'मीडिया मंडी' के चौकीदार खुश हैं कि उनके अंगने में काला नकाब पहन नाचने और नचाने वाले मीडिया कर्मियों के चेहरे बेनकाब किये जा रहे हैं। कानून ने सही काम किया तो ये मुखौटाधारी जेल भी जा सकते हैं। पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत को ताक पर रख सत्तादेवी के साथ शयनकक्ष में रासलीला रचाने वाले ऐसे मीडिया विरोधी अराजक तत्वों को सजा मिले ये सभी चाहते हैं। कम से कम मीडिया पर विश्वास रखने वाला समाज तो यही चाहता है, लेकिन इस मुकाम पर सावधानी की भी जरुरत है। मीडिया कर्मी अथवा पत्रकार अगर अनैतिक कृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, तो उसका खामियाजा उन मीडिया संस्थानों को भी भुगतना पड़ता है, जिससे वे जुड़े हुए हैं। जबकि यह आवश्यक नहीं कि पत्रकारों के काले कारनामों में संचालक भी भागीदार हों ही। हां, अगर उनकी भागीदारी भी स्थापित होती है तो सजा उन्हें भी मिले। सावधानी इसीलिए जरुरी है। निष्पक्ष व्यापक जांच न्याय की मांग है। आलोच्य मामला भी इस आवश्यकता का आग्रही है।
खबर मिली है कि, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के चर्चित वीडियो कांड प्रकरण में तीन मीडिया संस्थानों, 'जी न्यूज', 'इंडिया न्यूज' और 'न्यूज एक्स' के खिलाफ गुनाह दर्ज करने के लिए दिल्ली सरकार ने अदालत का दरबाजा खटखटाया है। दिल्ली सरकार का आरोप है कि इन तीन मीडिया संस्थानों में वीडियो के साथ छेडछाड़ कर जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष तथा स्वयं जेएनयू के खिलाफ साजिश रच उन्हें फंसाने और बदनाम करने की कोशिश की। 'जी न्यूज' द्वारा दिखाए गये वीडियो के आधार पर ही दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया था। अब अगर अदालत इसे मान लेती है कि, वीडियो फर्जी था या उसके साथ छेड़छाड़ हुई थी, तब निश्चय ही मीडिया संस्थान दंडित किये जाएंगे।
इस बिंदु पर अहम सवाल यह कि मीडिया संस्थानों के इस फर्जीवाड़े की जिम्मेदारी किस पर? क्या संस्थान के संपादकीय विभाग ने किसी साजिश के तहत या संचालकों के निर्देश पर फर्जीवाड़ा किया? इसकी छानबीन कर सच्चाई सामने लाया जाना जरुरी है। जिम्मेदारी सुनिश्चत करनी होगी कि फर्जीवाड़े के लिए दोषी संपादक है या मालिक। आम लोग इस पर अपने-अपने ढंग से कयास लगाते हैं। कुछ यह मान कर चलते हैं कि पत्रकार अपने निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए सत्ता-शासन के साथ साठगांठ कर उसके इशारे पर ऐसे फर्जीवाड़े को अंजाम देते हैं। इससे पत्रकार जहां आर्थिक व अन्य लाभ प्राप्त करते हैं, वहीं सत्ता अपना राजनीतिक स्वार्थ साध लेती है। दूसरा पक्ष यह मानता है कि उच्च स्तर पर मीडिया संस्थान के मालिक सत्ता-शासन के साथ सौदेबाजी कर अपने संपादकीय विभाग द्वारा अपने मन की कर गुजरते हैं। क्या जेएनयू प्रकरण भी ऐसी साजिश का शिकार हुआ है? जिन मीडिया संस्थानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की पहल की गई है, पहले उनके संपादकों और मालिकों के पाश्र्व की चर्चा करनी चाहिए। किसी भी कानूनी संज्ञान के पूर्व ऐसा करना तर्क संगत है।
पहले चर्चा 'जी न्यूज' की। इसके संपादक पूर्व में कथित वसूली के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं, जेल जा चुके हैं। मामला अभी भी अदालत में लंबित है। 'जी न्यूज' के पूर्व जिस मीडिया संस्थान से ये संपादक जुड़े थे, वहां भी एक फर्जी स्टिंग का आरोप इन पर लग चुका था। तब भी मामले ने काफी तूल पकड़ा था और पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा था। महिला संगठनों के निशाने पर भी तब ये संपादक आये थे। यहां तक कि उक्त मीडिया संस्थान का लाइलेंस भी कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया गया था। संपादक भी संस्थान से तब निकाल बाहर कर दिये गये थे। पूरी घटना से आहत मीडिया संस्थान के निर्दोष मालिक ने कुछ दिनों बाद अपने चैनल को ही बेच दिया। संपादक के दोष का खामियाजा मालिक को भुगतना पड़ा। 'जी न्यूज' में भी कथित वसूली के मामले में संपादक तो गिरफ्तार हुये, आरोपी मालिक भी बनाए गये। उन्हें जमानत लेनी पड़ी। अदालती फैसला आने के बाद पता चल पाएगा कि दोषी संपादक है या मालिक। जेएनयू के कथित फर्जी वीडियो प्रकरण में अगर मामले पर अदालत ने संज्ञान लेते हुए पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया तो संभवत: फैसले में यह भी तय हो जाएगा कि असली दोषी कौन है? बहरहाल संपादक का अतीत उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर रहा है।
'इंडिया न्यूज' का मामला भी कुछ ऐसा ही है। हालांकि 'इंडिया न्यूज' ने 'जी न्यूज' के फुटेज को सही मानते हुए उसका प्रसारण कर दिया। यहां पर जिम्मेदार संपादकीय कक्ष अर्थात संपादक है। उन्होंने अपनी बुद्धि व विवेक का इस्तेमाल करने में चूक की। संभवत: संपादक अपनी पूर्वाग्रही विचारधारा के कारण जानबूझकर ऐसा कर गुजरे। इनका अतीत भी इनके खिलाफ है। 'इंडिया न्यूज' के पूर्व जिस संस्थान से जुड़े थे, वहां भी मुलायम सिंह यादव के आय से अधिक संपत्ति के मामले में फर्जीवाड़ा कर समाचार प्रसारित करने का आरोप इन पर लग चुका है। उक्त संस्थान से इन संपादक की छुट्टी भी इसी कारण हुई थी। अपनी विचारधारा को खबरों पर थोपने में माहिर ये संपादक सत्ता-सुविधाभोगी रहे हैं। सत्ता की कृपा से सुविधा जुटा अत्यधिक 'सुखी' बन बैठे ये संपादक अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए संस्थान के मंच का उपयोग-दुरुपयोग करने से नहीं चूकते। अनेक आरोप लग चुके हैं इन पर। ऐसे में यह अंदाज लगाना सहज है कि जेएनयू के फर्जी वीडियो प्रकरण में भी अगर 'इंडिया न्यूज' दोषी पाया जाता है तो इस संपादक के कारण ही। संस्थान के मालिक का पाश्र्व उनकी सहभागिता को नहीं दर्शाता। कुख्यात आरुषि कांड के समय भी 'इंडिया न्यूज' अपने तत्कालीन प्रधान संपादक के कारण कानूनी पचड़े में फंस चुका था। भारत सरकार ने चैनल का लाइसेंस रद्द करने के लिए कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था। तब संस्थान के मालिक ने आंतरिक जांच कर संपादकीय के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। संस्थान बच गया था। लेकिन यह एक ऐसा उदाहरण है जो इस तथ्य को चिन्हित करता है कि वर्तमान जेएनयू मामले में भी पूर्व की तरह 'इंडिया न्यूज' का संपादकीय कक्ष ही जिम्मेदार है-मालिक नहीं।
तो यह एक गंभीर सवाल खड़ा करता है कि क्या पत्रकारीय स्वतंत्रता के नाम पर संपादकीय कक्ष को निज स्वार्थपूर्ति के लिए इतनी छूट मिल जाये कि वे संस्थान का दुरुपयोग करते रहें और बदनामी के खाते में मालिक भी घसीटे जायें। निष्पक्ष न्याय का तकाजा है कि योग्यता के आधार पर 'मीडिया मंडी' में फल-फूल रहे इस अपराध के असली अपराधियों की पहचान की जाये। दंडित दोषी हों, निर्दोष नहीं!
खबर मिली है कि, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के चर्चित वीडियो कांड प्रकरण में तीन मीडिया संस्थानों, 'जी न्यूज', 'इंडिया न्यूज' और 'न्यूज एक्स' के खिलाफ गुनाह दर्ज करने के लिए दिल्ली सरकार ने अदालत का दरबाजा खटखटाया है। दिल्ली सरकार का आरोप है कि इन तीन मीडिया संस्थानों में वीडियो के साथ छेडछाड़ कर जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष तथा स्वयं जेएनयू के खिलाफ साजिश रच उन्हें फंसाने और बदनाम करने की कोशिश की। 'जी न्यूज' द्वारा दिखाए गये वीडियो के आधार पर ही दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया था। अब अगर अदालत इसे मान लेती है कि, वीडियो फर्जी था या उसके साथ छेड़छाड़ हुई थी, तब निश्चय ही मीडिया संस्थान दंडित किये जाएंगे।
इस बिंदु पर अहम सवाल यह कि मीडिया संस्थानों के इस फर्जीवाड़े की जिम्मेदारी किस पर? क्या संस्थान के संपादकीय विभाग ने किसी साजिश के तहत या संचालकों के निर्देश पर फर्जीवाड़ा किया? इसकी छानबीन कर सच्चाई सामने लाया जाना जरुरी है। जिम्मेदारी सुनिश्चत करनी होगी कि फर्जीवाड़े के लिए दोषी संपादक है या मालिक। आम लोग इस पर अपने-अपने ढंग से कयास लगाते हैं। कुछ यह मान कर चलते हैं कि पत्रकार अपने निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए सत्ता-शासन के साथ साठगांठ कर उसके इशारे पर ऐसे फर्जीवाड़े को अंजाम देते हैं। इससे पत्रकार जहां आर्थिक व अन्य लाभ प्राप्त करते हैं, वहीं सत्ता अपना राजनीतिक स्वार्थ साध लेती है। दूसरा पक्ष यह मानता है कि उच्च स्तर पर मीडिया संस्थान के मालिक सत्ता-शासन के साथ सौदेबाजी कर अपने संपादकीय विभाग द्वारा अपने मन की कर गुजरते हैं। क्या जेएनयू प्रकरण भी ऐसी साजिश का शिकार हुआ है? जिन मीडिया संस्थानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की पहल की गई है, पहले उनके संपादकों और मालिकों के पाश्र्व की चर्चा करनी चाहिए। किसी भी कानूनी संज्ञान के पूर्व ऐसा करना तर्क संगत है।
पहले चर्चा 'जी न्यूज' की। इसके संपादक पूर्व में कथित वसूली के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं, जेल जा चुके हैं। मामला अभी भी अदालत में लंबित है। 'जी न्यूज' के पूर्व जिस मीडिया संस्थान से ये संपादक जुड़े थे, वहां भी एक फर्जी स्टिंग का आरोप इन पर लग चुका था। तब भी मामले ने काफी तूल पकड़ा था और पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा था। महिला संगठनों के निशाने पर भी तब ये संपादक आये थे। यहां तक कि उक्त मीडिया संस्थान का लाइलेंस भी कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया गया था। संपादक भी संस्थान से तब निकाल बाहर कर दिये गये थे। पूरी घटना से आहत मीडिया संस्थान के निर्दोष मालिक ने कुछ दिनों बाद अपने चैनल को ही बेच दिया। संपादक के दोष का खामियाजा मालिक को भुगतना पड़ा। 'जी न्यूज' में भी कथित वसूली के मामले में संपादक तो गिरफ्तार हुये, आरोपी मालिक भी बनाए गये। उन्हें जमानत लेनी पड़ी। अदालती फैसला आने के बाद पता चल पाएगा कि दोषी संपादक है या मालिक। जेएनयू के कथित फर्जी वीडियो प्रकरण में अगर मामले पर अदालत ने संज्ञान लेते हुए पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया तो संभवत: फैसले में यह भी तय हो जाएगा कि असली दोषी कौन है? बहरहाल संपादक का अतीत उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर रहा है।
'इंडिया न्यूज' का मामला भी कुछ ऐसा ही है। हालांकि 'इंडिया न्यूज' ने 'जी न्यूज' के फुटेज को सही मानते हुए उसका प्रसारण कर दिया। यहां पर जिम्मेदार संपादकीय कक्ष अर्थात संपादक है। उन्होंने अपनी बुद्धि व विवेक का इस्तेमाल करने में चूक की। संभवत: संपादक अपनी पूर्वाग्रही विचारधारा के कारण जानबूझकर ऐसा कर गुजरे। इनका अतीत भी इनके खिलाफ है। 'इंडिया न्यूज' के पूर्व जिस संस्थान से जुड़े थे, वहां भी मुलायम सिंह यादव के आय से अधिक संपत्ति के मामले में फर्जीवाड़ा कर समाचार प्रसारित करने का आरोप इन पर लग चुका है। उक्त संस्थान से इन संपादक की छुट्टी भी इसी कारण हुई थी। अपनी विचारधारा को खबरों पर थोपने में माहिर ये संपादक सत्ता-सुविधाभोगी रहे हैं। सत्ता की कृपा से सुविधा जुटा अत्यधिक 'सुखी' बन बैठे ये संपादक अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए संस्थान के मंच का उपयोग-दुरुपयोग करने से नहीं चूकते। अनेक आरोप लग चुके हैं इन पर। ऐसे में यह अंदाज लगाना सहज है कि जेएनयू के फर्जी वीडियो प्रकरण में भी अगर 'इंडिया न्यूज' दोषी पाया जाता है तो इस संपादक के कारण ही। संस्थान के मालिक का पाश्र्व उनकी सहभागिता को नहीं दर्शाता। कुख्यात आरुषि कांड के समय भी 'इंडिया न्यूज' अपने तत्कालीन प्रधान संपादक के कारण कानूनी पचड़े में फंस चुका था। भारत सरकार ने चैनल का लाइसेंस रद्द करने के लिए कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था। तब संस्थान के मालिक ने आंतरिक जांच कर संपादकीय के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। संस्थान बच गया था। लेकिन यह एक ऐसा उदाहरण है जो इस तथ्य को चिन्हित करता है कि वर्तमान जेएनयू मामले में भी पूर्व की तरह 'इंडिया न्यूज' का संपादकीय कक्ष ही जिम्मेदार है-मालिक नहीं।
तो यह एक गंभीर सवाल खड़ा करता है कि क्या पत्रकारीय स्वतंत्रता के नाम पर संपादकीय कक्ष को निज स्वार्थपूर्ति के लिए इतनी छूट मिल जाये कि वे संस्थान का दुरुपयोग करते रहें और बदनामी के खाते में मालिक भी घसीटे जायें। निष्पक्ष न्याय का तकाजा है कि योग्यता के आधार पर 'मीडिया मंडी' में फल-फूल रहे इस अपराध के असली अपराधियों की पहचान की जाये। दंडित दोषी हों, निर्दोष नहीं!
1 comment:
पहले उनके संपादकों और मालिकों के पाश्र्व की चर्चा करनी चाहिए।
पाश्र्व ??
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