चौराहे पर एक मित्र मिल गये।
पूछ बैठे,'..आपने कपड़े क्यों नहीं पहने?' मैं अवाक! जवाब दिया.. 'पहन तो रखा हूं!' मित्र नहीं माने। बोले, '...उतार कर दिखाओ!' मैंने कपड़े उतार उनके सामने रख दिये। तत्काल मीडिया पर खबर चलने लगी कि मैं चौराहे पर नंगा खड़ा दिखा।
ठीक यही स्थिति आज राजदलों की है। राजनेताओं की है। विभिन्न संगठनों की है और मीडिया की है। खबर तैयार करने के लिए कभी भी किसी से कपड़े उतरवा दें। विवाद पैदा करवा बहसें शुरू करवा दें। परिणाम स्वरुप चाहे देश-समाज चौराहे पर नंगा दिखे कोई परवाह नहीं। विवाद पैदा होने चाहिए, खबरें बननी चाहिए। अब प्रमाणित मुझे करना होगा कि मैंने कपड़े पहन रखे थे। नंगा तो मुझे किया गया।
विवादों की कड़ी में यह नया विवाद किसी भी कोण से सामाजिक एकता अथवा सांप्रदायिक सौहाद्र्र को मजबूत करने वाला नहीं है। हालांकि विवाद पैदा करने वाले इसे राष्ट्रीय एकता, सम्मान व अखंडता से जोड़ रहे हैं। हां, मैं बात कर रहा हूं ताजातरीन 'भारत की माता की जय' विवाद की। सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता और देशभक्त बनाम देशद्रोही विवाद की दुखद परिणति के बाद 'भारत माता की जय' विवाद की उत्पत्ति की परिणति भी कोई सुखद होने वाली नहीं। इस सत्य की मौजूदगी के बावजूद अगर विवाद खड़ा किया गया है तो जाहिर है कि अकारण नहीं। कौन व क्यों खड़ा कर रहा है इन विवादों को? उद्देश्य क्या है? चूंकि, ये सभी विवाद उस खेमे से पैदा हुए हैं जो भारत,भारती और भारतीयता के पोषक व संरक्षक होने का दावा करते हैं, उद्देश्य दूरगामी परिणाम वाले ही हो सकते हैं। परंतु मेरी चिंता फिलहाल इन विवादों के कारण वर्तमान पर पड़ रहे अरुचिकर बल्कि खतरनाक परिणाम को लेकर है।
यह दोहराना ही होगा कि 'भारत माता की जय' का नारा अंग्रेजों के शासनकाल में गुलामी से मुक्ति के लिए 'संग्राम' में लिप्त आजादी के दीवानों के बीच जोश भरने वाला नारा था। अविभाजित भारत में हिन्दू, मुसलमान सहित अन्य धर्मांवलंबी भी आजादी के पक्ष में जोश - खरोश के साथ इस नारे को बुलंद किया करते थे। किसी को भी आपत्ति नहीं थी। धरती अर्थात मातृभूमि को 'भारत माता' के रुप में चिन्हित कर जय-जय कार हुआ करता था। कभी कोई विरोध नहीं, कोई विवाद नहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरु की बहुचर्चित पुस्तक ' डिस्कवरी आफ इंडिया' में इस सत्य का, इस तथ्य का उल्लेख है। फिर आज, आजादी के लगभग 7 दशक बाद अचानक इस नारे को विवाद को घेरे में क्यों, कैसे और किसने ला दिया ?
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में दुखद कन्हैया प्रकरण से शुरू होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और फिर असदुद्दीन ओवैसी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस, योग गुरु बाबा रामदेव और अब भैयाजी जोशी! बात ने बतंगड़ का रुप ले लिया। कन्हैया प्रकरण के बाद मोहन भागवत ने सिर्फ दु:ख प्रकट किया था कि आज युवा पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति प्रेम अथवा भक्ति के महत्व को बताने की जरुरत क्यों आ पड़ी है? यह तो स्वभाविक रूप से होना चाहिए था। बात आगे बढ़ी और ओवैसी ने अपने खास भड़काऊ अंदाज में 'भारत माता की जय' के विरोध में बयान दे डाला। मामले की गूंज, अशोभनीय प्रतिक्रिया महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश विधानसभाओं में देखने को मिली। पूरे देश में जिस प्रकार इस एक नारे ने विभाजन की एक रेखा खींच डाली है, उससे सिवाय नुकसान के कोई लाभ होने वाला नहीं। ओवैसी का कथन कि चाहे 'मेरी गर्दन पर कोई छुरी भी रख दे मैं 'भारत माता की जय' नहीं बोलूंगा', सांप्रदायिक अवसाद से लवरेज है। प्रत्युत्तर में योगगुरु बाबा रामदेव का कहना कि 'अगर कानून से हाथ बंधे नहीं होते तो लाखों सिर धड़ से अलग कर देते', से भी घोर सांप्रदायिक सड़ांध आती है। आज तक कभी भी किसी ने भी 'भारत माता की जय' उद्घोष को सांप्रदायिकता के चश्मे से नहीं देखा था। फिर अब क्यों? राजनीतिक आरोप यह कि महत्वपूर्ण मुख्य मुद्दों से देश का ध्यान भटकाने के लिए ऐसे गैर मुद्दे पैदा किये जा रहे हैं। किसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए अगर अन्य किसी मुद्दे को सांप्रदायिक रूप दे खड़ा किया जाता है तो यह स्वयं में राष्ट्र विरोधी हरकत है। इस नये मुद्दे ने जिस रूप में पूरे देश में विवाद खड़ा किया है अगर इस पर तत्काल रोक नहीं लगाई गई तो परिणाम दुखद होंगे। क्योंकि, ये पूरा का पूरा मामला अब न केवल राजनीतिक बल्कि हिन्दू संस्कृति के सबसे बड़े पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारत में सबसे बड़ी इस्लामी संस्था 'दारूल उलूम देवबंद' के बीच भी टकराव का रूप ले चुका है । इसी खतरे को भांप विचारवान इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाना चाहते हैं।
संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी का बयान कि जो इस भूमि को 'भोग भूमि' मानते हैं वे ही 'भारत माता की जय' कहने से इंकार करते हैं, तथ्यों के आधार पर सही तो है किंतु भ्रम भी पैदा करता है। तपस्वियों-मुनियों की भारत भूमि को भोग भूमि निरुपित नहीं किया जाना चाहिए । यह वीरों की भूमि है, संतों-मुनियों की भूमि है और भूमि है विश्वशांति के दूतों की । ओवैसी या उनके जैसे सिरफिरे अगर इसका 'भोग भूमि' के रुप में उपभोग करना चाहते हैं तो उनके प्रति ससम्मान कहना चाहूंगा कि सचमुच उन्हें भारत की इस धरती पर रहने का हक नहीं है ।
पूछ बैठे,'..आपने कपड़े क्यों नहीं पहने?' मैं अवाक! जवाब दिया.. 'पहन तो रखा हूं!' मित्र नहीं माने। बोले, '...उतार कर दिखाओ!' मैंने कपड़े उतार उनके सामने रख दिये। तत्काल मीडिया पर खबर चलने लगी कि मैं चौराहे पर नंगा खड़ा दिखा।
ठीक यही स्थिति आज राजदलों की है। राजनेताओं की है। विभिन्न संगठनों की है और मीडिया की है। खबर तैयार करने के लिए कभी भी किसी से कपड़े उतरवा दें। विवाद पैदा करवा बहसें शुरू करवा दें। परिणाम स्वरुप चाहे देश-समाज चौराहे पर नंगा दिखे कोई परवाह नहीं। विवाद पैदा होने चाहिए, खबरें बननी चाहिए। अब प्रमाणित मुझे करना होगा कि मैंने कपड़े पहन रखे थे। नंगा तो मुझे किया गया।
विवादों की कड़ी में यह नया विवाद किसी भी कोण से सामाजिक एकता अथवा सांप्रदायिक सौहाद्र्र को मजबूत करने वाला नहीं है। हालांकि विवाद पैदा करने वाले इसे राष्ट्रीय एकता, सम्मान व अखंडता से जोड़ रहे हैं। हां, मैं बात कर रहा हूं ताजातरीन 'भारत की माता की जय' विवाद की। सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता और देशभक्त बनाम देशद्रोही विवाद की दुखद परिणति के बाद 'भारत माता की जय' विवाद की उत्पत्ति की परिणति भी कोई सुखद होने वाली नहीं। इस सत्य की मौजूदगी के बावजूद अगर विवाद खड़ा किया गया है तो जाहिर है कि अकारण नहीं। कौन व क्यों खड़ा कर रहा है इन विवादों को? उद्देश्य क्या है? चूंकि, ये सभी विवाद उस खेमे से पैदा हुए हैं जो भारत,भारती और भारतीयता के पोषक व संरक्षक होने का दावा करते हैं, उद्देश्य दूरगामी परिणाम वाले ही हो सकते हैं। परंतु मेरी चिंता फिलहाल इन विवादों के कारण वर्तमान पर पड़ रहे अरुचिकर बल्कि खतरनाक परिणाम को लेकर है।
यह दोहराना ही होगा कि 'भारत माता की जय' का नारा अंग्रेजों के शासनकाल में गुलामी से मुक्ति के लिए 'संग्राम' में लिप्त आजादी के दीवानों के बीच जोश भरने वाला नारा था। अविभाजित भारत में हिन्दू, मुसलमान सहित अन्य धर्मांवलंबी भी आजादी के पक्ष में जोश - खरोश के साथ इस नारे को बुलंद किया करते थे। किसी को भी आपत्ति नहीं थी। धरती अर्थात मातृभूमि को 'भारत माता' के रुप में चिन्हित कर जय-जय कार हुआ करता था। कभी कोई विरोध नहीं, कोई विवाद नहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरु की बहुचर्चित पुस्तक ' डिस्कवरी आफ इंडिया' में इस सत्य का, इस तथ्य का उल्लेख है। फिर आज, आजादी के लगभग 7 दशक बाद अचानक इस नारे को विवाद को घेरे में क्यों, कैसे और किसने ला दिया ?
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में दुखद कन्हैया प्रकरण से शुरू होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और फिर असदुद्दीन ओवैसी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस, योग गुरु बाबा रामदेव और अब भैयाजी जोशी! बात ने बतंगड़ का रुप ले लिया। कन्हैया प्रकरण के बाद मोहन भागवत ने सिर्फ दु:ख प्रकट किया था कि आज युवा पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति प्रेम अथवा भक्ति के महत्व को बताने की जरुरत क्यों आ पड़ी है? यह तो स्वभाविक रूप से होना चाहिए था। बात आगे बढ़ी और ओवैसी ने अपने खास भड़काऊ अंदाज में 'भारत माता की जय' के विरोध में बयान दे डाला। मामले की गूंज, अशोभनीय प्रतिक्रिया महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश विधानसभाओं में देखने को मिली। पूरे देश में जिस प्रकार इस एक नारे ने विभाजन की एक रेखा खींच डाली है, उससे सिवाय नुकसान के कोई लाभ होने वाला नहीं। ओवैसी का कथन कि चाहे 'मेरी गर्दन पर कोई छुरी भी रख दे मैं 'भारत माता की जय' नहीं बोलूंगा', सांप्रदायिक अवसाद से लवरेज है। प्रत्युत्तर में योगगुरु बाबा रामदेव का कहना कि 'अगर कानून से हाथ बंधे नहीं होते तो लाखों सिर धड़ से अलग कर देते', से भी घोर सांप्रदायिक सड़ांध आती है। आज तक कभी भी किसी ने भी 'भारत माता की जय' उद्घोष को सांप्रदायिकता के चश्मे से नहीं देखा था। फिर अब क्यों? राजनीतिक आरोप यह कि महत्वपूर्ण मुख्य मुद्दों से देश का ध्यान भटकाने के लिए ऐसे गैर मुद्दे पैदा किये जा रहे हैं। किसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए अगर अन्य किसी मुद्दे को सांप्रदायिक रूप दे खड़ा किया जाता है तो यह स्वयं में राष्ट्र विरोधी हरकत है। इस नये मुद्दे ने जिस रूप में पूरे देश में विवाद खड़ा किया है अगर इस पर तत्काल रोक नहीं लगाई गई तो परिणाम दुखद होंगे। क्योंकि, ये पूरा का पूरा मामला अब न केवल राजनीतिक बल्कि हिन्दू संस्कृति के सबसे बड़े पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारत में सबसे बड़ी इस्लामी संस्था 'दारूल उलूम देवबंद' के बीच भी टकराव का रूप ले चुका है । इसी खतरे को भांप विचारवान इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाना चाहते हैं।
संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी का बयान कि जो इस भूमि को 'भोग भूमि' मानते हैं वे ही 'भारत माता की जय' कहने से इंकार करते हैं, तथ्यों के आधार पर सही तो है किंतु भ्रम भी पैदा करता है। तपस्वियों-मुनियों की भारत भूमि को भोग भूमि निरुपित नहीं किया जाना चाहिए । यह वीरों की भूमि है, संतों-मुनियों की भूमि है और भूमि है विश्वशांति के दूतों की । ओवैसी या उनके जैसे सिरफिरे अगर इसका 'भोग भूमि' के रुप में उपभोग करना चाहते हैं तो उनके प्रति ससम्मान कहना चाहूंगा कि सचमुच उन्हें भारत की इस धरती पर रहने का हक नहीं है ।
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