इन नारों के सर्जक भूल जाते हैं कि भारतीय लोकतंत्र ऐसे नारों को स्वीकृति प्रदान नहीं करता। संसदीय लोकतंत्र में आरोप-प्रत्यारोप तो स्वभाविक हैं किंतु, बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी के अस्तित्व समाप्ति की सार्वजनिक घोषणाएं लोकतांत्रिक भावना के विपरीत हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तब सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने आक्रामक अभियान चलाकर 'कांग्रेस मुक्त' भारत का आह्वान किया था। स्वयं नरेंद्र मोदी अपनी आक्रामक शैली में इस नारे को पूरे देश में प्रचारित करते रहे। राजनीतिक रुप से उन्हें प्रतिसाद मिला और चुनावी सफलता के रूप में विशाल बहुमत। कांग्रेस का अस्तित्व तो समाप्त नहीं हुआ किंतु वह कुछ सीटों पर सिकुड़ बौना बनकर रह गई। सत्ता सिंहासन पर विराजमान हो भारतीय जनता पार्टी ने देश में कांग्रेस युग की समाप्ति की घोषणा कर डाली। देश चिंतित था कि एक कमजोर विपक्ष की मौजूदगी में लोकतंत्र सफल कैसे हो पाएगा। शंकाएं व्यक्त की गई कि विशाल बहुमत प्राप्त भारतीय जनता पार्टी कहीं निरंकुश शासक न बन बैठे। लेकिन बहुत जल्द लोगों ने देखा कि कमजोर, बौनी कांग्रेस विपक्ष के रूप में सत्तारुढ़ भाजपा की नींद उड़ाने में सफल होती गई। यही विशेषता भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बताने में नहीं हिचकिचाती। भारत की जनता की पैनी नजरें पक्ष-विपक्ष पर लगी हुई हैं। 'कांग्रेस मुक्त' भारत के नारे की परिणति पर भी उसकी दृष्टि केंद्रित है।
दूसरा नारा, 'संघ मुक्त भारत' का औचित्य विवादास्पद है। संघ, अर्थात, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कोई राजनीतिक दल नहीं, एक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है। उसके लक्ष्य- सिद्धांत को लेकर बहसें हो सकती हैं किंतु, सत्ता की राजनीति के साथ उसे जोड़ा जाना उचित नहीं है। कांग्रेस के खिलाफ नारे के जवाब में किसी राजनीतिक दल को सामने न खड़ा कर संघ को खड़ा किया जाना स्वयं में हास्यास्पद है। विचारधारा के आधार पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का संघ के साथ तालमेल हो सकता है किंतु, सत्ता संचालन में नहीं। राष्ट्रीय मुद्दों पर अथवा राष्ट्रहित में सत्तापक्ष किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था के साथ विचार-विमर्श के लिए स्वतंत्र है। संघ अपवाद नहीं हो सकता। संघ की ओर से इस बिंदू पर बार-बार स्पष्टीकरण दिये जाने के बावजूद भाजपा पर आक्रमण के लिए विपक्ष द्वारा संघ को निशाने पर लिया जाना बौद्धिक दिवालियेपन के समकक्ष है। बेहतर हो, विपक्ष राजनीतिक स्तर पर भाजपा के विरोध के लिए भाजपा की नीतियों को निशाने पर लें, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं।
दूसरा नारा, 'संघ मुक्त भारत' का औचित्य विवादास्पद है। संघ, अर्थात, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कोई राजनीतिक दल नहीं, एक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है। उसके लक्ष्य- सिद्धांत को लेकर बहसें हो सकती हैं किंतु, सत्ता की राजनीति के साथ उसे जोड़ा जाना उचित नहीं है। कांग्रेस के खिलाफ नारे के जवाब में किसी राजनीतिक दल को सामने न खड़ा कर संघ को खड़ा किया जाना स्वयं में हास्यास्पद है। विचारधारा के आधार पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का संघ के साथ तालमेल हो सकता है किंतु, सत्ता संचालन में नहीं। राष्ट्रीय मुद्दों पर अथवा राष्ट्रहित में सत्तापक्ष किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था के साथ विचार-विमर्श के लिए स्वतंत्र है। संघ अपवाद नहीं हो सकता। संघ की ओर से इस बिंदू पर बार-बार स्पष्टीकरण दिये जाने के बावजूद भाजपा पर आक्रमण के लिए विपक्ष द्वारा संघ को निशाने पर लिया जाना बौद्धिक दिवालियेपन के समकक्ष है। बेहतर हो, विपक्ष राजनीतिक स्तर पर भाजपा के विरोध के लिए भाजपा की नीतियों को निशाने पर लें, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं।
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