यह सच एक बार फिर मोटी रेखाओं से चिन्हित हो गया कि कश्मीर घाटी का बहुमत राज्य की वर्तमान पीडीपी-भाजपा सरकार से नाराज है। नाराजगी का मुख्य कारण स्वयं मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में जिस प्रकार वोटों का ध्रुवीकरण हुआ था, संदेश मिल गया था कि घाटी और शेष जम्मू-कश्मीर का मानस भिन्न है। दुखद रूप से इस सच्चाई की उपेक्षा कर पीडीपी और भाजपा ने संयुक्त रूप से सरकार बना ली। कोई आश्चर्य नहीं कि इस सरकार में वजूद में आने के बाद से घाटी में हिंसक आतंकवादी घटानाओं में खतरनाक वृद्धि हुई है। सीमा पार से घुसपैठ की घटनाएं भी बढ़ी हैं। यही नहीं पड़ोसी पाकिस्तान की ओर से सीमा के उल्लंघन और गोलीबारी की घटनाओं में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। तनाव इतने बढ़े कि कश्मीर के मुद्दे को पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक बार फिर उठाया और चीन का साथ लेकर हमें भयभीत करने की भी कोशिश की। एनएसजी की सदस्यता के मुद्दे पर चीन द्वारा भारत विरोध और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीनी और पाकिस्तानी सेना का संयुक्त प्रदर्शन एक गंभीर घटना विकासक्रम है। और चूंकि, इन सभी के पाश्र्व में राज्य की पीडीपी -भाजपा सरकार है, इनके अस्तित्व पर बहस तो होगी ही।
बहस जारी है कि घाटी के लोगों ने भाजपा के साथ महबूबा के गठबंधन को स्वीकार नहीं किया है। वैसे यह कोई चौंकानेवाला तथ्य नहीं है, इसकी आशंका पहले से थी। भाजपा ने जहां घाटी में अपनी मौजूदगी को दर्ज करा पार्टी के विस्तार की रणनीति के तहत महबूबा से हाथ मिलाया था वहीं महबूबा ने भाजपा की मदद से राज्य को एक स्थिर सरकार देकर विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाए थे। महबूबा की गणित भाजपा की केंद्र सरकार के पाश्र्व में तैयार की गई थी। महबूबा को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार राज्य की जारी विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में तो मदद करेगी ही आर्थिक पक्ष को मजबूत करने के लिए नये-नये पैकेज भी मुहैय्या कराएगी। केंद्र सरकार ने इस दिशा में सकारात्मक रुख भी दिखलाया, प्राथमिकता के आधार पर योजनाओं की मदद के लिए कदम उठाए। भाजपा को भी उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर में विकास को गति दे शांति स्थापित की जा सकती है। सैद्धांतिक आधार पर यह सोच तो सही थी किंतु, व्यवहार के आधार पर अशांत घाटी ने इसे अस्वीकार कर दिया। चूंकि, कश्मीर घाटी में आतंकवादियों के जरिए पाकिस्तानी हित की मौजूदगी असंदिग्ध है, भाजपा के रणनीतिकार इस बिंदू पर चूक गये। वे भूल गए कि विभाजन के पश्चात ही विशेष दर्जे के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर की विभिन्न सरकारों ने विकास की दिशा में अनेक विशेष योजनाएं शुरू की थीं। अत्याधिक आर्थिक बोझ के बावजूद केंद्र सरकार ने सब्सिडी आदि के जरिए जम्मू-कश्मीर के लोगों को संतुष्ट कर शांति के साथ-साथ विकास की अपेक्षा की थी। लेकिन पाकिस्तान की बदनियति के कारण यह क्षेत्र अशांति का मैदान बन गया। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के साथ ही पाकिस्तान के शासकों की नजरें पृथ्वी के इस स्वर्ग पर गड़ी रहीं। नापाक घुसपैठ ही नहीं सेना के जरिए भी क्षेत्र को हड़पने की कोशिशें की गईं। किंतु स्वयं कश्मीरियों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को सफल नहीं होने दिया। यह तथ्य भी अपनी जगह मौजूद है। इस पाश्र्व में ही जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में शांति के उपाय ढूंढे जाने चाहिए। बातचीत के रास्ते अगर निरंतर अप्रभावी सिद्ध होते रहें तो, अन्य विकल्प के प्रयोग से भारत हिचके नहीं। क्षेत्र में स्थायी शांति के लिए यह जरूरी है।
बहस जारी है कि घाटी के लोगों ने भाजपा के साथ महबूबा के गठबंधन को स्वीकार नहीं किया है। वैसे यह कोई चौंकानेवाला तथ्य नहीं है, इसकी आशंका पहले से थी। भाजपा ने जहां घाटी में अपनी मौजूदगी को दर्ज करा पार्टी के विस्तार की रणनीति के तहत महबूबा से हाथ मिलाया था वहीं महबूबा ने भाजपा की मदद से राज्य को एक स्थिर सरकार देकर विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाए थे। महबूबा की गणित भाजपा की केंद्र सरकार के पाश्र्व में तैयार की गई थी। महबूबा को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार राज्य की जारी विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में तो मदद करेगी ही आर्थिक पक्ष को मजबूत करने के लिए नये-नये पैकेज भी मुहैय्या कराएगी। केंद्र सरकार ने इस दिशा में सकारात्मक रुख भी दिखलाया, प्राथमिकता के आधार पर योजनाओं की मदद के लिए कदम उठाए। भाजपा को भी उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर में विकास को गति दे शांति स्थापित की जा सकती है। सैद्धांतिक आधार पर यह सोच तो सही थी किंतु, व्यवहार के आधार पर अशांत घाटी ने इसे अस्वीकार कर दिया। चूंकि, कश्मीर घाटी में आतंकवादियों के जरिए पाकिस्तानी हित की मौजूदगी असंदिग्ध है, भाजपा के रणनीतिकार इस बिंदू पर चूक गये। वे भूल गए कि विभाजन के पश्चात ही विशेष दर्जे के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर की विभिन्न सरकारों ने विकास की दिशा में अनेक विशेष योजनाएं शुरू की थीं। अत्याधिक आर्थिक बोझ के बावजूद केंद्र सरकार ने सब्सिडी आदि के जरिए जम्मू-कश्मीर के लोगों को संतुष्ट कर शांति के साथ-साथ विकास की अपेक्षा की थी। लेकिन पाकिस्तान की बदनियति के कारण यह क्षेत्र अशांति का मैदान बन गया। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के साथ ही पाकिस्तान के शासकों की नजरें पृथ्वी के इस स्वर्ग पर गड़ी रहीं। नापाक घुसपैठ ही नहीं सेना के जरिए भी क्षेत्र को हड़पने की कोशिशें की गईं। किंतु स्वयं कश्मीरियों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को सफल नहीं होने दिया। यह तथ्य भी अपनी जगह मौजूद है। इस पाश्र्व में ही जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में शांति के उपाय ढूंढे जाने चाहिए। बातचीत के रास्ते अगर निरंतर अप्रभावी सिद्ध होते रहें तो, अन्य विकल्प के प्रयोग से भारत हिचके नहीं। क्षेत्र में स्थायी शांति के लिए यह जरूरी है।
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