्यायपालिका के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद अनेक फैसलों पर चिंतक अपनी प्रतिकूल राय देते रहे हैं। उद्देश्य न्यायपालिका की अवमानना न होकर ध्यानाकर्षण होते हैं। कभी-कभी संभावित प्रतिकूल राष्ट्रीय प्रभाव को लेकर चेतावनियां भी।
नितिन गडकरी ने कोई नई बात नहीं कही। इसके पूर्व देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने संविधान संशोधन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के एक प्रतिकूल निर्णय पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, न्याय पालिका को अपनी सीमा नहीं भूलनी चाहिए। नेहरु के शब्द और तेवर तल्ख थे। दो टूक शब्दों में उन्होंने कहा था कि ''सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका संसद की सार्वभौम इच्छा आधारित फैसलों के मार्ग में नहीं आ सकती। संसद सभी समुदायों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। अगर हम यहां-वहां कुछ गलती करते हैं तो वे ध्यान आकर्षित कर सकते हैं किंतु, जहां समुदाय के भविष्य का सवाल है, कोई न्याय पालिका मार्ग में नहीं आ सकती। पूरा का पूरा संविधान संसद की देन है... कोई अदालत, न्यायपालिका की कोई व्यवस्था किसी तीसरे संसद की तरह काम नहीं कर सकती......अत: न्यायपालिका को इस सीमा के अंदर ही काम करना चाहिए......। '' नेहरु की चेतावनी तब एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनी थी। न्यायपालिक से इतर पूरे देश में नेहरु की भावना को आदर मिला था।
गडकरी ने भी न्याय पालिका को उसकी सीमा की याद दिलाते हुए यह बताने की कोशिश की है कि अदालती फैसले जमीनी हकीकत के आलोक में होने चाहिए। यह एक ऐसा कड़वा सच है जिस पर राजनीतिक रुप से भिन्न-मतधारक भी गडकरी का साथ देंगे।
देश-समाज आज एक बिलकुल भिन्न न्यायायिक वातावरण का अहसास कर रहा है। स्कूल-कालेजों में दाखिले से लेकर अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था साफ-सफाई, मोहल्ले-टोलों में बिजली आपूर्ति की उपलब्धता, पेयजल संकट, रोजगार, नारी-सुरक्षा सम्मान आदि-आदि में भी प्रतिदिन अदालती हस्तक्षेप के उदाहरण सामने आ रहे हैं। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, नियुक्तियां आदि अन्य मामले तो आम हैं ही। एक धारणा सी बन गई है कि लोकतंत्र के अन्य दो स्तंभ विधायिका और कार्यपालिका की विफलता के कारण न्यायपालिका को सामने आकर हस्तक्षेप करना पड़ता है। इस तर्क में दम तो है किंतु सच यह भी है कि समय-समय पर कुछ ऐसे अदालती फैसले सामने आए हैं जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर के होते हैं।
गडकरी ने जिस संदर्भ में न्याय पालिका पर टिप्पणी की है वह गौरतलब है। राज्य में चिकित्सा महाविद्यालयों व चिकित्सकों को लेकर कई बार ऐसे अदालती आदेश आते हैं जिस कारण चिकित्सा महाविद्यालयों में ना केवल दाखिले प्रभावित होते हैं बल्कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सक उपलब्ध नहीं हो पाते। क्या उन क्षेत्रों के रहवासी मनुष्य नहीं हैं ? उन्हें वैद्यकीय चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती? किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह विषमता एक प्रशासकीय कलंक मानी जाएगी। कानूनी दावंपेच या और साफगोई से काम लिया जाये तो यह कहने में कतई संकोच नहीं कि अपने प्रभाव का उपयोग कर चिकित्सक न केवल ऐसे पदास्थापना पर अदालती रोक का आदेश प्राप्त कर लेते हैं, बल्कि मनपसंद पदास्थापन भी प्राप्त कर लेते हैं। दाखिला संबंधी परीक्षाओं और उनमें आरक्षण को लेकर अदालती आदेशों से भी व्यवधान पैदा होते रहे हैं। अनेक प्रशासकीय निर्णय पर अंतरिम अदालती रोक एक प्रचलन बन गया है। चिकित्सा महाविद्यालयों एवं चिकित्सा केंद्रों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति तब दीर्घकालिक बन जाती है जब अदालती हस्तक्षेप शुरू हो जाते हैं। कानून की पुस्तकों से जटिल पेचीदगियां निकाल अधिवक्ता अदालत को जमीनी हकीकत से दूर रखने में सफल हो जाते हैं। नतीजतन कानूनी प्रावधानों से बंधी अदालतें अपने फैसलों के कारण समय-समय पर अव्यवहारिक निर्णय की दोषी बन जाती हैं, शिकार बनता है समाज, जिस न्याय मंदिर से समाज न्याय की अपेक्षा करता है वह इस मंदिर के न्यायिक घंटों के शोर में अपनी आवाज को दबा देख सिसकने को मजबूर हो जाता है।
आज पूरे देश में परिवर्तन की एक लहर सी चल रही है, वाजिब ही नहीं देश हित में होगा कि वर्तमान न्याय प्रणाली की आमूलचूल समीक्षा कर एक नई परिवर्तित न्यायपालिका को निखारा जाये। ध्यान रहे कल्याणकारी भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता और लचीलापन अनिवार्य है। इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। संसद की सर्वोच्चता के बावजूद उसके द्वारा बनाए गये नियम-कानूनों की संवैधानिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को तो है किंतु, फैसलों को व्यवहारिक बनाने के लिए जमीनी हकीकत को हमेशा ध्यान में रखना होगा। भारतीय लोकतंत्र, समानता और विकास का आग्रही है। विषमता और पक्षपात लोकतंत्र के लिए घातक हैं। न्यायपालिक इन जरुरतों को नजरअंदाज ना करें। अन्यथा, इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा गलियों-सड़कों पर होने लगेगी और तब 'नियंत्रण' को लेकर एक नई खतरनाक बहस शुरु हो जाएगी। अत: सावधान न्यायपालिका, सावधान कार्यपालिका और सावधान संसद !
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